मीडिया का असली चेहरा
किसी भी लोकतांत्रिक देश के तीन मुख्य आधार स्तम्भ माने गये हैं–– विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, इसके बाद चैथा स्तम्भ माना जाता है–– मीडिया, जो बाकी के स्तम्भों पर नजर रखता है। इसलिए इसे लोकतंत्र का प्रथम प्रहरी भी कहा जाता है। मीडिया किसी भी राष्ट्र के निर्माण में जनता को सक्रिय भागीदार बनाने में अहम भूमिका निभा सकता है। यह समाज कल्याण के मुद्दों पर जनता को जागरूक कर सकता है। मीडिया सभ्यताओं और संस्कृतियों के बीच मेल–जोल बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में भी बढ़–चढ़ के हिस्सा ले सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत में मुख्य धारा का मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभाता है? अगर नहीं निभाता है तो क्यों?
भारत में मीडिया का जो स्वरूप आज है, वह किसी भी स्वस्थ लोकतांत्रिक देश के लिए चिन्ता का विषय है। अगर हम मीडिया के मौजूदा हालात पर सभी पहलुओं से विचार करें तो पता चलता है कि दरअसल यह मीडिया का नहीं व्यवस्था का संकट है। नवउदारवादी नीतियों के जरिये देश की जनता को जिस बाजार के हवाले किया गया, वह हर चीज का इस्तेमाल अपने मुनाफे के लिए करता है। मुनाफा ही बाजार का दीन–धर्म और ईश्वर–अल्ला है। इस मुनाफाखोर व्यवस्था के चलते आज मुख्यधारा का मीडिया कॅारपोरेट घरानों के कब्जे में है। ऐसे में इससे सच्ची खबरों की उम्मीद करना बेमानी हो गया है। मुख्यधारा का मीडिया आज अपने मालिकों के निजी हितों के चलते इतिहास का काला अध्याय लिख रहा है, यह जनता की चेतना को कुन्द कर रहा है तथा लोगों को जातिवादी, साम्प्रदायिक और उपभोक्तावादी बना रहा है। ऐसे में हमें ठहरकर इसके इतिहास, वर्तमान और भविष्य पर विचार कर लेना चाहिए।
आजादी से बहुत पहले केवल अखबार और पत्रिकाएँ ही मीडिया का रूप थे। आजादी से कुछ समय पहले इसमें रेडियो भी जुड़ गया और वर्ष 1959 में टेलीविजन भी इसका अंग बन गया। इसके जुड़ते ही “मनोरंजन” मीडिया का मुख्य पहलू बनता गया। आजादी के समय एक मशहूर शायर ने कहा था, “खीचों न कमानों को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।” यही वह समय था जब अंग्रेजों की तोपों का सामना करते हुए बिखरी हुई भारतीय जनता की एकजुटता की जरूरत ने अखबार जैसे आधुनिक मीडिया को कारगर भूमिका में उतार दिया।
1780 में जेम्स अगस्टस हिक्की ने ‘बांग्ला गजट’ पत्र निकाला। इससे भारत में पत्रकारिता के रूप में मीडिया का जन्म हुआ। सच छापने के चलते उन्हें जेल की सजा भी भुगतनी पड़ी। उस दौर में सही तथ्यों और सूचनाओं का अभाव था और सुनी–सुनायी बात को लेकर जनता की राय बनती रहती थी, जिसकी वजह से उस दौर में एक ऐसे माध्यम की जरूरत थी जिससे लोगों में सही राय कायम हो और उनकी एकजुटता मजबूत हो। पत्रकारिता का जन्म इन्हीं बुनियादी उद्देश्यों के लिए हुआ था। जनता को एकजुट करना, चेतना बढ़ाना, शिक्षित करना, सामूहिकता बढ़ाना, भारत की साँझी राष्ट्रीय संस्कृति को आगे बढ़ाना, संकीर्णता दूर करना, साम्प्रदायिकता खत्म करना, तार्किक वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना और सही तथा जरूरी सूचनाएँ जनता तक पहुँचाना। उस दौर में पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं माना जाता था। यह एक समाज सेवा थी और इसमें जनता के हित के अलावा कुछ और सोचना बेईमानी समझा जाता था। अंग्रेजों के दमन के चलते गिने–चुने लोग ही इस क्षेत्र में आने की हिम्मत कर पाते थे।
भारत की आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। पराड़कर, बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी और कई दूसरे क्रान्तिकारियों ने अखबारों के माध्यम से आजादी की लड़ाई को जन–जन तक पहुँचाया। भगत सिंह ने अपने क्रान्तिकारी विचारों को किरती और प्रताप में अपने लेखों के जरिये जनता तक पहुँचाया और जनता को गुमराह करने वाले विचारों पर चोट की।
1907 में इलाहबाद के पत्रकार शान्ति नारायण भटनागर ने अपनी जमीन–जायदाद बेचकर ‘स्वराज्य’ अखबार निकाला और उसके माध्यम से अंग्रेजों का जबरदस्त विरोध किया। फलस्वरूप, अंग्रेजों ने उन्हें 3 साल के लिए जेल में डाल दिया। इसके बाद एक–एक करके अखबार के सम्पादक बदलते गये और गिरफ्तार होते गये। इस अखबार के आठ सम्पादकों को कालापानी भेज दिया गया। लेकिन जनता के प्रति इसकी निष्ठा और इसका हौसला कायम रहा। अमीर चन्द बम्बवाल ने विज्ञापन दिया, “सम्पादक चाहिए, वेतन–– दो सूखी रोटियाँ, गिलास भर पानी और हर सम्पादकीय लिखने पर 10 वर्ष की कालेपानी की सजा”। इसके बावजूद वहाँ सम्पादकों की कोई कमी नहीं हुई।
आजादी के बाद हालात तो बदल गये थे लेकिन अधिकांश जनता अशिक्षित और गरीब थी। ऐसे में लोकतांत्रिक मूल्य–मान्यताओं को स्थापित करने, जनता को शिक्षित करने, वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने और देश–दुनिया के बीच सम्बन्ध बनाने का काम मीडिया के कन्धों पर आ पड़ा था। 1959 में टेलीविजन के प्रथम प्रसारण के साथ मीडिया अब उन्नत रूप ले रहा था। ध्वनि के साथ चलचित्र अब इसका अभिन्न अंग था। आगे चलकर इसने “मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा” जैसे गीत प्रसारित किये। “पक्षियों का जाल लेकर उड़ जाना और शिकारी का मुहँ ताकते रह जाना” जैसे किस्से गढ़े। लोगों में वैज्ञानिक नजरिया पैदा करने के लिए ‘भारत एक खोज’ जैसा धारावाहिक चलाया। मालगुड़ी डेज, परिवार नियोजन के विज्ञापन, कल्याण योजनाओं से जुड़ी जानकारियाँ, खेती–किसानी से सम्बन्धित खबरें–सूचनाएँ प्रसारित कीं। धर्मनिरपेक्षता, तार्किकता और ज्ञान–विज्ञान का प्रसार किया।
1990 तक मीडिया ने अपनी सीमाओं के बावजूद जनता की जरूरतों के अनुरूप, सापेक्षिक स्वतंत्रता के साथ, अपने दायित्व का निर्वाह किया। इसकी पैनी आलोचना दृष्टि ने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी जैसे प्रधानमंत्रियों की भी आलोचना की। सरकारी दबाव के बीच जनता के हक में निरन्तर आवाज उठाता रहा।
जब आपातकाल लागू हुआ तो इसके विरोध में कई अखबारों ने कई दिन तक सम्पादकीय नहीं लिखे। सम्पादकीय का नियत स्थान काला घेरा करके खाली छोड़ दिया जाता था। इसी दौर में जेपी आन्दोलन, राष्ट्रभाषा आन्दोलन और हरित क्रान्ति जैसी कई राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों को आगे बढ़ाने में मीडिया ने प्रमुख भूमिका निभायी। यह मीडिया ही था जिसने इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली सरकार को करारी शिकस्त देने में मदद की और कांग्रेस के विकल्प के रूप में विपक्षी पार्टियों के गठजोड़ से जनता पार्टी के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। मीडिया ने ही कांग्रेस के विकल्प के तौर पर उभरी जनता पार्टी की सरकार को ढाई साल में बेनकाब भी कर दिया।
आज हम मीडिया के विभिन्न रूप देखते हैं–– प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, ई–मीडिया, सोशल मीडिया, डिजिटल मीडिया इत्यादि और तकनीक के विस्तार के साथ–साथ इसके रूपों का और भी विस्तार होता जा रहा है। आज हमारे देश में कुल 82,222 से ज्यादा समाचार पत्र–पत्रिकाँ निकलती हैं जो 123 से ज्यादा भाषाओं और बोलियों में प्रकाशित होती हैं। 150 से ज्यादा एफएम चैनल हैं जो 40 से अधिक शहरों से प्रसारित होते रहते हैं। 831 से अधिक टेलीविजन चैनल पंजीकृत हैं जो सुबह से रात तक कुछ न कुछ प्रसारित कर रहे हैं।
लेकिन दु:ख की बात है कि आज मीडिया देश की तीन चैथाई वंचित और गरीब आबादी को पूरी तरह भूल गया है। वह टीवी स्क्रीन और अखबारों के पन्नों पर कामुकता उड़ेल रहा है। स्त्री देह को व्यापार बनाकर अंगवर्धक दवाएँ बेच रहा है। जनता को सनसनीखेज सूचनाओं का आदी बना रहा है। बाबाओं के गंडे–ताबीजों से लोगों में अंधविश्वास फैला रहा है। इसकी रगों में आज मैकडोनाल्ड, पेप्सी, कोक, रिबॉक, पिज्जाहट, कोलगेट, लिवायिस, पीएंडजी जैसी दैत्याकार कम्पनियों का मुनाफा रक्त बनकर दौड़ रहा है और इसकी आत्मा पूरी तरह पूँजी परस्त हो गयी है।
यहाँ हमें ठहरकर सोचने की जरूरत है कि मीडिया का यह पतन किस तरह हुआ? आजादी के बाद भारत के शासकों ने एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर विकास का रास्ता चुना था। 1990 तक संचार के माध्यमों पर सरकार का नियंत्रण रहता था और भारत स्वावलम्बी विकास की नीति पर चल रहा था। लेकिन नयी आर्थिक नीतियों ने भारत के स्वावलम्बी आर्थिक विकास को रौंदकर देश के गले में नयी आर्थिक गुलामी का पट्टा डाल दिया। अमरीका ने विश्व बैंक के जरिये भारत पर दबाव बनाया और भारत के कमजोर नेतृत्व ने देश का स्वाभिमान विश्व बैंक के चरणों में रख दिया। देश के शासकों ने निजीकरण–उदारीकरण–वैश्वीकरण की नीतियों के लिए देश के दरवाजे खोल दिये। अब वे उदार थे, पूँजीपतियों के लिए, अब हमारी सारी सम्पदा पूँजीपतियों के निजी हितों के लिए थी, अब हमारी अर्थव्यवस्था के दरवाजे खुले हुए थे, पूरे विश्व के लुटेरों के लिए। ऐसे में मीडिया का मजबूत रह पाना सम्भव नहीं था।
नयी आर्थिक नीतियों ने पूरी दुनिया के अर्थशास्त्र को बदल कर रख दिया। इसने माँग और आपूर्ति के सिद्धान्त को निष्प्रभावी कर दिया। तकनीक की सहायता से हुए बेतहाशा उत्पादन को खपाने की जरुरत थी पर कैसे? वह खप सकता था, उपभोक्तावाद से!
2002 में भारत में मीडिया क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश की अनुमति दे दी गयी। मीडिया सत्तापक्ष और बाजार के आगे नतमस्तक हो गया। पूँजीपति वर्ग ने अखबार, रेडियो और टेलीविजन पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया। वह जानता था कि मीडिया के जरिये लोगों के दिमाग पर प्रभाव डालकर उसे उपभोक्तावाद का गुलाम बनाया जा सकता है। अब मीडिया सरमायादारों का हुक्म बजाने वाला उसका चाकर बन गया है।
मीडिया में उन्ही कम्पनियों के शेयर हैं जो सरकार के साथ साँठ–गाँठ करके अपने निजी मुनाफे की खातिर देश की नीतियों को बदलने की हैसियत रखती हैं। देश के शीर्ष 5 कॉर्पाेरेट घरानों का आज अधिकांश टेलीविजन चैनलों और अखबारों पर कब्जा है। मीडिया का स्वरूप आज जनोन्मुखी से धनोन्मुखी हो चुका है। जिस मीडिया का काम सूचनाएँ देना था वही मीडिया आज विज्ञापनों को सूचनाओं और सूचनाओं को विज्ञापन के रूप में पेश कर रहा है। इसने सूचना और विज्ञापन के अन्तर को खत्म कर दिया है। आज इसका क्रूरतम चेहरा इस उदाहरण से समझिये कि कैसे यह शैम्पू, तेल, क्रीम, सर्फ के छोटे पाउच के विज्ञापन के जरिये गरीबों की जेब से 1 रुपये का सिक्का भी निकाल लता है!
मौजूदा कॉर्पोरेट मीडिया आँख मूँदकर सरमायादारी की हिमायत करता है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि आये दिन होने वाले दंगे, मॉब लिंचिंग, बैंक घोटाले, सांसदों की खरीद–फरोख्त, पंचायत से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक भ्रष्टाचार बदस्तूर जारी है। कलम और कम्प्यूटर पर उँगलियाँ सम्पादक की होती हैं और उसके दिमाग पर नियंत्रण कॉर्पाेरेट का होता है। इसके रीढ़हीन मीडिया चिन्तक मोटी–मोटी किताबें लिखकर बड़े–बड़े पैकेज भकोसते हैं। वे अपने रंगारंग कार्यक्रमों के जरिये यह बताने की कोशिश करते हैं कि रोजी–रोटी के लिए संघर्ष करते मजदूर–किसान, दलित, मुस्लिम और आदिवासी राष्ट्रद्रोही हैं। वे मारुति सुजुकी के संघर्षरत हजारों मजदूरों को कातिल घोषित करते हैं। संघर्षरत मजदूरों के दमन उत्पीड़न पर चुप्पी साध लेते हैं। अभी हाल ही में महाराष्ट्र और राजस्थान में हुए किसान आन्दोलनों में इन्होंने धृतराष्ट्र की भूमिका निभायी और उसे बदनाम करने में कोई कोर–कसर नहीं छोड़ी।
आज लोकतंत्र के पक्ष में उठने वाली हर आवाज को मीडिया के जरिये नक्सली या आतंकवादी कहकर कुचल दिया जाता है। क्षेत्रीय पत्रकारों की हत्याओं का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा, जिसके चलते कई अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं ने मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले में भारत को काली सूची में डाल दिया है। जो व्यक्ति सरकार के खिलाफ और जनता के पक्ष में आवाज उठाता है, उसे झूठें मुकदमों में फँसाकर जेल में ठूस दिया जाता है। इस देश में एक अघोषित आपातकाल लागू है। मीडिया इन सभी मुद्दों पर चुप है। भारतीय मीडिया आज सरकार की इस धारणा को स्थापित करने में लगा है कि “अगर आप मेरे साथ नहीं हैं तो आप अलग हैं, अगर आप मुझसे अलग हैं तो मेरे दुश्मन हैं”।
न्यूज चैनलों के कारण आज बुद्धिजीवियों और धूर्त ठगों के बीच का अन्तर मिटता जा रहा है। इनकी चर्चाओं में विवादों को जिस तरह गढ़ा और भड़काया जाता है, उसके चलते मध्यमवर्ग में कठमुल्लावाद, अंधविश्वास, जातिवाद और साम्प्रदायिकता को जड़ें जमाने का मौका मिला है। ज्यादातर न्यूज चैनलों की प्राईम टाइम बहसों का मकसद लोकतांत्रिक संवाद और स्वस्थ चर्चा को बढ़ावा देना नहीं बल्कि सनसनी पैदा करना, अनुदार दक्षिणपंथी सोच को आगे बढ़ाना और लोगों की चेतना कुन्द करना है। अव्वल तो बहस के मुद्दे बुनियादी सवालों से ध्यान भटकाने वाले नकली मुद्दे होते हैं, दूसरे इसकी अधिकांश बहसों में गिने–चुने चेहरे होते हैं जिन्हें पूरी कौम के नुमाइन्दे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और उन्हीं के माध्यम से संकीर्ण विचार धड़ाधड़ परोसे जाते हैं। इनकी चर्चाओं, बहसों में फासीवादी ताकतों, हिन्दुत्ववादी संगठनों से लेकर कट्टरपंथी–पोंगापंथी मौलवियों और खाप पंचायत जैसी मध्ययुगीन शक्तियों को हिन्दू और मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि के रूप में पेश किया जाता है। इससे संकीर्णता और असहिष्णुता को बल मिलता है और प्रगतिशील मूल्य–मान्यतायें पीछे धकेल दी जाती है।
मीडिया के लिए ‘जनता’ शब्द फालतू और निरर्थक है, जिसके नाम से ही इसके मालिक कुढ़ते हैं। बिग बॉस और राखी का इंसाफ जैसे रियलिटी शो से मध्यम वर्ग की मानसिक विकृति बढ़ जाती है। इसी तरह अमरीकी मीडिया सौ लोगों से सहवास करने का रिकॉर्ड बनाने वाली जेन जुस्का को सेलिब्रिटी बना देता है और भारतीय मीडिया पोर्न स्टार सन्नी लियोनी को सुपर स्टार।
इसका जनविरोधी चेहरा अब खुलकर सामने आ चुका है। पेड न्यूज इसका सबसे आधुनिक हथियार है। पैसा खर्च करके कोई भी अपनी पसन्द की खबर सूचना के रूप में प्रसारित करा सकता है। आज अपराधियों के जन्मदिन पर बड़े चित्र के साथ पूरे पन्ने का विज्ञापन आता है। उन्हें सन्त और अवतार के रूप में लोगों पर थोपा जाता है। टीवी पर चोर–उचक्कों, बाबाओं, बलात्कारियों और एक से बढ़कर एक मक्कारों का जीवन दर्शन चलाया जाता है कि कौन–कैसे मालामाल हो गया है।
लोकसभा चुनावों में मीडिया बाकायदा पैकेज बनाता है और रेट कार्ड भी छापता है। जो पैकेज खरीदता है, उसी की खबरें चलती हैं। जो नहीं खरीदता है, वह सुर्खियों से नदारद रहता है। मीडिया की आय का 80 प्रतिशत हिस्सा आज विज्ञापनों से आता है। दर्शकों और पाठकों को लुभाने के लिए गलाकाट प्रतियोगिता होती है जिसकी वजह से मूल्यों, नियमों और सच को ताक पर रख दिया जाता है। विज्ञापनों की बैसाखी पकड़कर चलने वाला मीडिया कभी आजाद, निष्पक्ष और सच्चा नहीं हो सकता। मीडिया का व्यवसाय आज ‘मानसिक व्याभिचार का धंधा’ बन चुका है।
इन सब पर सवाल उठाने पर कॉर्पाेरेट मीडिया के चाटुकार तर्क देते हैं कि बिना पैसे के मीडिया हाउस चलाया नहीं जा सकता, तकनीक महँगी हो गयी है। सवाल यह है कि अगर पैसे कमाने हैं तो कोई और धंधा क्यों नहीं कर लेते? अगर सच बोलने की हिम्मत नहीं तो झूठ का प्रचार क्यों करते हो?
यकीनन यह अंधेरे का दौर है लेकिन नाउम्मीदी से कभी दुनिया आगे नहीं बढ़ती, इसे हमेशा उम्मीद वाले लोगों ने ही आगे बढ़ाया है। मुख्यधारा की मीडिया से अलग सोशल मीडिया और वैकल्पिक मीडिया में उम्मीद की रोशनी दिखायी देती है। इसके नये–नये स्वरूप अभी लगातार सामने आ रहे हैं–– जैसे फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, फ्लिकर, ब्लॉग्स, व्हाट्सएप इत्यादि। हालाँकि इन माध्यमों के जरिये भी समाज को गर्त में ले जाने वाले अपना काम कर रहे हैं। दूसरी बात यह भी है कि यह सीधे–सीधे तकनीक से जुड़ा मामला है और तकनीक पर आज पूँजीपतियों का कब्जा है। इसके कुछ नकारात्मक पक्ष को छोड़ दें तो अभी तक इसके कुछ सकारात्मक पहलू सामने आये हैं, वे बेहद सुखद है और उत्साह भरने वाले हैं। मिस्र, सीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, नेपाल की क्रान्ति या जन–आन्दोलन और अमरीका के “ओक्युपाई वाल स्ट्रीट” जैसे अभियानों को मुख्यधारा की मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दिया। वहीं सोशल मीडिया पर ऐसी खबरें बहुत चर्चित रहीं।
लेकिन आजकल सोशल मीडिया पर जिस तरीके से तार्किक और सही बातों पर ट्रोल (गाली–गलौज) किया जाता है, जिस तरह राजनीतिक पार्टियाँ इसका गलत इस्तेमाल कर रही हैं, जिस तरह अफवाहें फैलाकर दंगे और मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया भी तार्किक, वैज्ञानिक और जनपक्षधर नहीं है। फिर इसका तकनीकी पहलू भी इसकी मुख्य समस्या है। भारत की गरीब जनता के लिए इन्टरनेट और कम्प्यूटर की सुविधा अभी दूर की कौड़ी है। इसके सही दिशा में इस्तेमाल की सीमाएँ हैं, लेकिन काफी कुछ सार्थक करने की गुंजाइश भी है।
आज पत्रकारिता के मूल सिद्धान्त और उसकी पक्षधरता पर सवालिया निशान लगा हुआ है, समाज के साथ उसके सरोकारों पर पुनर्विचार की जरूरत है। ऐसे में वैकल्पिक मीडिया या जनता का मीडिया कुछ उम्मीद जगाता है। मुख्यधारा की मीडिया पर सही सूचना साधनों के अभाव ने ही वैकल्पिक मीडिया की अवधारणा को जन्म दिया है। दरअसल वैकल्पिक मीडिया का अपना एक पूरा इतिहास रहा है। आज हम जिसे मुख्यधारा का मीडिया कहते हैं उसका जन्म भी वैकल्पिक मीडिया के रूप में ही हुआ था। आज मीडिया की जरूरत वास्तव में किसे है और इसे कौन संचालित कर रहा है? सच्चा मीडिया वही है जो “जनता के द्वारा और जनता के लिए” काम करे। ढेरों छोटी–छोटी जनपक्षधर पत्र–पत्रिकाओं ने वैकल्पिक मीडिया का ताना–बाना बुना है। ये पत्र–पत्रिकायें पूँजी की ताकत से नहीं, बल्कि इसमें काम करने वाले सैकड़ों लोगों की मेहनत और लगन से निकलती हैं। ये अँधेरे में रोशनी की किरण जैसी हैं।
कॉर्पाेरेट मीडिया के अँधेरे दौर में विकिलीक्स उम्मीद बनकर उभरा। विकिलीक्स ने कॉर्पाेरेट मीडिया और अमरीकी प्रशासन की मिलीभगत को तथ्य के साथ नंगा किया। विकिलीक्स ने कॉर्पाेरेट मीडिया के झूठ को तार–तार करते हुए बताया कि विभिन्न कट्टरपंथी, उग्रवादी और आतंकवादी संगठनों का मददगार अमरीका किस तरह पूरे विश्व में हस्तक्षेप और उकसावे की कार्यवाइयाँ करता है?
भारत में कोबरापोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन ने कॉर्पाेरेट मीडिया और सत्तापक्ष के सम्बन्धांे की कलई खोल कर रख दी है। कोबरापोस्ट के स्टिंग ने दिखाया कि किस तरह धनलोलुप मीडिया सत्तापक्ष के लिए चुनावी हवा तैयार करता है। इसके लिए धार्मिक प्रवचनों के जरिये हिन्दुत्व को बढ़ावा दिया जाता है। इसने देश के 16 से ज्यादा सबसे बड़े मीडिया संस्थानों को बेनकाब किया। ये संस्थान पैसे के लिए साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास और दंगे–फसाद को बढ़ावा दे रहे थे। इस तरह कोबरापोस्ट के स्टिंग ने भारतीय मीडिया के धनलोलुप और साम्प्रदायिक चेहरे को बेनकाब कर दिया।
वैकल्पिक मीडिया के रूप में मौजूदा समय में हमारे पास अनेक न्यूज पोर्टल और ब्लॉग्स हैं और अनेक लघु पत्रिकाएँ हैं जो मुख्यधारा की मीडिया के समानान्तर खड़े होने का प्रयास कर रही हैं। जरूरत है ऐसे प्रयासों में भाग लेने की, उनका सहारा बनने की, उन्हें समर्थन देकर मजबूत बनाने की।
––अमित राणा
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