दिल्ली उच्च न्यायलय ने केन्द्र सरकार को केवल पाखण्डी ही नहीं कहा
27 अगस्त को दिल्ली उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार के सबसे खास कार्यक्रमों–– मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत को ढोंग करार दिया। यानी केन्द्र सरकार के जो दावे अब तक जुमलों में तब्दील हुए हैं उसमें दो का इजाफा हो गया है। उच्च न्यायालय के अनुसार केन्द्र की मोदी सरकार की कथनी और करनी में भारी अन्तर है और यह सरकार ढिंढोरे बाज और पाखण्डी है।
दिल्ली उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमुर्ति रजनीश भटनागर की पीठ ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार के बारे में अपनी यह राय जाहिर की। यह याचिका सेण्टर फॅार एविएशन पॉलिसी, सेफ्टी एण्ड रिसर्च ने दाखिल की थी। इस संस्था ने क्षेत्रीय हवाई अड्डों पर ग्राउण्ड हैण्डलिंग सर्विस उपलब्ध कराने के लिए मँगाये गये टंेडरों में केन्द्र सरकार द्वारा कम्पनियों की योग्यता के पैमाने में बदलाव के खिलाफ दाखिल की गयी थी। अब न्यायालय ने केन्द्र सरकार और एएआई को नोटिस जारी करके जवाब माँगा है और निर्देश दिया है कि इस याचिका के फैसले पर ही टेण्डरों के आवण्टन की वैधता निर्भर होगी।
उच्च न्यायलय ने इस मुद्दे पर केन्द्र सरकार के खिलाफ कड़ा रूख दिखाया है। पीठ का कहना है कि यह बेहद दुखद है कि एक ओर तो सरकार ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ बनाने की बात करती है और दूसरी तरफ टेण्डरों के आवण्टन में ऐसी शर्तें रखती है जो छोटी कम्पनियों को हिस्सेदारी करने से रोकती है। सरकार स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करती है लेकिन यह बात उसकी कार्रवाइयों से मेल नहीं खाती। केन्द्र सरकार पूरी तरह पाखण्डी है।
दरअसल आवण्टन की प्रक्रिया में भाग लेने वाली कम्पनी के लिए केन्द्र सरकार ने पुराने नियमों में बदलाव करके कम्पनी के पस 35 करोड़ रुपये से ज्यादा की उपलब्धता और शेड्यूल्ड एयर लाइन्स के साथ काम करने की योग्यता का पैमाना बनाया है।
इस बदलाव को खासतौर पर रेखाकिंत करते हुए पीठ ने कहा कि सरकार बड़ी जेब वाले और बड़े विदेशी खिलाड़ियों को ही खेल के मैदान में रहने देना चाहती है। अगर छोटे खिलाड़ियों को विकसित नहीं होने दिया जायेगा तो कुछ ही बड़े खिलाड़ी बचेंगे जो बाजार पर अपने कब्जे के चलते सरकार पर अपनी शर्ते थोपेंगे। असली महत्त्व की बात यही है। जगजाहिर है कि केन्द्र सरकार देश के पूरे परिवहन तंत्र पर अम्बानी–अडानी की जोड़ी को पूरी तरह काबिज देखना चाहती है। रेलवे और हवाई परिवहन को पूरी तरह निजी हाथों में सौंपने का फैसला सरकार पहले ही कर चुकी है। इससे भी आगे सरकार की चिन्ता है कि इन दोनों तंत्रों पर केवल उसके चहेते पूँजीपतियों की कम्पनियों का ही कब्जा हो। इसका अर्थ है कि लोकतंत्र जो देश की जनता के लिए तो पहले भी नहीं था, वह पूँजीपति वर्ग के लिए भी खत्म हो चुका है। पूँजीवादी लोकतंत्र का स्थान एक साम्राज्यवादी अल्पतंत्र ले चुका है जिस पर सरकार का नियंत्रण नहीं है बल्कि वह सरकार को नियंत्रित करता है। इसके उदाहरण रोज–रोज हमारे सामने आते हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय की वास्तविक चिन्ता यही है।
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