नया वन कानून: वन संसाधनों की लूट और हिमालय में आपदाओं को न्यौता
–– अखर शेरविन्द,
संसद के मानसून सत्र में 26 जुलाई को लोकसभा ने महज 15 मिनट की चर्चा के बाद एक ऐसा विधेयक पारित कर दिया गया तो पूरे हिमालयी ही नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय सीमा से लगे देश के सभी इलाकों में बेरोकटोक कॉरपोरेटी लूट को तो न्यौता देगा ही। हिमालयी राज्यों में भयानक आपदाओं को न्यौता देने वाला साबित होगा। बीते 4 अगस्त को राज्यसभा से भी यह नया वन (संरक्षण) यानी वन (संरक्षण एवं संवर्द्धन) विधेयक पारित हो गया।
1980 के वन कानून में वन भूमि के गैर वानिकी उपयोग के लिए अब तक आठ संशोधन हुए थे लेकिन माना जा रहा है नये वन कानून ने वन भूमि का विभिन्न गैर–वन गतिविधियों के लिए दोहन को बहुत आसान बनाकर पहली बार कानून में आमूल–चूल बदलाव कर दिया है।
पर्यावरण विशेषज्ञ इस नये वन कानून को हिमालय में आपदाओं की विभीषिका को न्यौता देने वाला बता रहे हैं। क्योंकि इस कानून के वजूद में आ जाने के बाद अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं से 100 किलोमीटर हवाई दूरी के दायरे में वन क्षेत्रों में रक्षा या रणनीतिक परियोजनाओं को बेरोक टोक चलाया जा सकेगा क्योंकि इन परियोजनाओं के लिए अब तमाम वन अनुमतियों की जरूरत ही नहीं रहेगी। साफ है कि ऑल वैदर रोड, बाँध परियोजनाओं और रेल मार्ग जैसी विशालकाय परियोजनाओं के जरिये आसानी से हिमालयी पारिस्थिकीय तंत्र को रौंदा जा सकेगा। हालाँकि नये कानून के लिए वन भूमि के जनता के लिए विकास के लिए इस्तेमाल की आड़ ली गयी है, मगर माना जा रहा है कि नये वन कानून से देश की जनता से ज्यादा कॉरपोरेट्स को फायदा होगा। पूरे देश के वन क्षेत्रों में वैध और अवैध खनन पहले से जारी है आशंका है कि नया कानून वन संसाधनों की लूट और अवैध खनन को कानूनी जामा पहना देगा।
यह कौन नहीं जानता कि बिना गम्भीर विचार–विमर्श जनता की सहमति के जलविद्युत परियोजनाएँ, रेलवे और राजमार्गों जैसी प्रमुख मानव हस्तक्षेप की परियोजनाएँ आपदाओं की तीव्रता को कई गुना बढ़ा देती हैं। इन योजनाओं के क्रियान्वयन में पर्यावरण विशेषज्ञों की राय को धता बता दी जाती है और तमाम कानूनों को विभिन्न तरीकों से दरकिनार कर दिया जाता है या मनमाफिक पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्टें तैयार कर, जंगल साफ कर, नदियों का रास्ता रोककर और पहाड़ों को खोद प्रकृति को रौंदकर परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जाता है। परियोजनाओं की जरूरी निगरानी नहीं की जाती। चेतावनी प्रणाली और समग्र आपदा प्रबंधन प्रणाली की गैरमौजूदगी आपदाओं के दौरान नुकसान कई गुना बढ़ा देती है। 2021 में रैणी आपदा के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, मौसम विभाग, वाडिया इंस्टीट्यूट, जलशक्ति व खान मंत्रालय की संयुक्त रिपोर्ट में सिफारिश की गयी थी कि उत्तराखंड को जल विद्युत की बजाय ऊर्जा के दूसरे विकल्पों की तलाश करनी चाहिए। क्योंकि हिमालय में बहुत से हाइड्रो प्रोजेक्ट पर्यावरणीय नजरिये से संवेदनशील क्षेत्रों में हैं। ऐसे में वहाँ ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के लिए अध्ययन किया जाना चाहिए। पर्यावरणविद हिमालय के ऊँचाई वाले अतिसंवेदनशील इन इलाकों में जल विद्युत परियोजनाओं का पहले से विरोध करते रहे हैं। लेकिन प्रदेश सरकार लगातार केन्द्र पर जल विद्युत व बाँध परियोजनाओं को जल्द से जल्द जमीन पर उतारने के लिए दबाव बनाती रहती है। यह सब सख्त बताये जाने वाले पुराने वन कानून के रहते जारी था मगर नया वन कानून इन पर्यावरण संरक्षण के लिए बनाये गये तमाम नियम कायदों को भी खत्म कर देगा।
वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के बदले आने वाले इस कानून की विशेषता यह है कि इसमें अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं से 100 किमी दूर स्थित “राष्ट्रीय महत्व की रणनीतिक परियोजनाओं” या सुरक्षा और रक्षा परियोजनाओं के लिए उपयोग की जाने वाली 5–10 हेक्टेयर तक की वनभूमि में पेड़ काटना या वनभूमि का भूमि उपयोग परिवर्तन बहुत आसान हो जाएगा। जाहिर है कि अन्तरराष्ट्रीय सीमा से 100 किलोमीटर की हवाई दूरी के इस दायरे में चीन, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार की सीमा से सटे उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, हिमाचल, सिक्किम, असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम– अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और प– बंगाल के उत्तरी इलाके समेत हिमालयी और पूर्वाेत्तर का बहुत बड़ा इलाका ही नहीं बल्कि तीन चौथाई से अधिक हिस्सा आ जाएगा। पूर्वाेत्तर, देश के सबसे अधिक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक है और 2009 और 2019 के बीच वह पहले ही 3,199 वर्ग किमी वन क्षेत्र खो चुका है। आज भी वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में पाँच हेक्टेयर तक की भूमि का उपयोग रक्षा–सम्बन्धी परियोजनाओं और सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए किया जा सकता है। अधिनियम ने कृषि–वानिकी वृक्षारोपण, चिड़ियाघर, सफारी पार्क और इकोटूरिज्म जैसी गैर–वन गतिविधियों को भी पर्यावरणीय मंजूरी से छूट दे दी है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह इस फरवरी के सुप्रीम कोर्ट के आदेश की साफ अवहेलना है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने टाइगर रिजर्व में अवैध निर्माण और उत्तराखंड में कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के बफर क्षेत्र में बाघ सफारी की स्थापना के मामले में नेशनल पार्कों के मुख्य क्षेत्रों में हर किस्म के निर्माण पर पाबन्दी लगा दी थी।
उत्तराखंड की बात करें तो चीन सीमा के करीब बदरीनाथ से देहरादून के बीच की हवाई दूरी महज 150 किलोमीटर के आसपास है। इस तरह देखें तो नये कानून से उत्तराखंड का उस बहुत बड़े पहाड़ी इलाके को वन कानून से छूट मिल जाएगी जहाँ प्रदेश के अधिकांश वन हैं। फिर रक्षा या रणनीतिक प्रोजेक्टों के नाम पर क्या होगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह सब तब हो रहा है जब देश भर में पुराना ज्यादा सख्त वन कानून लागू होने के बावजूद वन भूमि के दूसरे कामों के लिए हस्तान्तरण में कमी नहीं आयी है। यह सभी जानते है कि वर्ष 1951–1975 तक, लगभग 40 लाख हेक्टेयर वन भूमि को विभिन्न गैर–वानिकी उद्देश्यों के लिए हस्तान्तरित कर किया गया था। चिपको और दूसरे पर्यावरण संरक्षण आन्दोलनों के बाद जब 1980 में सख्त वन कानून लाया गया तो 1980 से 2023 तक वन कानून की सख्ती की वजह से वन भूमि हस्तान्तरण में काफी कमी आई केवल दस लाख हेक्टेयर वन भूमि का उपयोग हो सका।
हाल में खुलासा हुआ है कि वन कानून के तमाम बाधाओं के रहते भी बीते 15 साल में देश में तीन लाख हेक्टेयर वन भूमि को गैरवानिकी कार्यों के लिए हस्तान्तरित किया गया। इनमें सीमा से लगे पंजाब की 61318 हेक्टेयर, गुजरात की 16070, उत्तराखंड की 14141 हेक्टेयर, राजस्थान की 12877 अरुणाचल प्रदेश में 12778 हेक्टेयर वन भूमि शामिल थी। देश में 15 साल में हस्तान्तरित वन भूमि में से 58282 हेक्टेयर खनन, 45326 सड़कों, 36620 सिंचाई योजनाओं, 2181 पवन ऊर्जा, 24337 रक्षा, 9307 रेलवे, 26124 विद्युत पारेषण, 4101 तापीय ऊर्जा और 13136 हेक्टेयर वन भूमि जल विद्युत परियोजनाओं के लिए हस्तान्तरित की गई। इतना ही नहीं वन कानून होने के बावजूद अवैध रूप से पेड़ काटे जाते रहे हैं। उत्तराखंड में बीते साल अक्टूबर में भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की सर्वे रिपोर्ट से खुलासा हुआ था कि कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के पाखरो रेंज में प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट बताए जा रहे टाइगर सफारी के निर्माण के लिए 163 की जगह 6093 हरे पेड़ काट दिए गये। हिमालयी राज्यों में इस तरह की घटनाएँ पुराने सख्त कानून के होते सामने आती रहती हैं। केन्द्र सरकार पर्यावरण संरक्षण कानूनों के उल्लंघन को गैरआपराधिक भी बना रही है तो वन कानून का उल्लंघन करने वालों का हौसला बढ़ना स्वाभाविक है। हालाँकि केन्द्र सरकार का कहना है कि अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं से 100 किमी तक के इलाके में मिलने वाली छूट सामान्य छूट नहीं होगी। ये छूटें निजी संस्थाओं के लिए उपलब्ध नहीं होंगी और केन्द्र सरकार द्वारा चिह्नित रणनीतिक महत्व की विशिष्ट परियोजनाओं तक ही सीमित होगी। लेकिन सभी जानते हैं कि सड़क हो बाँध हो या रेलवे परियोजनाएँ इन परियोजनाओं पर जमीन पर काम निजी कम्पनियाँ और ठेकेदार ही करते हैं। वन भूमि हस्तान्तरण की इजाजत इस शर्त पर दी जाती है कि परिवर्तित वनभूमि की भरपाई देश में कहीं पेड़ लगाने से की जाएगी। लेकिन यह एक सार्वभौम सत्य है कि वृक्षारोपण वनों का विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि एक जंगल बनने में सैकड़ों साल लगते हैं।
पर्यावरणविदों का यह भी मानना है कि नये कानून ने ‘वन’ की परिभाषा और सुप्रीम कोर्ट के 1996 के गौडावर्मन फैसले को पलट दिया है। इस फैसले ने बहुत हद तक वन संरक्षण को बढ़ावा दिया था। क्योंकि इसके तहत, पेड़ों वाले उन इलाकों को भी वन कानून के दायरे में ला दिया था जो औपचारिक रूप से ‘वन’ के रूप में अधिसूचित नहीं थे, लेकिन जंगल माने जा सकते थे। नया वन कानून अधिसूचित न हुए निजी जंगलों को ही नहीं बल्कि वन के रूप में अधिसूचित क्षेत्रो को भी कॉरपोरेट, बिल्डरों, वन तस्करों का चारागाह बना देगा क्योंकि नया कानून केन्द्र सरकार को वन संसाधनों व वन उपजों मसलन लकड़ी और बांस से लेकर कोयला और खनिजों को निकालने की अनुमति देने को बहुत सरल बना देने का अधिकार दे देता है। नया कानून केवल 1980 या उसके बाद किसी भी सरकारी रिकॉर्ड में ‘वन’ के रूप में अधिसूचित भूमि पर ही लागू होगा। यदि अधिसूचित वन भूमि का भू उपयोग 1980 और 1996 के बीच गैर–वन उपयोग के लिए बदल दिया गया था तो वहाँ वन कानून लागू नहीं होगा। यही सब वजहें हैं कि तमाम पर्य़ावरणविद और विपक्षी दल नये वन कानून पर आपत्तियाँ जता रहे हैं।
तमाम विपक्षी दलों, पर्यावरण विशेषज्ञों की आपत्तियों और विरोध के बावजूद केन्द्र सरकार ने नये वन कानून के लिए जैसी जल्दबाजी दिखाई है। उससे केन्द्र सरकार की कॉरपोरेट परस्त छवि के कारण तमाम आशंकाएँ जन्म ले रही है। लोगों ने अधिनियम का नाम बदलकर वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम करने के निर्णय पर सवाल उठाया है आपत्ति यह है कि इसमें देश के गैर–हिन्दी भाषी नागरिकों को शामिल नहीं किया गया है। लोगों ने संवर्धन शब्द को शामिल करने पर आपत्ति जतायी है क्योंकि यह संरक्षण की भावना के खिलाफ है, जो पिछले कानून के केन्द्र बिन्दु रहा है। वन भूमि के रणनीतिक रैखिक परियोजना के निर्माण करने की छूट को लेकर संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष सिक्किम, मिजोरम, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश सहित कई सीमावर्ती राज्यों ने विरोध दर्ज कराया था। आपत्ति इस बात पर भी है कि इस अधिनियम को केवल कार्बन सिंक निर्माण गतिविधि तक सीमित कर दिया गया है। केन्द्र सरकार ने 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जनष् व 2030 तक अतिरिक्त 2–5 से 3–0 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर कार्बन सिंक का निर्माण का राष्ट्रीय लक्ष्य रखा है। सरकार का दावा है कि वन जैसे क्षेत्रों को छूट देने से वृक्षारोपण में अधिक निवेश देखने को मिलेगा और अन्य वृक्ष आवरण, जो बदले में, कार्बन सिंक क्षमताओं में सुधार करेगा। लेकिन विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों का मानना है कि संशोधन के प्रावधान पूरी तरह से वनों की प्रस्तावना और संरक्षण की भावना के विपरीत हैं। कार्बन सिंक बनाने की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए अधिनियम इन–सीटू संरक्षण, नई भूमि, स्वदेशी अधिकारों, लाभों के समान बंटवारे और जैव विविधता की रक्षा के जैविक विविधता लक्ष्यों पर कन्वेंशन के तहत भारत की प्रतिबद्धता को ध्वस्त कर दिया है।
उनका मानना है कि कानून के दायरे को केवल 25 अक्टूबर 1980 या उसके बाद वनों के रूप में दर्ज क्षेत्रों तक सीमित करने का अर्थ यह होगा कि वन भूमि के महत्वपूर्ण हिस्से और कई जैव विविधता वाले हॉट स्पॉट्स को बेचने, खत्म करने, साफ करने और गैर–वानिकी कामों के लिए दोहन की छूट मिल जाएगी। हैरत की बात यह भी है कि कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केन्द्र सरकार से वन शब्द के शब्दकोश अर्थ का उपयोग करके वनभूमि चिह्नित करने को कहा था। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इसके लिए दिशानिर्देश भी जारी किए लेकिन उत्तराखंड, हरियाणा और बिहार सहित कई राज्यों ने यह प्रक्रिया पूरी नहीं की। अब सवाल है कि क्या अनचीन्ही वन भूमि सामान्य भूमि मानकर विकास परियोजनाओं के नाम पर गड़प कर ली जाएगी। विशेषज्ञों का मानना है कि नये कानून में दी जा रही छूटें हिमालयी और पूर्वाेत्तर क्षेत्रों में महत्वपूर्ण जंगलों के लिए बहुत नुकसानदेह हो सकती हैं। उचित आकलन और शमन योजना के बिना जंगलों को साफ करने से “कमजोर पारिस्थितिकी और भूवैज्ञानिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों” की जैव विविधता को खतरा पैदा होगा। जंगल कम होने से ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव बढ़ जाएँगे और यह सब हिमालय ही नहीं बल्कि पूरे देश में अतिवृष्टि और लू जैसी चरम मौसम की घटनाओं को जन्म देगा।
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- जीवन और कर्म
- मीडिया
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- मीडिया का असली चेहरा 15 Mar, 2019
- फिल्म समीक्षा
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