अतीत और वर्तमान में महामारियों ने बड़े निगमों के उदय को कैसे बढ़ावा दिया है?

–– इलीनोर रसेल, मार्टिन पार्कर जून 1348 में, इग्लैण्ड में लोगों ने रहस्यमयी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में शिकायत कीं। उन्होंने सिरदर्द, बदन दर्द, और जी मिचलाने जैसे हलके और अस्पष्ट बीमारी के लक्षणों को महसूस किया। इसके बाद दर्दनाक काले रंग की गाँठ कमर और बगल में निकल आयी,… आगे पढ़ें

अस्तित्व बनाम अस्मिता

–– मनोरंजन ब्यापारी कुछ दिन पहले कोलकाता पुस्तक मेले में हुए एक विवाद के सम्बन्ध में ‘टेलीग्राफ’ में खबर छपी, जिसे देख कर बहुतों ने मुझे फोन किया। यह टिप्पणी उसी के बारे में मेरा स्पष्टीकरण है। हर रोज हर पल महसूस करता हूँ कि कितनी कुत्सित जिन्दगी है मेरी! मैं जब भी मुँह खोलता हूँ तो कोई न कोई विवाद हो ही जाता है। अगर कुछ लिखूँ तो भी। आज तक फेसबुक के किसी पोस्ट, सभा–सेमिनार में कही गयी मेरी किसी बात पर बहस–विवाद नहीं हुआ हो, ऐसा याद नहीं है। इस बार के पुस्तक मेले में भी एक तूफानी बहस हो गयी, जिसका असर अब भी जारी है और उम्मीद है कि आने वाले दिनों में भी चलता रहेगा। इस कोलकाता पुस्तक मेले में दलित समुदाय के दो अलग प्रान्त के हम दो प्रतिनिधि भी थे। चेन्नयी से कांचा इलइया और बंगाल से मैं। कांचा साहब ने अपने… आगे पढ़ें

उत्तर–आधुनिकतावाद और मौजूदा व्यवस्था के कुतर्क

(पूंजीवादी राजनीतिक प्रबन्धकों का तिकड़म, साम्राज्यवादी तबाही पर पर्दा डालने की एक घिनौनी कोशिश)   उत्तर आधुनिकतावादी विचारों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि मध्य युग में सामन्तवादी शोषण से पीड़ित जनता ने सामन्तवाद के विरुद्ध विद्रोह की अलख जगा दी थी। चर्च की निरंकुशता चरम पर पहुँच चुकी थी। चर्च स्वर्ग के लिए टिकट भी देने लगा था। यूरोप के लगभग चैथाई हिस्से पर चर्च का कब्जा था। दशमांश की लूट से किसान भयावह पीड़ित थे। अन्धविश्वास का बोलबाला था। राजा खुद को भगवान का पुत्र बताता था। राजा चर्च के अनुसार चलता था। चर्च स्वयं में प्रभु था। जमीन से बेदखल कर दिये गये मेहनतकश लोगों की जिन्दगी बहुत पीड़ादायक थी। रोटी, सड़े गले मकान, सामन्ती मूल्य–मान्यताएँ जैसी तमाम समस्याएँ उनकी जिन्दगी को बहुत बदहाल बना दे रही थीं। उनके लिए जीविका का संकट प्रधान था। लियो हयूबरमन ने अपनी पुस्तक मनुष्य की भौतिक सम्पदाएँ में इसका बहुत स्पष्ट विवरण प्रस्तुत… आगे पढ़ें

एजाज अहमद से बातचीत : “राजसत्ता पर अन्दर से कब्जा हुआ है”

प्रस्तुत साक्षात्कार के एक बड़े भाग का सम्बन्ध हिन्दुत्व की साम्प्रदायिकता, फासीवाद, धर्मनिरपेक्षता और भारतीय सन्दर्भ में वामपंथ के लिए मौजूद सम्भावनाओं से है। दूसरे हिस्सों में वे वैश्वीकरण, वामपंथ के लिए वैश्विक सम्भावनाओं, अन्तोनियो ग्राम्शी के विचारों के उपयोग और दुरुपयोग और हमारे अपने काल के लिए कार्ल मार्क्स… आगे पढ़ें

कोरोना महामारी : सच्चाई बनाम मिथक

मौजूदा महामारी के चलते बहुत से पूँजीवादी मिथकों की सच्चाई आज हम सबके सामने उजागर हुई है। यह वही झूठ का गुब्बारा है जिसे पूँजीवादी व्यवस्था रोज हवा देकर फुलाती है। इसका मकसद होता है जनता की दुर्दशा को बनाये रखना और इसमें सरकारों के निकम्मेपन और वर्गीय स्वार्थ को… आगे पढ़ें

कोरोना महामारी और जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था

डॉक्टरों के सामने अपने मरते पिता के लिए एक महिला बेड की गुहार लगाती रही लेकिन कहीं भी उसके पिता को बेड नहीं मिला। कुछ ही देर में ऑक्सीजन की कमी से उसके पिता ने दम तोड़ दिया। उत्तर प्रदेश के अस्पताल में रोते हुए एक आदमी ने बताया कि… आगे पढ़ें

कोविड संकट : जनता पर चैतरफा कहर

कोविड–19 की दूसरी लहर भारत की जनता पर कहर बनकर टूटी है। इस वक्त देश में चारों ओर जो नजारे दिखायी दे रहे हैं, वे दिल दहलाने वाले हैं। ऑक्सीजन की कमी से जान गँवाते मरीज, अस्पतालों के बाहर स्टेªचर पर, एम्बुलेंस में, निजी गाड़ियों में या सड़कों पर ही बिना इलाज के दम तोड़ते लोग। अपनो को बचाने की हर मुमकिन कोशिश में अस्पताल दर अस्पताल भटकते असहाय, हताश, रोते कलपते लोगों के दृश्य आम हो गये हैं। शमशानों में एक साथ जलती दर्जनों चिताएँ पत्थर दिल इनसान की चेतना को भी झकझोर सकती हैं। ये भयावह दृश्य दुनिया भर के टीवी चैनलों की स्क्रीनों पर लोग देख रहे हैं। भारतीयों की दुर्दशा पर आहें भर रहे हैंं और भारत में अपने परिचितोें व दोस्तों की जान के लिए दुआ माँग रहे हैंं। पिछले कुछ वर्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुनिया भर में घूम–घूमकर अपने शासन काल के… आगे पढ़ें

क्या है जो सभी मेहनतकशों में एक समान है?

––चूक चर्चिल सभी मेहनतकश लोगों में कौन–सी चीज समान है, भले ही उनके तथाकथित नस्ल या चमड़ी के रंग अलग–अलग हों? एक ऐसी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के वर्चस्व के मातहत उनका एक अनिश्चित अस्तित्व, जहाँ सारी सत्ता राष्ट्र के (और दुनिया के) मुट्ठीभर लोगों–– बड़े बैंकर और कॉर्पाेरेट मालिक वर्ग के हाथों में संकेन्द्रित है। यह बड़े पूँजीपतियों का एक प्रतिशत है, जिन्होंने दुनिया के मजदूर वर्ग के श्रम से निर्मित धन का बहुत बड़ा हिस्सा संचित किया है। यहाँ तक कि हमारे शासक खुद अपने ही वॉल स्ट्रीट जर्नल और न्यू यॉर्क टाइम्स जैसे तमाम समाचार पत्रों में भी पूरी दुनिया में साफ तौर पर दिखने वाली इस सच्चाई को नकारने में असमर्थ रहे हैं। एक प्रतिशत का शासन!! कैसे वे इस संकेन्द्रित शक्ति के जरिये इतने लम्बे समय तक अपनी व्यवस्था की विफलताओं का सामना करने में कामयाब रहे हैं जिन्होंने ऐसे लाखों लोगों को जिन्दगी, स्वतंत्रता… आगे पढ़ें

गैर संचारी रोगों के बारे में डब्ल्यूएचओ की चेतावनी और भारत

अक्टूबर 2022 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गैर संचारी रोगों से होने वाली असमय मृत्यु के बारे में एक रिपोर्ट जारी की है। इसमंे खासतौर पर निम्न और मध्यम आय वाले देशों की सरकारों को इस तरह की मौत में तेज बढ़ोतरी पर चेतावनी दी गयी है। गैर संचारी रोगों से दुनिया मंे हर दो सेकण्ड में एक व्यक्ति की मौत होती है। इनमें से 86 फीसदी मौत निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती है। भारत के बारे में अपनी रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ ने बताया है कि 2019 में यहाँ हुई कुल मौतों में से 66 फीसदी मौतें गैर संचारी रोगों (एनसीडी) से हुई हैं और ये बीमारियाँ गरीब लोगों में ज्यादा बढ़ रही हैं। खराब स्वास्थ्य सेवाएँ, खराब भोजन और खराब जीवनशैली इन रोगों के बढ़ने के प्रमुख कारण हैं। गैर संचारी रोगों में वे बीमारियाँ शामिल हैं, जो लम्बे समय में धीरे धीरे बढती हैं। ये… आगे पढ़ें

ढोंग–पाखण्ड का जयकारा

बाबाओं की सबसे ज्यादा शक्तियाँ और चमत्कार भारत में ही पाये जाते हैं। लेकिन मजेदार बात यह है कि इनकी इतनी शक्तियों और चमत्कारों के बावजूद भारत, विश्व में सैकड़ों सालों से गुलाम रहे देशों में तीसरी दुनिया का देश कहलाता है। गरीबी, गन्दगी, अनुशासनहीनता, लालच, भ्रष्टाचार, अंधभक्ति जैसी समस्याओं से जूझ रहा है किन्तु ये बाबा आज तक देश का कल्याण नहीं कर पाये। इस देश में पाखण्डी व ढोंगी बाबाओं का ऐसा जमावड़ा हो गया है कि जिधर देखो उधर ये पाखण्डी डेरा जमाये हुए हैं। कोई सेक्सी फिल्में बना रहा है तो कोई पूरा सेक्स रेकेट ही चला रहा है। कहीं ये देखने को आ रहा है कि अपनी उम्र से आधी से भी कम उम्र की लड़कियों को बाबा अपने प्रेमजाल में फँसा रहे हैं। बलात्कार कर रहे हैं। आप अज्ञानता, बेबसी एवं भय के कारण ही तो बाबाओं, ज्योतिषियों, तांत्रिकों या अन्य पाखण्डी गुरूओं के… आगे पढ़ें

दिल्ली सरकार की ‘स्कूल्स ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सलेंस’ की योजना : एक रिपोर्ट!

–– लोक शिक्षक मंच पृष्ठभूमि 13 अगस्त को दिल्ली सरकार ने घोषित किया कि नवगठित दिल्ली बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन को कॉउन्सिल ऑफ बोर्डस ऑफ स्कूल एजुकेशन और एसोसिएशन ऑफ इण्डियन यूनिवर्सिटीज से मंजूरी मिल गयी है। शिक्षा मंत्री ने जो इस बोर्ड के प्रमुख भी हैं, यह भी कहा कि इण्टरनेशलन बॅकलॉरियट (आईबी) के साथ मिलकर काम करने से बच्चों के लिए ‘विश्वस्तरीय’ अवसर खुलेंगे। द हिन्दू में 12 अगस्त को छपी एक रपट के अनुसार इस नवगठित बोर्ड ने इण्टरनेशलन बॅकलॉरियट के साथ एक समझौता किया है जिसके तहत इसी सत्र में दिल्ली सरकार के तीस स्कूलों में पाठ्यचर्या, शिक्षाशास्त्र और मूल्यांकन के क्षेत्रों में ‘वैश्विक चलन’ अपनाये जाएँगे। रपट में कहा गया कि नवगठित बोर्ड से सम्बद्ध दस सर्वोदय स्कूलों के नर्सरी से आठवीं तक के विद्यार्थी और 20 ‘स्कूल्स ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सेलेंस’ (एसओएसई, यह स्पष्ट नहीं है कि इन्हें हिन्दी में कोई नाम दिया गया है… आगे पढ़ें

धर्म की आड़

–– गणेश शंकर विद्यार्थी, इस समय देश में धर्म की धूम है। उत्पात किये जाते हैं तो धर्म के नाम पर और जिद की जाती है तो धर्म के नाम पर। रमुआ पासी और बुद्धू मियाँ धर्म और ईमान को जानें या ना जानें, परन्तु वे धर्म के नाम पर उबल पड़ते हैं और जान लेने और जान देने के लिए तैयार हो जाते हैं। देश के सभी शहरों का यही हाल है। उबल पड़ने वाले साधारण आदमी का इसमें केवल इतना ही दोष है कि वह कुछ भी नहीं समझता–बूझता, और दूसरे लोग उसे जिधर जोत देते हैं, उधर जुत जाता है। यथार्थ दोष है कुछ चलते–पुरजे पढ़े–लिखे लोगों का जो मूर्ख लोगों की शक्तियों और उत्साह का दुरुपयोग इसलिए कर रहे हैं कि इस प्रकार जाहिलों के बल के आधार पर उनका नेतृत्व और बड़प्पन कायम रहे। इसके लिए धर्म और ईमान की बुराइयों से काम लेना उन्हें… आगे पढ़ें

निजीकरण ने ऑक्सीजन की कमी से जनता को बेमौत मारा

ताजा सूरत–ए–हाल कोरोना की दूसरी लहर के आगे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था ताश के पत्तों की तरह ढह गयी। डॉक्टरों और अस्पतालों की तो बात ही क्या, दवाईयों, ऑक्सीजन और शवों के अन्तिम संस्कार तक के लिए जानता मारी–मारी फिर रही है। कोरोना की पहली लहर के समय भी अस्पतालों… आगे पढ़ें

पलायन मजा या सजा

–– मनीषा खाली होते गाँव, गाँव वालों के लिए मजा या सजा यह कह पाना अपने आप में एक बहुत ही मुश्किल बात है। ऐसा इसलिए क्योंकि उत्तराखण्ड के घोस्ट विलेजेस का विषय इतना प्रसिद्ध होने लगा है, जितना कि, टिहरी की नथ और कुमाऊ की पिछोडी जैसे गहने। वैसे गाँव से हो रहे पलायन के विषय में आँकड़ों की कोई कमी नहीं है। लेकिन फिर भी मैं उन्हें यहाँ दर्ज नहीं करुँगी क्योंकि आँकड़ों से ना तो सरकार को फर्क पड़ता है, न ही पब्लिक को, ना ही गाँव वालों को और ना ही शहर वालों को। कहने का मतलब है जब तक गाँव का विनाश नहीं रुकेगा, तब तक विकास की बात करना अपने आप में भ्रम पैदा करना है। वैसे तो पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की सिर्फ बातें ही होती रहीं हैं और धरातल में ऐसी बातें, पुराने घावों पर नमक छिड़क देने जैसा… आगे पढ़ें

पश्चिमी देशों में दक्षिणपंथी और फासीवादी पार्टियों का उभार

पिछले चार दशकों के दौरान पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी विचारधारा और फासीवादी राजनीति का जबरदस्त उभार हुआ है। अगर हम पश्चिमी देशों पर नजर डालें तो पिछले एक दशक से इन देशों में इस विचारधारा का प्रसार काफी बढ़ गया है। कई देशों में शासक वर्ग ने खुद दक्षिणपंथी समूहों के निर्माण को बढ़ावा दिया है। दक्षिणपंथी समूहों ने फासीवादी संगठन, विचारधारा और राजनीति को प्रचारित–प्रसारित करने का काम किया जिसके चलते आज कई देशों में फासीवादी पार्टियाँ शासन–सत्ता की बागडोर सम्हालने की स्थिति में आ गयी हैं। हमने देखा कि पिछले साल इटली के चुनाव में दक्षिणपंथी नेता ‘जियोर्जिया मेलोनी’ ने जीत हासिल की जो फासीवाद को खुलेआम गले लगाती है। उसकी पार्टी ‘फ्रेटेली डी’ इटालिया’ एक फासीवादी पार्टी है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की ‘रिपब्लिकन पार्टी’ दक्षिणपंथी नीतियों पर चलती है और फासीवादी रुझान रखती है। आइये, हम देखें कि दक्षिणपंथी विचारधारा की क्या विशेषताएँ हैं?… आगे पढ़ें

पेट्रोलियम और कोयला संकट के पीछे का खेल

जून के महीने में देश के कई राज्यों से पेट्रोल की कमी की खबरें आयीं। निजी कम्पनियों ने अपने सभी पेट्रोल पम्प पर आपूर्ति बन्द कर दी और सरकारी कम्पनियों ने आपूर्ति घटा दी। ऐसे समय में, जब कम्पनियाँ रूस से सस्ते कच्चे तेल का भरपूर आयात कर रही हों, तो देश में पेट्रोल का संकट अचरज में डालने वाला है। भारत अपनी जरूरत का 85 फीसदी से अधिक कच्चा तेल आयात करता है। भारत में पेट्रोलियम उद्योग में निजी और सरकारी दोनों कम्पनियाँ शामिल हैं। जब रूस ने भारत को 25 फीसदी छूट पर कच्चा तेल खरीदने का अवसर दिया तो निजी कम्पनियों ने तुरन्त ही यह मौका लपक लिया। 24 फरवरी को रूस के यूक्रेन पर हमले से लेकर मई के आखिरी सप्ताह तक भारत ने रूस से 625 लाख बैरल कच्चा तेल आयात किया था जिसमें आधे से अधिक हिस्सेदारी दो निजी कम्पनियों नयारा एनर्जी और रिलायंस… आगे पढ़ें

बीसवीं सदी : जैसी, मैंने देखी

(प्रसिद्ध इतिहासकार एरिक हाब्सबाम बीसवीं सदी को ‘अतियों का युग’ कहते हैं। एक भारतीय के लिए बीसवीं सदी के क्या मायने हैं? इसी सदी में हम उपनिवेश से मुक्त हुए। पर उससे पहले सामाजिक और सांस्कृतिक मुक्ति के लिए हमने लम्बी लड़ाई लड़ी। बीसवीं सदी के मलवे से 21वीं सदी की इमारत तैयार हो रही है। कैसी होगी यह इमारत? आशंकाएँ पहले से थीं। नामवर सिंह जैसे सामाजिक–राजनीतिक रूप से बा–खबर आलोचक का देखना, कई तरह से इस सदी को देखता है। एक विश्व दृष्टि यहाँ दिखती है। इस व्याख्यान के लिए नामवर सिंह को कवि–अनुवादक अनूप सेठी ने आमंत्रित किया था। यह व्याख्यान नामवर जी ने 18 फरवरी 1999 को भारतीय यूनिट ट्रस्ट के कॉरपोरेट कार्यालय में दिया था। इस लगभग खो गये व्याख्यान को अनूप सेठी ने उपलब्ध कराया है। उनके प्रति आभार। व्याख्यान प्रस्तुत है।) यह बीसवीं सदी जिसका तीन चौथाई मैं जी चुका हूँ, मेरी जिन्दगी… आगे पढ़ें

बुनियादी बदलाव के लिए जन–संघर्षों का दामन थामना होगा

भारतीय राजनीति आज एक संकट से गुजर रही है। संसद से सड़क तक भविष्य को लेकर एक बेचैनी मौजूद है। उदारवादी और संसदीय राजनीति के जरिये जनता में छोटे–मोटे सुधार की गुंजाइश खत्म होती जा रही है। संसदीय वामपंथ जाति आधारित मण्डल राजनीति, दलित राजनीति करने वाली बहुजन पार्टियाँ और वामपंथी संसदीय राजनीति हाशिये पर जा चुकी हैं। 2014 और 2019 के चुनावों ने संसदीय वामपंथ को मुख्यधारा की राजनीति से लगभग बेदखल कर दिया है। बंगाल में बीजेपी के राजनीतिक उभार के पीछे जमीनी स्तर पर “राम और वाम” कार्यकर्ताओं की एकता को रेखांकित किया गया है। वामपंथी राजनीतिज्ञों की स्वच्छ छवि और उनकी सादगी भी उनके किसी काम नहीं आ रही। जाति आधारित ‘मण्डल’ राजनीति और बहुजन समाज की बात करने वाली आम्बेडकरवादी दलित राजनीति भी चुनाव के अखाड़े में चारों खाने चित्त पड़ी है। रिजर्वेशन एक ऐसा झुनझुना बनकर रह गया है जिससे खेलने के लिए दलितों… आगे पढ़ें

भगवानपुर खेड़ा, मजदूरों की वह बस्ती जहाँ न रवि पहुँचता है, न कवि!

(कोरोना महामारी और लॉकडाउन की सबसे बुरी मार मजदूर वर्ग पर पड़ रही है। जमीनी हालात का पता लगाने के लिए और राहत देने के लिए विकल्प मंच, शाहदरा के सदस्य कई किराये के मकानों में गये, जहाँ बड़ी संख्या में मजदूर रहते हैं। वहाँ जिस तरह के हालात देखने को मिले, वह कल्पना से परे है। यहाँ उसकी ग्राउण्ड रिपोर्टिंग दी जा रही है। हमारी आपसे गुजारिश है कि हमें अपनी प्रतिक्रिया से जरुर अवगत कराएँ।) गरीबी, कंगाली, जहालत भरी जिन्दगी जीते भिखारी तो देखे थे, मगर मजदूर जो दुनिया का सृजनकर्ता है, जिसके दम पर सारी फैक्ट्रियाँ, नगर निगम के काम, सार्वजनिक साफ–सफाई, हॉस्पिटल के तमाम काम चलते हैं, उसकी ऐसी बुरी दुर्दशा हो रही होगी, इसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। मजदूरों की हालत को जब नजदीक से जाकर देखा, तो हमारी साँसे हलक में ही अटक गयीं। तीन फुट चैड़ी एक गली, जिस गली में… आगे पढ़ें

भारत की शैक्षणिक और वैज्ञानिक बुनियादों पर व्यवस्था–जनित खतरा

भाजपा सरकार रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट (आरएण्डडी) को प्रोत्साहित नहीं कर रही है। उच्च शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों की फंडिंग में लगातार कटौती हो रही है। स्कॉलरशिप न मिलने के चलते शोधकर्मी आन्दोलन करने पर मजबूर हो रहे हैं। भारत में पहले से ही शोध–अनुसंधान के लिए मूलभूत ढाँचे और संसाधनों का अभाव है जिसके चलते देश के उच्च शिक्षण और शोध संस्थानों के शोधकर्मी अमरीका और यूरोप के देशों का रुख कर लेते हैं। इन सबके बावजूद इन संस्थाओं की फंडिंग और स्कॉलरशिप में कटौती करके सरकार इनके अस्तित्व पर संकट खड़ा कर रही है। साथ ही अनुकूल माहौल के अभाव, काम के दबाव, भविष्य की कोई स्पष्ट योजना न होने और समय पर स्कॉलरशिप न मिलने के चलते पिछले 10 सालों में आईआईटी, एनआईटी और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के 100 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की है। इसके अलावा शोध–कार्य में लगे अधिकतर शोधकर्मी भी मनोवैज्ञानिक विकृति, अलगाव और अवसाद… आगे पढ़ें

राजनीति में आँधियाँ और लोकतंत्र

 –– आनन्द कुमार पाण्डेय पिछली रात की आँधी के बाद घर बिखरा पड़ा है। जो सामान अपनी जगह होना चाहिए, वहाँ नहीं है। पड़ोसी की चादर मेरे घर में है और मेरे कपड़े सड़क पर। आँधियाँ ऐसी ही होती हैं। सुबह जो धूल हम बाहर फंेकते हैं, रात में आँधी के साथ उससे ज्यादा घर के भीतर आ जाती है। मैं इन्हें रोक नहीं सकता, लेकिन उनके जाने के बाद बद्दुआ दे सकता हूँ। इसी आँधी में कहीं से उड़कर अखबार का एक पन्ना भी आया है। वैसे देश में अखबार हो या उसको लिखने–छापने वाले, वे हल्के से झोंके में उड़ जाते हैं। एक बार मित्र से मेरी शर्त लगी। उसने कहा, “अखबार से हल्के उनके सम्पादक हैं।” मैंने कहा, “नहीं। चैथा खम्बा हल्का नहीं हो सकता। लोकतंत्र बैठ जायेगा। विकलांगों की तिपहिया होती है। चैथे खम्भे के बिना लोकतंत्र विकलांग हो जायेगा। अखबार और उसके सम्पादक को ठोस… आगे पढ़ें

लीबिया की सच्चाई छिपाता मीडिया

–– जोनाथन कुक, पिछले दो दशकों से ‘सुरक्षा का उत्तरदायित्व’ सिद्धान्त के तहत चलने वाली पश्चिम की जानीमानी मौजूदा विदेश नीति की हकीकत लीबिया के बाढ़ के मलबे में साफ दिखायी पड़ रही है। भारी बारिश और तूफान के कारण डेर्ना शहर की सुरक्षा करने वाले दोनों बाँध टूट गये जिससे हजारों लोग (20 हजार से ज्यादा) मौत के मुँह में समा गये और हजारों लापता हो गये। बाढ़ इतनी भयंकर थी कि डेर्ना ही नहीं बेनगाजी शहर समेत क्षेत्र का बड़ा रिहायशी हिस्सा खण्डहर में तब्दील हो गया। यह तूफान लगातार गहराते पर्यावरण संकट का सबूत है। पूरी दुनिया में तेजी से बदलता मौसम का मिजाज डेर्ना जैसी और तबाहियों की सम्भावना बढ़ा रहा है। लेकिन इस आपदा की भयावयता को इतनी सरलता से जलवायु परिवर्तन पर नहीं थोपा जा सकता। ब्रिटेन ने बारह साल पहले लीबिया में मानवीय संकट का जो ढिंढोरा पीटा और जो हरकतें की उसका… आगे पढ़ें

लोकतंत्र के पुरोधाओं ने लोकतंत्र के बारे में क्या कहा था?

आज जब लोकतंत्र का पतन अपने चरम पर है, हमारे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि इसके पुरोधाओं ने इसकी क्या व्याख्या की थी? हम जानते हैं कि उनके विचारों के प्रसार से सदियों से चली आ रही गैर–बराबरी पर आधारित सामन्ती व्यवस्था की जगह समाज में स्वतंत्रता और समानता के बीज पैदा हुए। लोगों में आजाद होने की भावना पैदा हुई और उसे पाने के लिए उन्होंने एक लम्बा संघर्ष किया। आखिरकार फ्रांसीसी क्रान्ति ने पहली बार स्वतंत्रता के विचारों को जमीन पर रोपा। उसने ईश्वर केन्द्रित सत्ता, जिसने सदियों से लोगों को अंधकार युग में धकेल रखा था, उसे उखाड़ फेंका और उसकी जगह मानव केन्द्रित सत्ता की नींव रखी, जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के आदर्शों पर टिका था। इन प्रगतिशील विचारों को रूसो, वॉल्टेयर, मान्तेस्क्यू जैसे विचारकों ने उन्नत किया और लोकतंत्र की अवधारणा दी। रूसो लोकतंत्र में राजनेता को जनता का सेवक कहा गया… आगे पढ़ें

विकास की निरन्तरता में–– गुरबख्श सिंह मोंगा

स्टेट्समैन 24 अप्रैल 2023 के अंक में प्रकाशित लेख, ‘एन इंस्टीट्यूशन डाईज़’ (एक संस्था की मौत) से यह जानना स्तब्ध करने वाला तथा चिन्तित करने वाला है कि ‘विज्ञान प्रसार’ को इसी साल अगस्त तक बन्द करने का प्रस्ताव है। ‘विज्ञान प्रसार’ की स्थापना 1989 में की गयी थी उसे विज्ञान का प्रसार करने, संचार करने और वैज्ञानिक मिजाज का विकास करने का जिम्मा सौंपा गया था। ‘विज्ञान प्रसार’ अब तक भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अन्तर्गत, एक स्वायत्त संस्था के रूप में काम करता आ रहा था और विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग के अन्तर्गत आने वाला एक ख्यातिप्राप्त तथा अपनी मौजूदगी का एहसास कराने वाला संगठन रहा है। ‘विज्ञान प्रसार’ एक कामयाब संगठन है जिसने उल्लेखनीय पहल की हैं। इसके बावजूद, नीति आयोग ने इसकी सिफारिश की है कि ‘विज्ञान प्रसार’ को बन्द कर दिया जाए और उसकी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए, विज्ञान व प्रौद्योगिकी… आगे पढ़ें

विश्व चैम्पियनशिप में पदक विजेता महिला पहलवान विनेश फोगाट से बातचीत

“औरतें जब भी आवाज उठाती हैं, सत्ता का निशाना बन जाती हैं।” इस बातचीत में पहलवान विनेश फोगाट ने यौन उत्पीडन के आरोप को लेकर डब्लूएफआई के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के लिए साहस जुटाने और खिलाड़ियों की ओर से समर्थन में कमी के बारे में… आगे पढ़ें

वैज्ञानिकों की गहरी खामोशी

भारत के पहले खगोल भौतिकविज्ञ और निर्वाचित सांसद मेघनाद साहा ने दिसम्बर 1954 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखा था–– “मेरा आपसे निवेदन है कि आप बिलकुल इयागो’ जैसे लोगों की बातों में आकर अपनी डेसडेमोनाओं का गला मत घोंटिये। मुझे कभी–कभी लगता है कि आपके चारों ओर इयागो जैसे बहुत से लोग हैंय जैसा कि इतिहास में सत्ता और प्रतिष्ठा वाले हर व्यक्ति के साथ होता रहा है।” दु:खी साहा ने शेक्सपीयर के नाटक ‘ओथेलो’ का हवाला देकर विज्ञान के उन बुरे हालातों पर दु:ख जताया, जिनमें तत्कालीन प्रधानमंत्री के धूर्त्त सलाहकारों द्वारा विज्ञान और राज्य के मधुर सम्बन्धों को नष्ट किया जा रहा था। एक भुला दी गयी गौरवशाली परम्परा हम उस नेहरूवादी समय से बहुत दूर आ गये हैं, जब प्रधानमंत्री की प्रत्यक्ष आलोचना करने पर भी वैज्ञानिकों की प्रशंसा होती थी। कुछ सालों से असहिष्णुता और अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाला एक घातक राजनीतिक परिदृश्य विकसित… आगे पढ़ें

सरकार और न्यायपालिका : सम्बन्धों की प्रकृति क्या है और इसे कैसे विकसित होना चाहिए

––प्रो– फैजान मुस्तफा भारतीय न्यायपालिका एक संकट की गिरफ्त में है। कई सालों से, कार्यपालिका इसे सीमा लाँघने का दोषी ठहरा चुकी है–– और अब यह अपने सर्वोच्च निकाय में अप्रत्याशित फूट का सामना कर रही है। इस साल के शुरू में चार वरिष्ठ न्यायाधीश, प्रमुख न्यायाधीश द्वारा मुकदमों के बँटवारे के खिलाफ जनता से रूबरू हुए, जिन्होंने अपने अधिकारों के महत्त्व को चिन्हित किया। बाद में मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ एक अभियोग भी दायर किया गया। इंडियन एक्सप्रेस की सीमा चिश्ती और सुशान्त सिंह के साथ बातचीत के दौरान विख्यात न्यायशास्त्री और नाल्सर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति प्रो– फैगान मुस्तफा ने इस अखबार के दिल्ली और मुम्बई के आयोजनों में न्यायपालिका की इस असाधारण स्थिति को समझाया। भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका के महत्त्व के बारे में हमारा देश एक संवैधानिक लोकतंत्र है, न कि कोई राजतंत्र। एक संघीय संविधान में, जहाँ सत्ता केन्द्र और राज्यों के बीच और… आगे पढ़ें

‘आप’ की ‘देशभक्ति की खुराक’ : प्रोफेशनल ‘देशभक्त’ बनाने का नया एजेण्डा

आम आदमी पार्टी (आप) ने 27 सितम्बर को शहीद भगतसिंह के जन्मदिवस के अवसर पर दिल्ली के सरकारी स्कूलों में ‘देशभक्ति पाठ्यक्रम’ लागू किये जाने की घोषणा की। इस मौके पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि ऐसा वातावरण तैयार करने की जरूरत है, जिसमें हम सभी और हमारे बच्चे हर कदम पर और लगातार “देशभक्ति” की भावना को महसूस करते रहें। छत्रसाल स्टेडियम में हुए इस समारोह के दौरान ‘भारत माता की जय’, ‘वन्देमातरम’ और ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे भी लगाये गये। इसे देखकर ऐसा लगता है कि आप ने क्रान्तिकारियों की छवि और जनता में व्याप्त “देशभक्ति” के जुनून को भुनाने की कोशिश शुरू कर दी है। मुख्यमंत्री का यह भी कहना था कि पिछले 74 सालों से हमने अपने स्कूलों में फिजिक्स, केमिस्ट्री और गणित तो सिखाया, लेकिन हमने बच्चों को “देशभक्ति” नहीं सिखायी। मानो, अब तक की सरकारों ने स्कूल में “देशभक्ति” का पाठ्यक्रम… आगे पढ़ें