अपने लोगों के लिए
अफ्रीकी–अमरीकी महिला उपन्यासकार और कवि मार्गरेट वाकर (1915–1998) की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कविता–– अपने उन लोगों के लिए जो गाते हैं हर कहीं अपनी दासता के गीत निरन्तर : अपने शोकगीत और पारम्परिक गीत अपने विषाद गीत और उत्सव–गीत, जो दोहराते आ रहे हैं प्रार्थना के गीत हर रात किसी अज्ञात ईश्वर के प्रति, घुटनों पर बैठकर आर्त्त भाव से किसी अदृश्य शक्ति के सामनेय अपने उन लोगों के लिए जो देते आ रहे हैं उधार अपनी सामर्थ्य वर्षों से, बीते वर्षों और हाल के वर्षों और सम्भावित वर्षों को भी, धोते, इस्तरी करते, खाना पकाते, झाड़ू–पोंछा करते सिलाई, मरम्मत करते, फावड़ा चलाते जुताई, खुदाई, रोपनी, छँटाई करते, पैबन्द लगाते बोझा खींचते हुए भी जो न कमा पाते, न चैन पाते हैं न जानते और न ही कुछ समझ पाते हैंय बचपन में अलबामा की मिट्टी और धूल और रेत के अपने जोड़ीदारों के लिए आँगन के खेल–कूद… आगे पढ़ें
कितने और ल्हासा होंगे
कितने और ल्हासा होंगे मैक्लॉड गंज की रिज पर साथ बैठा एक रमण बात करते–करते अचानक बेचेन हो उठता है।। अनखनें लगता है दूर–दूर सीमाओं पार से आती आवाजें जो अक्सर यहाँ आती जाती रहती हैं।। जानना मुश्किल है इसका मन इस वक्त धर्म चक्र के व्रत में घूम रहा है या ल्हासा की गलियों में।। कितने और ल्हासा होंगे जहाँ रहने या न रहने का अधिकार वहाँ रहने वालों के पास नहीं होगा।। जाने कितने भिक्खु कहाँ–कहाँ से सुन रहे होंगे ये आवाजें।। कितने रोहंगिया कितने फिलिस्तीनी कितने कश्मीरियांे को।। ये आवाजें सुनाई पड़ती होंगी।। ––केशव तिवारी आगे पढ़ें
चल पड़ा है शहर कुछ गाँवों की राह
शाम का रंग फिर पुराना है जा रहे हैं बस्तियों की ओर फुटपाथ जा रही झील कोई दफ्तर से नौकरी से लेकर जवाब पी रही है झील कोई जल की प्यास चल पड़ा है शहर कुछ गाँवों की राह फेंक कर कोई जा रहा है सारी कमाई पोंछता आ रहा कोई धोती से खून कमजोर पशुओं के शरीर से आरे का खून शाम का रंग फिर पुराना है छोड़ चले हैं एक और गैरों की जमीन छज्जे वाले जा रहा है लम्बा वादा झिड़कियों का भण्डार लादे लम्बे सायों के साथ साथ गधों पर बैठे हैं शिशु पिताओं के हाथ में कुत्ते हैं माताओं की पीठ पीछे बँधे पतीले हैं पतीलों में माओं के बच्चे सोये हैं जा रहा है लम्बा वादा कंधों पर उठाये झोंपडी के बाँस भूख के मारे यह कौन चीख रहा है ? ये किस भारत की जमीन रोकने जा रहे… आगे पढ़ें
बच्चे काम पर जा रहे हैं
(राजेश जोशी की यह कविता बहुत मार्मिक है। इसे पढ़ते हुए आँखों से आँसू छलक जाते हैं और मन गुस्से से भर उठता है। वह दृश्य सामने आ जाता है, जब फटे–पुराने कपड़े और टूटी हुई चप्पल पहने छोटे–छोटे बच्चे काम पर जाते हैं। यह बहुत दुखद अनुभव है। वे अधभूखे या खाली पेट ही काम पर जाते हैं क्योंकि घर में खाना जैसी कोई चीज नहीं है। इतना ही नहीं, काम पर मालिक की गालियाँ उन पर बरसती रहती हैं। बच्चे इस पीड़ा को कैसे सहते होंगे, यह सोचकर मन पसीज जाता है।) कोहरे से ढकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं सुबह सुबह बच्चे काम पर जा रहे हैं हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह काम पर क्यों जा हैं बच्चे?––– क्या अन्तरिक्ष में गिर गयी हैं… आगे पढ़ें