सामाजिक-सांस्कृतिक

अप्रवासी कामगार और उनके बच्चों का असुरक्षित भविष्य

एक ओर तो अप्रवासी मजदूरी का काम उनके परिवार के लिए जीवन निर्वाह के साधन मुहैया करता है, वहीं उनके लिए भारी जोखिम भी पैदा कर देता है। इस जोखिम का सबसे अधिक असर अप्रवासी मजदूरों के बच्चों को ही झेलना पड़ता है। ये बच्चे अक्सर अपने माँ–बाप के साथ उनकी मजदूरी के ठिकानों पर जाने के लिए विवश होते हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में अपने परिवारों पर आश्रित लगभग साठ लाख अप्रवासी मजदूरों के बच्चे हर साल अपने माँ–बाप के साथ भटकते रहते हैं। कई लाख बच्चों पर इसका परोक्ष रूप में असर पड़ता है और इनमें से अधिकांश बच्चे माँ–बाप की अनुपस्थिति में कोई न कोई घरेलू जिम्मेदारी उठाने के लिए विवश होते हैं। दुर्भाग्यवश केन्द्र और राज्य दोनों ही स्तरों पर भारतीय प्रशासन ने अप्रवासी मजदूरों के बच्चों के कल्याण को प्राथमिकता नहीं दी है और ये बच्चे उपेक्षित होते रहे हैं। और इन बच्चों… आगे पढ़ें

एक आधुनिक कहानी एकलव्य की

–– सुन्दर सरुक्कई इन दिनों एक शिक्षक होना बहुत मुश्किल है। संस्थानों का विध्वंस, जो इस सरकार की प्रमुख चिन्ता प्रतीत होती है, उसकी शुरुआत शिक्षा से ही हुई। अस्थायी भर्ती, आरक्षण पर सवाल उठाने तथा भय और धमकी का माहौल बनाने के माध्यम से प्रमुख सार्वजनिक विश्वविद्यालयों पर हमला लगातार जारी है। यह एक ऐसा समय है जब कई शिक्षक शिक्षण के अर्थ पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर हैं। शिक्षक का स्थान इसके चलते स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में आम तौर पर शिक्षकों के बारे में संदेह का माहौल पैदा हुआ है। शिक्षकों पर लगातार हमले हो रहे हैं–– उन प्रणालियों द्वारा जो छात्रों की हिफाजत करना चाहते हैं (खासकर इसलिए कि आजकल छात्रों को फायदेमन्द ‘उपभोक्ता’ समझा जाता है), माता–पिता द्वारा जो यह तय करते हैं कि एक शिक्षक को क्या और कैसे पढ़ाना चाहिए, एक ऐसी सरकार द्वारा जो शिक्षकों को जलील और इस्तेमाल करती है,… आगे पढ़ें

किसान आन्दोलन के आह्वान पर मिट्टी सत्याग्रह यात्रा

किसान आन्दोलन ने जनता के विभिन्न तबकों की चेतना उन्नत करने और आन्दोलन में उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए नए–नए सृजनशील तौर तरीके विकसित किये हैं। संघर्ष के उन्हीं रूपों में एक है–– मिट्टी सत्याग्रह यात्रा, जो नमक कानून के विरोध में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी द्वारा निकाली गयी दाण्डी यात्रा… आगे पढ़ें

गैर बराबरी की महामारी

––शालू पंवार आज की दुनिया में गैर बराबरी एक महामारी का रूप धारण कर चुकी है। दुनिया के किसी भी हिस्से में जीवन का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जिसने इसे संक्रमित ना किया हो। इसका फैलाव इस कदर भयावह हो चुका है कि खुद पूँजीवादी बुद्धिजीवी चिन्तित हैं। हालाँकि वे उन नीतियों से इंच भर भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है जिन्होंने इस गैर बराबरी को पैदा किया है। पूरी दुनिया एक ऐसे जालिम तंत्र की गिरफ्त में है जो विशाल मेहनतकश जनता के शरीर से रक्त और मज्जा निचैड़ कर मुठ्ठीभर पूँजीपतियों की तिजौरी में कैद करता जा रहा है। पूरी दुनिया एक ऐसे नर्क में तब्दील हो चुकी है जिसमें स्वर्गोपम अय्याशी से भरे कुछ टापू तैर रहे हैं। अमरीका और यूरोप से लेकर अप्ऱीका और एशिया तक स्वर्गिक टापूओं और नंदित नर्क के बीच एक स्पष्ट रिश्ता कायम है। जितने ज्यादा अरबपति उतना… आगे पढ़ें

घोस्ट विलेज : पहाड़ी क्षेत्रों में राज्यप्रेरित पलायन –– मनीषा मीनू

ना दौड़, ना दौड़ ते उंदार्यों का बाटा उंदार्यों का बाटा उत्तराखंड के प्रत्येक नौजवान, बड़े बुजुर्गाे ने नरेंद्र सिंह नेगी जी का ये गीत जरूर सुना होगा, जिसमें नीचे की तरफ जा रहे रास्तों में न दौड़ने को कहते हुए खाली होते घरों और पलायन की विकट परिस्थिति का जिक्र किया गया है। गाँव के गाँव खाली हो गये हैं और वे गाँव भी अब “घोस्ट विलेजेस” के नाम से प्रसिद्ध हैं। अगर भारत के घोस्ट विलेजेस को गूगल सर्च इंजन में ढूँढेंगे तो उत्तराखंड के घोस्ट विलेज सबसे पहले दिखने शुरू हो जाते हैं और वहीं इनके आँकड़े देखें तो स्थिति बहुत दयनीय है। पलायन के सुख दो चार दिन के हैं लेकिन जब कोई व्यक्ति पलायन करता है तो वह अकेले नहीं जाता। वह ले जाता है अपने साथ अपनी ऐतिहासिक संस्कृति को, अपने क्षेत्र के भविष्य को, जो वह अपने क्षेत्र में सुरक्षित करने में असमर्थ… आगे पढ़ें

दिल्ली की सत्ता प्रायोजित हिंसा : नये तथ्यों की रोशनी में

अब तक सामने आये तथ्यों से यह साफ हो चुका है कि फरवरी के अन्तिम सप्ताह में हुई हिंसा सत्ता द्वारा मुख्य रूप से केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित हिंसा थी। दिल्ली विधानसभा चुनावा के समय से ही भाजपा नेताओं द्वारा भडकाऊ भाषण दिये गये और लगातार दंगों का माहौल तैयार किया गया। गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि ‘बटन इतनी जोर से दबाओ कि कंरट शाहीनबाग में लगे’। सांसद प्रवेश वर्मा का यह भड़काऊ बयान कि ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’ माहौल बिगाड़ने के लिए काफी था। दिल्ली पुलिस के डीसीपी के सामने भाजपा नेता कपिल मिश्रा का सार्वजनिक सभा में यह कहना कि “हम ट्रम्प के जाने का इन्तजार कर रहें हैं, अगर शाहीनबाग आन्दोलन करने वाले लोग सड़कों से नहीं हटे तो फिर हम पुलिस की भी नहीं सुनेगें।” इन्हीं तीन बयानों से स्पष्ट था कि भाजपा हिंसा भडकाने का षडयंत्र रच चुकी थी।… आगे पढ़ें

दिल्ली के सरकारी स्कूल : नवउदारवाद की प्रयोगशाला

पिछले 4 सालों में दिल्ली के सरकारी स्कूलों की दसवीं और बारहवीं की नियमित कक्षाओं में क्रमश: 43,540 और 53,431 छात्रों की कमी आयी है। यानी, दसवीं में हर चैथे और बारहवीं में हर तीसरे छात्र को स्कूलों से निकाल दिया गया। एक तरफ बड़ी संख्या में छात्र कक्षा 9, 10 और 11 में नियमित स्कूलों से बाहर हो रहे हैं और दूसरी तरफ दिल्ली सरकार ओपन स्कूलिंग (एनआईओएस) के साथ हाथ मिलाकर स्कूल छोड़ने वाले बच्चों का कल्याण करने की वाहवाही लूट रही है। प्रजा फाउंडेशन की रिपोर्ट (दिसम्बर 2017) के अनुसार, 2016 में दिल्ली में 85,000 बच्चे स्कूलों से बाहर हुए।  दिल्ली सरकार अपने स्कूलों में सुधार का दावा कर रही है। तो फिर छात्रों की संख्या घटती क्यों जा रही है? स्कूलों से बाहर होते बच्चे दिल्ली सरकार के स्कूलों में छात्रों के लिए कक्षा 12 तक की शिक्षा पूरी करनी मुश्किल होती जा रही है। एक… आगे पढ़ें

पहाड़ में नफरत की खेती –– अखर शेरविन्द

“साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह ––– संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है।” ––प्रेमचन्द (साम्प्रदायिकता और संस्कृति) जिस उत्तराखण्ड में देवताओं के जागरों में सैय्यद नाचता हो, अब्दुल घरभूत बन जाता हो, न जाने कितने गाँवों में गुरु का झण्डा पूजा जाता हो, अरदास होती हो, जिस धरती के महानायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली फौजियों ने पेशावर में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने के अंग्रेजों के आदेश को ठुकरा कर साम्प्रदायिक भाईचारे कि मिसाल पेश की हो, वहीं की हवा में आजकल एक जहर घुल रहा है। दिलों में दूरियाँ बढ़ाने वाला साम्प्रदायिकता का जहर। धर्मान्तरण, यूनिफॉर्म सिविल कोड, लव जिहाद और सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण हटाने के नाम पर लैंड जिहाद और मजार जिहाद, जैसे जुमलों से साम्प्रदायिकता की फसल को खाद–पानी देने का काम जारी है। नफरत की फसल यूँ… आगे पढ़ें

बढ़ती मानसिक बीमारियाँ लाइलाज होती सामाजिक व्यवस्था का लक्षण

एक व्यक्ति फटे–पुराने चिथड़े में शहर के एक पुल पर खड़ा गालियाँ बके जा रहा था। राहगीर कुछ देर खड़े होकर उसकी गालियाँ सुनते, उत्तेजित होते लेकिन जल्दी ही ऊबकर यह कहते हुए अपनी राह लेते कि पागल है। गाली बकने वाले के मुँह से झाग निकल रहा था और उसके हाथ में एक जंग लगा चिन्दी चाकू था। वह उत्तेजना में चाकू लहराते हुए लगातार बोले जा रहा था कि हरामजादों, मार दूँगा। देखते नहीं, मेरे हाथ में बन्दूक है। टुकड़े–टुकड़े कर दूँगा। ऐसा मारूँगा कि लाश की खबर नहीं मिलेगी... ये बातें कहते हुए वह काँप रहा था। उसके निशाने पर कोई खास व्यक्ति नहीं था या  आते–जाते सभी लोग उसके निशाने पर थे। इसी तरह एक अन्य घटना में एक व्यक्ति रोज सुबह उठकर शाम तक चैराहे पर ट्रैफिक कण्ट्रोल किया करता था। उसके कपड़े फटे हुए होते थे। जाड़ा, गर्मी, बरसात कभी नागा नहीं करता था।… आगे पढ़ें

महिलाओं के लिए भारत सबसे असुरक्षित देश

26 जून 2018 को ‘द थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन’ द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश बताया गया है। इसमें महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर 550 महिला विशेषज्ञों की राय ली गयी और उन्हें संयुक्त राष्ट्र के कुल 193 सदस्य देशों में से महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित दस देशों के नाम बताने को कहा गया। थॉमसन रॉयटर्स की रिपोर्ट में जारी सूची के अनुसार सबसे असुरक्षित देशों में भारत पहले स्थान पर, अफगानिस्तान और युद्धग्रस्त सीरिया क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर तथा सोमालिया और सऊदी अरब जैसे देश चैथे और पाँचवें स्थान पर हैं। इस सूची में पाकिस्तान छठे नम्बर पर और अमरीका दसवें नम्बर पर है। यहाँ यह बताना भी आवश्यक होगा कि इससे पहले 2011 में कराये गये इसी तरह के सर्वेक्षण में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों में क्रमश: अफगानिस्तान, कांगो, पाकिस्तान, भारत और सोमालिया थे। यानी पिछले सात सालों… आगे पढ़ें

मुजफ्फरपुर में मासूम बच्चों की मौत

अन्त:करण और स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे का आभाव भारत के गरीबों के लिए मौत का नुस्खा है। भारत ऐसी घटनाओं से भरपूर है जो पहले भी हुई हों लेकिन हर बार नयी लगती हैं और जितनी ही चीजें बदलती हैं, उतनी ही पहले जैसी बनी रहती हैं। 2017 में ही गोरखपुर में 175 बच्चे इन्सेफेलाइटिस से मरे थेय आज उसी बीमारी से मुजप्फरपुर में 156 से भी ज्यादा बच्चे मर चुके हैं। इस बीच एक ही चीज बदली है, वह है आयुष्मान भारत कार्यक्रम, यानी प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना का भव्य आरम्भ, जिसके तहत देश के 50 करोड़ गरीबों के स्वास्थ्य की देखभाल का आश्वासन दिया गया था। मुजफ्फरपुर की महामारी इसकी पहली बड़ी परीक्षा थी और यह बुरी तरह असफल हुआ है। मैं हर शाम टेलीविजन चैनलों पर कचरों के मंथन को शायद ही कभी देखता हूँ, लेकिन 18 जुलाई को मिरर नाउ पर एक कार्यक्रम देख कर मेरे… आगे पढ़ें

सफाईकर्मियों की मौत : जिम्मेदार कौन?

–– 15 जून, गुजरात में वडोदरा के निकट एक गाँव में होटल के सीवर की सफाई के लिए मैन होल में उतरे 7 लोगों की जहरीली गैस से दम घुटने के कारण मौत हो गयी। मैन होल में सबसे पहले घुसे महेश के बाहर न निकलने पर उसको देखने के लिए मैन होल में एक–एक कर उतरे सभी सात लोगों की 15 मिनट में भीतर मौत हो गयी। इनमें 4 सफाई कर्मचारी और 3 होटल कर्मी थे। –– 27 जून, हरियाणा के रोहतक में सेफ्टी टैंक साफ करने के दौरान जहरीली गैस की चपेट में आने से चार कर्मचारियों की मौत हो गयी। इनमें से तीन कर्मचारियों को निजी तौर पर रखा गया था जबकि एक लोक स्वास्थ्य विभाग से था। चारों सफाईकर्मियों की उम्र 22 से 30 साल के बीच थी। –– 1 मार्च, वाराणसी, कैंट थाना अन्तर्गत पांडेयपुर काली मंदिर के पास सीवर पाईप लाइन का चैम्बर साफ… आगे पढ़ें

सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर राजनीति

––दीप्ति इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन और हैप्पी टू ब्लीड जैसी संस्थाओं ने मिलकर केरल उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये उस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की थी,  जिसके अनुसार 10 से 50 वर्ष की महिलाओं का सबरीमाला मन्दिर में प्रवेश प्रतिबन्धित कर दिया गया था। 28 सितम्बर 2018 को सर्वाेच्च न्यायालय ने 5 सदस्यीय कमिटी में 4 सदस्यों के बहुमत से केरल उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। और सबरीमाला मन्दिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के मन्दिर जाने पर लगी रोक को समाप्त कर दिया। फैसला देते वक्त मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा, “धर्म के नाम पर पुरुषवादी सोच ठीक नहीं है और उम्र के आधार पर महिलाओं के मन्दिर प्रवेश पर रोक लगाना धर्म का हिस्सा नहीं है।” सबरीमाला मन्दिर केरल का एक प्रमुख तीर्थ है। इसका निर्माण 1200 ई– के लगभग हुआ था। प्रत्येक मलयाली महीने के शुरू के पाँच… आगे पढ़ें

सामाजिक न्याय की अवधारणा

एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है। इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वे ‘उत्तम जीवन’ की अपनी संकल्पना को धरती पर उतार पाएँ। विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में नीतिगत रूप में राजनीतिक सिद्धान्त के दायरे में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा और उससे जुड़ी अभिव्यक्तियों का समावेश किया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उसका अर्थ हमेशा सुस्पष्ट ही होता है। सिद्धान्तकारों ने इस विचार का अपने–अपने तरीके से इस्तेमाल किया है। व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में भी, भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय का नारा वंचित समूहों की राजनीतिक गोलबन्दी का एक प्रमुख आधार रहा है। उदारतावादी मानकीय राजनीतिक सिद्धान्त में उदारतावादी–समतावाद से आगे बढ़ते हुए सामाजिक… आगे पढ़ें

सामाजिक बदलाव और संस्कृति

(प्रस्तुत लेख जनपक्षधर पत्रकार, अफ्रीका, नेपाल समेत तीसरी दुनिया के विशेषज्ञ और ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ पत्रिका के सम्पादक आनन्द स्वरूप वर्मा जी के व्याख्यान का संक्षिप्त रूप है। उन्होने यह व्याख्यान 14 मई 2023 को देहारादून में ‘इतिहासबोध’ द्वारा प्रो– लाल बहादुर वर्मा जी की दूसरी स्मृति दिवस के अवसर पर आयोजित गोष्ठी में दिया था।) –––अनेक विद्वानों ने संस्कृति को अलग–अलग तरह से परिभाषित किया है और इसकी अलग–अलग तरह से व्याख्या की है लेकिन इनमें एक बात पर व्यापक सहमति मिलती है कि संस्कृति में ही प्रतिरोध के बीज छिपे होते हैं। संस्कृति का कोई निरपेक्ष अस्तित्व नहीं होता है। भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में, जहाँ वर्ग–विभाजित समाज है, संस्कृति भी दो प्रकार की होती हैं। एक संस्कृति शासन करने वाले शोषक वर्ग की, और दूसरी संस्कृति उस शोषित–उत्पीडित जनता की, जिन पर राज किया जाता है। इतिहास हमें बताता है कि इन दोनों संस्कृतियों के… आगे पढ़ें

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

–– प्रेमचंद साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक स्वरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी–अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति हैं, न कहीं हिन्दू संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है, लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज़ नहीं है। हिन्दू मूर्तिपूजक है, तो क्या मुसलमान… आगे पढ़ें

साम्राज्यवादी संस्कृति

भारत में 1991 से वैश्वीकरण की जो आँधी चलायी गयी, इसने देश की अर्थव्यवस्था के साथ–साथ सांस्कृतिक जीवन पर भी गहरा असर डाला। यहाँ के खान–पान, रहन–सहन, आदतों और पहनावों में व्यापक बदलाव आया। यहाँ तक कि भाषा भी अछूती नहीं रही। पहली बार लोगों को पता चला कि ब्रिटिश अंग्रेजी और अमरीकी अंग्रेजी का हिज्जे अलग–अलग होता है। यानी अमरीकी अंग्रेजी में फरमान आने लगे। अमरीकी जीवन शैली, कोक–पेप्सी, मैकडोनल पिज्जा, हिंसक और अश्लील फैंटेसी फिल्में, इन्टरनेट, आदि का चलन बढ़ गया। इनसान के मनोविज्ञान में भी बड़ा बदलाव आया–– तनाव, अवसाद, अलगाव और आत्महत्या की प्रवृत्तियों में वृद्धि हुई। भारत पर अमरीका का सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करने की दिशा में “अमरीकन वे ऑफ लाइफ” यानी अमरीकी जीवन शैली को बढ़ावा दिया गया। इसके लिए न केवल कोको–कोला, मैकडोनाल्ड, डोमिनोज, पिज्जा हट, केएफसी आदि जंक फूड्स को बाजार में उतारा गया बल्कि इसके जरिये स्थानीय खान–पान की आदतों में… आगे पढ़ें

हमारा जार्ज फ्लायड कहाँ है?

–– सुहास पालशीकर क्या भारत के सार्वजनिक जीवन में भी कोई जार्ज फ्लायड जैसी परिघटना होगी? निश्चय ही, यह महज अन्याय की एक घटना के खिलाफ फूट पड़ने वाले आक्रोश तक की ही बात नहीं है बल्कि एक प्रताड़ना के शिकार व्यक्ति के साथ खुद को खड़ा करने की तात्कालिक… आगे पढ़ें

हाथरस गैंगरेप की पाशविक बर्बरता को सत्ता का साथ

उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुए बलात्कार और हत्या के मामले में सीबीआई ने चार्जशीट दायर कर दी है। सीबीआई ने चारों आरोपियों पर सामूहिक बलात्कार और हत्या की धाराएँ लगायी हैं। इससे उत्तर प्रदेश प्रशासन का सच दबाने और आरोपियों को बचाने का प्रयास असफल हो गया है। 14 सितम्बर की सुबह हाथरस के बूलगढ़ी गाँव में 19 साल की दलित लड़की के साथ गाँव के ही ठाकुर जाति के चार लड़कों ने सामूहिक बलात्कार और जान से मारने की कोशिश की। उस पाशविक दरिन्दगी को याद करने पर रूह काप उठती है। उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी गयी थी, जीभ और गले में गम्भीर चोटें आयी थीं। पीड़िता वाल्मीकि जाति से थी। वह सुबह अपने भाई और माँ के साथ खेत पर काम करने गयी थी। कुछ देर बाद भाई चारा लेकर घर आ गया, जबकि पीड़िता और उसकी माँ खेत में ही काम कर रही थीं।… आगे पढ़ें