एक अकादमिक अवधारणा

 20 Aug, 2022 | अवर्गीकृत

(किसी भी औद्योगिक क्रान्ति के विश्लेषण के लिए संरचना तैयार करने वाले विटवाटर्स रैंड यूनिवर्सिटी (जोहानसबर्ग) के प्रोफेसर इयान मोल से अक्षित संगोमला ने बातचीत की। बातचीत के अंश–––) क्या औद्योगिक क्रान्ति में जी रहे लोग इसके बारे में जानते हैं? औद्योगिक क्रान्ति एक अकादमिक अवधारणा है। अर्नोल्ड टोयनबी ने एक इतिहासकार के रूप में उस अवधि में हुए बदलावों को सही अर्थ देने के लिए इस शब्द का ईजाद (साल 1884) किया था। निश्चित तौर पर उस अवधि की ओर सिंहावलोकन करते हुए लोगों को ये एहसास नहीं हुआ था कि वे एक औद्योगिक क्रान्ति में जी रहे हैं। दूसरी औद्योगिक क्रान्ति भी एक पूर्वव्यापी विचार था। विलियम स्टेनले जेवोन्स स्वचालित निर्माण के लिए कारीगरों और मशीनों की क्रमव्यवस्था के विकास की तरफ देखते हुए ये विचार लेकर आये थे। तीसरी औद्योगिक क्रान्ति का विचार बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आया, जब दुनियाभर की अर्थव्यवस्था में डिजिटल कम्प्यूटर अपनी… आगे पढ़ें

क्लीन द नेशन, यानी जोर्ज ऑरवेल की किताब उन्नीस सौ चैरासी की थॉट पुलिस

नाजी दौर के इतिहास को पलटिये आपको एक शब्द मिलेगा क्लींजिंग, जिसे यहूदियों के सफाये के सन्दर्भ में इस्तेमाल किया जाता था। उनकी बस्तियों की क्लींजिंग से लेकर नस्ल की क्लींजिंग तक का सन्दर्भ आपको जगह–जगह मिलेगा। आबादी के एक हिस्से को मिटा देने को क्लींजिंग कहते हैं। जार्ज ऑरवेल की एक किताब है–– 1984। उसका कोई भी पन्ना आप पढ़ लें, एक थॉट पुलिस का जिक्र आता है, विचार पुलिस कह सकते हैं। ऑरवेल इस संस्था की कल्पना कर रहे हैं जो हर नागरिक के मन में उभर रहे विचार को जान लेती है,  नजर रखती है। जगह–जगह माइक्रोफोन और टेलीस्क्रीन लगे हैं जिसके पीछे से कोई आपको देख रहा है। कोई आपको सुन रहा है। विचार पुलिस नहीं चाहती कि एक नागरिक या इनसान के तौर पर आपके भीतर कोई भी भावना जिन्दा रहे। भले ही वह भावना अतिरिक्त खुशी की क्यों न हो। भावनाओं पर भी पार्टी… आगे पढ़ें

ज्ञान की इजारेदारी पर हमला

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय मीडिया का मालिकाना 8 कम्पनियों के पास सबसे ज्यादा है। इससे साफ जाहिर होता है कि इन 8 मीडिया घरानों के मालिक अपनी इच्छानुसार जनता की राय को मोड़ सकते हैं। लेकिन यह बात सिर्फ न्यूज चैनल, अखबार या लोकप्रिय पत्रिका तक सीमित नहीं है। यही हाल शोध जगत के रिपोर्ट, शोधनिबन्ध, समीक्षा आदि छापने वाली जर्नल या शोध पत्रिकाओं की भी है। 2018 में प्रकाशित एक शोधनिबन्ध में यह खुलासा हुआ कि 5 सबसे बड़े प्रकाशक आज दुनिया की 50 फीसदी से भी ज्यादा शोधनिबन्ध और शोध पत्रिकाओं के मालिक हैं। रीड–एल्सवीएर, वाईलि–ब्लैकवेल, स्प्रिंगर, टेलर एण्ड फ्रांसिस इनमें से मुख्य है, जबकि पाँचवे नम्बर पर प्राकृतिक विज्ञान में अमरीकन केमिकल सोसाइटी है तथा मानविकी तथा समाज विज्ञान में सेज पब्लिकेशन है। 1973 में सबसे बड़े पाँच प्रकाशक प्राकृतिक और आयुर्विज्ञान के महज 20 फीसदी शोधनिबन्ध प्रकाशित करते थे जो 2013… आगे पढ़ें

ज्ञानवापी मस्जिद का गढ़ा गया विवाद

पिछले दिनों अखबार और टीवी चैनलों ने बाकी खबरों को दरकिनार करते हुए महीनों तक ज्ञानवापी मस्जिद के मामले को मुख्य खबर बनाये रखा। हालाँकि इसी दौरान असम और अन्य राज्यों में भयावह बाढ़ से लाखों लोग उजड़ गये और सैकड़ों लोग काल के गाल में समा गये। इसी दौरान महँगाई दर 14 फीसदी तक बढ़ गयी लेकिन ऐसे तमाम मुद्दों को ज्ञानवापी के हंगामे में हाशिये पर धकेल दिया गया। यह आज के मुख्यधारा की मीडिया के जन विरोधी चरित्र को भी जाहिर कर देता है। ज्ञानवापी मस्जिद पर विवाद खड़ा करने की तैयारी बहुत पहले कर ली गयी थी। 1991 में स्थानीय पुजारियों ने मस्जिद में पूजा–अर्चना की माँग की। इन्हें स्थानीय अदालत ने डाँट–फटकार कर भगा दिया था। इसके बाद भी ऐसी कई याचिकाएँ दायर होती रहीं, जिसमें मस्जिद परिसर में हिन्दू देवी–देवताओं की मूर्तियाँ होने का दावा किया गया, लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उन्हें खारिज… आगे पढ़ें

डीएचएफएल घोटाला : नवउदारवाद की एक और झलक

 14 Mar, 2019 | अवर्गीकृत

ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब देश के महामहिम अखबार के पहले पन्ने पर देश की अवाम की प्रगति, खुशहाली की डींगें मारते न दिखायी दें और उसी अखबार के किसी कोने में किसी न किसी बड़ी कम्पनी के डूबने या किसी घोटाले की खबर न हो। यह अद्भुत समय है कि विकास गाथा का बखाान हो रहा है और विनाश लीला रची जा रही है। 29 जनवरी को दिल्ली के प्रेस क्लब में एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स आयोजित हुई थी। यह आयोजन एक जानी–मानी समाचार कम्पनी कोबरा पोस्ट ने किया था, जिसमें कोबरा पोस्ट के सम्पादक अनिरुद्ध बहल, पूर्व भाजपा नेता यशवन्त सिन्हा, वित्तीय घोटालों के विशेषज्ञ पत्रकार जोसेफ, प्रांजय गुहा ठाकुराता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशान्त भूषण शामिल थे। प्रेस कॉन्फ्रेन्स में ‘दीवान हाउशिंग फाइनेन्स लिमिटेड’ (डीएचएफएल) में 31,000 करोड़ रुपये के घोटाले का पर्दाफाश किया गया। डीएचएफएल एक गैर बैंकिंग वित्तीय संस्था है, जो राष्ट्रीय आवास… आगे पढ़ें

पूँजीपति मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भी छीन लेना चाहते हैं

आईआईटी दिल्ली के इकोनोमिक्स के प्रोफेसर जयन जोस थॉमस का ‘द हिन्दू’ में लेख छपा, आसान और जानकारी बढ़ाने वाला। यहाँ उसके कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा की जा रही है। थॉमस लिखते हैं, “भारत में मजदूरों की तनख्वाह बढ़ानी चाहिए, इससे उपभोग बढ़ेगा। ज्यादा उत्पादन करने के लिए ज्यादा मजदूरों को काम पर रखना होगा। इससे हर हाथ को काम मिल जाएगा। बेरोजगारी खत्म हो जायेगी और आर्थिक वृद्धि भी हासिल होगी।” उन्होंने अपनी बात के पक्ष में तर्क देते हुए लिखा कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप ने भी यही मॉडल अपनाया था। युद्ध और मन्दी से पीड़ित लोगों को अच्छी तनख्वाहें दी गयीं और एक बार फिर पूँजीवाद का सुनहरा दौर शुरू हो गया। थॉमस ने भारत के शहरी उपभोक्ता वर्ग की हालत का जिक्र करते हुए लिखा, 64.4 प्रतिशत टिकाऊ सामान का उपभोग सिर्फ 5 फीसदी अमीरों द्वारा किया जाता है। निचली 50 फीसदी गरीब… आगे पढ़ें

फिदेल कास्त्रो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के हिमायती

 10 Jun, 2020 | अवर्गीकृत

–– अभय शुक्ला (यह लेख 21 दिसम्बर 2016 को डाउन–टू–अर्थ की वेबसाइट पर छप चुका है। लेकिन कोरोना महामरी के मौजूदा दौर में क्यूबा, फिदेल कास्त्रो और उनकी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था फिर से चर्चा के केन्द्र में आ गयी है। इसी को ध्यान में रखते हुए उस लेख के हिन्दी अनुवाद को यहाँ साभार प्रस्तुत किया जा रहा है।) फिदेल एलेजान्द्रो कास्त्रो रूज का निधन वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है। लगभग आधी सदी तक फिदेल क्यूबा के नेता रहे। उन्होंने न केवल देश के भीतर स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाने की अनुकरणीय पहल का नेतृत्व किया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय क्यूबा के डॉक्टर विकासशील देशों में पहुँचकर वहाँ की जनता को अपनी सेवाएँ दे सकें। फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने बहुत सारी बीमारियों, जिनमें मेनिन्जाइटिस से लेकर कैंसर तक शामिल थे, उनके… आगे पढ़ें

बायोमेडिकल रिसर्च

 14 Jan, 2021 | अवर्गीकृत

–– डॉ. पी के राजगोपालन (भारत के स्वास्थ्य विज्ञान में अनुसन्धान की खामियों पर एक वैज्ञानिक का तथ्यपरक लेख) भारत में स्वास्थ्य विज्ञान में अनुसन्धान वर्षों के जमीनी काम पर आधारित समस्या–समाधान की दिशा में नहीं किये जा रहे हैं, यही मुख्य वजह है कि तमाम पुरानी और नयी बीमारियाँ लगातार हमें अपना शिकार बना रही हैं। भारत कभी स्वास्थ्य अनुसन्धान में अग्रणी था। भारत और ब्रिटेन के दिग्गजों ने आजादी से पहले और बाद में भी कुछ दिनों तक मिलकर प्लेग अनुसन्धान (1900 के दशक का महान प्लेग आयोग) और मलेरिया अनुसन्धान पर शानदार काम किया था। 1900 के दशक में भारतीय अनुसन्धान कोष संस्था की शुरुआत हुई, जो स्वास्थ्य अनुसन्धान के लिए अनुदान देती थी। आजादी के बाद यही भारतीय स्वास्थ्य अनुसन्धान परिषद (आईसीएमआर) बन गयी, जिसके पहले डायरेक्टर डॉक्टर सी जी पण्डित बने। हैदराबाद में देश की पहली स्वास्थ्य अनुसन्धान संस्था नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ न्युट्रिशन की स्थापना हुई,… आगे पढ़ें

भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारत को मुसलमानों का महान स्थायी योगदान

 23 Sep, 2020 | अवर्गीकृत

भारत को मुसलमानों का एक महान स्थायी योगदान भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी मिला। इसी योगदान ने उर्दू भाषा को जन्म दिया और हिन्दी भाषा तथा साहित्य को विकसित और समृद्ध किया। हिन्दी खड़ी बोली का गद्य अधिकांशत: और पद्य प्राय: पूरी तरह मुस्लिम सृजन है। 13वीं सदी से पहले या अमीर खुसरो से पहले कोई हिन्दू या हिन्दी कवि नहीं हुआ। मैं यहाँ बृज–भाषा, अवधि और भोजपुरी जैसी बोलियों की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि उर्दू भाषा शास्त्रीय दृष्टि से कोई नितान्त स्वाधीन भाषा नहीं है। वह खड़ी बोली से बँधी हुई है जिसकी यह पूर्ववर्ती भी है और जन्मदात्री भी। दोनों ही भाषाएँ या वस्तुत: शैलियाँ, एक भाषा बनाती हैं जिसे हम सुविधा के लिए हिन्दी कह सकते हैं और इसलिये भी कि हिन्दी की अवधारणा एक वृहत्तर सम्भावना तथा क्षेत्र का संकेत देती है जो भव्य तथा… आगे पढ़ें

सर्वोच्च न्यायलय द्वारा याचिकाकर्ता को दण्डित करना, अन्यायपूर्ण है. यह राज्य पर सवाल उठाने वालों के लिए भयावह संकेत है

 20 Aug, 2022 | अवर्गीकृत

(सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने 2009 में दन्तेवाड़ा में माओवादी ऑपरेशन के नाम पर सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों के प्रति कथित यातना और न्यायेतर हत्याओं की जाँच की माँग करते हुए सर्वोच्च न्यायलय में एक याचिका दायर की थी। यह घटना सितम्बर और अक्टूबर 2009 की है जब छत्तीसगढ़ के तत्कालीन दन्तेवाड़ा और अब सुकमा जिले के गाँवों में 12 साल की बच्ची सहित 17 आदिवासी मारे गये थे और कई घायल हो गये थे तथा उनके घर तबाह कर दिये गये थे। सर्वाेच्च न्यायलय ने उस याचिका को खारिज कर दिया और याचिकाकरता पर 5 लाख रुपये की ‘अनुकरणीय’ लागत का दण्ड भी लगा दिया। हिमांशु कुमार का कहना है कि वे गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन पर लगाये गये आर्थिक दण्ड का भुगतान नहीं करेंगे, क्योंकि इसका अर्थ होगा कि वे दोषी हैं। इस फैसले पर प्रस्तुत है–– इण्डियन एक्सप्रेस की सम्पादकीय टिप्पणी।) सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार… आगे पढ़ें