एक अकादमिक अवधारणा
(किसी भी औद्योगिक क्रान्ति के विश्लेषण के लिए संरचना तैयार करने वाले विटवाटर्स रैंड यूनिवर्सिटी (जोहानसबर्ग) के प्रोफेसर इयान मोल से अक्षित संगोमला ने बातचीत की। बातचीत के अंश–––)
क्या औद्योगिक क्रान्ति में जी रहे लोग इसके बारे में जानते हैं?
औद्योगिक क्रान्ति एक अकादमिक अवधारणा है। अर्नोल्ड टोयनबी ने एक इतिहासकार के रूप में उस अवधि में हुए बदलावों को सही अर्थ देने के लिए इस शब्द का ईजाद (साल 1884) किया था। निश्चित तौर पर उस अवधि की ओर सिंहावलोकन करते हुए लोगों को ये एहसास नहीं हुआ था कि वे एक औद्योगिक क्रान्ति में जी रहे हैं। दूसरी औद्योगिक क्रान्ति भी एक पूर्वव्यापी विचार था। विलियम स्टेनले जेवोन्स स्वचालित निर्माण के लिए कारीगरों और मशीनों की क्रमव्यवस्था के विकास की तरफ देखते हुए ये विचार लेकर आये थे। तीसरी औद्योगिक क्रान्ति का विचार बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आया, जब दुनियाभर की अर्थव्यवस्था में डिजिटल कम्प्यूटर अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा था। मुझे नहीं लगता है कि फिलवक्त मौलिक बदलाव हो रहा है, जिसे देखकर कहा जा सके कि चैथी औद्योगिक (4 आईआर) क्रान्ति हो रही है। इसे ढीली पड़ रही तीसरी औद्योगिक क्रान्ति को पुनर्जीवित करने के लिए वैचारिक धारणा के तौर पर शुरू किया गया है। चैथी औद्योगिक क्रान्ति नहीं हो रही है, लेकिन लोगों से इस पर चर्चा कराई जा रही है। दूसरी औद्योगिक क्रान्तियों में ऐसा नहीं हुआ था।
अगर हम इसे 4 आईआर न भी कहें, तो अचानक से प्रौद्योगिकी में आई तेजी लोगों के काम करने के तरीके में व्यवधान ला रही है। इस पर आपका क्या कहना है?
प्रौद्योगिकी की प्रकृति होती है कि इससे नवाचार के मामलों में तेजी आती है। अलबत्ता मौजूदा नवाचार चक्र नया नहीं है। मशीनी इण्टेलिजेंस और रोबोट्स के बीच सम्बन्ध साल 1980 से पहले न भी हो तो साल 1980 में तैयार हुआ था। मैं ये नहीं कह रहा कि मौजूदा आर्थिक प्रक्रिया में प्रौद्योगिकी विघटनकारी नहीं हो सकती है, लेकिन इन प्रक्रियाओं की जड़ें इतिहास में हैं और काफी पहले ये स्थापित हो चुकी थीं। विचारधारा हमसे कह रही है कि क्रान्ति हमारे हाथों में है और ये पूरी तरह झूठ है। विघटन शब्द को भी कुछ हद तक बहुत तूल दिया गया है। आर्थिक इतिहासकार जोसेफ शुमपीटर ने इस शब्द का ईजाद 20वीं शताब्दी में किया और इस शब्द के पीछे विचार यह था कि अर्थव्यवस्था के बीच ही शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जो अर्थव्यवस्था को ही विघटित कर देती हैं। आर्थिक नजरिये से ये महत्वपूर्ण धारणा है, लेकिन जब आप इसे लोगों की जीवनशैली से जोड़ते हैं, तो इस शब्द के साथ समस्या हो जाती है। साल 2016 में जब क्लॉस स्क्वैब ने 4 आईआर के विचार से दुनिया को परिचय कराया था, तो सामाजिक व आर्थिक थियोरिस्ट जेरेमी रिफकिन ने एक लेख प्रकाशित कर इस पूरे विचार को खारिज कर दिया था।
तीसरी औद्योगिक क्रान्ति में सामाजिक–आर्थिक असमानता बढ़ी या घटी?
आँकड़े बताते हैं कि तीसरी औद्योगिक क्रान्ति में सामाजिक आर्थिक असमानता बढ़ी है। पिछले महज 10 वर्षों में देशों के भीतर और देशों के बीच सम्पत्तियों में घोर इजाफा हुआ है और सभी आर्थिक आँकड़ों के मुताबिक आने वाले समय में ये और बढ़ेगा। फिलवक्त दक्षिण अफ्रीका में दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले गरीबों और अमीरों के बीच सबसे ज्यादा असमानता है। ये असमानता आने वाले समय में और बढ़ेगी। डिजिटल प्रौद्योगिकी की दुनिया में तकनीकी नवाचारों पर धनाढ्य वर्ग का नियंत्रण है और वे ही इसका फायदा उठा रहे हैं। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम का तर्क है कि ऑटोमेशन के चलते 4 आईआर में नौकरियाँ जायेंगी, लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित नयी नौकरियाँ भी पैदा होगीं। अगर आप रोजगार के कुछ आँकड़े देखें, तो पाएँगे कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को सेवा क्षेत्र में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है और ये सेक्टर असुरक्षित 4 आईआर तकनीकों के आने के साथ भविष्य में इस तरह के काम बढ़ेंगे। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के हालिया दस्तावेज में कुछ दिलचस्प बातें हैं। दस्तावेज में कहा गया है कि दुनियाभर के अधिकांश नौकरीपेशा लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। जिन लोगों के पास नौकरियाँ हैं, उनमें से अधिकांश लोगों को इस तरह की नौकरियों से फायदा नहीं हो रहा हैं। कथित 4 आईआर में असमानता की खाई बढ़ रही है।
4 आईआर में जिस स्तर पर प्रौद्योगिकियों के एक साथ आने की बात हो रही है, वैसी पूर्व में कभी नहीं सुनी गयी। इस पर क्या सोचते हैं?
फिर एक बार कहूँगा कि औद्योगिक व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था की प्रौद्योगिकियों का एक साथ आना इसकी प्रकृति में है। 4 आईआर से जुड़े लोगों की तरफ से जो कहानी बतायी गयी है वो यह है कि पहली बार प्रौद्योेगिकियाँ नाटकीय रूप से एक साथ आ रही हैं, लेकिन पूर्व की औद्योगिक क्रान्तियों में भी ये हुआ था और ये हमेशा होता रहता है भले ही क्रान्ति हो या न हो।
(साभार–– डाउन टू अर्थ)
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