अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

सरकारी विभागों में ठेका कर्मियों का उत्पीड़न

––गौरव तोमर

वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के सभी सरकारी विभागों में 20 से 50 प्रतिशत तक पद खाली हैं। इनमें मुख्यत: शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस, फौज, न्यायपालिका आदि विभाग शामिल हैं। यानी सरकारी विभागों में जितनी भर्तियों की जरूरत है, उतनी भी पूरी नहीं हो रही हैं। बल्कि जो भर्तियाँ जैसे–तैसे हो भी रही हैं, उन्हें  किसी न किसी बहाने से रद्द कर दिया जा रहा है। दूसरी तरफ नेताओं के बयान आते रहते हैं कि हम इतने लोगों को रोजगार नहीं दे सकते, क्योंकि देश में नौकरियाँ नहीं हैं। सरकार नौजवानों को नौकरी देना नहीं चाहती। जिसके चलते लाखों नौजवानों को बेरोजगारी का दंश झेलना पड़ रहा है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 25 नवम्बर, 2014 की रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के सरकारी शिक्षण संस्थानों में जितने अध्यापकों और कर्मचारियों की जरूरत है उतने भी नहीं हैं। आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी जैसे शिक्षण संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की कुल स्वीकृत पद 20,532 हैं। इनमें से 9,475 पद यानी 46 प्रतिशत पद खाली हैं। जब देश के सबसे उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापक ही नहीं होंगे तो क्या वहाँ पढ़ने वाले छात्रों की गुणवत्ता में कमी नहीं आयेगी? फिर हमारे छात्र कैसे नयी–नयी खोजें कर सकते हैं? क्या वे बढ़िया डॉक्टर, इंजीनियर बन पायेंगे?

राज्य स्तरीय उच्च शिक्षण संस्थानों की हालत और भी खराब है। राजस्थान के 9 सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों में 1080 अध्यापकों के पद हैं। लेकिन वहाँ पर केवल 590 अध्यापक ही नियुक्त किये गये हैं। अभी 490 स्थायी अध्यापकों की जरूरत है। यही हाल उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के शिक्षण संस्थानों का है। अध्यापकों के सबसे ज्यादा खाली पदों के मामले में हरियाणा विश्वविद्यालय पहले पायदान पर है। वहाँ 75 प्रतिशत अध्यापकों की कमी है। दूसरे पायदान पर इलाहबाद विश्वविद्यालय है, वहाँ 64 प्रतिशत अध्यापकों के पद खाली हैं और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय है, वहाँ 55 प्रतिशत अध्यापकों के पद खाली हैं। यही स्थिति अन्य विश्वविद्यालयों की है।

प्राथमिक शिक्षा की बात करें तो केवल उत्तर प्रदेश के प्राइमरी स्कूलों में ही अध्यापकों के 1 लाख 60 हजार पद खाली हैं। प्राथमिक स्कूलों में अध्यापकों की कमी को पूरा करने के लिए शिक्षामित्रों की भर्ती की जाती है। उत्तर प्रदेश पुलिस विभाग में सहायता करने वाले होमगार्डों की संख्या एक लाख से अधिक है, जिनकी नियुक्ति ठेके पर होती है। आज ऐसा कोई भी सरकारी विभाग नहीं रह गया है जिसमें कर्मचारी, गार्ड, माली, सुपरवाइजर, इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक आदि की नियुक्ति ठेके पर न होती हो।

ठेके पर रखने वाली संस्था के अनुबन्ध पत्र में कई असमान शर्तें होती हैं। केवल कॉलेज का उदाहरण लेकर चलें तो पहली शर्त यह होती है कि किसी भी अध्यापक को एक सेमेस्टर तक नौकरी पर रखा जाता है। यानी नियुक्ति अस्थाई होती है। 6 महीने के सेमेस्टर में नौकरी का अनुबन्ध पत्र लगभग 5 महीने का होता है। मतलब उन्हें 5 महीने के लिए ही नौकरी पर रखा जाता है। यदि अतिथि अध्यापक अपने अध्यापन कार्य में ठीक पाया जाता है तो उसे अगले सेमेस्टर में नियुक्त करने के लिए विचार किया जा सकता है। नहीं तो उसकी जगह किसी दूसरे अतिथि अध्यापक को 5 महीने के लिए रखा जा सकता है। जब कोई अध्यापक नौकरी से निकाल दिया जाता है तो वह अपने परिवार का खर्च भी नहीं चला पाता। ऐसी हालत में बीमार होने पर इलाज भी नहीं करवा पाता। सरकार को उस अध्यापक और उसके परिवार की कोई चिन्ता नहीं। उसके भविष्य का क्या होगा? यह सरकार कभी नहीं सोचती है। जबकि सरकारी संस्था में स्थायी अध्यापक को बीमारी के दौरान भी आर्थिक सहूलियत मिल जाती है। रिटायर होने के बाद लाखों रुपयों का फण्ड मिल जाता है। मतलब एक सरकारी अध्यापक का भविष्य सुरक्षित होने की गारण्टी होती है लेकिन अतिथि अध्यापक की नहीं, जबकि दोनों एक ही काम करते हैं।

ठेके पर रखने की एक शर्त वेतन से सम्बन्धित होती है। पॉलीटेकनिक कॉलेज में ठेके पर नियुक्ति के लिए अधिकतम वेतन 12,000 रुपये होता है। जबकि सरकारी अध्यापक का वेतन 40,000 से 70,000 रुपये तक होता है। एक सरकारी अध्यापक का वेतन अतिथि अध्यापक के वेतन के मुकाबले 5 गुना अधिक है जबकि दोनों की योग्यता समान हैं और उनके काम भी समान हैं। बल्कि कई बार अतिथि अध्यापक को अपने लेक्चर के साथ, सरकारी अध्यापक के लेक्चर भी लेने पड़ते हैं। प्रयोग कराने के लिए लैब असिस्टेंट नहीं रखा जाता इसलिए लैब का काम भी अतिथि अध्यापक को ही सम्भालना होता है। वह संस्था का पेपर वर्क (फार्म भरना, प्रवेश पत्र बाँटना आदि) भी करता है। इतना सब करने के बाद वेतन भी उसे समय से नहीं मिलता। कभी 15 दिन लेट, कभी 1 महीने तो कभी 3 महीने लेट मिलता है। वह शिकायत भी नहीं कर सकता क्योंकि शिकायत करने पर हो सकता है, उसे अगली बार नौकरी पर न रखा जाये। सेमेस्टर के बीच में स्थायी अध्यापक की नियुक्ति के बाद अतिथि अध्यापक को नौकरी से निकाल दिया जाता है।

ठेके पर रखने की एक शर्त यह भी है कि अतिथि अध्यापक को किसी भी तरह का विशेष अवकाश प्रदान नहीं किया जायेगा। अतिथि अध्यापक के किसी भी कारण से जैसे जरूरी काम से बाहर जाने पर, बीमार होने पर या किसी सगे–सम्बन्धी की मृत्यु हो जाने की स्थिति में अवकाश लेने पर प्रतिदिन के हिसाब से उसका वेतन काट लिया जाता है। जबकि संस्था के किसी काम से रविवार को या छुट्टी के दिन बुलाने पर या संस्था में निर्धारित समय से ज्यादा काम करने पर, उसे अतिरिक्त वेतन नहीं मिलता। उस काम की क्षतिपूर्ति के लिए अवकाश भी नहीं दिया जाता है। हाँ, अगर मिलती है तो संस्था की तरफ से धमकी। नौकरी से निकालने की और नकारा या कामचोर होने का इनाम। क्या गुरुओं की ऐसी दयनीय स्थिति को देखते हुए हम विश्वगुरु होने का दम भर सकते हैं? क्या अतिथि अध्यापक के साथ सरकार का ऐसा व्यवहार उचित है?

सरकारी विभागों में अधिकतर कर्मचारियों की उम्र रिटायरमेंट के करीब है। प्रत्येक विभाग में हर साल कई कर्मचारी रिटायर होते हैं, उनकी जगह खाली हो जाती है, लेकिन कोई दूसरी स्थायी नियुक्ति नहीं की जाती है। रिटायर हुए व्यक्ति का काम का बोझ भी ठेका कर्मचारी के ऊपर आ जाता है। एक ठेका कर्मचारी 2–3 सरकारी कर्मचारियों के बराबर काम करता है। उसके बावजूद उसकी स्थायी नियुक्ति नहीं होती है। आखिरकार, सरकार स्थायी नियुक्ति क्यों नहीं कर रही है? दरअसल सरकार अस्थायी कर्मियों के जीवन–यापन की किसी भी तरह की जिम्मेदारी निभाना नहीं चाहती है। सरकार चाहती है उसके विभागों को निजी हाथों में सौंप दिया जाये। इसलिए सरकार ने उन विभागों में नियुक्तियों पर रोक लगा दी है। निजी हाथों में सौंपने के लिए सरकार के बहाने होते हैं कि सरकारी विभाग में क्षमता नहीं है, वे अयोग्य हैं। सरकार का आज कोई भी विभाग ऐसा नहीं है जहाँ अप्रत्यक्ष निजीकरण न हो। ठेका भर्ती चोर दरवाजे से निजीकरण ही है।

सरकार ठेके पर नियुक्त अध्यापकों को अतिथि नाम देती है। लेकिन संस्था में अतिथि अध्यापक से ‘कोल्हू के बैल’ की तरह काम लिया जाता है। फिर भी वह अपने शोषण के खिलाफ अपनी आवाज न ही संस्था में उठा सकता है और न ही सरकार के सामने।  क्योंकि सरकार ने उसे ऐसे नियम–कानूनों में बाँध दिया जिनसे वह चाहकर भी बाहर नहीं निकल सकता। दरअसल सरकार ने अस्थायी कर्मियों को बन्धुआ मजदूर में तब्दील कर दिया है। जहाँ अपना काम करने के साथ, मालिक की बेगारी भी करनी पड़ती है।

सरकार लगातार सार्वजानिक निगमों को देशी–विदेशी पूँजीपतियों को बेच रही है। वह चाहती है कि शिक्षा, बैंक, डाक, परिवहन, स्वास्थ्य, न्यायपालिका, पुलिस–फौज, बिजली आदि विभागों को पूँजीपति सम्भालें। पूँजीपति का उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना होता है। इसकी पहली शर्त है कि वह अपने कर्मचारी से कम से कम वेतन में ज्यादा से ज्यादा काम करवाये। दूसरी शर्त होती है कि उसके पास अच्छी गुणवत्ता की एडवांस तकनीक हो, जिससे वह कम समय में, कम से कम कर्मचारियों को नौकरी पर रखकर पहले से ज्यादा काम करा सके। इससे बेरोजगारी तेजी से बढ़ती है और उतनी ही तेजी से पूँजीपतियों की तिजोरी भरती है। जनता भुखमरी–कंगाली के गर्त में पहुँचती जाती है। विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के आगे घुटने टेकने के बाद सरकारी खर्चों में कटौती के नाम पर सभी विभागों में छँटनी, तालाबन्दी और ठेका प्रथा लागू हो रही है। जिसकी मार देश की युवा पीढ़ी झेल रही है। दूसरी ओर सरकार अपनी सुख–सुविधाओं और वेतन–भत्ते में कटौती तो दूर, उसमें बढ़ोतरी का कोई मौका हाथ से निकलने नहीं देती। 

 
 

 

 

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