सरकारी विभागों में ठेका कर्मियों का उत्पीड़न
––गौरव तोमर
वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के सभी सरकारी विभागों में 20 से 50 प्रतिशत तक पद खाली हैं। इनमें मुख्यत: शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस, फौज, न्यायपालिका आदि विभाग शामिल हैं। यानी सरकारी विभागों में जितनी भर्तियों की जरूरत है, उतनी भी पूरी नहीं हो रही हैं। बल्कि जो भर्तियाँ जैसे–तैसे हो भी रही हैं, उन्हें किसी न किसी बहाने से रद्द कर दिया जा रहा है। दूसरी तरफ नेताओं के बयान आते रहते हैं कि हम इतने लोगों को रोजगार नहीं दे सकते, क्योंकि देश में नौकरियाँ नहीं हैं। सरकार नौजवानों को नौकरी देना नहीं चाहती। जिसके चलते लाखों नौजवानों को बेरोजगारी का दंश झेलना पड़ रहा है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 25 नवम्बर, 2014 की रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के सरकारी शिक्षण संस्थानों में जितने अध्यापकों और कर्मचारियों की जरूरत है उतने भी नहीं हैं। आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी जैसे शिक्षण संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की कुल स्वीकृत पद 20,532 हैं। इनमें से 9,475 पद यानी 46 प्रतिशत पद खाली हैं। जब देश के सबसे उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापक ही नहीं होंगे तो क्या वहाँ पढ़ने वाले छात्रों की गुणवत्ता में कमी नहीं आयेगी? फिर हमारे छात्र कैसे नयी–नयी खोजें कर सकते हैं? क्या वे बढ़िया डॉक्टर, इंजीनियर बन पायेंगे?
राज्य स्तरीय उच्च शिक्षण संस्थानों की हालत और भी खराब है। राजस्थान के 9 सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों में 1080 अध्यापकों के पद हैं। लेकिन वहाँ पर केवल 590 अध्यापक ही नियुक्त किये गये हैं। अभी 490 स्थायी अध्यापकों की जरूरत है। यही हाल उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के शिक्षण संस्थानों का है। अध्यापकों के सबसे ज्यादा खाली पदों के मामले में हरियाणा विश्वविद्यालय पहले पायदान पर है। वहाँ 75 प्रतिशत अध्यापकों की कमी है। दूसरे पायदान पर इलाहबाद विश्वविद्यालय है, वहाँ 64 प्रतिशत अध्यापकों के पद खाली हैं और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय है, वहाँ 55 प्रतिशत अध्यापकों के पद खाली हैं। यही स्थिति अन्य विश्वविद्यालयों की है।
प्राथमिक शिक्षा की बात करें तो केवल उत्तर प्रदेश के प्राइमरी स्कूलों में ही अध्यापकों के 1 लाख 60 हजार पद खाली हैं। प्राथमिक स्कूलों में अध्यापकों की कमी को पूरा करने के लिए शिक्षामित्रों की भर्ती की जाती है। उत्तर प्रदेश पुलिस विभाग में सहायता करने वाले होमगार्डों की संख्या एक लाख से अधिक है, जिनकी नियुक्ति ठेके पर होती है। आज ऐसा कोई भी सरकारी विभाग नहीं रह गया है जिसमें कर्मचारी, गार्ड, माली, सुपरवाइजर, इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक आदि की नियुक्ति ठेके पर न होती हो।
ठेके पर रखने वाली संस्था के अनुबन्ध पत्र में कई असमान शर्तें होती हैं। केवल कॉलेज का उदाहरण लेकर चलें तो पहली शर्त यह होती है कि किसी भी अध्यापक को एक सेमेस्टर तक नौकरी पर रखा जाता है। यानी नियुक्ति अस्थाई होती है। 6 महीने के सेमेस्टर में नौकरी का अनुबन्ध पत्र लगभग 5 महीने का होता है। मतलब उन्हें 5 महीने के लिए ही नौकरी पर रखा जाता है। यदि अतिथि अध्यापक अपने अध्यापन कार्य में ठीक पाया जाता है तो उसे अगले सेमेस्टर में नियुक्त करने के लिए विचार किया जा सकता है। नहीं तो उसकी जगह किसी दूसरे अतिथि अध्यापक को 5 महीने के लिए रखा जा सकता है। जब कोई अध्यापक नौकरी से निकाल दिया जाता है तो वह अपने परिवार का खर्च भी नहीं चला पाता। ऐसी हालत में बीमार होने पर इलाज भी नहीं करवा पाता। सरकार को उस अध्यापक और उसके परिवार की कोई चिन्ता नहीं। उसके भविष्य का क्या होगा? यह सरकार कभी नहीं सोचती है। जबकि सरकारी संस्था में स्थायी अध्यापक को बीमारी के दौरान भी आर्थिक सहूलियत मिल जाती है। रिटायर होने के बाद लाखों रुपयों का फण्ड मिल जाता है। मतलब एक सरकारी अध्यापक का भविष्य सुरक्षित होने की गारण्टी होती है लेकिन अतिथि अध्यापक की नहीं, जबकि दोनों एक ही काम करते हैं।
ठेके पर रखने की एक शर्त वेतन से सम्बन्धित होती है। पॉलीटेकनिक कॉलेज में ठेके पर नियुक्ति के लिए अधिकतम वेतन 12,000 रुपये होता है। जबकि सरकारी अध्यापक का वेतन 40,000 से 70,000 रुपये तक होता है। एक सरकारी अध्यापक का वेतन अतिथि अध्यापक के वेतन के मुकाबले 5 गुना अधिक है जबकि दोनों की योग्यता समान हैं और उनके काम भी समान हैं। बल्कि कई बार अतिथि अध्यापक को अपने लेक्चर के साथ, सरकारी अध्यापक के लेक्चर भी लेने पड़ते हैं। प्रयोग कराने के लिए लैब असिस्टेंट नहीं रखा जाता इसलिए लैब का काम भी अतिथि अध्यापक को ही सम्भालना होता है। वह संस्था का पेपर वर्क (फार्म भरना, प्रवेश पत्र बाँटना आदि) भी करता है। इतना सब करने के बाद वेतन भी उसे समय से नहीं मिलता। कभी 15 दिन लेट, कभी 1 महीने तो कभी 3 महीने लेट मिलता है। वह शिकायत भी नहीं कर सकता क्योंकि शिकायत करने पर हो सकता है, उसे अगली बार नौकरी पर न रखा जाये। सेमेस्टर के बीच में स्थायी अध्यापक की नियुक्ति के बाद अतिथि अध्यापक को नौकरी से निकाल दिया जाता है।
ठेके पर रखने की एक शर्त यह भी है कि अतिथि अध्यापक को किसी भी तरह का विशेष अवकाश प्रदान नहीं किया जायेगा। अतिथि अध्यापक के किसी भी कारण से जैसे जरूरी काम से बाहर जाने पर, बीमार होने पर या किसी सगे–सम्बन्धी की मृत्यु हो जाने की स्थिति में अवकाश लेने पर प्रतिदिन के हिसाब से उसका वेतन काट लिया जाता है। जबकि संस्था के किसी काम से रविवार को या छुट्टी के दिन बुलाने पर या संस्था में निर्धारित समय से ज्यादा काम करने पर, उसे अतिरिक्त वेतन नहीं मिलता। उस काम की क्षतिपूर्ति के लिए अवकाश भी नहीं दिया जाता है। हाँ, अगर मिलती है तो संस्था की तरफ से धमकी। नौकरी से निकालने की और नकारा या कामचोर होने का इनाम। क्या गुरुओं की ऐसी दयनीय स्थिति को देखते हुए हम विश्वगुरु होने का दम भर सकते हैं? क्या अतिथि अध्यापक के साथ सरकार का ऐसा व्यवहार उचित है?
सरकारी विभागों में अधिकतर कर्मचारियों की उम्र रिटायरमेंट के करीब है। प्रत्येक विभाग में हर साल कई कर्मचारी रिटायर होते हैं, उनकी जगह खाली हो जाती है, लेकिन कोई दूसरी स्थायी नियुक्ति नहीं की जाती है। रिटायर हुए व्यक्ति का काम का बोझ भी ठेका कर्मचारी के ऊपर आ जाता है। एक ठेका कर्मचारी 2–3 सरकारी कर्मचारियों के बराबर काम करता है। उसके बावजूद उसकी स्थायी नियुक्ति नहीं होती है। आखिरकार, सरकार स्थायी नियुक्ति क्यों नहीं कर रही है? दरअसल सरकार अस्थायी कर्मियों के जीवन–यापन की किसी भी तरह की जिम्मेदारी निभाना नहीं चाहती है। सरकार चाहती है उसके विभागों को निजी हाथों में सौंप दिया जाये। इसलिए सरकार ने उन विभागों में नियुक्तियों पर रोक लगा दी है। निजी हाथों में सौंपने के लिए सरकार के बहाने होते हैं कि सरकारी विभाग में क्षमता नहीं है, वे अयोग्य हैं। सरकार का आज कोई भी विभाग ऐसा नहीं है जहाँ अप्रत्यक्ष निजीकरण न हो। ठेका भर्ती चोर दरवाजे से निजीकरण ही है।
सरकार ठेके पर नियुक्त अध्यापकों को अतिथि नाम देती है। लेकिन संस्था में अतिथि अध्यापक से ‘कोल्हू के बैल’ की तरह काम लिया जाता है। फिर भी वह अपने शोषण के खिलाफ अपनी आवाज न ही संस्था में उठा सकता है और न ही सरकार के सामने। क्योंकि सरकार ने उसे ऐसे नियम–कानूनों में बाँध दिया जिनसे वह चाहकर भी बाहर नहीं निकल सकता। दरअसल सरकार ने अस्थायी कर्मियों को बन्धुआ मजदूर में तब्दील कर दिया है। जहाँ अपना काम करने के साथ, मालिक की बेगारी भी करनी पड़ती है।
सरकार लगातार सार्वजानिक निगमों को देशी–विदेशी पूँजीपतियों को बेच रही है। वह चाहती है कि शिक्षा, बैंक, डाक, परिवहन, स्वास्थ्य, न्यायपालिका, पुलिस–फौज, बिजली आदि विभागों को पूँजीपति सम्भालें। पूँजीपति का उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना होता है। इसकी पहली शर्त है कि वह अपने कर्मचारी से कम से कम वेतन में ज्यादा से ज्यादा काम करवाये। दूसरी शर्त होती है कि उसके पास अच्छी गुणवत्ता की एडवांस तकनीक हो, जिससे वह कम समय में, कम से कम कर्मचारियों को नौकरी पर रखकर पहले से ज्यादा काम करा सके। इससे बेरोजगारी तेजी से बढ़ती है और उतनी ही तेजी से पूँजीपतियों की तिजोरी भरती है। जनता भुखमरी–कंगाली के गर्त में पहुँचती जाती है। विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के आगे घुटने टेकने के बाद सरकारी खर्चों में कटौती के नाम पर सभी विभागों में छँटनी, तालाबन्दी और ठेका प्रथा लागू हो रही है। जिसकी मार देश की युवा पीढ़ी झेल रही है। दूसरी ओर सरकार अपनी सुख–सुविधाओं और वेतन–भत्ते में कटौती तो दूर, उसमें बढ़ोतरी का कोई मौका हाथ से निकलने नहीं देती।
Leave a Comment
लेखक के अन्य लेख
- राजनीति
-
- 106 वर्ष प्राचीन पटना संग्रहालय के प्रति बिहार सरकार का शत्रुवत व्यवहार –– पुष्पराज 19 Jun, 2023
- इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाले पर जानेमाने अर्थशास्त्री डॉक्टर प्रभाकर का सनसनीखेज खुलासा 6 May, 2024
- कोरोना वायरस, सर्विलांस राज और राष्ट्रवादी अलगाव के खतरे 10 Jun, 2020
- जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का तर्कहीन मसौदा 21 Nov, 2021
- डिजिटल कण्टेण्ट निर्माताओं के लिए लाइसेंस राज 13 Sep, 2024
- नया वन कानून: वन संसाधनों की लूट और हिमालय में आपदाओं को न्यौता 17 Nov, 2023
- नये श्रम कानून मजदूरों को ज्यादा अनिश्चित भविष्य में धकेल देंगे 14 Jan, 2021
- बेरोजगार भारत का युग 20 Aug, 2022
- बॉर्डर्स पर किसान और जवान 16 Nov, 2021
- मोदी के शासनकाल में बढ़ती इजारेदारी 14 Jan, 2021
- सत्ता के नशे में चूर भाजपाई कारकूनों ने लखीमपुर खीरी में किसानों को कार से रौंदा 23 Nov, 2021
- हरियाणा किसान आन्दोलन की समीक्षा 20 Jun, 2021
- सामाजिक-सांस्कृतिक
-
- एक आधुनिक कहानी एकलव्य की 23 Sep, 2020
- किसान आन्दोलन के आह्वान पर मिट्टी सत्याग्रह यात्रा 20 Jun, 2021
- गैर बराबरी की महामारी 20 Aug, 2022
- घोस्ट विलेज : पहाड़ी क्षेत्रों में राज्यप्रेरित पलायन –– मनीषा मीनू 19 Jun, 2023
- दिल्ली के सरकारी स्कूल : नवउदारवाद की प्रयोगशाला 14 Mar, 2019
- पहाड़ में नफरत की खेती –– अखर शेरविन्द 19 Jun, 2023
- सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर राजनीति 14 Dec, 2018
- साम्प्रदायिकता और संस्कृति 20 Aug, 2022
- हमारा जार्ज फ्लायड कहाँ है? 23 Sep, 2020
- ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ पर केन्द्रित ‘कथान्तर’ का विशेषांक 13 Sep, 2024
- व्यंग्य
-
- अगला आधार पाठ्यपुस्तक पुनर्लेखन –– जी सम्पत 19 Jun, 2023
- आजादी को आपने कहीं देखा है!!! 20 Aug, 2022
- इन दिनों कट्टर हो रहा हूँ मैं––– 20 Aug, 2022
- नुसरत जहाँ : फिर तेरी कहानी याद आयी 15 Jul, 2019
- बडे़ कारनामे हैं बाबाओं के 13 Sep, 2024
- साहित्य
-
- अव्यवसायिक अभिनय पर दो निबन्ध –– बर्तोल्त ब्रेख्त 17 Feb, 2023
- औपनिवेशिक सोच के विरुद्ध खड़ी अफ्रीकी कविताएँ 6 May, 2024
- किसान आन्दोलन : समसामयिक परिदृश्य 20 Jun, 2021
- खामोश हो रहे अफगानी सुर 20 Aug, 2022
- जनतांत्रिक समालोचना की जरूरी पहल – कविता का जनपक्ष (पुस्तक समीक्षा) 20 Aug, 2022
- निशरीन जाफरी हुसैन का श्वेता भट्ट को एक पत्र 15 Jul, 2019
- फासीवाद के खतरे : गोरी हिरणी के बहाने एक बहस 13 Sep, 2024
- फैज : अँधेरे के विरुद्ध उजाले की कविता 15 Jul, 2019
- “मैं” और “हम” 14 Dec, 2018
- समाचार-विचार
-
- स्विस बैंक में जमा भारतीय कालेधन में 50 फीसदी की बढ़ोतरी 20 Aug, 2022
- अगले दशक में विश्व युद्ध की आहट 6 May, 2024
- अफगानिस्तान में तैनात और ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों की आत्महत्या 14 Jan, 2021
- आरओ जल–फिल्टर कम्पनियों का बढ़ता बाजार 6 May, 2024
- इजराइल–अरब समझौता : डायन और भूत का गठबन्धन 23 Sep, 2020
- उत्तर प्रदेश : लव जेहाद की आड़ में धर्मान्तरण के खिलाफ अध्यादेश 14 Jan, 2021
- उत्तर प्रदेश में मीडिया की घेराबन्दी 13 Apr, 2022
- उनके प्रभु और स्वामी 14 Jan, 2021
- एआई : तकनीकी विकास या आजीविका का विनाश 17 Nov, 2023
- काँवड़ के बहाने ढाबों–ढेलों पर नाम लिखाने का साम्प्रदायिक फरमान 13 Sep, 2024
- किसान आन्दोलन : लीक से हटकर एक विमर्श 14 Jan, 2021
- कोयला खदानों के लिए भारत के सबसे पुराने जंगलों की बलि! 23 Sep, 2020
- कोरोना जाँच और इलाज में निजी लैब–अस्पताल फिसड्डी 10 Jun, 2020
- कोरोना ने सबको रुलाया 20 Jun, 2021
- क्या उत्तर प्रदेश में मुसलमान होना ही गुनाह है? 23 Sep, 2020
- क्यूबा तुम्हारे आगे घुटने नहीं टेकेगा, बाइडेन 16 Nov, 2021
- खाली जेब, खाली पेट, सर पर कर्ज लेकर मजदूर कहाँ जायें 23 Sep, 2020
- खिलौना व्यापारियों के साथ खिलवाड़ 23 Sep, 2020
- छल से वन अधिकारों का दमन 15 Jul, 2019
- छात्रों को शोध कार्य के साथ आन्दोलन भी करना होगा 19 Jun, 2023
- त्रिपुरा हिंसा की वह घटना जब तस्वीर लेना ही देशद्रोह बन गया! 13 Apr, 2022
- दिल्ली उच्च न्यायलय ने केन्द्र सरकार को केवल पाखण्डी ही नहीं कहा 23 Sep, 2020
- दिल्ली दंगे का सबक 11 Jun, 2020
- देश के बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में 14 Dec, 2018
- न्यूज चैनल : जनता को गुमराह करने का हथियार 14 Dec, 2018
- बच्चों का बचपन और बड़ों की जवानी छीन रहा है मोबाइल 16 Nov, 2021
- बीमारी से मौत या सामाजिक स्वीकार्यता के साथ व्यवस्था द्वारा की गयी हत्या? 13 Sep, 2024
- बुद्धिजीवियों से नफरत क्यों करते हैं दक्षिणपंथी? 15 Jul, 2019
- बैंकों की बिगड़ती हालत 15 Aug, 2018
- बढ़ते विदेशी मरीज, घटते डॉक्टर 15 Oct, 2019
- भारत देश बना कुष्ठ रोग की राजधानी 20 Aug, 2022
- भारत ने पीओके पर किया हमला : एक और फर्जी खबर 14 Jan, 2021
- भीड़ का हमला या संगठित हिंसा? 15 Aug, 2018
- मजदूरों–कर्मचारियों के हितों पर हमले के खिलाफ नये संघर्षों के लिए कमर कस लें! 10 Jun, 2020
- महाराष्ट्र के कपास किसानों की दुर्दशा उन्हीं की जबानी 23 Sep, 2020
- महाराष्ट्र में कर्मचारी भर्ती का ठेका निजी कम्पनियों के हवाले 17 Nov, 2023
- महाराष्ट्र में चार सालों में 12 हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की 15 Jul, 2019
- मानव अंगों की तस्करी का घिनौना व्यापार 13 Sep, 2024
- मौत के घाट उतारती जोमैटो की 10 मिनट ‘इंस्टेण्ट डिलीवरी’ योजना 20 Aug, 2022
- यूपीएससी की तैयारी में लगे छात्रों की दुर्दशा, जिम्मेदार कौन? 13 Sep, 2024
- राजस्थान में परमाणु पावर प्लाण्ट का भारी विरोध 13 Sep, 2024
- रेलवे का निजीकरण : आपदा को अवसर में बदलने की कला 23 Sep, 2020
- लोग पुरानी पेंशन योजना की बहाली के लिए क्यों लड़ रहे हैं 17 Nov, 2023
- विधायिका में महिला आरक्षण की असलियत 17 Nov, 2023
- वैश्विक लिंग असमानता रिपोर्ट 20 Aug, 2022
- श्रीलंका पर दबाव बनाते पकड़े गये अडानी के “मैनेजर” प्रधानमंत्री जी 20 Aug, 2022
- संस्कार भारती, सेवा भारती––– प्रसार भारती 14 Jan, 2021
- सत्ता–सुख भोगने की कला 15 Oct, 2019
- सरकार द्वारा लक्ष्यद्वीप की जनता की संस्कृति पर हमला और दमन 20 Jun, 2021
- सरकार बहादुर कोरोना आपके लिए अवसर लाया है! 10 Jun, 2020
- सरकार, न्यायपालिका, सेना की आलोचना करना राजद्रोह नहीं 15 Oct, 2019
- सरकारी विभागों में ठेका कर्मियों का उत्पीड़न 15 Aug, 2018
- हम इस फर्जी राष्ट्रवाद के सामने नहीं झुकेंगे 13 Apr, 2022
- हाथरस की भगदड़ में मौत का जिम्मेदार कौन 13 Sep, 2024
- हुकुम, बताओ क्या कहूँ जो आपको चोट न लगे। 13 Apr, 2022
- कहानी
-
- जामुन का पेड़ 8 Feb, 2020
- पानीपत की चैथी लड़ाई 16 Nov, 2021
- माटी वाली 17 Feb, 2023
- समझौता 13 Sep, 2024
- विचार-विमर्श
-
- अतीत और वर्तमान में महामारियों ने बड़े निगमों के उदय को कैसे बढ़ावा दिया है? 23 Sep, 2020
- अस्तित्व बनाम अस्मिता 14 Mar, 2019
- क्या है जो सभी मेहनतकशों में एक समान है? 23 Sep, 2020
- क्रान्तिकारी विरासत और हमारा समय 13 Sep, 2024
- दिल्ली सरकार की ‘स्कूल्स ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सलेंस’ की योजना : एक रिपोर्ट! 16 Nov, 2021
- धर्म की आड़ 17 Nov, 2023
- पलायन मजा या सजा 20 Aug, 2022
- राजनीति में आँधियाँ और लोकतंत्र 14 Jun, 2019
- लीबिया की सच्चाई छिपाता मीडिया 17 Nov, 2023
- लोकतंत्र के पुरोधाओं ने लोकतंत्र के बारे में क्या कहा था? 23 Sep, 2020
- विकास की निरन्तरता में–– गुरबख्श सिंह मोंगा 19 Jun, 2023
- विश्व चैम्पियनशिप में पदक विजेता महिला पहलवान विनेश फोगाट से बातचीत 19 Jun, 2023
- सरकार और न्यायपालिका : सम्बन्धों की प्रकृति क्या है और इसे कैसे विकसित होना चाहिए 15 Aug, 2018
- श्रद्धांजलि
- कविता
-
- अपने लोगों के लिए 6 May, 2024
- कितने और ल्हासा होंगे 23 Sep, 2020
- चल पड़ा है शहर कुछ गाँवों की राह 23 Sep, 2020
- बच्चे काम पर जा रहे हैं 19 Jun, 2023
- अन्तरराष्ट्रीय
-
- अमरीका बनाम चीन : क्या यह एक नये शीत युद्ध की शुरुआत है 23 Sep, 2020
- इजराइल का क्रिस्टालनाख्त नरसंहार 17 Nov, 2023
- क्या लोकतन्त्र का लबादा ओढ़े अमरीका तानाशाही में बदल गया है? 14 Dec, 2018
- पश्चिम एशिया में निर्णायक मोड़ 15 Aug, 2018
- प्रतिबन्धों का मास्को पर कुछ असर नहीं पड़ा है, जबकि यूरोप 4 सरकारें गँवा चुका है: ओरबान 20 Aug, 2022
- बोलीविया में तख्तापलट : एक परिप्रेक्ष्य 8 Feb, 2020
- भारत–इजराइल साझेदारी को मिली एक वैचारिक कड़ी 15 Oct, 2019
- भोजन, खेती और अफ्रीका : बिल गेट्स को एक खुला खत 17 Feb, 2023
- महामारी के बावजूद 2020 में वैश्विक सामरिक खर्च में भारी उछाल 21 Jun, 2021
- लातिन अमरीका के मूलनिवासियों, अफ्रीकी मूल के लोगों और लातिन अमरीकी संगठनों का आह्वान 10 Jun, 2020
- सउ़दी अरब की साम्राज्यवादी विरासत 16 Nov, 2021
- ‘जल नस्लभेद’ : इजराइल कैसे गाजा पट्टी में पानी को हथियार बनाता है 17 Nov, 2023
- राजनीतिक अर्थशास्त्र
- साक्षात्कार
-
- कम कहना ही बहुत ज्यादा है : एडुआर्डो गैलियानो 20 Aug, 2022
- चे ग्वेरा की बेटी अलेदा ग्वेरा का साक्षात्कार 14 Dec, 2018
- फैज अहमद फैज के नजरिये से कश्मीर समस्या का हल 15 Oct, 2019
- भारत के एक बड़े हिस्से में मर्दवादी विचार हावी 15 Jul, 2019
- अवर्गीकृत
-
- एक अकादमिक अवधारणा 20 Aug, 2022
- डीएचएफएल घोटाला : नवउदारवाद की एक और झलक 14 Mar, 2019
- फिदेल कास्त्रो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के हिमायती 10 Jun, 2020
- बायोमेडिकल रिसर्च 14 Jan, 2021
- भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारत को मुसलमानों का महान स्थायी योगदान 23 Sep, 2020
- सर्वोच्च न्यायलय द्वारा याचिकाकर्ता को दण्डित करना, अन्यायपूर्ण है. यह राज्य पर सवाल उठाने वालों के लिए भयावह संकेत है 20 Aug, 2022
- जीवन और कर्म
- मीडिया
-
- मीडिया का असली चेहरा 15 Mar, 2019
- फिल्म समीक्षा
-
- समाज की परतें उघाड़ने वाली फिल्म ‘आर्टिकल 15’ 15 Jul, 2019