सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

महाराष्ट्र के कपास किसानों की दुर्दशा उन्हीं की जबानी

(महाराष्ट्र किसानों का हाल जानने के लिए लेखक ने नागपुर जिले के अलग–अलग गाँव के किसानों से बात की, जिसे यहाँ साझा किया जा रहा है। इन किसानों की आप–बीती सुनने के बाद सचमुच बहुत हैरानी होती है। यह एहसास होता है कि किसानों की परेशानी कम होने के बजाय दिन दूनी रात चैगुनी रफ्तार से लगातार बढ़ती जा रही है।)

अखबारों में किसानों की दुर्दशा के बारे में अक्सर लेख छपते हैं, जिन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि आजादी का उत्सव मनाते देश के किसान आत्महत्या से आजाद नहीं हुए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार साल 2014 से 2018 के बीच हर साल क्रमश: 12,360, 12,602, 11,379, 10,655 और 10,349 किसानों ने मौत को गले लगा लिया। यानी कुल मिलाकर पिछले 5 सालों में देश के 57,000 से भी अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली। पूरे देश में सबसे ज्यादा आत्महत्या महाराष्ट्र के किसानों ने की। नवम्बर 2019 में जहाँ एक तरफ महाराष्ट्र में राजनीतिक पार्टियों का चुनावी नाटक चल रहा था, सत्ता की कुर्सी पर बैठने के लिए नेता तीन–तिकड़म में लगे हुए थे, तो दूसरी तरफ किसान बेमौसम भारी बारिश से परेशान थे। उनकी परेशानी इतनी ज्यादा बढ़ गयी थी कि किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो गये। सिर्फ नवम्बर के महीने में ही एक या दो नहीं बल्कि 300 से ज्यादा किसानों ने अपने प्राण गवाँ दिये।

अखबारों की इन खबरों की पुष्टि करने के लिए और महाराष्ट्र किसानों की जिन्दगी को नजदीक से जानने के लिए उनके बीच जाना जरूरी था। इसी सिलसिले में सबसे पहले चिमनाझिरी गाँव के रमेश शंकराव अवचत से मुलाकात की गयी। इनके पास 17 एकड़ जमीन है। 10 एकड़ जमीन अपने गाँव में ही है। बाकी गाँव से 10 किलोमीटर दूर है। गाँव की जमीन में खुद खेती करते हैं, बाकी ठेके पर दे दिया है। ये मुख्य रूप से कपास की खेती करते हैं। इन्होंने बताया कि 8 एकड़ में कपास, बाकी में तूर और सोयाबीन बो दिया है। बातचीत के दौरान पता चला कि एक एकड़ में कपास की लागत 20,000 रुपये से अधिक आ जाती है, जिसमें बीटी कपास का बीज 3000 रुपये, दवा का छिड़काव 3000–5000 रुपये, खाद का 8000 रुपये और कभी कभी गुड़ाई, चुनाई के लिए जो बाहर से मजदूर लगाए जाते हैं, उसके लिए लगभग 7000 रुपये। कपास की फसल आठ माह में तैयार होती है, खेती के काम में परिवार के चार सदस्य लगते हैं, उनकी मजदूरी, जमीन का किराया, सिंचाई, जुताई आदि का खर्च इसमें शामिल नहीं है। कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 5400 रुपये प्रति कुन्तल है, जो कभी किसानों को नहीं मिलता। सभी किसान 5000 रुपये प्रति कुन्तल के हिसाब से अपनी फसल बेचने को मजबूर होते हैं।

रमेश ने आगे बताया कि एक एकड़ कपास की फसल पर आठ माह तक मेहनत से केवल 10,000–15,000 रुपये ही मिल पाते हैं। अब इन्हीं रुपयों में घर का खर्च, बच्चों की फीस, कपड़े, दवा आदि के खर्चे शामिल होते हैं, तो इतनी कम आमदनी में पुराता नहीं है। मजबूरन बैंक से कर्ज लेना ही पड़ा। अभी परिवार पर 2,00,000 रुपये का कर्ज है जो पिछले कई सालों से चुका नहीं पा रहे। उन्होंने यह भी बताया कि जो परिवार सिर्फ खेती पर निर्भर हैं, उसके आत्महत्या करने की गुंजाइश और भी बढ़ जाती है। मेरे दो बेटे कम्पनी में काम करने न जाते तो हमारी भी आत्महत्या करने की नौबत आ जाती। उनकी जानकारी वाले 70 से ज्यादा लोगों ने अब तक आत्महत्या कर ली हैं?।

दूसरी बातचीत दिल्ली गाँव के गंगाधर से हुई। ये छ: एकड़ के किसान हैं जो अपने 16 साल के बेटे के साथ निर्माण क्षेत्र में 300 रुपये रोजाना की मजदूरी भी करते हैं। इनकी कहानी भी रमेश से अलग नहीं है। इन पर भी 1,00,000 रुपये का कर्ज था। अभी हाल ही में पूरा परिवार मेहनत मजदूरी करके, पेट काटकर कर्ज चुका पाया है। इन्होंने भी अपनी जमीन में कपास उगा रखा है। वे खुद बता रहे थे कि अगर हम बाहर मजदूरी न करें तो घर चलाने के लिए या तो कर्ज लेना पड़ेगा या फिर भूखों मरना होगा।

हमारी तीसरी बातचीत सोने गाँव के देवराव से हुई। इनमें और बाकी दो किसानों में यह अन्तर है कि इनकी खुद की जमीन नहीं है। ये ठेके पर जमीन लेकर खेती करते हैं। अभी 2.5 एकड़ में कपास उगा रखा है। ये राजगीर हैं और लोगों का घर बनाकर अपनी आमदनी की पूर्ति करते हैं। अपनी खेती से अलग पूरा समय दूसरों के यहाँ मजदूरी करने में बीत जाता है, तब जाकर इनके परिवार का गुजारा हो पाता है। इनकी खेती की लागत बाकियों की तुलना में 10,000 रुपये (जमीन का किराया) और अधिक है। उन्होंने बताया कि खेती से जो भी 25,000–30,000 रुपये की कमाई होती है, उसका अधिकांश हिस्सा वापस अगली फसल में लग जाता है, क्योंकि लगातार बीटी बीज के रेट में भारी बढ़ोतरी, खाद, कीटनाशक की मात्रा में बढ़ोतरी से लागत बढ़ती रही है। 5 साल पहले कपास का बाजार भाव 4500 रुपये था, जो आज तक सिर्फ 500 रुपये ही बढ़े हैं। इनकी स्थिति बाकियों से भी बदतर है।

इस तरह हम देखते हैं कि पूरे परिवार की मेहनत के बावजूद गरीब किसानों और भूमिहीन किसानों की आमदनी इतनी भी नहीं कि वे अपने परिवार का पेट पाल सकें। ऐसी हालत में उन्हें बाहर जाकर मजदूरी करनी पड़ती है, लेकिन कोरोना संकट ने रोजगार के अवसर कम कर दिये हैं, जिसके चलते मजदूरी न मिलने से किसान परिवार का गुजारा भी मुश्किल हो गया और वे आत्महत्या की ओर धकेले जा रहे हैं।

–– नवनीत

 
 

 

 

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