सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

क्या उत्तर प्रदेश में मुसलमान होना ही गुनाह है?

पिछले तीन सालों में जब से योगी सरकार सत्ता में आयी है, उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की हालत खास से आम वाली बन गयी हैं। इतना आम कि अब इसे खबरों के बीच जगह भी नहीं मिलती। इताना आम कि पुलिस के लिए भी किसी का मुसलमान होना अपराधी होने के बराबर है। मुस्लिमों पर फिर्जी मुकदमें लगा कर सालों जेल में रखा जाना भी आम बात है।

इसकी नयी मिसाल मुख्य धारा की मीडिया के लिए आम बात थी, जो 25 मई 2020 पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले के गाँव टपराना में सामने आयी। गाँव के दो युवक अफजल और नौशाद गौ–हत्या के केस में जिला बदर किये गये थे। यह ऐसा केस है जो किसी भी मुसलमान पर कभी भी लगाया जा सकता है। उनकी जिला बदरी का समय पूरा होने में सात, आठ दिन बाकी थे। ईद के त्यौहार के कारण वे दोनों अपने घर आये थे। इस बात का पता जब स्थानीय पुलिस को लगा तो वह अफजल को पकड़ने के लिए ईद के दिन ही उसके घर पहुँच गयी, मानों कोई दुर्दान्त अपराधी आया हो। अफजल ने उनसे बचकर भागने की कोशिश की। इससे गुस्साये पुलिस अधिकारियों ने अफजल को इतनी बुरी तरह से पीटा कि उसे मुँह से खुन के फव्वारे छूटने लगे। बीच में बोलने वाले ग्रामीणों के साथ भी पुलिस ने यही सलूक किया। इससे ग्रामीणों और पुलिस के बीच झड़प हो गयी, जिसमें दो पुलिस कर्मियों के सर में चोट आयी और कई ग्रामीण घायल हुए बाद में अफजल को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। ग्रामीणों का कहना था कि पुलिस के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज होनी चाहिए, लेकिन दो स्थानीय नेताओं ने वादा किया कि हम एसओ साहब को बुलाकर यहीं फैसला करवा दंेगे। देर रात दोनों पक्षों के बीच फैसला हो गया।

अगले दिन शाम के समय ग्राम प्रधान के पास एसओ साहब का फोन आया कि अफजल को थाने लेकर आ जाओ। हम कुछ नहीं करेंगे। दोनों नेता, जिन्होंने फैसला करवाया था वे अफजल को लेकर झिंझाना थाने में पहुँच गये, लेकिन पुलिस ने उन्हें भी थाने में ही बैठा लिया।

रात के लगभग दो बजे पुलिस की दस–बारह गाड़ियाँ और पीएससी के दो ट्रक गाँव में आ धमके और गाँव में एक तरफ से मार–पीट और तोड़–फोड़ शुरू कर दी। लोगों ने दरवाजे नहीं खोले तो पुलिस ने हथौडों से तोड़ा और फिर अन्दर घुस गये। घर के अन्दर जो भी सामान था। सब तोड़–फोड़ दिया, जो भी सामने आया, उसे बुरी तरह से पीटा, यहाँ तक कि बच्चों, लड़कियों और जिन बुर्जुगों से चला भी नहीं जाता था, उन पर भी कोई रहम नहीं किया गया। कई घरों में मेहमान ईद मिलाप के लिए आये हुए थे, पुलिस ने उनको भी नहीं छोड़ा। एक ग्रामीण ने हमें बताया कि ऐसा लग रहा था जैसे कयामत की रात है। आज हम नहीं बचेंगे। ऐसा लग रहा था कि पुलिस ने हमें आतंकवादी मान लिया है। पुलिस लगातार गालियाँ दे रही थी, देशद्रोही कह रही थी और पाकिस्तान चले जाने की बात कर रही थी। गाँव के लगभग तीस–बत्तीस घरों में भयानक तोड़–फोड़ और मारपीट हुई तथा इकत्तीस लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। गाँव वालों को पुलिस के अत्याचार के खिलाफ बोलने की ऐसी सजा मिली।

अगली सुबह पुलिस ने 42 गाँव वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गयी। पुलिस ने मीडिया को बताया कि हम अफजल को पकड़ने गये थे तो गाँव वालों ने हमारे ऊपर पथराव किया, जबकि सच्चाई यह है कि उस वक्त पुलिस ने अफजल को थाने में बैठा रखा था। पुलिस ने मीडिया को पुलिस जीप पर पड़े पथत्रों के फोटो दिखाये। एक ग्रामीण ने हमें बताया कि पुलिस वालों ने गाँव से एक किलोमीटर दूर मजिस्द के पास अपनी गाड़ियाँ रोक रखी थी, ताकि किसी को खबर न हो सके। ऐसे में उन पर पत्थर कहाँ से बरस पड़े। गाँव वालों न बताया कि अगर पुलिस पर पत्थर फेंके भी गये तो गाड़ियाँ चार किलोमीटर चल कर थाने पहुँची और फिर उनके बोनट पर पत्थर कैसे रुक सकते है। पत्थरों में चुम्बक नहीं होता। पुलिस झूठ बोल रही है। इस घटना के बाद पुलिस के खिलाफ गाँव का कोई भी व्यक्ति बोलने से डरता है क्योंकि उन्हें धमकी दी गयी है कि अगर उन्होंने कुछ भी कहा तो उनका नाम भी एफआईआर में जोड़ दिया जाएगा। 80–90 अज्ञात लोगों की जगह खाली है। डॉक्टर अयाज खान ने पुलिस के खिलाफ मीडिया में बयान दिया, तो अगले दिन पुलिस ने डॉक्टर साहब का नाम भी एफआईआर में जोड़ दिया और उनके ऊपर लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काने का आरोप लगाया। डॉक्टर अयाज से जब हमने बात कि तो उन्होंने कहा कि लोगों को उनके हक के लिए जागरुक करना क्या सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काना है? दरअसल इस तरह के मामलों में कुछ अज्ञात लोगों को रखना पुलिस का एक जाँचा–परखा हथियार है, ताकि उसके ऊपर उँगली उठाने वाले को भी उसी मामले में फँसाया जा सके।

इस घटना के तीन महीने हो गये है। सभी नामजद लोग जेल में बन्द हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई है। भारतीय न्याय व्यवस्था ऐसी है कि इसमें किसी साधारण मामले का फैसला आने में भी सालों लग जाते है। ऐसे मामलों में पुलिस अपने हिस्से की कार्रवाई पूरी करने में जान–बूझकर ज्यादा समय लगाती है, ताकि फँसे हुए निर्दोष लोगों का अधिक से अधिक उत्पीड़न हो। इसके अलावा अभियुक्त दोषी हो या निर्दोष वह जेल में सड़ता है और सुनवाई के बाद वह निर्दोष पाया जाता है तो उसने अपनी जिन्दगी का जो कीमती समय जेल में काटा, उसकी क्षतिपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं है। भारतीय विधि आयोग का मानना है कि भारत में अदालतें आसानी से जमानत नहीं देतीं, ऐसी स्थिति में पुलिस द्वारा झूठे मुकदमों में फँसाये गये लोगों को किस हद तक उत्पीड़न झेलना पड़ता है, हम इसकी कल्पना ही कर सकते हैं।

स्थानीय अखबारों की भूमिका

मीडिया के लिए तो जैसे यह नियम ही बन गया है कि उसे सत्ता का गुणगान करना है और उसके कुकर्मों पर पर्दा डालना है। 2013 में शामली और मुजफ्फरनगर जिलों में हुए दंगे के कई महीने पहले से ही स्थानीय अखबारों ने अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने और बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को भड़काने का अभियान चला रखा था। कई मीडिया विशेषज्ञों का मानना है कि दंगों के पीछे इन अखबारों की भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि सौ से ज्यादा लोग मारे गये और हजारों लोग बेघर हो गये। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आपसी सौहार्द का जो माहौल था, उसे मीडिया ने जहरीला बना दिया और लोगों को एक भीड़ में बदल दिया जो छोटी सी बात पर भी किसी का कत्ल कर सकती है। टपराना की घटना में स्थानीय अखबारों ने कई दिन पहले से ही लिखना शुरू कर दिया कि वहाँ पर गौ तस्करी हो रही है, जिससे बहुसंख्य हिन्दुओं में मुसलमानों के खिलाफ गुस्सा पैदा हुआ और इतनी बड़ी घटना होने के बावजूद बहुत से हिन्दुओं ने कहा कि पुलिस ने सही किया। इनके साथ होना भी यही चाहिए। पिछले कुछ सालों में मीडिया मुसलमानों को हिन्दुओं की नफरत का पात्र बनाने में कामयाब रहा है और पुलिस भी इससे अछूती नहीं है।

मुस्लिमों के साथ पुलिस का रवैया

सीएसडीएस के आँकड़ांे के अनुसार 56 प्रतिशत पुलिस मानती है कि मुस्लिम जन्मजात अपराधी होते हैं। इसलिए पुलिस की आम सोच यह बन गयी कि मुस्लिम होना ही अपराधी होने के लिए काफी है। अपनी इसी सोच के आधार पर व्यवहार करने के लिए उसे राज्य की योगी सरकार का बढ़ावा भी हासिल है। गाँव के एक बुजुर्ग मुस्लिम का कहना था कि क्या पुलिस जाटों, गुर्जरों, ठाकुरों को भी इस तरह पीट सकती थी? आपने कभी इनके पूरे गाँव को पिटते देखा है। बाबूजी अब यूपी में मुसलमान होना ही गुनाह है।

पुलिस द्वारा अंजाम दी गयी यह शर्मनाक घटना केवल एक जगह ही नहीं घटी है, ऐसे बहुत से ऐसे मामले है जहाँ खास तौर पर मुस्लिम समुदाय के प्रति पुलिस की बर्बरता दिखायी देती है। जैसे नागरिकता कानून संशोधन के खिलाफ खालापार, मुजफ्फरनगर में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मुस्लिमों के घरों में पुलिस ने तोड़फोड़ की तथा बहुतों को संगीन धाराओं में गिरफ्तार किया। कैराना में नगरपालिका और पुलिस की मिलीभगत से लगभग 100 मुस्लिम परिवारों को उनकी जमीन से बेदखल करने और मेरठ में अवैध कॉलोनी बताकर 200 मुस्लिम परिवारों के घरों में पुलिस द्वारा आग लगवा देने जैसी घटनाएँ भी ताजा ही हैं।

इन घटनाओं से हमें पुलिस प्रशासन के एकतरफा रवैये का पता चलता है और जबसे योगी सरकार सत्ता में आयी है, तबसे मुस्लिमों पर अत्याचार और मुकदमे लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। एक समय था जब देश में आपसी सौहार्द की मिशालें दी जाती थीं, लेकिन अब सरकार और उसके चहेतों ने कानून अपने हाथ में ले लिया है और उसे अपने हिसाब से चला रहे हैं।

–– रवि

 
 

 

 

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