106 वर्ष प्राचीन पटना संग्रहालय के प्रति बिहार सरकार का शत्रुवत व्यवहार –– पुष्पराज

 19 Jun, 2023 | राजनीति

बिहार की राजधानी पटना में 106 वर्ष प्राचीन पटना संग्रहालय को नष्ट कर एक हजार करोड़ से ज्यादा की लागत से एक नूतन संग्रहालय स्थापित किया गया है। इस नूतन संग्रहालय को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बताते हैं। एक राजकीय संग्रहालय को उजाड़कर सोसायटी एक्ट के तहत एक नूतन संग्रहालय को स्थापित करने की दरकार क्यों हुई? क्या देश के इतिहासकारों या इतिहास के अध्येताओं ने मुख्यमंत्री से एक नूतन संग्रहालय की माँग की थी? क्या मुख्यमंत्री अपने प्रदेश में स्थापित एक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के संग्रहालय के पुरातत्वों को एक एनजीओ के द्वारा संचालित समिति को सौंपकर एक संग्रहालय का इतिहास खत्म करने का अधिकार रखते हैं? क्या बिहार के मुख्यमंत्री खुद इतिहास और पुरातत्व के ज्ञाता हैं कि वे अपनी मर्जी से शताब्दी प्राचीन संग्रहालय का अस्तित्व मिटा कर नया इतिहास रचना चाहते हैं?  प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर डी–एन झा ने मृत्युशैय्या से हम अनजान को फोन कर… आगे पढ़ें

अग्निपथ योजना : नौजवानों की बर्बादी पर उद्योगपतियों को मालामाल करने की कवायद

14 जून 2022 को भारत सरकार ने सेना में भर्ती की प्रक्रिया में एक बड़ा बदलाव करते हुए ‘अग्निपथ’ नामक योजना की घोषणा की है। इस योजना से भर्ती होने वाले नौजवानों को सरकार ने ‘अग्निवीर’ नाम दिया है। नोटबन्दी, जीएसटी और कृषि कानून के समय जिस तरह के झूठे… आगे पढ़ें

असम में 40 लाख लोगों की नागरिकता संकट में

(प्रभावितों में मुसलमान ही नहीं हिन्दू भी शामिल) असम में रह रहे तकरीबन 40 लाख लोगों के लिए 30 जुलाई का दिन एक आपदा से कम न था। ये वे मनुष्य हैं जिनकी भारतीय नागरिकता संदिग्ध हो गयी है क्योंकि उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसार तैयार की गयी राष्ट्रीय नागरिक सूची में उनका नाम नहीं है। एक ही परिवार में अगर बेटे का नाम है तो माँ का नहीं, बहन का है तो भाई का नहीं। इससे इन लाखों लोगों में भीषण बेचैनी है क्योंकि इन्हें नहीं मालूम कि सूची में नाम होने का अर्थ इनके भविष्य के लिए क्या होगा। क्या वे निगरानी शिविरों में डाल दिये जाएँगे, क्या उन्हें भारत से बाहर जाने को कहा जाएगा? क्या उनका मताधिकार समाप्त हो जाएगा? क्या राजकीय संसाधन आज से उनके लिए नहीं होंगे? क्या वे अपने ही पड़ोसियों के लिए अनचाहे हो जाएँगे? जो हो, कामू के कथापात्रों की… आगे पढ़ें

असम में एनआरसी का प्रबल विरोध

–– अनुराग मौर्य  असम में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनआरसी) का सर्मथन करनेवाले दो पत्रकार भाइयों ने लिखा कि हमें खुद नहीं पता था कि हम क्या करने जा रहे हैं। हमने शुरू में इसकी कठिनाइयों का अनुमान नहीं लगाया था और बिना यह जाने राज्य के सवा तीन करोड़़ लोगों को उनकी जिन्दगी की सामान्य दिनचर्या, कारोबार और नौकरी से हटाकर नागरिकता की लम्बी लाइन में धक्के खाने के लिए लगा दिया। इसका अहसास हमें बाद में हुआ। वे कहते हैं कि हम नहीं चाहते कि एनआरसी देश के किसी भी हिस्से में लागू किया जाये। क्या वाकई एनआरसी और सीएए इतना पीड़ादायी है?  असम देश का पहला राज्य है जहाँ एनआरसी लागू की जा चुकी है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की सूची में नाम नहीं होने का मतलब यह है कि आप भारत के नागरिक नहीं हैं। 1951 के बाद वहाँ 2011 से इसका नवीनीकरण शुरू किया गया जिसका… आगे पढ़ें

आम चुनाव से पहले देश के सामने वास्तविक समस्या क्या है ?

देश में 2019 में होने वाले आम चुनाव की तैयारी जोरों पर है। चार राज्यों में हो रहे विधान सभा चुनावों को ‘सेमी फाइनल’ कहा जा रहा है। आम चुनाव से पहले वही सब कुछ दोहाराया जा रहा है जो दशकों से दोहराया जाता रहा है। फर्क इतना ही है कि इस बार यह खेल कुछ ज्यादा ही भद्दे ढंग से, अतिरेक के साथ और शर्म–हया की सारी सीमाओं को तोड़ कर खेला जा रहा है। भाजपा नरेन्द्र मोदी को पुन: जिताने के लिए राम मन्दिर के मुद्दे पर खून खराबा को फिर से तैयार दिख रही है। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एकबार फिर स्पष्ट कर दिया है कि उसके लक्ष्य (हिन्दू राष्ट्र) के आगे संविधान, कानून और सर्वोच्च न्यायालय कोई मायने नहीं रखते। अयोध्या मसले पर सर्वोच्च न्यायालय के रवैये से खफा होकर संघ “निर्णायक लड़ाई” छेड़ने का ऐलान कर चुका है। अयोध्या में आयोजित “धर्म… आगे पढ़ें

इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाले पर जानेमाने अर्थशास्त्री डॉक्टर प्रभाकर का सनसनीखेज खुलासा

 6 May, 2024 | राजनीति

पत्रकार– नमस्कार मैं दीपक शर्मा। दोस्तो, मोदी सरकार के भ्रष्टाचार की जो लोग कलई खोल रहे हैं या जो ऐतराज कर रहे हैं या सवाल उठा रहे हैं ऐसे लोगों को क्या प्रधानमन्त्री मोदी डराने की कोशिश कर रहे हैं? धमकी देने की कोशिश कर रहे हैं? अब ये आरोप मैं नहीं लगा रहा हूँ, ये गम्भीर आरोप मोदी जी पर, मोदी सरकार पर, देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति डॉक्टर प्रभाकर लगा रहे हैं। अपने ताजा इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि जो लोग इलेक्टोरल बॉण्ड पर, चन्दे पर सवाल उठा रहे हैं, उनको कहीं न कहीं मोदी डराने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे धमकी दे रहे हों। सुनिए डॉक्टर प्रभाकर का यह बड़ा खुलासा। डॉक्टर– प्राइम मिनिस्टर की इस बात का यह मतलब है कि वे थ्रेट दे रहे हैं, थ्रेट दे रहे हैं, क्या बोलते हैं आप हिन्दी में? पत्रकार– धमकी दे रहे हैं।… आगे पढ़ें

कर्नाटक चुनाव में भाजपा की हार, साम्प्रदायिक राजनीति और विरोधी धारा

मई के महीने में कर्नाटक चुनाव सभी प्रमुख अखबारों और मीडिया संस्थानों की सुर्खियों में बना रहा। अखबारों के कुछ स्थानीय संस्करणों को छोड़ दिया जाये तो बाकी मीडिया मोदी और भाजपा का गुणगान और प्रचार करता नजर आया। कर्नाटक के पूरे चुनाव के दौरान भाजपा ने हिन्दुत्ववादी विचारधारा, साम्प्रदायिक राजनीति और अंधराष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी ने कर्नाटक की भाजपा सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर उसकी घेरेबन्दी की। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार के समय कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आयी तो वह बजरंग दल और पीएफआई जैसे आतंकी हिन्दुत्ववादी संगठनों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगी। कांग्रेस ने भाजपा की राज्य सरकार पर ‘40 प्रतिशत कमीशन वाली सरकार’ का आरोप लगाते हुए, भ्रष्टाचार को भी प्रचार का मुद्दा बनाया। इसके जवाब में भाजपा की ओर से खुद प्रधानमंत्री मैदान में उतरे और बजरंगबली के नाम पर अपना चुनावी भगवा कार्ड खेला।… आगे पढ़ें

कश्मीर निश्चित तौर पर बोलेगा

जम्मू–कश्मीर से धारा 370 खत्म करने के बाद यह लेख अरुंधति रॉय ने न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए लिखा था। भारत ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी की 73वीं वर्षगांठ मना रहा है और राजधानी दिल्ली के ट्रैफिक भरे चैराहों पर चिथड़ों में लिपटे नन्हे बच्चे राष्ट्रीय ध्वज और कुछ अन्य स्मृति चिन्ह… आगे पढ़ें

कृषि कानून के चाहे–अनचाहे दुष्परिणाम

  –– अमित भादुड़ी प्लासी की निर्णायक लड़ाई जिसमें ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपना पैर जमाया और अपनी कम्पनी के शासन को स्थापित किया, उसमें हमारी हार युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि एक सेनापति के विश्वासघात के कारण हुई थी। एक अफ्रीकी कहावत ऐसी ही मनोवृति की चेतावनी देती है, “शेर की अगुआई में भेड़ों की एक सेना भेड़ की अगुआई वाली शेरों की सेना को हरा सकती है।” इस कहावत के पीछे का सच व्यापक है और यह न केवल युद्ध के मैदान पर, बल्कि कई आधुनिक सरकारों और लोकतांत्रिक नेताओं के ऊपर भी खरी उतरती है। एक गलत नेता, एक जहरीली विचारधारा, मूर्खतापूर्ण महत्त्वाकांक्षा या आनबान की झूठी भावना, ऐसा कहर ढा सकती है, जिससे बहुत ही कम समय में अकल्पनीय क्षति हो सकती है। और फिर, देश को उस नुकसान से उबरने में एक लम्बा समय लग सकता है। इतिहास में उदाहरण भरे पड़े… आगे पढ़ें

कॉरपोरेट–हिन्दुत्व गँठजोड़ को कैसे समझें

उपनिवेशवाद–विरोधी राष्ट्रवाद के विपरीत हिन्दुत्व “राष्ट्रवाद” अर्थशास्त्र को नहीं समझता है। वजह साफ है। उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद के केन्द्र में औपनिवेशिक शोषण की समझ थी। यही कारण है कि यह सभी पिछले शासकों और औपनिवेशिक शासकों के बीच अन्तर को समझता था–– पिछले शासकों ने किसानों से आर्थिक अधिशेष वसूल किया था और इसे देश के भीतर ही खर्च किया, जिससे रोजगार पैदा हुआय उपनिवेशवाद ने किसानों से अधिशेष को निचोड़ा और इसे विदेशों में भेज दिया जिसने घरेलू रोजगार को तबाह कर दिया। मुगलों और अंग्रेजों को बराबरी पर लाकर हिन्दुत्व इस बुनियादी फर्क को मिटा देता है, क्योंकि यह अर्थशास्त्र को समझ नहीं पाता है। विमर्श में बदलाव यह विडम्बना ही इसकी खाशियत रही है। जिस दौर में नव–उदारवादी पूँजीवाद की हवा निकाल रही है, कॉर्पोरेट–वित्तीय कुलीन वर्ग एक नया वैचारिक अवलम्ब चाहता है, जो पहले इस्तेमाल किये गये विचारों से अलग हो, यानी ऊँचे जीडीपी विकास दर… आगे पढ़ें

कोरोना लॉकडाउन भूख से लड़ें या कोरोना से

25 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने पूरे देश में अचानक लॉकडाउन का एलान कर दिया। कोरोना वायरस से देश का मध्यमवर्ग, पूँजीपति और मैनेजर, शासन–प्रशासन में बैठे तमाम पार्टियों के नेता और नौकरशाह (डीएम, एसपी, जज, तहसीलदार आदि) सब घबराये हुए हैं। बौखलाहट में वे तुगलकी फरमान जारी कर रहे हैं या किंकर्तव्यविमूढ़ अपने घरों में सुरक्षित बैठे रामायण–महाभारत का आनन्द ले रहे हैं। दूसरी ओर, देश की मेहनतकश आबादी का बड़ा हिस्सा 21 दिन के इस लॉकडाउन का मुकाबला करने के लिए सड़कों पर आ चुका है। बेरोजगार, बेबस, भूखे और लाचार लोग अपने दुधमुंहे बच्चों, गर्भवती औरतों और बूढ़े बुजुर्गों के साथ सैंकड़ों मील चलकर घर जा रहे हैं इस उम्मीद में कि शायद वहाँ जाकर वे भूखे नहीं मरेंगे या मरेंगे भी तो एक लावारिस मौत नहीं, अपनों के बीच। क्या वाकई हम महाशक्ति बन गये हैं? तो फिर देश के विकास के दावे को खोखला साबित… आगे पढ़ें

कोरोना वायरस, सर्विलांस राज और राष्ट्रवादी अलगाव के खतरे

 10 Jun, 2020 | राजनीति

दुनिया भर के इनसानों के सामने एक बड़ा संकट है। हमारी पीढ़ी का शायद यह सबसे बड़ा संकट है। आने वाले कुछ दिनों और सप्ताहों में लोग और सरकारें जो फैसले करेंगी, उनके असर से दुनिया का हुलिया आने वाले सालों में बदल जायेगा। ये बदलाव सिर्फ स्वास्थ्य सेवा में ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति में भी होंगे। हमें तेजी से निर्णायक फैसले करने होंगे। हमें अपने फैसलों के दीर्घकालिक परिणामों के बारे में सचेत रहना होगा। जब हम विकल्पों के बारे में सोच रहे हों तो हमें खुद से सवाल पूछना होगा, केवल यही सवाल नहीं कि हम इस संकट से कैसे उबरेंगे, बल्कि यह सवाल भी कि इस तूफान के गुजर जाने के बाद हम कैसी दुनिया में रहेंगे। तूफान गुजर जायेगा, जरूर गुजर जायेगा, हममें से ज्यादातर जिन्दा बचेंगे लेकिन हम एक बदली हुई दुनिया में रह रहे होंगे। इमरजेंसी में उठाये गये बहुत सारे… आगे पढ़ें

चुनावी ढकोसले के पीछे सत्ता का जन विरोधी चेहरा

पूरे फरवरी महीने और मार्च के पहले सप्ताह तक पाँच राज्यों के चुनाव का आठ चरणों में होना कोई अचरज की बात नहीं है और न ही चार राज्यों में भाजपा की सरकार बनना ही कोई अचरज की बात है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि अधिकांश स्वनामधन्य चुनावी विश्लेषक इस बात से हैरान हैं कि इतनी महँगाई, बेरोजगारी और सरकार द्वारा जनता की उपेक्षा तथा जन आन्दोलनों के दमन के बावजूद भाजपा चुनाव जीत कैसे गयी! वे इस सीधी–सरल कहावत को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि ‘जिसकी  लाठी, उसकी भैस’। चुनाव आयोग, ईडी, कोर्ट–कचहरी, पुलिस–प्रशासन और मीडिया पर जिसका प्रभाव है, वही तो चुनाव जीतेगा। बहुतेरे लोग दिन–रात एक करके चुनाव पर निगाह रखे हुए थे और उसके हर उतार–चढ़ाव से अपने दिल की धड़कनों को घटा–बढ़ा रहे थे। उनमें से कई लोगों को इस चुनाव से बहुत उम्मीदें थीं और चुनाव का नतीजा आने… आगे पढ़ें

चुनावी बॉण्ड घोटाला : भाजपा को चन्दा, कम्पनियों को धन्धा और जनता को फन्दा

15 फरवरी, 2024 को सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने चुनावी बॉण्ड (या इलेक्टोरल बॉण्ड) को गैर–संवैधानिक करार दिया। इसने राजनीतिक गलियारे में एक तूफान खड़ा कर दिया। पहले से ही कयास लगाये जा रहे थे कि चुनावी बॉण्ड के जरिये मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने बहुत अधिक रकम हासिल की है और इस मामले में उसने विरोधी पार्टियों को पटखनी दी है, लेकिन किसी को इस बात का भान तक न था कि यह दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला साबित होने वाला है जिसका दावा बाद में खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति डॉक्टर प्रभाकर ने किया। अपने ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया (एसबीआई) को यह सख्त आदेश दिया कि वह चुनावी बॉण्ड के जरिये हुए तमाम लेनदेन को जनता के सामने ले आये। सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश के जवाब में एसबीआई ने कहा कि 31 जून से पहले वे… आगे पढ़ें

जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का तर्कहीन मसौदा

 21 Nov, 2021 | राजनीति

सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक विकास के क्षेत्र में काम करने वाले हम जैसे कई लोग हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा घोषित–– उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक, 2021–– को देखकर पूरी तरह भयभीत भले ही ना हो लेकिन आश्चर्यचकित हैं। यह मुख्यत: दो बच्चे पैदा करने पर केन्द्रित है, जिसमें उल्लंघन के लिए दण्ड और कानून का पालन करने के लिए कई तरह के प्रोत्साहनों का उल्लेख किया गया है। इसके खिलाफ तेजी से बढ़ रही नकारात्मक प्रतिक्रिया का कारण इसमें निहित विभिन्न खतरे हैं, और साथ ही यह भी कि अधिकतर विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि ‘विकास सबसे अच्छा गर्भनिरोधक है’ और यह भी कि प्रोत्साहन के द्वारा जनसख्ंया स्थिरीकरण की बात बहुत पहले ही अतार्किक साबित हो चुकी है। 1994 के शुरू में इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन पॉपुलेशन एण्ड डेवलपमेण्ट (यूएन 1994) की कार्रवाई का मसौदा, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये… आगे पढ़ें

जर्मनी में नाजी शासन और आइन्स्टीन

18वीं शताब्दी के महान तर्कवादियों ने इस बात का प्रयास किया कि प्रकृति के वस्तुगत औचित्य की तलाश की जाये और उन्होंने पाया कि इसका सरोकार सार्वभौमिक तौर पर कारण–कार्य सम्बन्धों में है–– उस नियतिवाद में है जिससे प्रकृति की परिघटना संचालित होती है। लेकिन वे इससे और आगे गये और उन्होंने यह माँग रखी कि मानव समुदाय के क्रियाकलाप भी तर्क और विचार से और इस प्रकार अधिकार और न्याय से संचालित हों। उन्होंने तर्कहीनता के समूचे भंडार पर प्रहार किया, रूढ़ियों के प्रति अंधभक्ति, इसमें निहित असहिष्णुता और इसकी उन दलीलों का विरोध किया जो तर्क और विचार के खिलाफ सामने आती हैं। 1930 के दशक में अतार्किकता का दैत्य अपने वीभत्स रूप में सामने आया। इसका मुख्य लक्ष्य बदले की भावना से तर्क के खिलाफ आवाज उठाना था। हिटलर के कार्यक्रमों का एक हिस्सा विज्ञान के वस्तुगत और तार्किक मानकों को ध्वस्त करना था। उसका मानना था… आगे पढ़ें

तीसरी दुनिया : वायरस पर नियंत्रण के बहाने दुनिया को एबसर्ड थिएटर में बदलती सरकारें

(इस प्रहसन का पटाक्षेप कोरोना संकट की समाप्ति के साथ होगा। सरकार को पता है कि उसकी सारी नाकामयाबियों पर कोरोना भारी पड़ जायेगा। बेरोजगारी, महंगाई, जीडीपी में कमी सबका ठीकरा कोरोना के सिर फूटेगा।) लन्दन से प्रकाशित दैनिक ‘इंडिपेण्डेंट’ ने अपनी एक रिपोर्ट में इस बात पर चिन्ता जाहिर की है कि कई देशों की सरकारें कोरोना वायरस पर नियंत्रण के बहाने अपने उन कार्यक्रमों को पूरा करने में लग गयी हैं जिन्हें पूरा करने में जन प्रतिरोध या जनमत के दबाव की वजह से वे तमाम तरह की बाधाएँ महसूस कर रहीं थीं। रिपोर्ट के अनुसार 16 मार्च को संयुक्त राष्ट्र से सम्बद्ध विशेषज्ञों के एक समूह ने एक बयान जारी कर इन देशों को चेतावनी दी कि ऐसे समय सरकारों को आपातकालीन उपायों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक मकसद की पूर्ति के लिए नहीं करना चाहिए। बयान में कहा गया है– “हम स्वास्थ्य पर आये मौजूदा संकट की… आगे पढ़ें

तूतिकोरिन जनसंघर्ष का बर्बर दमन

22 मई 2018 को तमिलनाडु के तूतिकोरिन (तुतुकुड़ी) में वेदान्ता रिसोर्सेस की ताम्बा फैक्ट्री, स्टारलाईट इंडस्ट्रीज  के खिलाफ हजारों लोग प्रदर्शन कर रहे थे। जब प्रशासन ने उनकी बात अनसुनी कर दी तो उन्होंने पुलिस बैरिकेड तोड़कर कलेक्टर के दफ्तर में घुसने के कोशिश की। प्रशासन की नजर में यह ‘हिंसक’ कार्रवाई थी जिसे रोकने के लिए निशानेबाज पुलिस बुलाकर गोली चलायी गयी। सोशल मीडिया पर वायरल हुए घटना के वीडियो में साफ दिख रहा है कि प्रशासन ने चुन–चुनकर 14 लोगों को मारा जिनमें से ज्यादातर आन्दोलन के संगठनकर्ता या सक्रिय कार्यकर्ता थे। 17 साल की स्नोलिन के मुँह में बन्दूक ठूँसकर गोली चलायी गयी क्योंकि वह “प्रशासन के लिए गम्भीर खतरा” बन गयी थी। 1992 में महाराष्ट्र सरकार के औद्योगिक विकास निगम ने रत्नागिरि में स्टारलाईट इंडस्ट्रीज को ताम्बा निष्कासन फैक्ट्री खोलने के लिए 500 एकड़ जमीन दी थी। इस फैक्ट्री की प्रस्तावित उत्पादन क्षमता सालाना 60 हजार… आगे पढ़ें

देश में बढ़ती हड़तालें और धरना–प्रदर्शन

आज देश में ऐसा कोई राज्य नहीं है जहाँ धरने, प्रदर्शन और हड़तालें न चल रही हों। कहीं मजदूर हड़ताल पर हैं तो कहीं किसान आन्दोलन कर रहे हैं। कहीं शिक्षक और नौजवान धरने–प्रदर्शन कर रहे हैं तो कहीं पूर्व सैनिक सड़कों पर हैं। दिल्ली सरकार ने दिल्ली ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन (डीटीसी) के कर्मचारियों का वेतन कम करने का तुगलकी फरमान जारी कर दिया। इस कानून के खिलाफ 21 अक्टूबर को डीटीसी के संविदा कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। इसी दौरान शिक्षा विभाग, नगर–निगम एवं बाल विकास और दिल्ली शहरी आश्रम सुधार बोर्ड के संविदा कर्मचारियों ने भी हड़ताल की। इनकी माँगें बड़ी ही साधारण और संवैधानिक हैं–– समान काम, सामान वेतन की व्यवस्था लागू की जाये और नौकरी की सुरक्षा की पूरी गारन्टी दी जाये। 12 सितम्बर 2018 को पूर्वी दिल्ली नगर–निगम के सफाई कर्मचारियों ने वेतन का नियमित भुगतान और कर्मियों को स्थायी करने की माँग को लेकर हड़ताल… आगे पढ़ें

नया वन कानून: वन संसाधनों की लूट और हिमालय में आपदाओं को न्यौता

 17 Nov, 2023 | राजनीति

–– अखर शेरविन्द, संसद के मानसून सत्र में 26 जुलाई को लोकसभा ने महज 15 मिनट की चर्चा के बाद एक ऐसा विधेयक पारित कर दिया गया तो पूरे हिमालयी ही नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय सीमा से लगे देश के सभी इलाकों में बेरोकटोक कॉरपोरेटी लूट को तो न्यौता देगा ही। हिमालयी राज्यों में भयानक आपदाओं को न्यौता देने वाला साबित होगा। बीते 4 अगस्त को राज्यसभा से भी यह नया वन (संरक्षण) यानी वन (संरक्षण एवं संवर्द्धन) विधेयक पारित हो गया। 1980 के वन कानून में वन भूमि के गैर वानिकी उपयोग के लिए अब तक आठ संशोधन हुए थे लेकिन माना जा रहा है नये वन कानून ने वन भूमि का विभिन्न गैर–वन गतिविधियों के लिए दोहन को बहुत आसान बनाकर पहली बार कानून में आमूल–चूल बदलाव कर दिया है।  पर्यावरण विशेषज्ञ इस नये वन कानून को हिमालय में आपदाओं की विभीषिका को न्यौता देने वाला बता रहे हैं।… आगे पढ़ें

नये श्रम कानून मजदूरों को ज्यादा अनिश्चित भविष्य में धकेल देंगे

 14 Jan, 2021 | राजनीति

–– माया जॉन संसद में तीन नये श्रम कानून पारित किये गये हैं जो पहले से चले आ रहे 25 श्रम कानूनों की जगह लेंगे। इन तीनों कानूनों का मेल आधिकारिक तौर पर उन श्रम कानूनों के अन्त का प्रतीक है जो हमने बीसवीं सदी के ज्यादातर हिस्से में देखे हैं। ये कानून पहले से मौजूद उन चैखटों को पूरी तरह बदल देते हैं जिनका इस्तेमाल श्रम कानूनों के अमल के दायरे को तय करने के लिए किया गया था, जैसे किसी प्रतिष्ठान में काम करने वाले लोगों की संख्या। उदाहरण के लिए नया औद्योगिक सम्बन्ध कानून 300 मजदूरों तक के प्रतिष्ठान को सरकार की पूर्व अनुमति के बिना मजदूरों को बर्खास्त करने और छँटनी करने या प्रतिष्ठान को बन्द करने का अधिकार देता है। पहले यह सीमा 100 मजदूरों की थी। इस बदलाव ने मध्यम आकार के अधिकतर उद्यमों में काम करने वाले मजदूरों की भारी संख्या को औद्योगिक… आगे पढ़ें

नागरिकता संशोधन कानून और जनसंख्या रजिस्टर

पिछले साल दिसम्बर में गृहमंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को पूरे देश में लागू करने की घोषणा की। इसके साथ ही उन्होंने इस प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) भी संसद के दोनों सदन में पारित करवाया, जो अब नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) बन गया है। सरकार का कहना है कि यह कानून किसी को भी नागरिकता से वंचित करने के लिए नहीं, बल्कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीड़न के चलते आये हुए धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने का औजार है। उन धार्मिक समूह के नाम गिनवाते हुए गृहमंत्री ने संसद में कई बार मुस्लिम और यहूदी समुदाय का नाम न लेकर स्पष्ट कर दिया है कि यह कानून इन तीन देशों से आये हुए मुस्लिमों को नागरिकता नहीं देगा। सीएए बनने के तुरन्त बाद देश के सभी छोटे–बड़े शहरों और कस्बों में इसके खिलाफ आन्दोलन शुरू हो गये। पहले… आगे पढ़ें

नागालैंड में मजदूरों का बेरहम कत्लेआम

लम्बे समय से उत्पीड़न का शिकार भारत के उत्तर–पूर्वी राज्य नागालैंड में एक और दिल दहला देने वाली घटना घटी है। 4 दिसम्बर 2021 की शाम 21वीं पैरा कमांडो की फौजी टुकड़ी ने काम से लौट रहे मजदूरों पर अचानक हमला कर दिया। ये मजदूर मोन जिले की थीरू घाटी… आगे पढ़ें

पण्डोरा पेपर्स

पण्डोरा पेपर्स क्या हैं? पण्डोरा पेपर्स में दुनियाभर के ऐसे लोगों का लेखा–जोखा है जिन्होंने अपने देश में टैक्स से बचने के लिए सम्पत्ति को अपनी पहचान छुपाकर टैक्स बचत का स्वर्ग कहे जाने वाले देशों में रखा। पहले भी 2016 में पनामा पेपर्स में इस तरह का खुलासा हो चुका है। उसके बाद 2017 में पैराडाइज पेपर्स में भी दुनियाभर के अमीरों द्वारा छुपायी गयी सम्पत्ति का ब्यौरा मिला था। पण्डोरा पेपर्स में दो सौ देशों के अमीरों का विवरण है। इसमें दुनियाभर से सैकड़ों राजनीतिज्ञ, फोर्ब्स पत्रिका की सूची में शामिल सौ से ज्यादा अरबपति, सेलिब्रिटीज, ड्रग माफिया, रॉयल फैमिली और धार्मिक गुरु लिप्त हैं। इतना ही नहीं, इसमें कई देशों के पूर्व राष्ट्रपति और मौजूदा राष्ट्रपतियों के भी नाम हैं। बड़े सरकारी अधिकारी, प्रधानमंत्री, जज, मेयर और सेनाध्यक्ष तक शामिल हैं। इस जालशाजी का खुलासा करने के लिए 117 देशों से, छ: सौ से ज्यादा पत्रकार इस… आगे पढ़ें

पूँजीवाद के खात्मे के बाद उसकी जगह कैसी व्यवस्था होगी?

आज दुनिया कई तरह के संकटों का सामना कर रही है। इनमें सबसे प्रमुख है पर्यावरण की आसन्न तबाही, जिसे तेजी से बढ़ता धरती का तापमान और समुद्र का जल स्तर, बड़े पैमाने पर प्रजातियों का विलोप और ह्रास, जहरीली हवा, समुद्र सहित हर जगह का दूषित और प्रदूषित पानी, मिट्टी के लचीलेपन का नाश और दिनोंदिन बंजर होती जमीन। हम तेजी के साथ उस मुकाम की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ मानव समाज को हमने जिस रूप में जाना–समझा है, वैसा बने रहना असम्भव हो जायेगा। साथ ही, हम हर तरह कि असमानता अभूतपूर्व बढ़ोतरी के प्रत्यक्षदर्शी हैं–– आमदनी, सम्पत्ति, स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा, स्कूल से लेकर पीने का पानी तक हर चीज तक पहुँच, उत्तरी और दक्षिणी दोनों गोलार्धों में नवफासीवादी आन्दोलनों का फैलावय मुट्ठीभर वैश्विक निगमों द्वारा सत्ता पर बेइन्तहा कब्जाय और लगता है जैसे युद्धों का कोई अन्त ही नहीं। हर जगह नाना प्रकार के अलगावों की… आगे पढ़ें

प्रशासन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ठेके पर

“अपने खर्च पर हैं कैद, लोग तेरे राज में” मई 2014 में सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने “मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस” का नारा दिया था। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपने बहुत से नारों और वादों को जुमला कहकर उनसे पल्ला झाड़ लिया, लेकिन गवर्नेंस वाला नारा वास्तव में जमीन पर उतारा गया है। आज केन्द्रीय मंत्रायलों में एक नये तरह के नौकरशाह भर दिये गये हैं, जिनका औपचारिक नाम है “कंसलटेंट” या सलाहकार। इन अनौपचारिक नौकरशाहों की फौज का एक हिस्सा तो संयुक्त सचिव स्तर के सर्वाेच्च पदों पर काम कर रहा है, जिन्हें आईएएस जैसी किसी सिविल सर्विस परीक्षा के जरिये नहीं, बल्कि निजी क्षेत्र की कम्पनियों में काम के अनुभवों के आधार पर भर्ती किया गया है। इनमें से ज्यादातर विदेशी बहुराष्ट्रीय सलाहकार कम्पनियों के कारिन्दे हैं। ये ‘गवर्नमेंट’ को पूँजीपतियों की ‘गवर्नेंस’ या आया बनाने के काम में खास भूमिका निभा रहे हैं। भारत… आगे पढ़ें

फासीवाद का काला साया

नागरिक स्वतंत्रताओं पर हमले, सत्ता के घनीभूत केन्द्रीकरण के लिए राज्य के पुनर्गठन और भय के सर्वव्यापी प्रसार के मामले में मोदी के शासन के वर्ष इन्दिरा गाँधी द्वारा लगायी गयी इमरजेंसी के समान ही हैं। लेकिन समानता यहीं खत्म हो जाती है। दरअसल, दोनों में कई तरह की बुनियादी असमानताएँ हैं। पहली, इमरजेंसी के समय लोगों को आतंकित करने और उन्हें “राष्ट्रवाद” का पाठ पढ़ाने के लिए पीट–पीटकर मार डालने वाली हिँसक–उन्मादी भीड़ और गली के गुण्डे नहीं थे। तब राज्य खुद ही लोगों का दमन कर रहा था। लेकिन आज हिन्दुत्व के लफंगे गिरोह भी सरकार के आलोचकों को उनके “तुच्छ जुर्मों” के लिए माफी माँगने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसके अलावा, इन भयाक्रान्त आलोचकों के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार भी लटकी हुई है। कोई उस बेचैन करने वाले दृश्य को कैसे भूल सकता है जिसमें एक प्रोफेसर को फेसबुक पोस्ट में सरकार की आलोचना… आगे पढ़ें

बेरोजगार भारत का युग

 20 Aug, 2022 | राजनीति

–– माया जॉन तथ्यों के ऐसे बहुत से सूचक मौजूद है जो भारत में रोजगार सृजन के लम्बे चैड़े वादों का खण्डन करते हैं। रेलवे नौकरी के अभ्यर्थियों के हालिया विरोध प्रदर्शन के सामने आये दृश्यों और रिपोर्टों ने भारतीय युवाओं के बीच व्याप्त भयानक रोजगार असुरक्षा की बड़ी समस्या को उजागर कर दिया है। कोविड–19 महामारी के दौरान लगाये गये 2020–21 के लॉकडाउन के कारण हुए विशाल पलायन से पहले ही बेरोजगारी के चेतावनी भरे आँकड़े सामने आ चुके थे। महामारी से काफी पहले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने 2017–18 में, 6–1 फीसदी बेरोजगारी दर चिन्हित की थी, जो कि पिछले 40 सालों में सबसे खराब थी। अप्रैल–मई 2020 के बाद के महीनों में यह तस्वीर और अधिक निराशाजनक ही साबित हुई है। उदाहरण के लिए दिसम्बर 2021 में सेन्टर फॉर मोनिट्रिंग इण्डियन इकोनोमी (सीएमआईई) ने बताया कि करीब 5 करोड़ 30 लाख भारतीयों के पास कोई काम नहीं… आगे पढ़ें

बॉर्डर्स पर किसान और जवान

 16 Nov, 2021 | राजनीति

यह अजब संयोग ही है कि अगस्त और सितम्बर महीने में महज 20–25 दिनों के अन्तराल में देश की ऐसे बॉर्डर्स पर जाने का सुअवसर मिला, जहाँ एक ओर देश के फौजी देश की सरहदों की निगेबानी कर रहे हैं। यह मौका मुझे 21 अगस्त से 28 अगस्त की जोखिम भरी लद्दाख यात्रा में मिला। देश की सेना में अधिकांश सैनिक किसानों और मेहनतकशों के ही बच्चे हैं। वहीं दूसरी ओर, गत 22 और 23 सितम्बर को दिल्ली में सिंघू, टिकारी और गाजीपुर बॉर्डर्स पर गये जहाँ मोदी सरकार द्वारा लाये गये किसान विरोधी तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ देश के पाँच सौ से अधिक संगठनों के किसान प्रतिरोध प्रदर्शित करते हुए दस महीने से दिल्ली का घेरा डाले हुए हैं। इन विगत दस महीनों में लगभग 700–800 किसानों ने शहादतें दी हैं जिनमें महिला किसान भी शामिल हैं। किसान एमएसपी पर कानूनी गारन्टी और तीनों कृषि कानूनों की… आगे पढ़ें

भारत और कोरोना वायरस

हालाँकि कोरोना वायरस का प्रभाव यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका पर ज्यादा हुआ है, फिर भी भारत इस बीमारी का सबसे बड़ा शिकार होने का दावेदार है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने संकट का सामना करने के लिए एक शातिर जनसम्पर्क अभियान के अलावा बहुत कम काम किया है। वास्तव में दिल्ली द्वारा उठाये गये कई नीतिगत कदमों से इस खतरनाक वायरस के प्रसार की सम्भावना बढ़ गयी है। जब मोदी ने 24 मार्च को 21 दिन के राष्ट्रव्यापी बन्द की घोषणा की, तो उन्होंने इससे पहले कोई चेतावनी नहीं दी। प्रधानमंत्री के बात खत्म करने से पहले ही घबराये हुए शहरी लोग–– ज्यादातर मध्यम वर्ग के लोग–– भोजन और दवाएँ जमा करने के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर कर दिये गये, जिससे लगभग निश्चित रूप से कोविड–19 के प्रसार में तेजी आयी। लॉकडाउन ने तुरन्त करोडों लोगों को बेरोजगार बना दिया, जिसके चलते बहुत से लोग… आगे पढ़ें

भारतीय राज्य और जन कल्याण! तौबा, तौबा

कोरोना महामारी के कारण राज्य का कल्याणकारी स्वरूप दुनिया के बौद्धिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है। कल्याणकारी राज्य का सीधा–सा अर्थ है राज्य द्वारा अपने सभी नागरिकों की आर्थिक और सामाजिक भलाई के लिए काम करना। दरअसल पहले विश्व युद्ध के दौरान सन 1917 में रूस में हुई समाजवादी क्रान्ति ने पूरी दुनिया को राज्य का एक सच्चा जनवादी स्वरूप दिखाया। रूसी क्रान्तिकारियों ने रूस की उस समय की अर्थव्यवस्था और समाज का समाजवादी सिद्धान्तों के अनुरूप रूपान्तरण शुरू किया था। इस आर्थिक सामाजिक रूपान्तरण ने समाजवाद की खूबसूरती और पूँजीवाद की सड़ान्ध को दुनिया की जनता के सामने ला दिया। इसने दुनिया को दिखाया कि ऐसा राज्य भी हो सकता है जो मुट्ठीभर अमीरों की सेवा करने के बजाय मेहनतकशों की सेवा करे। रूसी क्रान्ति के बाद दुनिया के कोने–कोने में साम्राज्यवादी और पूँजीवादी राजसत्ताओं के खिलाफ जनता की लडाइयाँ तेज हो गयीं। इससे खौफ खाकर… आगे पढ़ें

मणिपुर हिंसा : हिन्दुत्व के प्रयोग का एक और दुष्परिणाम

पूर्वाेत्तर का बेहद खुबसूरत राज्य–– मणिपुर पिछले एक महीने से मैतेई और कुकी जातीय समूहों के बीच हिंसा की आग में जल रहा है। वहाँ से आ रही तस्वीरें यूक्रेन युद्ध और अफ्रीकी देशों में चल रहे गृह युद्ध की तस्वीरों से भी भयावह हैं। इन तस्वीरों में घर, दुकानें, शोरूम के साथ ही पूरे के पूरे गाँव और मुहल्ले जलते हुए दिख रहे हैं। इनमें एके–47 और एम–16 जैसे अत्याधुनिक हथियारों से लैस नौजवानों की टोलियाँ हैं। आक्रामक भीड़ है। जान बचाकर भागती औरतें और बच्चे हैं। उजड़े हुए परिवारों के हुजूम हैं। अनुमान है कि 35 लाख की छोटी आबादी वाले मणिपुर में 30 हजार लोगों के आशियाने उजाड़ दिये गये हैं। हजारों लोगों ने सुरक्षा की कोई गारण्टी न होने के चलते दूसरे जातीय समूह के वर्चस्व के क्षेत्र में पड़ने वाले अपने घरों को खाली कर दिया है। ये लोग अपने ही राज्य में शरणार्थी बन… आगे पढ़ें

मुनाफा नहीं, इंसानियत ही दुनिया को बचा सकती है

अमरीका आर्थिक, तकनीकी और सामरिक मामले में दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है। उसे धरती का स्वर्ग माना जाता है और वह ऐसा दावा भी करता है। लेकिन अब इस दावे की हवा निकलती दिख रही है। किसने यह सोचा था कि वहाँ कोरोना के मरीजों की संख्या 15 लाख से ऊपर पहुँच जायेगी और 90 हजार से ज्यादा मौतें होंगी। उसके हर अस्पताल के सामने मृतकों का ढेर लग जायेगा। कोरोना महामारी के आगे अमरीका की ऐसी दुर्दशा हो रही है कि दुनिया भर के लोग दाँतों तले ऊँगली दबा ले रहे हैं। यह ट्रम्प प्रशासन की असफलता नहीं है, बल्कि अमरीकी पूँजीवादी मॉडल की असफलता है, जिसे इस तरह विकसित किया गया है कि वह महामारी की इस समस्या के आगे लाचार नजर आ रहा है। मुनाफे पर केन्द्रित अमरीकी पूँजीवादी व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है, जो इनसानियत के हर रिश्ते को नकारकर रुपये–पैसे के सम्बन्धों पर… आगे पढ़ें

मोदी के शासनकाल में बढ़ती इजारेदारी

 14 Jan, 2021 | राजनीति

–– रविकान्त मुकेश अम्बानी और कुछ मुट्ठीभर अरबपतियों ने राजनीतिक साँठ–गाँठ से चलने वाले इस पूँजीवाद को मोदी शासन के दम पर अपने हाथों का खिलौना बना लिया है। एक बार जॉन डी रॉकफेलर ने कहा था, “खुद कुछ न होते हुए भी सब कुछ नियंत्रित किया जा सकता है।” यह, पिछली शताब्दी के सबसे अमीर व्यक्ति के पीछे का दर्शनशास्त्र था। आधुनिक एकाधिकार के सिद्धान्तों को अमल में लाने वाला वह पहला व्यक्ति था। आपसी प्रतिस्पर्धा के इतर रॉकफेलर बड़े–बड़े निगमों के आपसी साँठ–गाँठ का पक्का समर्थक था। रेलमार्गों, तेल रिफाइनरी और चुनाव जीतकर आये भ्रष्ट नेताओं के निजी गठजोड़ के चलते उसने अमरीका में बेतहाशा सम्पत्ति और ताकत इकट्ठा कर ली थी। उसने बड़े पैमाने पर फैले एकाधिकार और उत्पादक संघों के जरिये व्यक्तिगत रूप से चलने वाले व्यवसायों को बेरहमी से खत्म कर दिया था। उसकी कम्पनी स्टैण्डर्ड ऑयल तो खैर डूब गयी जिसने अमरीका के एण्टीट्रस्ट… आगे पढ़ें

मोदी सरकार का आखिरी बजट : चुनावी जुमलों का जखीरा

जाती हुई सरकार का बजट अन्तरिम बजट या लेखा अनुदान माँग (वोट ऑफ एकाउंट) होता है, ताकि नयी सरकार के गठन होने तक अगले वित्तवर्ष के कुछ महीनोें का खर्च चल जाये। लेकिन मोदी सरकार ने अपने अन्तरिम बजट को न सिर्फ पूर्ण बजट के रूप में पेश किया, बल्कि चुनावी फायदे के मद्देनजर गुब्बारे में कुछ ज्यादा ही हवा भर दी। और तो और इस बजट में जुमलों का अम्बार लगा दिया और चुनावी ‘दृष्टिकोण’ पत्र को 2030 तक विस्तारित किया। हमारा देश आज चैतरफा संकट से घिरा हुआ है। जिन समस्याओं से तंग आकर जनता ने मनमोहन सरकार को हटाया था वे आज पहले से भी विकट रूपांतरण कर चुकी हैं। अर्थव्यवस्था की गति मंथर है। 2018 की अंतिम तिमाही में विकास दर 6 फीसदी रहा जो डेढ़ साल में सबसे कम है। विकास दर के आँकड़ों में हेराफेरी करके उसे ज्यादा दिखाने का भंडाफोड़ भी कई संस्थाओं… आगे पढ़ें

यूएपीए : किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने वाला काला कानून

नया यूएपीए कानून सरकार को अभूतपूर्व शक्तियाँ देने वाला है, जो उसकी ताकत के साथ ही उसकी जवाबदेही भी बढ़ाता है। क्या सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं को ‘भले ही वे अमित शाह की तरह नैतिक रूप से ईमानदार लोकतंत्रतवादी ही क्यों न हों’, ‘जिनका कानून के शासन का सम्मान करने का लम्बा रिकॉर्ड हो’ किसी व्यक्ति को ‘आतंकवादी’ घोषित कर देने का अधिकार दिया जा सकता है? वह भी बिना उस व्यक्ति पर मुकदमा चलाये और उसे दोषसिद्ध साबित किये बगैर? नरेंद्र मोदी सरकार गैरकानूनी गतिविधि (निवारण) अधिनियम यानी यूएपीए में एक संशोधन के जरिये खुद को ठीक इसी शक्ति से लैस करने की योजना बना रही है। सबसे खराब यह है कि ये बदलाव जो कि भारत के इतिहास का अब तक सबसे खतरनाक कानून है लोकसभा और राज्यसभा दोनों से पारित हो चुका है। यूएपीए में संशोधन करने का विधेयक केन्द्रीय गृहमंत्री द्वारा लोकसभा में जुलाई के आखिरी… आगे पढ़ें

यूरोपीय और भारतीय किसानों के आन्दोलन और उनके साझे मुद्दे

–– सोमा एस मोरला, पूरे यूरोप में चारों तरफ किसान आन्दोलन कर रहे हैं। उनकी प्रमुख माँग है फसल के लिए सुनिश्चित और उचित मूल्य। इसके लिए सरकार द्वारा किये गये वादे को पूरा नहीं करने के खिलाफ वे आन्दोलन कर रहे हैं। किसानों ने हजारों ट्रैक्टरों समेत पेरिस की ओर जाने वाले सभी सात मोटरमार्गों को बन्द कर दिया और वे शहर के बाहर डेरा डाले बैठे हैं। विरोध प्रदर्शन फ्रांस से शुरू होकर जल्द ही जर्मनी तक फैल गया, जहाँ नाराज किसानों ने बर्लिन के आधे हिस्से को अस्त–व्यस्त कर दिया। रोमानिया, नीदरलैंड, पोलैंड, लिथुआनिया, बुल्गारिया और बेल्जियम तक भी किसान आन्दोलन फैल गया। स्पेन, इटली और ग्रीस में भी किसान बड़ी रैलियाँ आयोजित करने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ नौजवान किसानों को सरकारी इमारतों पर खाद और गाय का गोबर छिड़कते हुए देखा गया और कुछ व्यस्त मार्गों पर पुराने टायरों और कृषि अपशिष्ट को आग… आगे पढ़ें

ये मौसमे गुल गरचे, तरब खेज बहुत है–––– (अर्थव्यवस्था की तबाही, बेरोजगारी और मजदूरों की बर्बादी के समय अमृत महोत्सव का खटराग)

कोरोना महामारी की तीन लहर गुजर जाने के बाद भारत सरकार हमें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने का शुभ सन्देश दे चुकी हैं। यानी अर्थव्यवस्था की स्थिति अब कमोबेश कोरोना–पूर्व हालत में पहुँच चुकी है, मानो पतझड़ के बाद बसन्त आ गया हो। ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ भी शायद इसी वसंत के उन्माद का आनन्द लेने के लिए शुरू किया गया है। जिस पर अरबों रुपये खर्च करके पूरे साल में करीब 20 हजार कार्यक्रम किये जायेंगे। इस महोत्सव की जायज वजहें हैं। जीडीपी नाममात्र ही सही लेकिन बढ़ी है। शेयर भले ही कुलांचे न भर रहा हो पर आगे बढ़ रहा है। सट्टेबाजों ओर अरबपतियों की दौलत में खूब बढ़ोतरी हो रही है। जनता की सम्पत्ति बेरोकटोक नीलाम हो रही है। सबसे अच्छी बात है कि कंगाल जनता हर चोट को लगभग ख़ामोशी से बर्दाश्त करती जा रही है। उत्सवों के उन्माद में डूबने का इससे अच्छा मौका… आगे पढ़ें

लॉकडाउन, मजदूर वर्ग की बढ़ती मुसीबत और एक नयी दुनिया की सम्भावना

कोरोना संकट पर देश–दुनिया में इतनी ज्यादा उथल–पुथल मची है और इस का असर इतना व्यापक है कि इसे एक लेख में समेटना लगभग नामुमकिन है। दुनिया के हर देश और हर इनसान के पास कोरोना को समझने और समझाने का अपना न्यारा तरीका है। लेकिन जो तथ्य और रिपोर्टें सामने आयीं हैं, उनके आधार पर एक आम राय तक पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। कोरोना महामारी ने दुनिया की उत्पादन व्यवस्था को लगभग ठप्प कर दिया है। सरपट दौड़ने वाली रेलें जाम हैं, समुद्र में घूमने वाले जहाज रुके पडे़ हैं, आकाश चूमने वाले हवाई जहाज चूहे की तरह अपनी माँद में बैठे रहने को मजबूर हैं। शीशे की गगनचुम्बी इमारतों से कबूतरों की आवाज आने लगी है, जहाँ न दिन का पता होता था न रात का। तीन शिफ्ट में धड़–धड़ चलने वाली मशीनों के चक्के रुक गये हैं। धधकती भट्टियों से उठती आग बुझ गयी… आगे पढ़ें

लोकतंत्र की हत्या के बीच तानाशाही सत्ता का उल्लास

देश में निर्दोष आन्दोलनकारियों पर सरकारी दमन की खबरें अखबारों की सुर्खियाँ बन गयी हैं। विरोध की उनकी आवाज को खामोश करने के लिए पुलिस उन्हें प्रताड़ित कर रही है और झूठे केस में फँसाकर जेल मे बन्द कर रही है। सदफ जफर ने कोर्ट से गुहार लगायी है कि उनके पूरे परिवार को उत्तर प्रदेश पुलिस से खतरा है। उन्होने बताया कि पुलिस किसी भी समय उनके घर आ जाती है और उनके बच्चों से बोलती है कि “तुम्हारी माँ पत्थरबाज है, कहाँ छिपी है वो? उसे बाहर निकालो”। सदफ जफर एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्हांेने सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध किया था। इसके चलते यूपी सरकार ने उन पर 40 केस और 4 एफआईआर दर्ज की हुई हैं। सदफ जफर अकेली नहीं हैं, यूपी सरकार ने पूर्व आईजी एस आर दारापुरी पर एनआरसी कानून के विरोध में शामिल होने और सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने का आरोप… आगे पढ़ें

वन नेशन नो इलेक्शन

हाल ही में बहुत अधिक बहस हुई है – मेरी राय में पूरी तरह से गुमराह – वन नेशन, वन इलेक्शन के इस सुपर आइडिया पर। इस कॉलम के नियमित पाठकों को पता होगा कि मैं “गुमराह” जैसे शब्दों का हल्के ढंग से इस्तेमाल नहीं करता। इसलिए जब मैं कहता हूँ कि “गुमराह”, तो मेरा मतलब यह है कि कोई बहस नहीं होनी चाहिए बल्कि यह कि सही बहस होनी चाहिए। लेकिन इससे पहले कि हम सही बहस शुरू करें, पहले गैर–बहस से छुटकारा पायें–– क्या वन नेशन, वन इलेक्शन’ आज जो है, उससे बेहतर विचार है? निस्सन्देह हाँ! आज हमारे पास ‘वन नेशन, बेहद इलेक्शन’ है। और यह आज भारत की सबसे बड़ी समस्या का मर्म स्थल है–– बहुत अधिक लोकतंत्र। आप यहाँ जितने अधिक चुनाव होते हैं, कुछ भी बदलना उतना ही असम्भव होता है। उदाहरण के लिए मुम्बई को ही लीजिए। हर साल इस विराट शहर के… आगे पढ़ें

वैश्विक विरोध प्रदर्शनों का साल

संघर्षों से भरा एक और साल गुजर गया। अगर सन 2019 को वैश्विक विरोध प्रदर्शन का साल कहें, तो अतिश्योक्ति न होगी। यह साल अल्जीरिया में सरकार विरोधी आन्दोलन से शुरू होकर दिसम्बर में भारत के ‘नागरिक संशोधन कानून’ के जबरदस्त विरोध से खत्म हुआ। यह 21वीं सदी का राजनीतिक रूप से अब तक का सबसे सरगर्मी से भरा साल रहा। इस साल से पहले ऐसा लगता था कि नवउदारवाद की जन–विरोधी नीतियों के आगे जनता आत्मसमर्पण कर चुकी है। उसने सभी अन्याय–उत्पीड़न चुपचाप बर्दाश्त करने की ठान रखी है, लेकिन बीते साल ने इसे झुठला दिया। वह शोषक सरमायेदारी से जनता के मोहभंग की व्यापक शुरुआत का साल बन गया है। साल 2019 की शुरुआत अल्जीरिया में अब्देलअजीज के तानाशाही शासन के खात्मे की माँग के साथ होती है। दो दशक पुराने उसके निरंकुश शासन में आम जनता की हालत बद से बदतर हो गयी थी। लेकिन इस साल… आगे पढ़ें

सत्ता के नशे में चूर भाजपाई कारकूनों ने लखीमपुर खीरी में किसानों को कार से रौंदा

 23 Nov, 2021 | राजनीति

लखीमपुर खीरी में प्रदर्शन के दौरान गाड़ियों द्वारा किसानों को कुचलने से 2 किसान तत्काल शहीद हो गये तथा 2 किसान अस्पताल ले जाने के दौरान रास्ते में शहीद हो गये। किसान नेता तेजिन्दर सिंह विर्क सहित अन्य कई किसानों को गम्भीर रूप से चोटें आयी हैं। किसान नेता तेजिन्दर… आगे पढ़ें

सामाजिक जनवाद की सनक

(अमरीका में सामाजिक जनवाद के बड़े चेहरे ‘बर्नी सैण्डर्स’ को अन्त में राष्ट्रपति के प्रत्याशी से खुद को हटा देना पड़ा। यह उन ताकतों के लिए जोरदार झटका है जो मौजूदा नवउदारवादी दौर में सामाजिक जनवाद का झण्डा उठाये हुए हैं। दूसरी ओर, कोरोना महामारी के दौर में लॉकडाउन के चलते दुनिया भर के मजदूर वर्ग और दूसरे गरीब तबकों पर भारी मार पड़ी है, उनकी मदद के लिए एक बार फिर कल्याणकारी लोक–लुभावनवादी कार्यक्रमों की माँग उठ रही है। इस तरह पूँजीवाद के अन्दर ही समस्या के समाधान को पेश किया जा रहा है। इससे जरूर ही सामाजिक जनवादी तर्कों को बल मिलेगा। लेकिन लेखक ने यहाँ साफ तौर पर दिखाया है कि ऐतिहासिक रूप से सामाजिक जनवाद दिवालिया हो चुका है और वह दुनिया को कोई बेहतर भविष्य उपलब्ध नहीं करा सकता, सिवाय पूँजीवाद की सेज पर खुद को नग्न परोसने के।) आज कल संयुक्त राज्य अमरीका में… आगे पढ़ें

सीबीआई विवाद : तोता से कारिन्दा बनाने की कथा

2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को ‘पिंजरे का तोता’ कहा था। पिछले दिनों सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच चले विवाद और वर्मा की सीबीआई से विदाई के दौरान जो तथ्य सामने आय हैं, उनसे पता चलता है कि सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी बेहद अधूरी और पुरानी है। सरकार और सीबीआई के बीच के रिश्ते को परिभाषित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के साथ–साथ हमें भी कोई नया शब्द तलाशना पड़ेगा। सीबीआई के दो सर्वोच्च अधिकारियों के बीच के इस विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने राकेश अस्थाना द्वारा आलोक वर्मा पर लगाये गये रिश्वतखोरी के आरोप और इस बारे में केन्द्रीय सतर्कता आयोग की रिपोर्ट को तथा निजी, सार्वजनिक परिवाद और पेंशन मंत्रालय द्वारा आलोक वर्मा की शक्तियाँ वापस ले लेने के आदेश को आधारहीन मानते हुए 8 जनवरी को आलोक वर्मा की सीबीआई निदेशक के पद पर बहाली का आदेश… आगे पढ़ें

हमें मासूम फिलिस्तीनियों के कत्ल का भागीदार मत बनाइये, मोदी जी

हमास के हमले के बाद जब इजराइल फिलिस्तीन की जनता पर अँधाधुंध बम बरसा रहा था, हजारों आम नागरिकों और बच्चों का कत्ल कर रहा था, उस समय  भारत के प्रधानमन्त्री मोदी ने इजराइल को शाबाशी देते हुए ट्वीट किया कि भारत के 130 करोड़ लोग इजराइल के साथ खड़े हैं। अपने इस बयान से मोदी ने 130 करोड़ भारतीयों को हजारों फिलिस्तीनियों के कत्ल को जायज ठहराने का भागीदार बना दिया। बयान का भाव था कि ‘नेतन्याहू फिलिस्तीनियों को मारो, भारत तुम्हारे साथ है।’ यह वही समय था जब खुद इजराइल के लोग नेतन्याहू को हत्यारा तक कहने लगे थे और पूरी दुनिया में फिलिस्तीन के पक्ष मे प्रदर्शन हो रहे थे। आज विश्वप्रसिद्ध हवार्ड विश्वविद्यालय के छात्र पिछले एक महीने में इसराइल द्वारा फिलिस्तीन में कत्ल किये गये चार हजार बच्चों की सूची को सारी दुनिया के सामने ल चुके हैं, इसके बाद भी मोदी को अपने बयान… आगे पढ़ें

हरियाणा किसान आन्दोलन की समीक्षा

 20 Jun, 2021 | राजनीति

-– उदय चे ऐतिहासिक किसान आन्दोलन पिछले छह महीने से दिल्ली की सरहदों पर चल रहा है। छह महीने पहले जब आन्दोलन शुरू हुआ था, उस समय 26 नवम्बर को जब किसान दिल्ली की तरफ कूच कर रहे थे, मीडिया ने सवाल पूछा था कि कब तक के लिए आये हो, किसानों ने जवाब दिया था कि छह महीने का राशन साथ लेकर आये हैं। 26 मई को किसान आन्दोलन के छह महीने पूरे हो गये। सयुंक्त किसान मोर्चे ने 26 मई को मुल्क के अवाम से अपने घरों, गाड़ियों, दुकानों, रहेड़ियो पर काले झण्डे दिखा कर तानाशाही सत्ता का विरोध करने की अपील की। अपील का असर हुआ और देश के कई हिस्सों में किसानों ने सरकार को काले झण्डे दिखाकर प्रदर्शन किया। किसान आन्दोलन में उतार–चढ़ाव आने के बावजूद किसान मोर्चों पर किसान मजबूती से पाँव जमाये बैठे हुए हैं। 500 के लगभग किसान आन्दोलनकारियों ने इन छह… आगे पढ़ें

‘आपरेशन कमल’: खतरे में लोकतंत्र

–– सीमा श्रीवास्तव महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी गठबन्धन की सरकार गिरा दी गयी। भाजपा शासित राज्यों गुजरात, असम और गोवा में लगभग 10 दिनों तक विधायकों की बाड़ेबन्दी कर, भाजपा ने जो खेल खेला, वह सबने देखा। सरकार बदलने की कवायद तभी से की जा रही थी, जब ढाई साल पहले गठबन्धन सरकार का गठन हुआ था। 2019 में विधानसभा चुनाव के बाद, भाजपा की वादाखिलाफी से खिन्न शिवसेना ने जब नेशनलिस्ट कांगे्रस पार्टी (एनसीपी) और कांगे्रस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने का फैसला लिया, तब भी भाजपा ने एनसीपी नेता अजित पवार को अपने खेमे में मिलाकर भाजपा से इतर सरकार बनाने की कोशिशों को जबर्दस्त झटका दिया था। बीजेपी ने अपनी सरकार बना भी ली थी, लेकिन अजित पवार के वापस एनसीपी में चले जाने से बीजेपी की यह तिकड़म असफल हो गयी और अघाड़ी सरकार अस्तित्व में आ गयी। अब असन्तुष्ट नेता एकनाथ शिन्दे को… आगे पढ़ें