जनवरी 2021, अंक 37 में प्रकाशित

किसान आन्दोलन : लीक से हटकर एक विमर्श

–– सुरेन्द्र पाल सिंह 

वर्तमान किसान आन्दोलन प्रकट रूप से तीन नये कानूनों के विरोध में हैं। लेकिन कोई भी मुहिम या आन्दोलन का सिलसिला तभी तक ऊर्जापूर्ण रह सकता है जब तक उसके पीछे अव्यक्त कारक सक्रिय हों। समाजशास्त्रीय भाषा में इसे लैटेण्ट फंक्शन कहा जाता है। यह लैटेण्ट फंक्शन ही है जो किसी सामाजिक संस्था या पम्परा को कायम रखते हैं।

यह आन्दोलन एक ऐतिहासिक आन्दोलन है क्योंकि यह केवल तीन कानूनों को रद्द करवाने के मुद्दे से ही ऊर्जा ग्रहण नहीं कर रहा है बल्कि दर्जनों आयाम इसको मजबूती प्रदान कर रहे हैं।

सन 2014 के बाद से हमारा देश एक नयी राजनीतिक–सामाजिक संस्कृति का न केवल साक्षी है बल्कि भुक्तभोगी भी है। हरेक प्रकरण की एक नये सिरे से व्याख्या की जा रही है जिसका केन्द्रबिन्दु किसी ना किसी प्रकार से हिन्दू बनाम मुसलमान रहा है। यह मुद्दा लगातार जिन्दा रहे उसके लिए मुख्य धारा की मीडिया और एक सुनियोजित सोशल मीडिया को हथियार की तरह इस तरीके से इस्तेमाल किया जाता रहा है कि सौ फीसदी झूठ भी सच लगने लग जाये। झूठा इतिहास, झूठी कहानियाँ, ट्रोल आर्मी द्वारा टारगेट बना कर किसी का भी चरित्रहनन, मॉब लिंचिंग का समर्थन, कोरोना जिहाद जैसी मनगढ़न्त कहानी को आम व्यक्ति के मन में सच्चाई के रूप में बैठा देना ऐसे कुछ एक उदाहरण हैं जिनकी एक लम्बी सूची है।

ऐसे वातावरण में शान्तिप्रिय और सेक्यूलर किस्म के लोगों में एक हताशा का एहसास होना स्वाभाविक है। गाहे–बगाहे उनकी आवाज को भी दबाने के लिए एक नई शब्दावली गढ़ ली गयी। उन्हें टुकड़े टुकड़े गैंग, राष्ट्रविरोधी, अर्बन नक्सल आदि खिताब देकर ट्रॉल आर्मी के हवाले कर दिया जाना आम बात रही है ताकि उनके दिलों में खौफ भर दिया जाये और बाकी लोग भी डर कर रहे। यूएपीए का खुल कर प्रयोग किये जाने के कितने ही उदाहरण हमारे सामने हैं।

बहरहाल, उपरोक्त प्रकरण को लम्बा ना खींचते हुए संक्षेप में यूँ कहा जा सकता है राष्ट्रीय आन्दोलन और संवैधानिक मूल्यों को दरकिनार करना मौजूदा निजाम की आवश्यकता भी है और मजबूरी भी क्योंकि हिन्दू बनाम मुसलमान की धुरी पर कायम रहना ही इन्हें सत्ता में रहने की गारण्टी देता है। और इसके लिए अन्य सभी मुद्दे सहज ही दोयम दर्जे पर खिसक जाते हैं। अब पूरे तामझाम को बनाये रखना है तो थैलीशाहों के साथ गुप्त समझौता भी आवश्यक है जो न केवल चुनाव जीतने के लिए धन, बल्कि जनमत बनाने के लिए मीडिया हाउस भी उपलब्ध कराता है। यह काम मुफ्त में तो नहीं होता है, बदले में उन्हें अपने हिस्से का मांस का पाउण्ड भी चाहिए। नये कृषि कानूनों की गहराई में जाने के बजाय इतना कहना पर्याप्त होगा कि निजीकरण के लम्बे सिलसिले का एक मुकाम इन कानूनों में स्पष्ट है। हमारे देश में कृषि उपज का बाजार अपरम्पार है और न्यूनतम समर्थन मूल्य, मण्डी व्यवस्था और आवश्यक वस्तुओं का नियमन सबसे बड़े अवरोध हैं जो बड़े कॉरपोरेट को इस बाजार पर कब्जा जमाने बाधक है। कोई हैरानी की बात नहीं होगी अगर आनेवाले समय में बैंकों का स्वामित्व भी इन्हें सौंप दिया जाये।

यह आन्दोलन ऐतिहासिक क्यों है ? मौजूदा निजाम को पहली बार अपने आईटी सेल के घुड़सवारों को अस्तबल में वापस भेजना पड़ा और ट्रॉल आर्मी के सिपहसालारों को निठल्ला बैठना पड़ा है। कितनी बेबसी हो गयी है कि अवार्ड वापस करने वालों को पिछली बार की तरह अवार्ड वापसी गैंग कह कर ट्रॉल करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। जो निजाम मुख्यत: मनगढन्त व्याख्या के आधार पर किसी भी आन्दोलन को बदनाम करने और दबा देने में सिद्धहस्त रहा हो, उसका शस्त्रविहीन होना एक ऐतिहासिक घटना है। एक लम्बे अर्से से भुक्तभोगी नौजवान, छात्र, मजदूर, छोटा व्यापारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस आन्दोलन का सहभागी बन गया है। 8 दिसम्बर को भारत बन्द के आह्वान पर हर प्रकार का तबका चाहे वे पेट्रोल पम्प वाले हो या ट्रांसपोर्टर या व्यापार संघ वाले, सभी जोशपूर्ण तरीके से समर्थन में उतरे। विपक्षी पार्टियों द्वारा भी किसानों में अपना जनाधार बचाये रखने की मजबूरीवश किसानपरस्त चेहरा रखना आवश्यक हो जाता है।

सवाल उठता है कि आईटी सेल और ट्रोल आर्मी एक बार थोड़ी सी सक्रिय हुई थी जब खालिस्तानी, पाकिस्तानी, सौ–सौ रुपये के दिहाड़ीदार, काँग्रेस के भड़कावे में आदि–आदि मसाला सोशल और मेनस्ट्रीम मीडिया में देखने–सुनने को मिलने लगा था, लेकिन जल्द ही होंठ सील लिये गये। दो मुख्य कारण हैं जिनकी वजह से इस प्रकृति के प्रचार–प्रसार पर लगाम लगाई गयी है। पहला कारण आन्तरिक है जब सत्तापक्ष में टूट और जनता के सवालों का तार्किक जवाब की कंगाली महसूस होने लगी। दूसरा कारण इतने बड़े जनान्दोलन से टक्कर लेने के सवाल पर शक्तिहीनता का एहसास है।

इस आन्दोलन के अगुवा पंजाब के किसान हैं जिनकी अनेक ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक जड़ें हैं। सिक्ख गुरुओं की कुर्बानी, बन्दा बहादुर द्वारा किसानों को जमीन की मल्कियत देना, सिक्ख मिसलों द्वारा नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली की फौज से बार–बार मुकाबला करते हुए पतनशील मुगल साम्राज्य में अपनी ताकत का इजाफा और गुरुद्वारों को महन्तांे से मुक्त करवाने के लिए एक लम्बा, शान्तिपूर्ण और कुर्बानियों भरा सफल अकाली मोर्चों की विरासत वाले किसानों की आत्मा जमीन और खेती में रची–बसी है। हरित क्रान्ति को जीवित रखने के लिए मण्डी व्यवस्था भी पंजाब में सबसे अधिक मजबूत रही है। आजादी की लड़ाई, जलियाँवाला बाग से लेकर खालिस्तान आन्दोलन जैसे उतार–चढ़ाव से गुजरे पंजाबियों को अपनी एक सशक्त अस्मिता की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता उन्हें इस मुकाम पर ले आई है कि मजबूत, बेखौफ, और लम्बी लड़ाई के लिए उनकी तैयारी देखते ही बनती है। यही वजह है कि देश–विदेश के पंजाबियों से इस आन्दोलन को भरपूर समर्थन मिल रहा है।

इसके अलावा, कृषि का संकट लगातार किसी न किसी रूप में किसानों को बेचैन करता रहा है और तमाम पहलुओं को जोड़ते हुए अब उन्हें लगने लगा है कि इतना तो अवश्य है कि खेतिहर किसान को एक न्यूनतम आय की गारण्टी होनी ही चाहिए। यही सूत्र प्रत्येक राज्य के किसानों की मानसिकता को जोड़ रहा है। जहाँ मण्डी व्यवस्था नहीं है उन राज्यों के किसानों को भी लगने लगा है कि उन्हें भी अपनी फसल का न्यूनतम मूल्य तो मिलना ही चाहिए।

इन तमाम तथ्यों के आधार पर एक बार फिर से वर्तमान किसान आन्दोलन को ऐतिहासिक आन्दोलन करार दिया जा रहा है क्योंकि इस हलचल से उठने वाली लहरें अनेक आयामों को छुएँगी जिनके दूरगामी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिणामों के निकट भविष्य में हम साक्षी होंगे।

 

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