नवम्बर 2023, अंक 44 में प्रकाशित

लोग पुरानी पेंशन योजना की बहाली के लिए क्यों लड़ रहे हैं

दिल्ली की रामलीला मैदान में 1 अक्तूबर को सरकारी कर्मचारियों ने केन्द्र सरकार की नयी पेंशन योजना को रद्द करने और पुरानी पेंशन योजना की बहाली के लिए प्रदर्शन किया। इसमें केन्द्र और राज्य सरकारों के कर्मचारियों के साथ ही सार्वजनिक उपक्रमों के हजारों कर्मचारियों ने हिस्सा लिया। पुरानी पेंशन योजना की जगह नयी पेंशन योजना सन 2004 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लागू की थी, जिसका असली मकसद पेंशन बन्द करना था। कर्मचारी उसी समय से इसका विरोध कर रहे हैं। राजस्थान, पंजाब समेत कुछ गैर भाजपा शासित राज्य पहले ही पुरानी पेंशन योजना को बहाल कर चुके हैं।

भारत इस साल दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। मौजूदा नव उदारवादी दौर के सत्ता सेवक अर्थशास्त्री खासतौर पर जानता के आर्थिक कल्याण और समृद्धि को जनसंख्या में बढ़ोतरी के लिए दोष देते हैं। उनके लिए कार्यकुशल नौजवानों की बढ़ती संख्या एक सरदर्द है क्योंकि वे काम माँगकर आर्थिक नीतियों में बदलाव के लिए दबाव डालते हैं। हमारे शासक मानव संसा/ान को देश के निर्माण में लगाने के बजाय उसे एक बोझ समझते हैं। यह मानवद्रोही विचार ही भारत जैसे देशों में जनसंख्या सम्बन्धी सोच का निर्माण करता है।

भारत धीरे–धीरे बूढ़ों का देश बनने की ओर बढ़ रहा है और नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों की विचारधारा ने युवाओं के साथ ही बूढ़ों के जीवन को भी संकट में डाल दिया है। संयुक्त राष्ट्र की इस साल प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि 1971 में, जब भारत में जनता के आर्थिक कल्याण और समृद्धि की योजनाएँ लागू थीं तब औसतन हर महिला अपने जीवनकाल में लगभग 6 बच्चों को जन्म देती थी। भारत में अगले दशकों में प्रजनन दर धीरे–धीरे घटती गयी और 2022 तक घटकर 2–0 हो गयी है।

भारत की घटती प्रजनन दर में जनसंख्या की आयु में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखा गया है। 1970 के दशक में भारत में जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा 25 साल से कम आयु वाले व्यक्तियों का था। आज 25 साल से अधिक आयु वाले लोगों की संख्या 25 साल से कम वालों की तुलना में लगभग दोगुनी है। यह चिन्ताजनक है क्योंकि नवउदारवादी नीतियों ने बूढ़़े व्यक्तियों की सुरक्षा छीन ली है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में नवउदारवादी नीतियों ने अधिकांश युवाओं की आशाओं और आकांक्षाओं को कुचल दिया है तथा उन्हें बेरोजगारी और गरीबी के नरक कुण्ड में धकेल दिया है। इसने निचले वर्गों के लोगों की एक पूरी पीढ़ी को तबाह किया है जिन्हें उम्मीद थी कि 1990 का आर्थिक उदारीकरण उन्हें एक सन्तोषजनक जीवन की ओर ले जाएगा। आज यह स्पष्ट हो गया है कि उनका काम करने का और आर्थिक रूप से सुरक्षित भविष्य का मूलभूत अधिकार उनके देश के कुछ करोड़पतियों के लाभ के लिए छीन लिया गया है।

1990 के दशक में मंजूर की गयी नीतियाँ, चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र के बजाय निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने वाली हों या सरकारी भर्तियों में कमी लाने वाली, सभी को हर पार्टी की सरकारों ने लागू किया है। मोदी सरकार केवल इस मामले में अलग है कि इसने इन नीतियों को बहुत ही तेजी से लागू किया तथा इसकी बाधाओं को दूर करने के लिए फासीवादी विचारधारा और कार्यप्रणाली का सहारा ले रही है। मुट्ठीभर लोगों के हित साधने के लिए पूँजी को मुक्त उड़ान की छूट दी गयी है, जबकि अधिकांश लोगों, मेहनतकश जनता के पैर जमीन से कसकर बाँध दिये गये हैं।

जिन लोगों ने अपनी पूरी जवानी, अपने जीवन का सबसे खूबसूरत समय राज्य और सार्वजनिक उपक्रमों के जरिये व्यवस्था की सेवा में समर्पित किया है, उनकी सुरक्षा की आशाएँ और सपने भी कुचल दिये गये हैं। पेंशन, वृद्धावस्था में वित्तीय सुरक्षा का महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा उपाय है। शुरू में इसे ब्रिटिश उपनिवेशकों द्वारा 1881 में सरकारी कर्मचारियों के लिए पेश किया गया था। इन्हें स्वतंत्र भारत में सार्वजनिक उपक्रमों के सभी पदों के लिए विस्तारित किया गया। इसके अलावा वृद्धावस्था में वित्तीय सुरक्षा के लिए कई अन्य योजनाएँ भी जोड़ी गयीं, जैसे कर्मचारी प्रोविडेण्ट फण्ड संगठन (इपीएफओ) के तहत प्रोविडेण्ट फण्ड का भुगतान।

1990 में नवउदारवादी नीतियों के लागू होते ही इन योजनाओं के लिए खतरे की घण्टी बाज गयी थी। कई आर्थिक विशेषज्ञ सेवानिवृत्त कर्मचारियों की पेंशन को राज्य पर बोझ बताने लगे थे और सलाह देने लगे थे कि राजस्व को कर्मचारियों की पेंशन पर खर्च करने के बजाय कर्मचारियों के पैसे को ही नये आर्थिक मॉडल में झोंकने की जरूरत है ताकि वह मुक्त बाजार की सेवा में इस्तेमाल हो सके।

पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) किसी पूँजीवादी कल्याणकारी राज्य का एक उदाहरण है। यह सेवानिवृत्त कर्मचारी को उसके अन्तिम वेतन का लगभग आधा पेंशन के तौर पर देने की गारण्टी करती थी। इसके अलावा इसमें महँगाई भत्ता के रूप में मुद्रास्फीति को भी समायोजित किया जाता था।

यह एक न्यायसंगत प्रणाली थी। किसी सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरी होने का मुख्य लाभ एक विश्वसनीय पेंशन होना था। इसके बावजूद इसे बदला गया क्योंकि यह बढ़ते मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल थी जो राज्य के आय रिजर्व को केवल मुट्ठीभर धनाढ्यों के हित में इस्तेमाल करने की इजाजत देती है। आजकल अगर आप किसी से पूछें कि उसने सरकारी नौकरी पाने की पुरजोर कोशिश क्यों नहीं की तो निश्चित रूप से इस बात का भी जिक्र आएगा कि अब वहाँ पेंशन के लिए कोई समर्थन प्रणाली नहीं है। यह वास्तविकता स्थापित होना मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के अनुकूल है क्योंकि यह निजी उपक्रमों को अपने कर्मचारियों या मजदूरों को सुविधाएँ देने में प्रतियोगिता से मुक्त करके उनके मनमाने शोषण की छूट देती है।

एनपीएस ने ओपीएस की सभी अच्छी विशेषताओं को छोड़ दिया है और ऐसा नियम बनाया है कि चाहे या अनचाहे, हर कर्मचारी और नियोक्ता को शेयर बाजार की सट्टेबाजी में खिलाड़ी बनना ही पड़ता है। इस नयी योजना के तहत कर्मचारियों को अपने वेतन का 10 प्रतिशत पेंशन निधि में योगदान करना होता है और नियोक्ता भी उसी मात्रा में योगदान करता है। वित्तीय संस्थानों के जरिये इस कोष का इस्तेमाल शेयर बाजार में सट्टेबाजी के लिए किया जाता है। यह सीधे ओपीएस की प्रणाली के खिलाफ है, जो पूरी तरह सरकार द्वारा वित्तपोषित योजना थी और कर्मचारी को कुछ भी नहीं देना पड़ता था और कर्मचारी के बुढ़ापे की वित्तीय सुरक्षा नियोक्ता की जिम्मेदारी थी।

दावा किया गया था कि नयी पेंशन योजना (एनपीएस) सेवानिवृत्त व्यक्तियों को अधिक पेआउट देगा। लेकिन आज हकीकत लोगों के सामने आ चुकी है, उनके पेआउट्स को उनके मासिक वेतनों की तुलना में बड़े पैमाने पर कम किया गया है। सरकारी स्कूल के शिक्षक 3 हजार रुपये की मासिक पेंशन पा रहे हैं, जबकि उनका पदकालीन वेतन 45 हजार रुपये था। रेलवे के कर्मचारी हैं जो इतनी कम पेंशन पर जी रहे हैं कि उन्हें अब अपने सेवाकाल के बाद के संरक्षित और सुरक्षित जीवन के लिए लड़ना पड़ रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं, डाक सेवाओं, सीपीडब्ल्यूडी और अन्य विभागों के कर्मचारियों के विरोध प्रदर्शन हुए हैं और सब ओपीएस पर वापस लौटने की माँग कर रहे हैं। इसके लिए देशव्यापी प्रदर्शनों का आयोजन लगभग हर महीने हो रहा है लेकिन केन्द्र सरकार को कोई परवाह नहीं है।

एनपीएस में महँगाई को समायोजित करने की भी कोई प्रणाली नहीं है, इसलिए महँगाई भत्ते के महत्वपूर्ण पहलू को भी इसमें हटा दिया गया है। एनपीएस की सम्पूर्ण डिजाइन ऐसी है कि कोई कर्मचारी किसी भी प्रकार का कोई लाभ नहीं पा सकता है बल्कि उसके सेवा के बदले अर्जित वेतन के एक हिस्से को भी नियोक्ता वर्ग का मुनाफा बढ़ाने के लिए झोंक दिया जाता है। यह ताउम्र नियोक्ता के लिए सेवा देने वालों को बुढ़ापे में अर्थव्यवस्था से बाहर फेंक देती है।

याद रखना चाहिए कि एनपीएस न केवल ओपीएस और उसके मूल्यों के खिलाफ एक आक्रमण है बल्कि यह उन भारतीय शासकों के पतन की पराकाष्ठ भी है जिन्होंने भारत में अपने कर्मचारियों के बुढ़ापे की सुरक्षा का वादा किया था। हमें खुद से पूछना होगा कि अपने खुद के कर्मचारियों पर एक ऐसी विनाशकारी योजना थोपने वाले व्यवस्थापक क्या 140 करोड़ लोगों के इस देश को सुरक्षित भविष्य दे सकते हैं।

हमने देखा है कि आने वाले दशकों में देश में वृद्ध जनसंख्या को लगातार बढ़ते जाना है। क्या जो लोग अपनी जवानी राज्य की सेवा में दे चुके हैं या दे रहे हैं, अब अपना बुढ़ापा साल भर प्रदर्शन के लिए खर्च करेंगे? आजकल बहुत से लोग नयी पीढ़ी द्वारा अपने बुजुर्गों का ध्यान न रखने की शिकायत करते हैं, जिस देश की सरकार ही अपने कर्मचारियों के बुढ़ापे से खिलवाड़ करती है क्या उस देश के बुजुर्गों का जीवन कभी बेहतर हो सकता है। किसी भी अच्छे गणराज्य में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बुजुर्गों की सभी तरह की देखभाल अच्छी तरह की जानी चाहिए और सबसे पहले ठोस आर्थिक योजनाओं के माध्यम से। जो गणराज्य यह भी नहीं कर सकता क्या उसे तबाह नहीं हो जाना चाहिए?

–– कुशल चौधरी

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