जुलाई 2019, अंक 32 में प्रकाशित

फैज : अँधेरे के विरुद्ध उजाले की कविता

विद्रोह फैज का सहज स्वभाव है। उनकी जिन्दगी और शायरी इसका प्रमाण है। जब उन्होंने अंग्रेज लड़की एलिस से मुहब्बत और शादी की तो रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी। शायरी में भी फैज ने बने बनाये नुक्तों को तोड़ा और नयी जमीन तैयार की। शायरी की रवायत से उन्होंने हुस्नो–इश्क लिया और उसे अपने रंजो–गम से मिलाकर वक्त के सफों पर अपने खून से जमाने का दर्द लिखा।

मताअ–ए–लौहो कलम छिन गयी तो क्या गम है

कि डूबो ली हैं खूने दिल में अँगुलियाँ मैंने

कविता के साथ फैज का रिश्ता खून का रिश्ता है। जैसे खून बेवजह नहीं बहाया जा सकता, उसी तरह कविता भी बेवजह नहीं हो सकती। अपने पहले कविता संग्रह ‘नक्श–ए–फरियादी’ में उन्होंने लिखा है, “शेर लिखना जुर्म न सही लेकिन बेवजह शेर लिखते रहना दानिशमन्दी भी नहीं।” कविता उनके लिए गहरे सामाजिक सरोकार की चीज है, जिन्दगी और जहान को बदल देने का जरिया है। फैज साहब ने जो भी लिखा दिल से लिखा। बीबीसी के एशियाई प्रोग्राम के लिए फैज ने एक इंटरव्यू दिया था। प्रोड्यूसर जनाब कृष्ण गोल्ड के एक सवाल के जवाब में उन्होंने नौजवान शायरों के लिए कहा था, “जो कुछ लिखो अपने दिल से लिखो, किसी के कहने की वजह से मत लिखो। दबाव में आकर मत लिखो। सवाब की खातिर मत लिखो। सत्ता की सियासत की खातिर मत लिखो। जो दिल से बात निकलती है वही लिखो। अगर दिल से बात नहीं निकलती तो मत लिखो।” फैज ने ताजिन्दगी अपने दिल की सुनी। हर दबाव और जोर–जबर के खिलाफ मुखालिफत की। डरे नहीं, झुके नहीं। मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों में भी अपने समाजवादी सिद्धान्तों से डिगे नहीं और जनता के पक्ष में पूरी दृढ़ता के साथ खड़े रहे। जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों पर पूरा भरोसा है उन्हें। यह फैज ही लिख सकते हैं:

कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो

बाजू भी बहुत हैं, सर भी बहुत

चलते भी चलो कि अब डेरे

मंजिल पर ही डाले जायेंगे।

हालाँकि जिस मंजिल और ‘सुबहे–आजादी’ की कामना फैज को है वह नहीं मिलती––

ये दाग–दाग उजाला ये शबगजीदा सहर

वो इन्तजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं

बावजूद इसके वह नाउम्मीद नहीं होते। हर चोट उनकी सक्रियता बढ़ा देती है। जिन्दगी का हुस्न और मनुष्य की मुक्ति का स्वप्न बार–बार उन्हें अपनी ओर खींचता है और युद्धक्षेत्र में खड़ा कर देता है। इसलिए हम भारत में ही नहीं उन्हें पाकिस्तान और बेरूत में भी लड़ते हुए देखते हैं। पूरी जिन्दगी उनकी जद्दोजहद और लड़ाई में गुजरी। इस लड़ाई में उनका सबसे बड़ा हथियार उनकी कलम और उनका कलाम रहा।

वह कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते, बुद्धिजीवियों और पढ़े लिखे तबकों के बीच बहस–मुबाहिसों में हिस्सा लेते और अपना बहुत सारा वक्त किसानों और मजदूरों के बीच बिताते। ट्रेड यूनियन की गतिविधियों को अंजाम देते और पाठक मंच का भी संचालन करते। किताबों को वह पूरी शिद्दत के साथ जनता तक पहुँचाना चाहते थे। उनकी चाहत थी कि मेहनत करने वाले अपने हक को समझें, पढ़े–लिखें और अपने कलमकारों को जाने–बूझें। पाठक मंच को चलाने के पीछे उनका यही सबब था कि हंसिये–हथौड़े के साथ किताबें भी जनता के हाथ में हां। किसानों और मजदूरों के बीच काम करने के इन्हीं अनुभवों ने उन्हें योद्धा बनाया था, इन्कलाबी शायर बनाया था।

हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे

इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया माँगेंगे

फैज ने बहुत तकलीफें उठायीं। मुफलिसी और बेबसी के दिन देखे। दुखती और जलती हुई यादों से गुजरते हुए फैज लिखते हैं कि “जब हमारे वालिद फौत (मृत) हुए तो पता चला कि घर में खाने तक को कुछ नहीं है, कई साल तक दर–बदर फिरे और फाकामस्ती की, उसमें भी लुत्फ आया इसलिए कि उसकी वजह से तमाशा–ए–अहले करम देखने का बहुत मौका मिला।” मशहूर शायर अहमद फराज ने ‘बयादे फैज’ नज्म में क्या खूब लिखा है,

कलम–बदस्त हूँ, हैरान हूँ कि क्या लिक्खूँ,

मैं तेरी बात को दुनिया का तजकिरा लिक्खूँ

लिक्खूँ कि तूने मोहब्बत की रोशनी लिक्खी,

तेरे सुखन को सितारों का काफिला लिक्खूँ

जहाँ यजीद बहुत हों हुसैन अकेला हो,

तो क्यों न अपनी जमीं को भी कर्बला लिक्खूँ!

फैज तमाम जिन्दगी हुसैन की जैसे जालिम बादशाह हों यजीद की मुखालिफत करते रहे, लड़ते रहे। हजरत अली साहब के छोटे बेटे इमाम हुसैन का कत्ल करने वाला बेरहम और कातिल यजीद फिर से जी उठा है। इतिहास का यह प्रेत आज भी पूरी दुनिया में अलग–अलग रंग–रूप और लिबास में बेगुनाह जनता पर बेहिसाब जुल्म ढाये जा रहा है। हिन्दुस्तान में यजीद का एक रूप अंग्रेज भी थे। फैज ईमान और सच की जंग में अंग्रेजों के बरखिलाफ रहे। आजादी की लड़ाई में वह सच्चे मार्क्सवादी अदीब, जर्नलिस्ट, ट्रेड यूनियनिस्ट, पार्टी कार्यकर्ता और सोशलिस्ट क्रान्तिकारी की तरह जी जान से लगे रहे। उन्होंने अपनी कम्युनिस्ट पहचान कभी नहीं छुपाई। क्या हिन्दुस्तान, क्या पाकिस्तान, क्या बेरूत, फिलस्तीन हर जगह वह फासिज्म और फासिस्ट सरकारों का खुल कर विरोध करते रहे। उन्होंने दुनिया भर के लेखकों से यह आह्वान किया कि “आज लिखने वालों का काम यह है कि वो साम्राज्यवाद, नस्लपरस्ती और नव–उपनिवेशवादी निजाम की मुखालिफत करेंय और मशरिक व मगरिब के अवाम से मुहब्बत करें। आजादी, जम्हूरियत और इनसानी हकूक के लिए जद्दोजहद करने वालों की पुरजोर हिमायत करें।” उन्होंने यह भी कहा कि लिखने वालों को, “अपने तजुर्बात और पहचान से बेवफाई नहीं करनी चाहिए और न स्वार्थपूर्ण रवैया अख्तियार करना चाहिए और न बाह्य दबाव कबूल करना चाहिए। लिखने वाला अपने मुल्क और अवाम का वफादार होता है। वह आवाम का दोस्त, उसका दानिश्वर और रहनुमा होता है। उसका काम है, अवाम को जहालत, तोहमत, रवायत और पक्षपात के अंधेरों से निकालना और इल्म–ओ–दानिश की रोशनी की तरफ ले जाना। और उसका काम है अवाम को जब्र से आजादी की तरफ और मायूसी से उम्मीद की तरफ ले जाना।” (ऐ अहले कलम तुम किसके साथ हो, फैज अहमद फैज, अनुवाद : प्रेमचन्द श्रीवास्तव ‘मजहर’, पाकिस्तान में उर्दू कलम, पहल 17–18, पृष्ठ 7 एवं 9)। फैज साहब के इस मानीखेज बयान की रोशनी में ही जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी कैम्पस में नौजवानों के आजादी के तराने को देखा जाना चाहिए। आखिर इक्कीसवीं सदी में भारत के नौजवान दक्षिणपंथी सरकार से क्या माँग रहे थे? यही ना, मनुवाद से आजादी, सरमायादारी से आजादी, हर जोर–जुल्म और जबर से आजादी और लोकतंत्र की बहाली। यही तो अल्लामा इकबाल भी चाहते थे,

सुल्तानिये–जम्हूर का आता है जमाना

जो नक्श–ए–कुहन तुमको नजर आये मिटा दो

फैज साहब भी तो यही चाहते थे––

ऐ जुल्म के मातो लब खोलो, चुप रहने वालो, चुप कब तक

कुछ हश्र तो उनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएँगे!

हश्र तो उट्ठा और नाले भी दूर तक गये। हमारे देश में बेरोजगारी, नौकरियों और रोजगारों की भारी कमी, किसानों और मजदूरों की बेहाली, किसानों की खुदकुशी, छोटे–मोटे काम करने वालों की भयानक बरबादी, निम्न मध्यम वर्ग की तबाही को देखकर फैज की ये पंक्तियाँ जैसे देश और समाज का आईना नजर आती हैं––

बने हैं अहले हवस मुद्दई भी, मंुसिफ भी

किसे वकील करें, किससे मुंसिफी चाहें

फैज अहमद फैज ने लोकतंत्र पर पड़ने वाले खतरों को भाँपते हुए लेखकों के लिए एक पैगाम तैयार किया था जिसमें उन्होंंने जोर देकर कहा था कि “वह इस अहद में दुनिया भर के अवाम का वफादार है। उसका काम है कि वह अवाम के दुश्मनों और दोस्तों में फर्क करे और अवाम को उसकी पहचान कराये, उन्हें बताये कि कौन उन्हें आजादी दिलाने, उनकी जिन्दगी में हुस्न और पाकीजगी लाने, हर किस्म के शोषण को खत्म करने में लगे हुए हैं। और कौन उन्हें गुलाम बनाने, उन्हें लूटने, करप्ट करने और उनकी कमजोरी से फायदा उठाने में मसरूफ हैं और मक्र व फरेब और जुल्म और जब्र से अपने इक्तिदार की उम्र बढ़ाने में लगे हुए हैं।

पाकिस्तान में संजीदा लिखने वालों को बिना खौफ और खतर साफ सच्ची बातें करनी चाहिए और इजहारे राय की आजादी पर अमल करना चाहिए। उन्हें जब्र और जुल्म को बेनकाब करना चाहिए और जो नाइन्साफियाँ हो रही हैं उन्हें नंगा करना चाहिए। समाजी, आर्थिक और बौद्धिक मुनाफकत को बेनकाब करना चाहिए।” (उपर्युक्त, पृष्ठ 7)।

पाकिस्तान के हुक्मरानों को फैज का अन्दाजे बयाँ पसन्द नहीं आया। जनता के पक्ष में खुलकर अपनी आवाज बुलन्द करना और जनतंत्र के लिए कमर कस कर मैदान में उतर आना तो कतई पसन्द नहीं आया। पाकिस्तान में उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया। उन्हें प्रधानमंत्री लियाकत अली खाँ की हुकूमत को पलटने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। पाकिस्तान की तानाशाह सरकार ने रावलपिंडी कांसपिरेसी केस के तहत उन्हें कैद की सजा सुनायी। चार साल से भी ज्यादा वक्त उन्होंने जेल में बिताया। जेल में ही उनकी कला परवान चढ़ी और उन्हांेने कला की बुलंदियों को हासिल किया। ये बुलंदियाँ आँसू, यातना और खून से सुर्खरू हुई थीं। फैज और उनकी शरीके हयात एलिस के त्याग और दर्द को उन पत्रों में महसूस किया जा सकता है जो जेल जीवन के दरम्याँ एक–दूसरे को लिखे गये थे। ये पत्र ‘सलीबें मेरे दरीचे की’ (प्रकाशन वर्ष 1971) में संकलित हैं। सुप्रसिद्ध प्रगतिशील आलोचक जनाब सिब्ते हसन साहब ने लिखा है कि “फैज अहमद फैज ने भी अयूब खान के शासन में अपनी कैद के दौरान कुछ बहुत शक्तिशाली कविताएँ लिखीं। उनका विरोध का साहित्य बहुत परिष्कृत था और उसमें बेजोड़ आकर्षण और गरिमा थी। बस इतना ही कहना काफी है कि इकबाल के बाद और किसी ने हमारे लेखकों को इतना प्रभावित नहीं किया और जनता की राजनीतिक चेतना को इतनी बुलन्दी पर नहीं पहुँचाया जितना फैज अहमद फैज ने। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता अगर पाकिस्तान में सरकारी मीडिया ने उन पर पाबन्दी लगायी क्योंकि वे अपने लाखों देशवासियों और दुनिया भर के लोगों के दिलों में जिन्दा हैं।” (आधुनिक उर्दू साहित्य में विचारों की लड़ाई, सिब्ते हसन, अनुवाद : नीलाभ, कथ्यरूप पुस्तिका 1, पृष्ठ 25)।

गौरतलब है कि कैदे तन्हाई में भी फैज टूटे नहीं। उन्हें गद्दार और मुल्क का दुश्मन कहा गया। उनके परिवार का सोशल बॉयकॉट किया गया। बच्चों को अच्छे स्कूलों से निकाल दिया गया लेकिन फैज अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे। बहुत सब्र और हिम्मत के साथ उन्होंने आतंक और जुल्म का सामना किया। यह कविता की ही ताकत थी जिसने फैज को बचाया और नायाब फैज बना दिया।

हम देखेंगे

लाजिम है केय हम देखेंगे

वो: दिन के: जिसका वादा है

जो लौहे–अजल में लिक्खा है

जब जुल्मो–सितम के कोहे–गराँ

रूई की तरह उड़ जायेंगे

(लाजिम = निश्चित, लौहे–अजल = पूर्व निर्धारित नियति, कोहे–गराँ = भारी पहाड़)             

जिन्दगी की तरह फैज का साहित्यिक सफरनामा भी मुश्किलों से भरा रहा। उन्हें आसानी से न तो पारम्परिक कविता लिखने वालों ने स्वीकार किया और न ही प्रगतिशील कविता के हिमायतियों ने। पुरानी कविता की लीक से बँधे लोग तो इसलिए नाराज थे कि फैज रूमानी शायरी को उसके फ्रेम से बाहर ले जा रहे थे, उसे एक नया रंग–रूप दे रहे थे। उन्हें इस बात का गुस्सा था कि फैज मोहब्बत और इन्कलाब को एकमेक कर रहे हैं। वो शायरी को आरामगाहों और मेहफिलों से निकाल कर गली–कूचों, खेत–खलिहानों यहाँ तक कि जंग के मैदानों तक ले जा रहे हैं। ऐसे ही लोगों के लिए फैज ने लिखा––

जिस जा सर–धड़ की बाजी हो

वो इश्क की हो या जंग की हो

गर हिम्मत है तो बिस्मिल्लाह !

उनके साथ चलने वाले समानधर्मा कुछ लोग इसलिए नाराज थे कि फैज अपनी राजनीतिक कविताओं में सीधे दुश्मनों पर हल्ला नहीं बोलते बल्कि अपने संकेतों को कलात्मक आवरण देकर दुश्मन की पहचान को अस्पष्ट कर देते हैं। “फैज की मशहूर नज्म ‘सुब्हे–आजादी’ (अगस्त 1947) जिसका आगाज ‘ये दाग–दाग उजाला ये शबगजीदा सहर’ से और जो खत्म ‘चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आयी’ पर होती है। जिसका शुमार फैज की ही नहीं उर्दू की उम्दा सियासी नज्मों में होना चाहिए। अली सरदार जाफरी ने इसे यह कहकर खारिज कर दिया कि ‘यह रजअत परस्त (अतिगामी/प्रतिक्रियावादी) शायरी का नमूना है। इसमें बात साफ नहीं है कि यह शबगजीदा सहर (रात द्वारा डसी हुई सुबह) किसके लिए है। ये तसव्वुर मुस्लिम लीग का भी हो सकता है और जनसंघ का भी। यह मुब्हम (अस्पष्ट) अन्दाज तरक्कीपसन्दी नहीं।” (इन्कलाब का सूफी शायर, शीन काफ निजाम, जनसत्ता रविवारी, 23 मई 2010)।

अपने–परायों के विरोध के बावजूद फैज ने अपने कवि को जनता के सुख–दुख और संघर्षों से जोड़े रखा। उनकी कविता साधारण आदमी के भीषण संघर्ष और शौर्य की कविता है। उन्होंने बहुत से तराने लिखे हैं। ये तराने आज भी गाये जाते हैं और जब तक जुल्मो–सितम का राज रहेगा तब तक गाये जायेंगे।

पंजाब के किसानों के लिए पंजाबी में उन्होंने एक तराना लिखा है। फैज किसानों और मेहनतकश लोगों की ताकत को जानते हैं। वे लोग अपनी ताकत से अनजान हैं। अपने भीतर की आग से अपरिचित हैं। इसलिए फैज उनको याद दिलाते हैं कि तू तो जगत का अन्नदाता है, धरती तेरी बाँदी और तू जगत को पालनेवाला है, इस बात को समझ और उठ। ये जरनल, करनल, सूबेदार, डिप्टी, डीसी, थानेदार सब तेरा दिया खाते हैं। तू नहीं, ये तेरे चाकर हैं। यदि तू बीज नहीं बोये, फसल नहीं उगाये और अपनी आँखें फेर ले तो ये भूखे मर जायेंगे। सत्ता तुम्हारी है और तुम ही सत्ता के असली हकदार हो। अपने सारे झगड़े भूल जाओ और एक हो जाओ। हम एक परिवार के हैं। उठ जट्टा और अपनी ताकत को पहचान।

उठ उतांह नूँ जट्टा

मरदा क्यों जानै

भुलियाँ, तूं जग दा अन्नदाता

तेरी बाँदी धरती माता

तूं जग दा पालणहारा

ते मरदा क्यूँ जानै

उठ उतांह नूँ जट्टा

मरदा क्यूँ जानै

फैज मानवीयता की ताकत और कविता की अमिट पहचान हैं।

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