सितम्बर 2024, अंक 46 में प्रकाशित

बीमारी से मौत या सामाजिक स्वीकार्यता के साथ व्यवस्था द्वारा की गयी हत्या?

जैसे–जैसे पूँजीवादी समाज विकास की और अग्रसर होता है, वैसे–वैसे वंचित और हाशिए पर धकेल दिये गये मेहनतकश लोगों के लिए कुछ समस्याएँ असमाधेय रूप में प्रकट होने लगती हैं। ऐसी ही एक समस्या है स्वास्थ्य सेवा की समस्या। भारत में धनाढ्य और विशेषाधिकार प्राप्त लोग शायद ही कभी स्वास्थ्य सेवा की दयनीय स्थिति के बारे में परवाह करते हों या बात भी करते हों क्योंकि यह उनके, उनके परिवार या उनके वर्ग के लिए कोई समस्या ही नहीं है।

विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए, उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवा महज सड़क के उस पार या एक फोन कॉल दूर है, महँगी स्वास्थ्य सेवा उनके लिए कोई समस्या नहीं है, यह उनकी जीवन शैली और बजट को भी नहीं बिगाड़ती है। सर्जन, डॉक्टर, नर्स, स्वास्थ्य सलाहकार, आहार विशेषज्ञ, फिजियोथेरेपिस्ट, मनोवैज्ञानिक, लैब तकनीशियन, और इसी तरह, स्वास्थ्य सेवा उद्योग में कार्यरत हर स्वास्थ्यकर्मी उनकी सेवा करने को तत्पर है, क्योंकि वे अपनी बीमारी से अस्पताल की कमाई बढ़ाते हैं। यह कमाई प्राइवेट अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं का आधार है। प्राइवेट अस्पताल भी वर्गीय आधार पर बँटे हुए हैं। छोटे–छोटे अस्पतालों से लेकर अमृता हॉस्पिटल जैसे विशाल कोर्पाेरेट अस्पताल तक। इन अस्पतालों में सेवा में तैनात स्वास्थ्यकर्मी निजी अस्पताल के मालिक को फायदा पहुँचाने के लिए, अपने वेतन को जायज ठहराने के लिए लगातार सेवा में लगे रहते हैं, धनाढ्य मरीजों की जमकर सेवा करते हैं।

अस्पताल में इन धनाढ्य रोगियों का विनम्रता और सहानुभूति के साथ स्वागत किया जाता है। उनकी अस्पताल यात्रा को सुव्यवस्थित करने, आरामदायक और सुखद बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाता है। उनके अस्पताल में साफ, वातानुकूलित और शान्त वातावरण रहता है, हर साँस में फिल्टर्ड हवा महसूस की जा सकती है, चारों ओर महँगे पत्थर, गिलास और लकड़ी का महीन काम इन अस्पतालों को किसी शॉपिंग मॉल या हवाई अड्डे जैसा सजा देता है। यह पॉश नजारा और महँगा इलाज अपने आप आर्थिक रूप से पिछड़े देश के बहुसंख्यक मेहनतकश वर्ग को दरवाजे से बाहर रखने के लिए पर्याप्त है।

इन महँगे प्राइवेट अस्पतालों में मरीज को पल भर भी इन्तजार नहीं करना होता क्योंकि अपॉइंटमेंट पहले से ही बुक हो जाता है और इसलिए भी कि यहाँ मरीज बेहद कम होते हैं। किधर और कहाँ जाना है, आपका मार्गदर्शन करने के लिए आपके व्हीलचेयर या स्ट्रेचर के साथ आपकी सहायता के लिए कर्मचारी हैं, जब आप शान्ति से अपनी बारी का थोड़ा इन्तजार भी करते हैं तो आपको अपनी आरामदायक कुर्सी पर पानी या कॉफी परोस दी जाती है। यहाँ तक कि अगर रोगी या उसके सम्बन्धी स्वास्थ्यकर्मी से अभद्र भाषा में पेश आ रहे हैं तो भी स्वास्थ्यकर्मी उनसे विनम्रता से बात करने के लिए मजबूर होता है।

अब आइये, किसानों–मजदूरों सहित देश की मेहनतकश आबादी को पूँजीवादी समाज द्वारा दी जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं से इसकी तुलना करें।

मेहनतकश वर्ग के लोग उन इलाकों में रहते हैं जहाँ आम तौर पर अच्छे अस्पतालों की कमी होती है। वे खराब परिस्थितियों में हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। खराब निवास स्थान, बचपन से कुपोषण के शिकार, स्वच्छता और जानकारी का अभाव और आस–पास भयावह परिस्थितियाँ उनके जीवन को बदतर बना देती हैं। वे कारखानों में काम करते हैं जिससे उन्हें व्यवसाय सम्बन्धी रोगों का खतरा होता है, ये व्यावसायिक रोग जहरीले धूल के कण, गैसीय धुएँ और जहरीले रसायनों की वजह से होते हैं जिनके सम्पर्क में मजदूर काम के दौरान आते हैं। अधिकांश भारतीय कार्यस्थलों में मजदूरों के बीच व्यावसायिक रोगों को रोकने के लिए बुनियादी सुरक्षा उपायों का भी अभाव है।

मास्क, वर्दी, हेलमेट, जूते, फेस शील्ड, पीपीई किट, आपातकालीन प्राथमिक चिकित्सा किट, ऐसी चीजें जो कारखाना कर्मचारी और सफाई कर्मचारी का अनिवार्य ड्रेस कोड होना चाहिए, आमतौर पर गैर जरूरी खर्चों में गिनी जाती हैं। वे भारी भरकम मशीनें चलाते हैं जिससे उन्हें चोट का खतरा होता है। पूँजीवादी समाज में मेहनतकश वर्ग स्वास्थ्य खतरों का लगातार सामना करता है। वह दिन के काम के बाद जब घर आता है, तो थकान की वजह से अपने स्वास्थ्य की देखभाल करने की स्थिति में नहीं होता, इसलिए वह अपने शरीर में अनुभव की जाने वाली मामूली असुविधाओं की उपेक्षा कर देता है, लेकिन जब उसकी बीमारी बर्दाश्त से बाहर हो जाती है और गम्भीर रूप से बढ़ जाती है तो वह झोला छाप डॉक्टर की शरण में जाता है जो उसके पड़ोस में रहते हैं, सस्ते और आसानी से उपलब्ध होते हैं और इसलिए वे मेहनतकश वर्ग के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करते हैं। सोचिये, वे न हों तो मजदूर कहाँ जायें, लेकिन बड़ी बीमारी का इलाज इन डॉक्टरों की सीमा के बाहर होता है।

ऐसे में सरकारी अस्पताल मेहनतकश वर्ग के लिए एकमात्र उम्मीद हैं, पर ये अस्पताल मरीजों की भारी संख्या के बोझ से दबे हुए हैं और फण्ड के लिए जूझ रहे हैं। सरकारी अस्पताल की परिस्थिति मेहनतकश वर्ग की स्थिति के समान ही है, जैसे–– गन्दगी में मजदूर बस्ती और सरकारी अस्पताल में काँटे की टक्कर है, दोनों ही उपेक्षित हैं और काम के बोझ से लदे हुए हैं। मेहनतकश वर्ग के पास अपनी बीमारी के दिनों में खर्च करने के लिए कोई अतिरिक्त पैसा नहीं है, उन दिनों वह अपने मालिक और समाज के लिए उत्पादन करने वाला अपने उत्पादन और औजारों से कटा हुआ कोई अजनबी है। उनमें से ज्यादातर दिहाड़ी, या महीने की मामूली तनख्वाह के लिए काम करते हैंय बीमारी और उसके लक्षणों के अलावा, मेहनतकश वर्ग सामाजिक सुरक्षा की कमी से भी पीड़ित है, यदि वह परिवार का रोटी कमाने वाला दूसरों पर निर्भर हो जाता है या नौकरी छूट जाती है या मर जाता है तो उसका परिवार गरीबी के दलदल में हमेशा के लिए धँस जाता है।

बिना दिहाड़ी का हर दिन उसे गरीबी में और डुबो देता है। जब कोई मजदूर अन्तत: एक सरकारी अस्पताल में चिकित्सा सहायता लेने की योजना बनाता है, तो यह उसके लिए किसी कठिन आर्थिक संकट से कम नहीं होता है। उन्हें अपने अस्पताल के पंजीकरण के लिए एक लम्बी कतार में अन्य मजदूरों के साथ खड़ा होना पड़ता है, फिर डॉक्टरों को दिखाने के लिए कतार में, फिर रक्त परीक्षण या ड्रेसिंग या रेडियोलॉजिकल जाँच के लिए फिर से एक कतार, अपनी रिपोर्ट एकत्र करने के लिए फिर से एक कतार और फिर अस्पताल की फार्मेसी से अपनी दवाएँ लेने के लिए फिर से एक कतार में लगना पड़ता है। एक बीमार रोगी की कल्पना करें जिसके साथ कोई सगा–सम्बन्धी नहीं है और उसका मार्गदर्शन या सहायता करने के लिए कोई अस्पताल कर्मचारी नहीं हैय ऐसे मरीजों के लिए व्हीलचेयर या स्ट्रेचर कौन सम्भालेगा? सभ्य समाज इतना बेशर्म है कि ऐसे सवालों को स्वीकार भी नहीं कर सकता, उनका जवाब देना तो दूर की बात है।

ज्यादातर मजदूर गम्भीर रूप धारण कर लेने के बाद बीमारियों को दिखाने सरकारी अस्पताल में आते हैं क्योंकि इन बीमारियों को पहले उपेक्षित किया गया था। चाय, कॉफी के बारे में भूल जाओ, सुरक्षित पेयजल का एक भरोसेमन्द स्रोत अकसर उपलब्ध नहीं होता है। वहाँ कार्यरत डॉक्टरों और अन्य चिकित्सा कर्मचारियों की संख्या वहाँ आने वाले रोगियों की संख्या की तुलना में बहुत कम है। डॉक्टर को कम समय में अधिक से अधिक रोगियों को देखने के लिए बाध्य किया जाता है, जिससे वह दिनभर में सभी मरीजों को देख ले। डॉक्टरों के लिए एक मरीज को 2 से 3 मिनट के भीतर निपटाना आम बात है, क्योंकि निजी अस्पतालों के विपरीत, उन्हें एक दिन में 100 से अधिक रोगियों को देखने के लिए मजबूर किया जाता है।

इससे उनकी प्रभावोत्पादकता कम हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों में, डॉक्टरों के लिए हर बार तर्कसंगत चिकित्सा निर्णय लेना असम्भव है। इसके अलावा, अधिकांश वरिष्ठ डॉक्टर अनुभव हासिल करने के बाद सरकारी अस्पतालों को छोड़ देते हैं क्योंकि निजी क्षेत्र उन्हें आधे काम के बदले कई गुना अधिक वेतन प्रदान करता है। ये वे लोग हैं जिन्होंने युवा होने पर मेहनतकश वर्ग का इलाज करके अपने कौशल का विकास किया। इसके अलावा सरकारी अस्पतालों में न केवल स्वास्थकर्मी, बल्कि जिन्दगी बचाने वाली हर मशीन और उपकरण भी, ज्यादा काम के चलते या तो खराब रहते हैं या टूटे–फूटे रहते हैं या रहते ही नहीं।

अस्पताल में मरीजों के साथ न तो सम्मानजनक व्यवहार किया जाता है और न ही विनम्रता से कोई निवेदन क्योंकि हर स्वास्थ्यकर्मी एक औसत मानव क्षमता से ज्यादा काम और जिम्मेदारियों के बोझ से दबा होता है, लेकिन वहाँ के मेहनतकश मरीज अनादर से ज्यादा अपनी बीमारी के कारण या सुविधाओं की कमी से परेशान रहते हैं।

हमने देखा कि धनाढ्य लोगों के लिए अस्पतालों में एक से बढ़कर एक सुविधाएँ होती हैं, लेकिन सरकारी अस्पतालों में मेहनतकश वर्ग के लिए जिन्दगी बचाने के जरूरी उपायों की भी कमी है और जो उपाय हैं भी उन्हें हासिल करने में उसे कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है। फिर भी आज लापरवाही और इलाज के अभाव में देश भर में बड़ी संख्या में मेहनतकश लोग दम तोड़ रहे हैं।

यदि इस तरह की लापरवाही और जानबूझकर उपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण मेहनतकश अस्पतालों में दम तोड़ रहे हैं तो इसे क्या कहा जाये? महज मौत या सामजिक स्वीकार्यता के साथ व्यवस्था द्वारा की गयी हत्या?

–– डॉक्टर आदिल

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