रेलवे का निजीकरण : आपदा को अवसर में बदलने की कला
कोरोना महामारी के समय लाखों मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल अपने घरों की ओर चल पड़े। खाने के लिए दो जून की रोटी क्या दाने–दाने को मोहताज हुए। बेरोजगारी का आलम यह है कि नयी नौकरियाँ मिलना तो दूर छँटनी की तलवार पर जैसे धार लग गयी है। पढ़े–लिखे लोग आजीविका चलाने के लिए ठेले–खोमचे लगाने को मजबूर हो गये हैं। वहीं हमारी सरकार ने ‘आत्मनिर्भरता’ और ‘वोकल फॉर लोकल’ के सुर में तथा ‘ताली–थाली’ के शोर के बीच कोरोना की आड़ लेते हुए रेलवे के 151 ट्रेनों के निजीकरण का फैसला कर लिया।
1 जुलाई 2020 को सरकार के रेलवे मंत्रालय ने 109 रूटों पर 151 ट्रेनों के निजी परिचालन के लिए प्रस्ताव माँगा था। यह प्रक्रिया नवम्बर महीने तक पूरी होगी और 2023 तक निजी ट्रेनें चलने लगेंगी। इसमें 30 हजार करोड़ का निवेश होगा। रेलवे के निजीकरण करने का कारण सरकार ने यह बताया कि यात्रियों को वर्ल्ड क्लास सुविधा मिलेगी, सुरक्षा और संरक्षण की गारण्टी होगी, नयी तकनीक से रेलवे का परिचालन होगा और रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। सरकार के द्वारा रेलवे के निजीकरण के पीछे बताये गये इन कारणों का विश्लेषण करना जरूरी है।
विश्व स्तर की सुविधा के नाम पर पिछले साल तेजस एक्सप्रेस नाम की दो टेªनें चलायी गयीं। एयर होस्टेस जैसे सुन्दर रंग–बिरंगे कपड़े पहनी महिला कर्मचारियों वाली इस ट्रेन का किराया आम किराये से तीन गुना है। ट्रेन का इतना महँगा किराया तब है जब रेलवे के निजीकरण करने की शुरुआत हो रही है, यानी जब ट्रायल किया जा रहा है तब, और जब रेलवे पूरी तरह से प्राइवेट हो जाएगी और अलग–अलग इलाके की ट्रेनें अलग–अलग कम्पनियों के हाथों में होंगी तो उनमें कोई कम्पटीशन नहीं होगा, बल्कि कम्पनियों की इलाकाई एकाधिकार जैसी स्थिति होगी। वे ग्राहकों से जितना किराया वसूलना चाहेंगी, ग्राहक को उतना देना होगा। यह बात हम आसानी से समझ सकते हैं। रेल मंत्रालय ने किराये को लेकर स्पष्ट जानकरी भी दी है कि निजी ट्रेनों का किराया उस क्षेत्र में चलने वाली प्राइवेट बसों और हवाई जहाजों की तर्ज पर होगा और सरकार का उस पर कोई नियन्त्रण नहीं होगा। तेजस ट्रेन का किराया महँगा होने के चलते हालत यह है कि आधी सीटें खाली होती हैं। हम ऐसे देश में हैं जहाँ बेरोजगार, छात्र, दिहाड़ी मजदूर और दूध विक्रेता जैसे छोटे कारोबारी सरकारी टेªन से कम खर्चें में नियमित यात्रा करते हैं। अब ये लोग अपने महीने की आधी कमाई को किराये में लुटाकर कैसे सफर करेगें? सुविधा के नाम पर प्राइवेट अस्पताल और प्राइवेट स्कूलों से हम पहले ही परिचित हैं और कोरोना संकट ने इनकी असलियत को पूरी तरह नंगा करके हमारे सामने ला दिया।
सरकार ने बताया कि रेलवे के निजीकरण के पीछे का एक मकसद अत्याधुनिक तकनीक द्वारा रेलवे का परिचालन है और बनने वाली निजी ट्रेनें ‘मेक इन इंडिया’ के द्वारा भारत में ही बनायी जाएँगी। क्या सरकार के हाथ में रहते हुए रेलवे का तकनीकी विकास नहीं हो सकता? इसका अत्याधुनिक तकनीकी विकास सरकार करा सकती है। लेकिन बुलेट ट्रेन मँगाने वाली सरकार इसकी जिम्मेदारी लेने के बजाय इसका निजीकरण कर रही है।
सरकार बार–बार यह दावा कर रही है कि रेलवे के निजीकरण से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। रेलवे बोर्ड के संयुक्त निदेशक अजय झा की बातों से इसका खुलासा हो जाता है। 2 जुलाई 2020 को खबर आती है कि रेलवे की 50 फीसदी नौकरी खत्म की जाएगी, सिर्फ रेलवे सुरक्षा के लिए 50 फीसदी भर्ती होंगे और बीते दो सालों की जो भर्तियाँ बहाल होनी थी उसकी भी समीक्षा की जाएगी। मतलब छँटनी तो होगी और नये रोजगार भी खत्म। रेलवे भारत का सबसे बड़ा अवरचनागत उद्योग है। सरकारी नौकरी की तैयारी करने वाले लड़कों के लिए रेलवे में नौकरी सिर्फ सपना ही रह जायेगा। रेलवे में कुल 12–3 लाख कर्मचारी हैं। सरकार के अनुसार निजीकरण के बाद सिर्फ गॉर्ड और लोकोपायलट ही सरकार की तरफ से रहेंगे। हाँ! बीपीसीएल की तरह निजीकरण से पहले स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति (वीआरएस) का मौका जरूर दिया गया है। सरकारी कर्मचारी के अलावा स्टेशन पर किताबों का स्टाल, खाने की दुकान, पानी बेचने वाले, मूँगफली बेचने वाले आदि पूरे देश में अनुमानत: लाखों लोग रेलवे से सीधे रोजगार पाते हैं। रेलवे के निजीकरण के बाद ये लोग कहाँ जाएंगे?
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट–2019 के अनुसार भारतीय रेलवे की कमाई बीते 10 सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है। रेलवे का परिचालन अनुपात 2017–18 में 98.44 फीसदी था। परिचालन अनुपात का मतलब है कि रेलवे को 100 रुपये कमाने के लिए 98.44 रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जो व्यापारिक नजरिये से सबसे खराब है। उससे भी खराब बात यह है कि रेलवे की इस समस्या का समाधान करने के बजाय सरकार रेलवे का निजीकरण कर रही है। यह वही सरकार है जो चुनाव से पहले भाषणों में कहा करती थी कि “जो लोग रेलवे को लेकर अफवाह फैला रहे हैं, सरासर गलत है। मुझसे ज्यादा इस रेलवे को कोई प्यार नहीं कर सकता। भाइयो–बहनो! इससे आप निश्चिंत रहो। निजीकरण न हमारी इच्छा है, न इरादा है, न सोच है। हम इस दिशा में कभी जा नहीं सकते आप चिन्ता मत कीजिये।” रेलवे में घाटा क्यों हो रहा है यह बड़ा सवाल है? जबकि हम देखते हैं कि रेलवे की टिकट बुकिंग दो महीने पहले से ही वेटिंग में चली जाती है। जनरल डिब्बे में लोग भेड़–बकरी की तरह एक के उपर एक सफर करते हैं। बैठने तक की जगह नहीं मिलती। फिर भी रेलवे को घाटा हो जाता है यह बात कुछ पचती नहीं है।
रेलवे का निजीकरण कोई नया नहीं है। इससे पहले ब्रिटेन, कनाडा, स्वीडन, जापान, ऑस्ट्रीलिया, न्यूजीलैण्ड और अन्य देशों में हुआ था और कुछ ही साल में उसका फिर से राष्ट्रीयकरण करना पड़ा। जिन देशों में अभी निजी ट्रेनें चल रही हैं, उनकी स्थिति ज्यादा ठीक नहीं है। 1993 में ब्रिटेन ने रेलवे का निजीकरण किया था। उसके कुछ ही साल बाद 2000 में ट्रैक/सिग्नल/स्टेशन और अन्य आधारभूत ढाँचा चलाने वाली कम्पनी दिवालिया हो गयी। इससे उबरने के लिए सरकार को उसका फिर से राष्ट्रीयकरण करना पड़ा। इसका खामियाजा भी जनता को ही भुगतना पड़ा। निजी कम्पनी और उसके मालिक का एकमात्र लक्ष्य मुनाफा कमाना होता है। और वे किसी भी कीमत पर इसे प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। ब्रिटेन की एक कम्पनी के मालिक रिचर्ड ब्रासन की ट्रेनें रेलवे के निजीकरण के बाद चलती थी। कहने को तो ब्रासन की कम्पनी ट्रेन को घाटे में चलाती रही, लेकिन घाटे में रहते हुए भी वह नये–नये कारोबार करता रहा और अमीर बनता गया। कुछ दिन बाद उसने अचानक ऐलान किया कि अब उससे और घाटा बर्दाश्त नहीं होता और वह इसका टैक्स नहीं दे सकता। इसके बाद क्या था? सरकार ने इसकी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली, यानी उसका बोझ जनता के ऊपर डाल दिया। जब तक कारोबार में दिखावटी घाटे के बावजूद मुनाफा था, तब तक निजी कम्पनी अपना व्यवसाय चलाती रही। उसके बाद घाटे की आपूर्ति के लिए रेलवे का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
रेलवे के निजीकरण से सबसे ज्यादा प्रभावित मेहनतकश वर्ग होगा, जो भारत की कुल आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है। जो मजदूर बड़े अरमानों के साथ गमछा में लिट्टी–चोखा बाँध कर सैकडों किलोमीटर की यात्रा करते हैं। उनके लिए वर्ल्ड क्लास की सुविधा की बात करना बहुत ही जालिमाना मजाक है। दरअसल यह लोगों की सुविधा के लिए नहीं, बल्कि पूँजीपतियों के मुनाफे की भूख को शान्त करने के लिए किया जा रहा है। जनता की सालों की मेहनत पर खड़े दुनिया में चैथे नम्बर के रेलवे नेटवर्क पर लम्बें समय से पूँजीपति आँखें गड़ाये बैठे थे। इनकी तमन्ना आज पूरी हो रही है। सरकार आज अचानक रेलवे का निजीकरण नहीं कर रही है, बल्कि पहले इसे धीरे–धीरे करना शुरू किया। पहले कुछ स्टेशन बेचा, फिर कुछ ट्रेन, अब 151 ट्रेनें और कल पूरा भारतीय रेलवे बेच देंगे। सिर्फ भारतीय रेलवे ही नहीं, जितने भी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ हैं, उन सबको बेच देंगे। भारत पेट्रोलियम कार्पाेरेशन लिमिटेड, भारतीय संचार निगम लिमिटेड, एयर इंडिया, प्लेटफॉर्म, कोयला खदान, महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड, भारतीय जीवन बीमा निगम और 23 अन्य पब्लिक सेक्टर उपक्रमों के विनिवेश (निजीकरण) की वित्त मंत्रालय ने घोषणा कर दी है। सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण को लेकर भाजपा और कांग्रेस की नीतियों में अधिक फर्क नहीं है। फर्क बस इतना है कि कांग्रेस धीमी स्पीड में कर रही थी और भाजपा सुपर फास्ट स्पीड में कर रही है। दरअसल इस निजीकरण का बीज तीन दशक पहले नवउदारवादी नीतियों के जरिये ही बो दिया गया था और इसे कांग्रेस ने ही रोपा था जो अब बढ़कर विष वृक्ष बन गया है।
कोरोना संकट का लाभ उठाते हुए निजीकरण के फैसले में गजब की तेजी आयी, क्योंकि अब पहले की तरह सरकारी कम्पनियों के निजीकरण के खिलाफ उनके कर्मचारी, यूनियनें और आम जनता प्रदर्शन/हड़ताल नहीं कर सकती। पहले नेता निजीकरण शब्द बोलने से डरते थे, उसके लिए नये–नये नाम जैसे–– निवेश, विनिवेश, निगमीकरण का प्रयोग करते थे। वहीं अब सीधे तौर पर निजीकरण का प्रयोग कर रहे हैं। इससे पहले सरकार द्वारा लिए गये रेलवे के निजीकरण के फैसले के खिलाफ इलाहाबाद, पटना, दिल्ली आदि बड़े शहरों में छात्रों ने जबरदस्त हड़ताल/आन्दोलन किया था और सरकार की नीति का विरोध किया था। अब कोरोना महामारी के समय जब लोग घर से नहीं निकल सकते, एक साथ इकट्ठा नहीं हो सकते, सरकार ने आपदा को अवसर बना लिया है और वह इस कला में इतनी माहिर हो गयी है कि उसने बैखोफ हो कर रेलवे के निजीकरण जैसा बड़ा फैसला लिया और उसे इसका फायदा भी हुआ क्योंकि विरोध का स्वर कोरोना महामारी के हाहाकार में दब गया है।
–– धीरज कुमार
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