मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

दिल्ली के सरकारी स्कूल : नवउदारवाद की प्रयोगशाला

पिछले 4 सालों में दिल्ली के सरकारी स्कूलों की दसवीं और बारहवीं की नियमित कक्षाओं में क्रमश: 43,540 और 53,431 छात्रों की कमी आयी है। यानी, दसवीं में हर चैथे और बारहवीं में हर तीसरे छात्र को स्कूलों से निकाल दिया गया। एक तरफ बड़ी संख्या में छात्र कक्षा 9, 10 और 11 में नियमित स्कूलों से बाहर हो रहे हैं और दूसरी तरफ दिल्ली सरकार ओपन स्कूलिंग (एनआईओएस) के साथ हाथ मिलाकर स्कूल छोड़ने वाले बच्चों का कल्याण करने की वाहवाही लूट रही है। प्रजा फाउंडेशन की रिपोर्ट (दिसम्बर 2017) के अनुसार, 2016 में दिल्ली में 85,000 बच्चे स्कूलों से बाहर हुए।  दिल्ली सरकार अपने स्कूलों में सुधार का दावा कर रही है। तो फिर छात्रों की संख्या घटती क्यों जा रही है?

स्कूलों से बाहर होते बच्चे

दिल्ली सरकार के स्कूलों में छात्रों के लिए कक्षा 12 तक की शिक्षा पूरी करनी मुश्किल होती जा रही है। एक आरटीआई में खुलासा हुआ है कि 2018–19 में 9 से 12वीं कक्षा तक के फेल होने वाले कुल छात्रों में से 66 प्रतिशत (1 लाख से ज्यादा) को सरकारी स्कूलों में फिर से दाखिला नहीं दिया गया। दिल्ली सरकार ने स्कूलों को निर्देश दिया कि कक्षा 9, 10 और 11 में फेल होने वाले छात्रों को नियमित स्कूल छोड़कर पत्राचार या ओपन कोर्स में दाखिले के लिए ‘प्रोत्साहित’ किया जाये। दिल्ली सरकार ने ‘फेल न करने की नीति’ को खत्म करने का फैसला लेकर छात्रों को पाँचवीं से ही स्कूलों से बाहर करने का इन्तजाम भी कर लिया है।

हम इस कड़वी सच्चाई से वाकिफ हैं कि सरकारी स्कूलों में दाखिला मुश्किल होता जा रहा है। ‘शिक्षा का अधिकार’ अधिनियम के तहत 6 से 14 साल की उम्र के बच्चों का दाखिला करना अनिवार्य है। लेकिन सरकार के ऐसे आदेश इसमें बाधा बन जाते हैं, जिसके तहत वह आधार कार्ड, पते का सबूत, बैंक अकाउंट आदि की माँग करती है। यहाँ तक कि प्रवेश के लिए ‘अन्तिम तिथि’ की गैर–कानूनी शर्त थोप दी जाती है। 2017 में दिल्ली सरकार ने दाखिले की प्रक्रिया को ऑनलाइन करके अभिभावकों की मुश्किलों को कई गुना बढ़ाया था। सरकारी स्कूलों में जो बच्चे आ रहे हैं, उनके अभिभावकों का इंटरनेट–कैफे में जाकर फॉर्म भरने में कीमती समय और पैसा लगा, गलतियाँ ठीक करवाने में जो मुश्किलें आयीं, वे अलग हैं। यह आसानी से समझा जा सकता है कि न जाने कितने बच्चे तकनीकी समस्याओं के चलते बिना दाखिले के लौट गये होंगे।

बढ़–चढ़ कर सफलता का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। बच्चों को दोयम दर्जे के टेस्ट देने को मजबूर किया जाता है ताकि पास होने वाले बच्चों की संख्या बढ़ाकर दिखाया जा सके। शिक्षकों को अच्छे परिणाम लाने की धमकियाँ दी जाती हैं, जिसके चलते वे लगातार मानसिक दबाव में रहते हैं। बार–बार के टेस्ट से न केवल समय बर्बाद किया जा रहा है, बल्कि परिणाम–केन्द्रित शिक्षा का ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है, जिसमें शिक्षा के बौद्धिक मूल्यों की जगह रटने वाले बहुविकल्पीय प्रश्नों ने लेनी शुरू कर दी है।  प्राथमिक स्तर से ही बच्चों को कोचिंग, प्रतियोगिता और बाजारवाद के हवाले किया जा रहा है। परिणाम–आधारित मूल्यांकन से कई तरह की विसंगतियाँ जन्म लेती हैंय जैसे–– विषयवस्तु की गहराई में न जाना, टेस्ट नियंत्रित संकीर्ण शिक्षण पद्धति, प्रश्न–पत्रों से लेकर परिणामों तक को तैयार करने में एक छलपूर्ण और अमर्यादित चालाकी, प्रतियोगितावाद और उससे उपजती श्रेष्ठता–हीनता का भेदभाव, अपमान–पुरस्कार के बाह्य प्रेरकों पर निर्भरता आदि।

स्कूलों में वर्गीकृत होते बच्चे

दिल्ली सरकार के स्कूलों में लागू ‘चुनौती 2016’ और ‘मिशन बुनियाद 2018’ नाम की योजनाओं के तहत पहले छठवीं से नौवीं तक और बीते वर्ष तीसरी से ही, सभी कक्षाओं के छात्रों को हिन्दी, अंग्रेजी और गणित के ‘मूलभूत कौशलों’ का परीक्षण करने वाले टेस्टों के आधार पर अलग–अलग वर्गों में बाँटा और चिन्हित किया जा रहा है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो नस्लीय रंगभेद और जातिगत भेदभाव की याद दिलाती है। इस नीति के घातक असर शिक्षकों और छात्रों के आपसी व्यवहार और गैर–मर्यादित भाषा में देखे जा सकते हैं। कुछ छोटे बच्चों ने इसे अपनी श्रेष्ठता के प्रतीक के रूप में लिया है, तो दूसरों में इससे निराशा और हीनता का बोध पैदा हुआ है। ‘मिशन बुनियाद’ के जरिये भाषा को संदर्भहीन करने का साफ मतलब है–– शिक्षा से ज्ञान और चिन्तन को खत्म करना। यह एक ऐसा धोखा है, जिससे चिन्तनशील दिमाग को खाली बर्तन में तब्दील किया जा रहा है।

‘मिशन बुनियाद’ के दौरान प्रत्येक स्कूल की हरेक कक्षा की प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखने के लिए नये–नये यांत्रिक उपाय इजाद किये जा रहे हैं। इसके लिए स्कूलों में मेंटर टीचर्स और टीचर्स डेवलपमेंट कोऑर्डिनेटर की फौज खड़ी की जा रही है, जिनसे सूक्ष्म निगरानी रखने, सरकारी योजनाओं को लागू करवाने, शिक्षकों के व्यवहार को संचालित करने और उनमें ऊँचे पदाधिकारियों का डर बिठाने का काम लिया जा रहा है।

दरअसल, इस तरह के ‘मिशन’ पूरी दुनिया में वैश्विक पूँजीवादी संस्थाओं के एजेंडे को लागू करने के लिए चलाये जा रहे हैं, ताकि ‘साक्षर, लेकिन चेतनाहीन मजदूर’ तैयार किये जा सकें। दिल्ली सरकार ने भी इस ‘मिशन’ में अपना पूरा दम झोंककर इन वैश्विक पूँजीवादी संस्थाओं के प्रति अपनी वफादारी साबित की है।

बच्चों के साथ–साथ स्कूलों का वर्गीकरण भी बढ़ा है। सरकार ने पहले अपने 54 स्कूलों को ‘मॉडल’ घोषित करके सरकारी स्कूलों की असमान परतों में एक विशिष्ट परत का इजाफा किया और बड़ी सफाई से इनके संचालन में पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के बहाने एनजीओ की घुसपैठ करा दी और इसके बाद ‘उत्कृष्टतम स्कूल’ के नाम से 5 नये स्कूलों की सबसे ऊँची परत बिछा दी।

स्कूलों में तैयार होते सस्ते मजदूर

बाजारवाद के तार ‘कौशल विकास’ की उस योजना से भी जुड़े हैं, जिसके नाम पर सरकारी स्कूलों में अब नौवीं से ही छात्रों को वोकेशनल कोर्सों की तरफ धकेला जा रहा है। इसके बाद ग्यारहवीं में बड़ी संख्या में छात्रों की पसन्द या इच्छा के विपरीत वोकेशनल स्ट्रीम दी जा रही है। यह सरकारी स्कूलों के अकादमिक चरित्र पर एक सीधा हमला है। इस तरह के कोर्सों का स्कूलों के अन्दर एक लिंग–आधारित बँटवारा भी है और इन्हें केवल सरकारी स्कूलों पर ही थोपा जा रहा है, जहाँ अधिकांश छात्र मजदूर, दलित, पिछड़ी, अल्पसंख्यक और विकलांग पृष्ठभूमि से आते हैं। यह वंचित तबकों, जातियों और वर्गों के बच्चों के शैक्षिक– सामाजिक बहिष्कार का एक नया उपाय है। दिल्ली सरकार ने इस नीति को अपने स्कूलों में तेजी के साथ पूरी ताकत से लागू किया है। आज हमारे स्कूलों में निजी संस्थाएँ आकर निचली कक्षा से ही बच्चों का ‘अभिरुचि टेस्ट’ लेती हैं और बिना शिक्षकों की सक्रिय भागीदारी के बच्चों को टेस्टों के आधार पर बाँटकर वोकेशनल कोर्स के लिए प्रोत्साहित करती हैं। 

दिल्ली सरकार ने न तो एक भी नया कॉलेज खोला है और न ही शिक्षक तैयार करने वाला किसी भी स्तर का संस्थान खड़ा किया है, मगर ‘विश्व–स्तरीय’ कौशल विकास केन्द्र जरूर खोले हैं जिसका प्रचार गर्व से किया है। शिक्षकों के शिक्षण को भी विश्वविद्यालयों के बजाय एनजीओ के हाथों में सौंपा जा रहा है।  इससे ज्यादा हास्यास्पद और क्या होगा कि जब पूरी अर्थव्यवस्था ही संकट से गुजर रही है, सरकारी क्षेत्रों को सिकोड़ा जा रहा है। साथ ही छोटे स्व–नियोजित व्यवसायों पर एक–एक करके चोटें की जा रही हैं। तब बच्चों को यह कहकर कि ‘मौलिक कौशल’ सिखाये जा रहे हैं कि लोग इसीलिए बेरोजगार हैं, क्योंकि उनके पास कौशल नहीं है। अगर यही करना है तो स्कूलों की जरूरत ही क्या है?  

गैर–अकादमिक होती पाठ्यचर्या

दिल्ली सरकार शिक्षा के शिथिलीकरण की कड़ी में कुछ दूसरे कार्यक्रम भी चला रही हैय जैसे–– खुशी की पाठ्यचर्याय स्वच्छता की पाठ्यचर्या और निजी धन्धे की पाठ्यचर्या। गहन शिक्षा सिद्धान्त और अकादमिक प्रक्रिया को अपनाये बिना इन पाठ्यचर्याओं द्वारा हर बच्चे के स्कूली दिन के 40–50 मिनट को ऐसे राजनीतिक कार्यक्रमों की बलि चढ़ा दिया जाता है, जो मूल रूप से बच्चों की चेतना को कुन्द करने का काम करते हैं। सरकार के प्रचारतंत्र ने सतही और गलत विचारों को अमली जामा पहनाकर तालियाँ बटोरने में विशेषज्ञता हासिल की है। ‘विद्या ज्योति’ जैसी आध्यात्मवादी संस्था को प्रारम्भिक शिक्षक तैयार करने वाले जिला–स्तरीय संस्थानों में अहम भूमिका दी जा रही है। यह तय है कि ऐसी संस्थाएँ और कोर्स स्कूलों में खतरनाक रूप से रूढ़िवादी और विज्ञान–विरोधी विचारों को बढ़ावा देने का माध्यम बनेंगे।

प्रोपगंडा के केन्द्र बनते स्कूल

दिल्ली सरकार ने ‘साझा मंच’ नामक एनजीओ के साथ मिलकर स्कूल प्रबन्धक समिति (एसएमसी) का चुनाव करवाने और मासिक बैठकें करवाने की प्रक्रिया शुरू की है। लेकिन इसके साथ ही शुरू हुआ है एसएमसी पर केन्द्रीकृत एजेंडा थोपना और एसएमसी को गैर–अकादमिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करना। इन बैठकों में शिक्षकों और अभिभावकों के बीच खुलकर बातचीत के अवसर नहीं रह गये हैं, बल्कि इन्हें सरकारी कार्यक्रमों जैसे–– मिशन बुनियाद, आधार, जीएसटी, छोटी बच्चियों के लिए प्रोविडेंट फण्ड आदि बेचने का अड्डा बना दिया गया है। हमारे समाज में आज भी अभिभावक अपने बच्चों के कल्याण के लिए शिक्षक की सलाह पर विश्वास करते हैं। इस अवसर का फायदा उठाकर सरकारें स्कूलों और शिक्षकों का इस्तेमाल सेल्समैन की तरह करने लगी हैं। 28 जनवरी 2019 को दिल्ली सरकार के स्कूलों में आयोजित मेगा पीटीएम के अवसर को खुले तौर पर दलगत प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया। स्कूलों में ‘दिल्ली सरकार द्वारा 11,000 कमरों का निर्माण’ का ऐलान करने वाले जो बोर्डें लगायी गयी थीं, वे कोई जनहित सम्बन्धी घोषणाएँ नहीं थीं, बल्कि आत्म–प्रचार था। शिक्षकों में इसके चलते असन्तोष है।

डाटा उत्पादन के केन्द्र बनते स्कूल

सरकारी स्कूलों की बदलती भूमिका का एक और पहलू सामने आया है कि इन्हें तरह–तरह के डाटा इकट्ठा करने वाले केन्द्रों में तब्दील किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर, दिल्ली सरकार अपने स्कूलों को निर्देश देती है कि वे बच्चों के परिवारों के सभी सदस्यों की तरह–तरह की निजी जानकारियाँ (जैसे, वोटर कार्ड, आधार कार्ड, फोन नम्बर, शैक्षिक योग्यता, मकान का मालिकाना स्वरूप आदि) इकट्ठी करें। अदालत में इस बारे में सवाल पूछे जाने पर इसके उद्देश्य के रूप में सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएँ बनाने का गोलमोल जवाब दिया गया। अदालती चुनौती के चलते ही सरकार ने माँगी गयी जानकारियों की संख्या को घटा दिया। शिक्षकों पर प्रशासनिक दबाव बनाकर तथा बिना भरपाई के ओवरटाइम करवाकर बहुत–सा डाटा जुटाया जा रहा है। इसके बाद बच्चों के माता–पिता के फोन पर बच्चों के जन्मदिन का बधाई सन्देश आता है कि फला मंत्री उन्हें शुभकामना देते हैं कि वे बड़े होकर देश के लिए ‘आम आदमी पार्टी’ (?) जैसा अच्छा काम करें! जो शिक्षक डाटा समय पर नहीं दे पाते उनसे जवाब माँगा जाता है। इस तरह डाटा की भूख बढ़ती ही जाती है। डाटा उत्पादन को उसी कड़ी में समझने की जरूरत है, जिसमें दुनियाभर की नवउदारवादी सरकारें नागरिकों के आँकड़ों को अपने प्रचार और लोगों की एक–एक बात पर नजर रखने और नियंत्रण करने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं।

शिक्षा विरोधी एजेंडे के तहत बढ़ता शिक्षा बजट

बढ़े हुए बजट का उपयोग गैर–जरूरी कामों और निजी समूहों को लाभ पहुँचाने के लिए हो रहा है। मीडिया में कुछ स्कूलों की खूब वाहवाही हुई है, जहाँ ‘विश्वस्तरीय’ स्वीमिंग पूल बना दिये गये हैं, बिना इसकी तफ्तीश किये कि अधिकतर स्कूलों में तो खेल के मैदान ही विलुप्त होते जा रहे हैं। चन्द स्कूलों की पाँचसितारा सुविधाओं को कितने बच्चे इस्तेमाल कर पा रहे हैं तथा असल में कौन चाँदी काट रहा है? जहाँ सीसीटीवी पर 670 करोड़ खर्च किया जा रहा है और शिक्षकों को टैब खरीदवाने पर अनुमानित 75 करोड़ का बजट दिया गया है, वहीं कक्षा 9 से 12वीं तक के बच्चों की सीबीएसई फीस माफ करने की आवश्यकता महसूस नहीं की गयी। ये खेल अकादमियाँ पीपीपी के तहत 50 प्रतिशत सीटें सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए मुफ़्त रखेंगी और बाकी बच्चों से फीस लेकर मुनाफा कमाने के लिए स्वतंत्र रहेंगी। 

यहाँ ‘बोलचाल की अंग्रेजी’ सिखाने के नाम पर ब्रिटिश काउंसिल जैसी संस्थाओं को पैर पसारने के अवसर दिये गये हैं। दिल्ली सरकार ने उच्च–शिक्षा के लिए ऋण उपलब्ध कराने में मदद के नाम पर बैंक के समक्ष गारंटर की भूमिका निभाने की नीति की घोषणा करके एक तरफ अपनी ‘उदारता’ दिखाने की कोशिश की है, वहीं दूसरी तरफ नवउदारवादी एजेंडे के तहत उच्च–शिक्षा को बाजार और निजी मुनाफे के जायज माध्यम के रूप में स्थापित करने का काम किया है, यानी एक तीर से दो निशाने!

नवउदारवाद की प्रयोगशाला बनते स्कूल

शिक्षा पर नवउदारवाद के कसते शिकंजे के प्रमुख कर्ता–धर्त्ता हैं एनजीओ, जिन्हें दिल्ली सरकार ने अपने दफ्तर और नीति निर्माण में प्रमुख स्थान दिया है। एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों को हाशिये पर डाल कर इनके द्वारा तैयार की गयी हल्की और घटिया स्तर की सामग्री को स्कूलों पर थोपा जा रहा है। ‘सेंटर स्क्वायर फाउंडेशन’ नामक कॉरपोरेटी संस्था को ‘बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ के साथ स्कूलों की ग्रेडिंग रिपोर्ट बनाने की भूमिका दी गयी है। यह वही संस्था है, जिसका मुक्त–बाजारवादी घोषित मंत्र ही यह है कि सरकार को निजी स्कूलों में पढ़ने के लिए बच्चों को वाउचर (फंड चिल्ड्रन, नॉट स्कूल्स) देने चाहिए। दुनियाभर में ऐसी ताकतों द्वारा प्रायोजित शोधों और कार्यक्रमों में क्राइसिस ऑफ लर्निंग (अधिगम का संकट, यानी बच्चे ‘सीख’ नहीं रहे हैं) का जो हौवा खड़ा किया गया है, उसका एक उद्देश्य सार्वजनिक स्कूली व्यवस्था को बदनाम करके नाकारा और विफल घोषित करना है ताकि शिक्षा के बाजार का रास्ता साफ किया जा सके, यानी पहले यही संस्थाएँ सर्वे करवाकर सरकारी स्कूलों, विशेषकर शिक्षकों को नाकारा साबित करती हैं, इसके बाद अपनी किताबें, ट्रेनर्स, टेस्ट लाकर सरकार से पैसे बटोरती हैं, फिर सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपने के रास्ते तैयार करती हैं। यह तर्क देना मक्कारी है कि परिणामों के लिए शिक्षक एकाकी रूप से जिम्मेदार हैं। जबकि बच्चों के सीखने और परिणामों पर उनकी आर्थिक, सामाजिक और स्कूली परिस्थितियाँ भी प्रभाव डालती हैं और इन दोनों की ही जिम्मेदारी राज्य पर होती है।

निजी संस्थाओं को महत्त्वपूर्ण अधिकार और भूमिकाएँ सौंपकर सरकार ने ‘स्टेट काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग’ जैसे सार्वजानिक संस्थानों को कमजोर बनाया है। मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री बुद्धिजीवियों की आलोचना को खारिज करके अपनी सतही समझ को लोकप्रियता का जामा पहनाकर महिमामंडित करते रहे हैं।

एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सरकारी स्कूलों को नवउदारवाद की प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। इन स्कूलों में अधिकांशत: मेहनतकश वर्ग के बच्चे पढ़ रहे हैं। उनके समय को कई तरीकों से बर्बाद किया जा रहा है और उनकी शिक्षा से अकादमिक हिस्सा कम किया जा रहा है। स्कूलों का भविष्य इस बात पर निर्भर होता चला जा रहा है कि वे दक्षता के साथ डाटा इकट्ठा करें और इसे कम्प्यूटर पर चढ़ायें, नित नयी शिक्षा–विरोधी नीतियों और योजनाओं को कार्यान्वित करें और इनकी रिपोर्ट सरकार के पास भेजें। इसके लिए दिल्ली सरकार के स्कूलों में प्रत्येक शिक्षक को टैब दिया जा रहा है कि वे कुशलता का ऐसा मॉडल प्रस्तुत करें कि नये–नये विक्रेताओं की लाइन लग जाये। अगर केन्द्र सहित विभिन्न राज्य सरकारों की शैक्षिक नीतियों पर नजर डालें तो स्पष्ट होता है कि ‘दक्षता’ के नाम पर वे एक तरफ शिक्षा का बजट घटा रही हैं, जबकि दूसरी तरफ सार्वजनिक व्यवस्था और उसके कर्मचारियों पर दोषारोपण लगाकर अपनी गलत नीतियों का ठीकरा उन्हीं पर फोड़ती हैं। मंत्रियों और अफसरों के ‘अघोषित इंस्पेक्शन, शिक्षकों को निलम्बित करने, नये टेस्ट शुरू करने’ आदि से सम्बन्धित बयान निरन्तर आते ही रहते हैं। प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण के बजाय ऐसे परिणाम आधारित मूल्यांकन के खाके तैयार किये जाते हैं, जो वस्तुगत होने का दावा ठोकते हैं। दरअसल यह ऑडिटिंग और जवाबदेही बढ़ाने का स्वांग नवउदारवादी सरकारों का अपनी नाकामियाँ और विफलताएँ ढकने का एक तरीका है। फिलहाल यह स्पष्ट होता चला जा रहा है कि नवउदारवादी सरकारों के शासन में स्कूल न केवल पूँजीवाद की आवश्यकतानुसार श्रमिकों की फौज तैयार करेंगे, बल्कि सरकारी स्कूलों का इस्तेमाल स्थानीय तथा विशेषकर वैश्विक पूँजी के विभिन्न उपयोगों के लिए किया जायेगा। यह सारा खेल सार्वजनिक शिक्षा को मजबूत करने का नहीं है, बल्कि कुशल शासन का ऐसा मॉडल प्रस्तुत करने का है, जो वैश्विक पूँजी के काम आये। देर–सबेर केन्द्र सहित सभी राज्यों की सरकारों को ऐसा करके दिखाना ही होगा, नहीं तो एजेंट बदल दिया जायेगा।

(साभार : लोक शिक्षक मंच, दिल्ली)

 
 

 

 

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