भारत देश बना कुष्ठ रोग की राजधानी
कल्पना कीजिए, एक रोज आपकी आँख खुले और आपकी नजर शरीर के उस सफेद धब्बे पर पड़े जिसे आपने पहले कभी नहीं देखा, देखते ही देखते यह सफेद हिस्सा, बेजान हो जाए और आपकी जिन्दगी को बेरंग कर दे।
किसी भयावह कहानी सा प्रतीत होता है?
यह भयानक कहानी इस आधुनिक युग में भी हजारांे कुष्ठ रोगियों के लिए वास्तविकता है। कुष्ठ रोग के लक्षण एक साल में ही दिखने लगते हैं जिसमें शरीर का प्रभावित हिस्सा सुन्न पड़ जाता है, मरीज को कमजोरी का एहसास होता है और अन्त मंे मांसपेशियों में फालिस मार जाती है। यदि लम्बे समय तक इलाज न मिले तो यह संक्रमण फैलने लगता है। लम्बे समय तक रोगी के लगातार सम्पर्क में रहने से साँस के जरिये यह रोग दूसरे के शरीर में जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि रोगियों को लम्बे समय तक क्यों इलाज उपलब्ध नहीं हो पा रहा है? विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पूरे विश्व के साठ प्रतिशत कुष्ठ रोगी भारत में हैं। हालाँकि, 2015 में ही आधिकारिक तौर पर भारत, कुष्ठ रोग से खुद को मुक्त घोषित कर चुका है। लेकिन क्या वजह है, कि इतने वर्ष बाद, हमारा देश कुष्ठ रोग की राजधानी बन बैठा है?
क्या लेपोरेसी यानी कुष्ठ रोग को गरीबी में अपना घर बनाना ज्यादा रास आता है? ‘पोलिगइया–– द ग्लोबल हेल्थ थिंक टैंक’ और ‘एनसीबीआई’ की रिपोर्ट माने तो इसका उत्तर है, ‘हाँ’।
कुष्ठ रोग के पनपने के लिये जो वातावरण, खराब स्तर की शौच प्रणाली और गन्दगी जिम्मेदार है, वह इन्हीं देशों में आसानी से मौजूद है। यहाँ बहुतायत जनता भयंकर गरीबी में अपना जीवन बसर करने को मजबूर है।
कुष्ठ रोग त्वचा, श्वसनतंत्र, बाहरी तंत्रिकाओं, आँखों आदि को प्रभावित करता है। शोध के अनुसार कुष्ठ रोग के कीटाणु मिट्टी की ऊपरी सतह, वायु और पानी में सक्रिय रहते हैं। जो मजदूर इन परिस्थितियों में काम करते हैं और इसी से अपना गुजारा चलाते हैं, वे कोढ़ से संक्रमित हो सकते हैं। भयंकर गरीबी और आर्थिक तंगी के चलते उसे इलाज नसीब नहीं होता। ऐसे में वह कुष्ठ के जीवाणुओं का घर बनने को मजबूर हो जाता है।
अगर वह इलाज कराना भी चाहे तो उसकी आय का स्रोत नहीं है। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कुष्ठ रोग न सिर्फ गरीबी में पनपता है बल्कि गरीबी ही इसे जन्म देती है।
भारत में कुष्ठ रोग की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इसका छोर पकड़ना मुश्किल है। ‘लाइव साइंस’ के अनुसार चार हजार वर्ष पुराने भारतीय कंकाल में कुष्ठ रोग के प्राचीनतम पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं। तब से लेकर आज तक, विश्व स्वास्थ संगठन (डब्लूएचओ) और इण्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ एण्टी–लेप्रोसी एशोसीएशन (आईएलईपी) के साथ मिल कर भारत सरकार ने इस रोग की रोकथाम में अनेक प्रयास किये, जो काफी हद तक सफल भी रहे। जहाँ 1983 में इस बीमारी का प्रसार दर चार हजार में से दो सौ इकतीस थी, वहीं 2005 में मल्टीड्रग थेरेपी की सहायता से, प्रसार दर में प्रभावशाली गिरावट आयी और यह प्रसार दर चार हजार में मात्र तीन रह गयी। लेकिन चैदह साल बाद यह समाप्तप्राय बीमारी अचानक अपने पंजे फैला कर देशभर के मेहनतकशों को अपने शिकंजे में कैसे दबोचने लगी?
इसका कारण है, 2015 में मोदी सरकार का इस पर लिया गया फैसला। 2015 में मोदी सरकार ने कुष्ठ रोग को अपने लक्षित मिशन से हटा दिया, जो इस रोग की रोकथाम के लिए था। इसका समाज पर कितना गहरा परिणाम होना था, यह सत्ता और उसके प्रपंच बखूबी समझते हैं। सब जानते हुए भी 2015 के सरकारी बजट में सरकार ने कुष्ठ रोग की रोकथाम के मद में जो पैसा आवंटित होना था, उसमें भारी कमी कर दी।
मोदी सरकार के फैसले और उसकी कुष्ठ रोग के प्रति कुंठित सोच ने ही आज देश को इस मुँहाने पर ला दिया है। डब्लूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार 2022 में भारत में कुष्ठ रोग के अट्ठावन प्रतिशत नये मामले आये, जिसमें कुल एक लाख सत्ताइस हजार पाँच सौ सत्तावन रोगियों में से, आठ हजार छ: सौ उनतीस मासूम बच्चे हैं। यह बात तो साफ है कि मल्टीड्रग थेरेपी के बाद कोई भी शिशु माँ के गर्भ से कुष्ठ रोग लेकर जन्म नहीं ले सकता, फिर क्यों पाँच से पन्द्रह साल कि आयु में देश का भविष्य कुष्ठ रोग से संक्रमित है? इसका कारण कुपोषण, बच्चों में बेहद कम होती प्रतिरोध क्षमता, और इस समाज में इनसानों को पशुओं के हालात में जीने के लिए मजबूर करने वाली यह व्यवस्था है।
जब तक दुनिया के किसी भी देश में मानव केन्द्रित व्यवस्था की जगह मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था रहेगी और स्वास्थ्य मुनाफा कमाने का साधन बना रहेगा, तब तक सिर्फ बीमारियों के लक्षण का इलाज होगा बीमारी का नहीं। जब तक ऐसी व्यवस्थाएँ रहेंगी दुनिया की बहुतायत जनता गरीबी और बदहाली में जियेगी और कोढ़ जैसी बीमारियाँ मेहनतकश का खून चूसती रहेंगी। इन व्यवस्थाओं का खात्मा ही ऐसी बीमारियों की ताबूत में अन्तिम कील ठोक सकता है।
–– साक्षी शैबी
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