कोरोना ने सबको रुलाया
(शरण आलम–ए–इनसानियत में ही मयस्सर है इनसाँ को चैन–ओ–सुकून)
देश–भर में कोरोना महामारी को लेकर खौफ का माहौल है। आवाम कोरोना की बढ़ती महामारी को देखकर आलम–ए–हिरमाँ (निराशा की स्थिति) में है। हर रोज लगभग तीन लाख से अधिक नये मामले सामने आ रहे हैं। कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने में 42 करोड़ रुपये रिसर्च पर खर्च करने के बाद भी सरकार कोरोना वायरस के सामने पस्त हिम्मत दिख रही है। वैक्सीन लगने के बाद भी लोगों के संक्रमित होने के मामले सामने आ रहे हैं। पिछले वर्ष की कोरोना लहर के खिलाफ तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार ताली–थाली, मोमबत्ती, टार्च जैसे आडम्बर रचकर खुद को सच्ची जन हितैषी सरकार साबित करने की जुगत में लगी रही, लेकिन परिणाम ही रहे ढाक के तीन पात। टॉर्च से कोरोना भगाने की घटना से सरकार की कूपमण्डूकता जगजाहिर हो रही है। इस वर्ष की भीषण महामारी को देखकर लगता है कि सरकार ने पिछले वर्ष कोरोना वायरस को लेकर कोई खास चिकित्सीय इन्तजामात नहीं किये। खैर कोविड अस्पतालों के शिलान्यास की खबरें आये दिन पूँजीपरस्त मीडिया का मुद्दा बनी रहीं। लेकिन वे अस्पताल जन समर्थन हासिल करने से आगे केवल एक शिगूफा बनकर रह गये। जमीनी हकीकत के रूप में उन अस्पतालों का दरवाजा आवाम की पहुँच से बहुत दूर है।
भारत के अधिकतर राज्यांे बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तर प्रदेश हर जगह सरकार नाकाम होती दिख रही है। तथाकथित गुजरात मॉडल में लाशों के अन्तिम सस्ंकार के कारण शमशान घाट की चिमनियों के पिघलने की खबरें दिल को दहला देती हैं। अन्तिम संस्कार कराने के लिए मृतक के परिजनों को टोकन दिये जा रहे हैं। आलम–ए–इसांनियत की यह स्थिति आखिर क्यांे हो गयी ? तकनीक के इतने विकसित दौर में जहाँ परिवहन, चिकित्सा आदि की व्यवस्था आवाम को घर बैठे सम्भव हो, वहाँ लोग एम्बुलेंस के लिए घण्टों इन्तजार करने के बाद भी निराश बैठने को मजबूर हैं। जिन बीमार लोगों को आईसीयू की जरूरत है, उन्हें जनरल वार्ड में रखा जाये। जिन्हंे जनरल वार्ड की जरूरत हो वे सडकों पर इन्तजार करते–करते मौत के मुँह में समाँ जाये। आखिर मानवता इतनी बेबस क्यों ? हुकमराँ यह सब तमाशबीन बनकर देखता रहे। आवाम ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ दें। ऐसा छदम अन्ध राष्ट्रवादी कहता है कि खुशियाँ मनाओ, दीपक जलाओ देश तरक्की कर रहा है। देश मजबूत हाथों में है। अगर देश सचमुच तरक्की कर रहा है तो आवाम के हिस्से मौत और बर्बादी क्यों है ? यह सवाल हर रोज दिल को कुरेदता है। आखिर यह किसकी तरक्की और किसकी बर्बादी है ?
यहाँ अस्पतालों का उद्देश्य लोगों को स्वस्थ्य रखने की जगह मुनाफा कमाना हो गया है। सुविधाओं और जाँच के नाम पर मोटी रकम वसूल ली जाती है। यह व्यापार दिनों दिन फलता–फूलता जा रहा है। इसका सीधा सा मतलब है जिसकी जेब में रुपये हैं वही सुविधा का हकदार है, यह अप्रत्यक्ष रूप से देश की बड़ी मेहनतकश आवाम के हिस्से से चिकित्सकीय सुविधाओं को छीनकर उन्हंे मरने के लिए मजबूर छोड़ देना है। जिस अस्पताल में घुसने से पहले 5500 रुपये पीपीई किट के नाम पर जमा होते हांे, 1000–2000 रुपये तक डॉक्टर से केवल परामर्श शुल्क हो, छोटी सी बीमारी की दवाईयों और जाँच की कीमत आसमान छूती हों, उस अस्पताल में 300 रुपये रोज पर गुजारा करने वाले मजदूर खुद और अपने परिवार का इलाज भला कैसे करा सकेंगे ? सरकार इन्हें मनमानी करने की खुली छूट दे रही है, ताकि लोगों की लाशों पर सरेआम व्यापार कर ये मुनाफाखोर, दैत्यकार अपनी तिजोरी भरते रहें और निजीकरण का रथ सरपट दौड़ता हुआ मानवता को रौंद डाले। इस निजीकरण का उद्देश्य केवल मुनाफा है। इनसानी जिन्दगी से इसे कोई सरोकार नहीं। यह केवल मुनाफे की व्यवस्था है। नवउदारवाद की आँधी ने समूची स्वास्थ्य व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।
सरकारी अस्पतालों की हालत खस्ता हो गयी है। सरकार हर साल चिकित्सीय बजट से रुपये घटा देती है जिसके कारण सरकारी अस्पतालों में दवाईयाँ, बैड, आईसीयू वार्ड, जनरल वार्ड, एम्बुलेंस, चिकित्सीय उपकरण, मेडिकल स्टॉफ, वरिष्ठ डॉक्टर, बिल्डिंग, फर्नीचर आदि सुविधाओं में दिन प्रतिदिन कटौती की जा रही है। लोगों में सरकारी अस्पतालों से सुविधा मिलने की उम्मीद खत्म हो चुकी है। सरकार की मंशा ही आवाम के चन्दे से खड़े मेडिकल सस्ंथानों को बर्बाद करना है, क्यांेकि जितनी सरकारी सुविधा कम होगी उतना ही ज्यादा निजी अस्पतालों का व्यापार बढे़गा और उनकी दौलत में उतनी ज्यादा दिनोंदिन बढ़ोतरी होगी।
यह मुनाफापरस्त व्यवस्था इनसानियत के हक–हकूक में फैसले नहीं ले सकती। दवाईयों, ऑक्सीजन, उपकरण, इलाज के अभाव में मरते 80 फीसदी मेहनतकश आवाम की इसे कोई परवाह नहीं है। इसे परवाह है तो केवल मुनाफाखोरों की इसलिए यह व्यवस्था आपदा को भी अवसर में बदलकर अपना हित साध लेती है।
समूची मानवजाति आज मुनाफे की जकड़ में है। मानवजाति को आजाद कराने का यह काम इतिहास ने मेहनतकश आवाम के भरोसा छोड़ा है। इसलिए हम मेहनतकशों की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी यह बनती है कि हम जाति धर्म के झगड़ों से ऊपर उठकर जन सगंठन कायम करें और एकजुटता के साथ इस आदमखोर व्यवस्था को उखाड़कर आलम–ए–इनसानियत की स्थापना करें। तभी समूची मानवजाति को चैन–ओ–सुकून की जिन्दगी मयस्सर होगी।
वो जहर देता तो सबकी निगाह में आ जाता
सो ये किया कि मुझे वक्त पे दवाएँ न दी।
––अख्तर नजम
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