मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

अस्तित्व बनाम अस्मिता

–– मनोरंजन ब्यापारी

कुछ दिन पहले कोलकाता पुस्तक मेले में हुए एक विवाद के सम्बन्ध में ‘टेलीग्राफ’ में खबर छपी, जिसे देख कर बहुतों ने मुझे फोन किया। यह टिप्पणी उसी के बारे में मेरा स्पष्टीकरण है।

हर रोज हर पल महसूस करता हूँ कि कितनी कुत्सित जिन्दगी है मेरी! मैं जब भी मुँह खोलता हूँ तो कोई न कोई विवाद हो ही जाता है। अगर कुछ लिखूँ तो भी। आज तक फेसबुक के किसी पोस्ट, सभा–सेमिनार में कही गयी मेरी किसी बात पर बहस–विवाद नहीं हुआ हो, ऐसा याद नहीं है। इस बार के पुस्तक मेले में भी एक तूफानी बहस हो गयी, जिसका असर अब भी जारी है और उम्मीद है कि आने वाले दिनों में भी चलता रहेगा। इस कोलकाता पुस्तक मेले में दलित समुदाय के दो अलग प्रान्त के हम दो प्रतिनिधि भी थे। चेन्नयी से कांचा इलइया और बंगाल से मैं। कांचा साहब ने अपने भाषण में कहा (चूँकि मुझे अंग्रेजी समझ में नहीं आती, इसलिए जो मुझे बताया गया, उसके मुताबिक) कि हर दलित को अंग्रेजी सीखने पर जोर देना चाहिए। बल्कि उन्होंने यह भी माँग की कि विद्यालयों में प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी शिक्षा शुरू कर देनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि अपनी पहली किताब अंग्रेजी में लिखने के चलते ही बहुत कम समय में ही वे देश और विदेश में छा गये। अंग्रेजी की जरूरत गहराई से महसूस करने के चलते ही बी आर अम्बेडकर साहब ने अपनी सारी रचनाएँ अंग्रेजी में ही लिखी थी। आदि, आदि।

मेरी बातें उनसे बिलकुल अलग या भिन्न थीं। ऐसा नहीं है कि दलित समाज के एक सितारे ने कुछ कहा है तो उनके साथ सहमत होना ही चाहिए। ऐसी कोई मजबूरी मैं महसूस नहीं करता। मुझे लगा कि वे सही नहीं कह रहे हैं, इसलिए मैं उनके खिलाफ बोला। मैं हमेशा बहुत मजबूती के साथ कहता हूँ कि ‘जिस तरह वर्ग के अन्दर जाति है, वैसे ही जाति के अन्दर भी वर्ग है’। अपनी ज्ञान, विद्या, बुद्धि से मैं जितना जान पाया, पहले से ही जिन लोगों ने दलित समाज की समस्याओं को लेकर आन्दोलन का नेतृत्व किया, वे सब समाज के उच्च स्तर के लोग रहे हैं। देखा जाय तो इसी के चलते उन्होंने दलित गरीब मेहनतकश लोगों को संगठित करके जन आन्दोलन तैयार करने के बजाय विद्वान, शिक्षित लोगों की मदद से कानून–अदालत की लड़ाई पर ज्यादा जोर दिया था। इनमें से किसी भी कार्रवाई से सामान्य, निम्न स्तर के दलित लोगों की जिन्दगी की समस्याओं को हल करने की कोई गुंजाइश नहीं थी। दलित और गरीब लोगों की कुल छह समस्याएँ हैं–– रोटी, कपड़ा, शिक्षा, चिकित्सा, मकान और सामाजिक सम्मान। दलित समाज के जो नेता हैं, उनका किसी न किसी तरह से पहली पाँच समस्याओं का हल हो चुका है, सिर्फ एक बचा हुआ है, वह है सम्मान।

वे सिर्फ उसी के बारे में मंच पर मुँह खोलते हैं, अखबारों में लिखते हैं। वे कहना चाहते हैं कि हम शिक्षित बाबू बन चुके हैं, सवर्ण समाज अब तुम हमें भी अपनी बराबरी पर स्वीकार करो और बिना संकोच के हमारे साथ ‘रोटी–बेटी’ का रिश्ता बना लो। इतना ही मिल जाता तो उनका क्षोभ, गुस्सा सब शान्त हो जाता। लेकिन सामान्य दलित उस सम्मान के लिए नहीं तरसता, उसके दिमाग में ये बात आती ही नहीं। मैंने देखा है ‘बाबू’ बाप के उमर के किसी रिक्शा वाले को तू–तड़ाक से बात करता है। वही बाबू जब उस रिक्शा वाले को एक–दो रुपया ज्यादा किराया दे देता है, तब वह कृपा पाकर गदगद हो जाता है। इसकी वजह यह है कि उस एक–दो रुपये में वह थोड़ा और चावल खरीद सकता है। भूख बड़ी पीड़ादायी है, जिससे थोड़ी राहत मिल जायेगी।

मुझे बहुत दिन पहले की बात याद आ रही है। दुर्गापूजा का वक्त था। एक दलित आदमी दुकानों में पानी पहुँचाता था। उसके कुछ स्थाई ग्राहक थे, जिनमें से एक की बिरियानी की दुकान है। यह बहुत मशहूर दुकान है, इसलिए वहाँ बासी, सड़ा सामान नहीं बिकता है। उस दिन कुछ बिरियानी बिका नहीं, इसलिए बच गया था। पानीवाले को देखते ही दुकानदार चिल्लाया, “कल का बचा हुआ चार प्लेट बिरियानी है, ले जा।” पानीवाले ने हल्की आवाज में कहा, “दादा सामने वाली दुकान में पानी दे दूँ, उसके बाद ले लूँगा।” दुकानदार ने कहा, “बहुत देर से तेरा इन्तजार कर रहा हूँ, बर्तन धोना है। लेना है तो ले, वर्ना कुत्ते को दे दूँगा।” मैंने देखा, पानीवाला मुँह लटका कर वहीं अपना गमछा फैला दिया –– बासी और अपमान में सनी हुई बिरियानी गमछे में बाँध लिया। उसको कोई अपमान महसूस नहीं हुआ। लेकिन मेरी पूरी देह दुकानदार की बातों से जलने लगी थी। पानीवाले को बुला कर मैंने कहा, “तू और कुत्ता एक बराबर हैं। तू नहीं लेगा तो कुत्ते को खिलायेगा! ऐसी बात सुनने के बाद भी तूने कैसे बिरियानी ले ली?” दर्द भरी आवाज में उसने कहा, “भाई रे, क्या मुझे समझ में नहीं आया कि वह अपमान कर रहा है? लेकिन समझ के क्या करूँ, बता भाई? पूजा–त्योहार का दिन है, थोड़ा अच्छा खाना भी बच्चों को नहीं खिला पाया। आज बिरियानी ले जाऊँ तो कितने खुश होंगे सब! वही सोचकर अपमान सह लिया मैंने।” ये हैं दलित गरीब समाज के लोग, असहाय, अक्षम, अपमानित।

मैं इसी वर्ग से आया हूँ इनकी बात करने, जिनके पास मान–अपमान को लेकर सोचने का वक्त नहीं है। वे भूख से आजाद होने की चिन्ता से परेशान हैं। ये मेरे ही लोग हैं, जो अपने बच्चों को खाना तक नहीं दे सकते, वे बच्चों को स्कूल कैसे भेजेंगे? भेजते हैं चाय की दुकान में गिलास धोने के लिए, किसी बाबू की कोठी में नौकर का काम करने के लिए। अगर स्कूल भेज भी दें तो कोई दसवीं पार नहीं होता है। चैथी–पाँचवीं तक पढ़ाई खत्म हो जाती है। कैसे सीखेंगे ये अंग्रेजी? अगर पहली कक्षा से ही एक विदेशी भाषा इन पर लाद दी जाय तो न वे ढंग से उसे सीख पायेंगे और न ही अपनी मातृभाषा। इससे बेहतर अगर वे मातृभाषा सीख लें तो उनकी जिन्दगी में बहुत काम आयेगी।

इसीलिए मैंने कांचा इलइया का विरोध किया। मैंने कहा–– जिनकी हैसियत है, वे सिर्फ अंग्रेजी ही क्यों, चाहें तो पाली, हिब्रू भी सीख सकते हैं। लेकिन सामान्य लोगों पर उस भाषा को जबरदस्ती थोपने की जरूरत नहीं है।

अंग्रेजी भाषा बाबू वर्ग की भाषा है, अंग्रेजी सत्ता की भाषा है। मैंने अलग–अलग प्रदेशों में जा कर देखा है, जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं उनको ज्यादा इज्जत मिलती है। मुझे पता है, अगर वह भाषा कब्जे में आ जाये तो दलित बाबुओं की इज्जत और हैसियत का दायरा बहुत बड़ा हो जायेगा। लेकिन मैं उस भाषा को लेकर लड़ने की बात तब करूँगा, जब मैं जिस वर्ग का इन्सान हूँ, जिनके लिए मैं उठ खड़ा हुआ, उनको पहले पाँच बुनियादी समस्याओं से आजाद करा सकूँगा। अब सबसे पहले वही लड़ाई लड़नी पड़ेगी। रोटी चाहिए, कपड़ा चाहिए, उसके बाद बाकी सब।

 

 
 

 

 

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