अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

सरकार और न्यायपालिका : सम्बन्धों की प्रकृति क्या है और इसे कैसे विकसित होना चाहिए

––प्रो– फैजान मुस्तफा

भारतीय न्यायपालिका एक संकट की गिरफ्त में है। कई सालों से, कार्यपालिका इसे सीमा लाँघने का दोषी ठहरा चुकी है–– और अब यह अपने सर्वोच्च निकाय में अप्रत्याशित फूट का सामना कर रही है। इस साल के शुरू में चार वरिष्ठ न्यायाधीश, प्रमुख न्यायाधीश द्वारा मुकदमों के बँटवारे के खिलाफ जनता से रूबरू हुए, जिन्होंने अपने अधिकारों के महत्त्व को चिन्हित किया। बाद में मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ एक अभियोग भी दायर किया गया। इंडियन एक्सप्रेस की सीमा चिश्ती और सुशान्त सिंह के साथ बातचीत के दौरान विख्यात न्यायशास्त्री और नाल्सर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति प्रो– फैगान मुस्तफा ने इस अखबार के दिल्ली और मुम्बई के आयोजनों में न्यायपालिका की इस असाधारण स्थिति को समझाया।

भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका के महत्त्व के बारे में

हमारा देश एक संवैधानिक लोकतंत्र है, न कि कोई राजतंत्र। एक संघीय संविधान में, जहाँ सत्ता केन्द्र और राज्यों के बीच और राज्य के बहुत से अंगों के बीच बँटी हुई है। वहाँ संवैधानिक संस्थाओं के बीच विवाद होना लाजिमी है। किसी संघीय उच्च न्यायालय का मूल काम इन विवादों का निपटारा होना चाहिए। साथ ही एक संवैधानिक उदारवादी लोकतंत्र में जनता के अधिकार होते हैं। ये अधिकार जन्मजात हैं। राज्य की रियायत नहीं हैं, इसीलिए राज्य उन्हें छीन नहीं सकता। जनता के अधिकारों को सबसे ज्यादा खतरा राज्य से होता है क्योंकि सत्ता पर इसका एकाधिकार होता है। चूँकि विधायिका कानून बनाती है और कार्यपालिका उन्हें लागू करती है, इसलिए इन अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी न्यायपालिका को सौंप देने के अलावा आपके पास कोई और विकल्प नहीं है। अगर न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है तो जनता के अधिकार बेहद खतरे में पड़ जायेंगे। न्यायपालिका की स्वतंत्रता किसी सफल संवैधानिक लोकतंत्र की पहली शर्त है। न्यायाधीशों की स्वतंत्रता, न्यायाधीशों का अधिकार नहीं, बल्कि नागरिकों का अधिकार है।

अत्यन्त लोकतांत्रिक सरकारें भी स्वतंत्र न्यायपालिका नहीं चाहतीं, इसके बजाय वे न्यायपालिका को नियंत्रित करना चाहती हैं। 10 सितम्बर 1949 को, पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा से कहा था “––––कोई भी न्यायाधीश और कोई भी सर्वोच्च न्यायालय खुद को तीसरा सदन नहीं बना सकता। सर्वोच्च न्यायालय और न्यायपालिका अपने किसी फैसले में समस्त जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद की सम्प्रभु इच्छा का अतिक्रमण नहीं कर सकती। अगर हम जहाँ–तहाँ गलतियाँ करते हैं तो यह इसे चिन्हित कर सकता है, लेकिन अन्तिम विश्लेषण में, जहाँ जनता के भविष्य का सवाल है, कोई न्यायपालिका इसके आड़े नहीं आ सकती। और अगर यह आड़े आ जाती है तो अन्तिम तौर पर, सारा संविधान संसद का बनाया हुआ है।”

अब, हमारा सिद्धान्त है कि संसद संविधान के अधीन काम करती है, हमारा सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च नहीं है, संविधान ही सर्वोच्च है और सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अधीन काम करता है। लेकिन हमारे सबसे कद्दावर नेता और लोकतंत्रवादी का उदगार है कि संविधान स्वयं संसद की रचना है। हमने अपनी संवैधानिक यात्रा ऐसे ही शुरू की है।

केशवनन्दा भारती (केशवनन्दा भारती श्रीपादगलवरू और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य, 24 अप्रैल 1973, जो न्यायपालिका को संविधान के मूल ढाँचे से टकराने वाले संशोधनों की समीक्षा करने और उन पर रोक लगाने का अधिकार देने वाले “मूल ढाँचे” के सिद्धान्त को निर्धारित करता है) के मामले में न्यायमूर्ति के एस हेगडे और वीके मुखर्जी ने किसी स्वतंत्र न्यायपालिका के महत्त्व को बहुसंख्यकवाद के खिलाफ एक बचाव के रूप में रेखांकित किया था–– “संसद के दोनों सदनों के दो तिहाई सदस्य (संविधान में संशोधन के लिए अनिवार्य) भी जरूरी नहीं कि इस देश के लोगों की बहुसंख्या का अनिवार्य रूप से प्रतिनिधित्व करते हों। हमारी चुनाव व्यवस्था ऐसी है कि मतदाताओं की छोटी संख्या भी संसद के दो तिहाई से ज्यादा सदस्य चुन सकती है।–––– इसके अलावा, हमारा संविधान बहुसंख्य मतों के आधार पर नहीं बल्कि आम सहमति के आधार पर निर्मित किया गया था। यह अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करता है। अगर बहुसंख्यकों की राय को निर्देशन कारक के रूप में लिया गया तो अल्पसंख्यकों को दी गयी गारन्टियाँ महत्त्वहीन हो सकती हैं। ––––संविधान सभा में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों ने विशेष सुरक्षा की अपनी पुरानी माँग छोड़ दी थी क्योंकि उन्हें मौलिक अधिकारों की गारन्टी हासिल हो गयी थी। इसीलिए केन्द्र और राज्यों की ओर से यह विवाद खड़ा करना कि संसद के दोनों सदनों के दो–तिहाई सदस्य देश के सभी लोगों की ओर से बोलने के लिए हमेशा अधिकृत हैं, अस्वीकार्य है।”

न्यायालयों और सरकार के बीच शुरुआती परस्पर सम्बन्ध के बारे में

हमारे गणतंत्र के शुरू के 17 सालों में, कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय ने संसद में आस्था जतायी। अधिकतर सांसद स्वतंत्रता सेनानी थे और न्यायालय का उन पर विश्वास था। लेकिन जब एक के बाद एक संशोधन संविधान के केन्द्रीय मूल्यों को नष्ट करने के लिए इस्तेमाल होने लगे तो न्यायालय को 1967 में इस पर विराम लगाना पड़ा। यह गोलकनाथ (आईसी गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य 27 फरवरी 1967) का मामला था। क्योंकि 1950 से अब तक के अपने अनुभव के कारण, न्यायालय ने संशोधन प्रक्रियाओं के मामले में चुने हुए प्रतिनिधियों पर विश्वास करने से इनकार कर दिया और आदेश जारी किया कि मौलिक अधिकारों में संविधान सभा के अलावा कोई कटौती नहीं कर सकता। इसने एक रूकावट खड़ी कर दी और कांग्रेस ने अगले चुनाव के अपने घोषणापत्र में मौलिक अधिकारों में संशोधन करने के मामले में संसद की सर्वोच्चता को वापस लेने का विशेष रूप से वायदा किया। सांकरी प्रसाद (सांकरी प्रसाद सिंह देव बनाम भारतीय संघ– 1951) और सज्जन सिंह (सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य, 1964) मामले में न्यायालय ने कहा था कि संसद को संविधान में संसोधन की पूर्ण शक्ति हासिल है। गोलकनाथ के मामले में वे दूसरे छोर पर चले गये। जो ठीक नहीं था क्योंकि संविधान को गतिशील दस्तावेज होना चाहिए, कोई एक पीढ़ी उनमें बदलाव की बुद्धिमत्ता पर एकाधिकार नहीं रख सकती। 1973 में इंदिरा गाँधी की इस शिकायत पर कि न्यायपालिका उसके रास्ते में बाधा डाल रही है, न्यायाधीशों ने महसूस किया कि देश का मिजाज उनके खिलाफ है, और उनकी सोच के प्रति आशंकित है–– केशवनन्दा भारती मामले में फैसला दिया गया कि हालाँकि वे संशोधनों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन संविधान के मूलभूत ढाँचे का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। और बहुत चतुराई से, उन्होंने ‘मूलभूत ढाँचे’ को बिना परिभाषित किये छोड़ दिया।

70–80 के दशक की “समर्पित न्यायपालिका” और इसके बाद इसकी प्रतिध्वनि (गूँज) के बारे में

सरकार ने कहा कि उसे ऐसे न्यायाधीश चाहिये जो संविधान के प्रति समर्पित हों। कुछ न्यायाधीश सीमाएँ लाँघ रहे थे, हो सकता है संवैधानिक मूल्यों की सुरक्षा के ज्यादा बड़े लक्ष्य की तलाश में, लेकिन मूलरूप से सरकार को ऐसे न्यायाधीशों की तलाश थी जो इसकी नीतियों का समर्थन करें। नतीजे के रूप में हमें न्यायमूर्ति एएन रॉय मिले, जिनके बारे में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम हिदायतुल्ला ने कहा था कि “वह (रॉय) अग्रद्रष्टा न्यायाधीश नहीं थे बल्कि वेे मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी की ओर देखने वाले न्यायाधीश थे।” ‘समर्पित न्यायपालिका’ का विचार समाजवादी व्यवस्था का प्रमाणक है, मेरी राय में यह किसी उदारवादी लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है, क्योंकि यह न्यायपालिका में लोगों की आस्था पर चोट पहुँचाता है और इस संस्था की वैधता के लिए संकट पैदा करता है। ऐसा इमरजेंसी के दौरान सर्वाधिक स्पष्टता के साथ हुआ, एडीएम जबलपुर (एडीएम जबलपुर बनाम एसएस शुक्ला, 28 अप्रैल 1976, तथाकथित ‘बन्दी प्रत्यक्षीकरण के केस में’ जिसमें इमरजेंसी के दौरान जीवन और आजादी के अधिकार को स्थगित कर देने के खिलाफ दायर याचिकाओं के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दरवाजे बन्द कर लिये थे।)  इमरजेंसी के बाद न्यायालय ने जनहित याचिकाओं की सुनवाई करके लोकप्रिय रास्ता अपनाने की कोशिश की। इमरजेंसी के बाद के सालों में बहुत से फैसलों में “भारत के लोग” सम्बोधित किया गया, चूँकि अदालतें उन नये अधिकारों की व्याख्या करने में आगे तक चली गयी थीं जो पहले संविधान में नहीं थे। यह पूछने के बजाय कि “आपकी समस्या क्या है?” लोकस स्टेन्डी की धारणा को विरल करके न्यायाधीशों ने यह पूछना शुरू कर दिया था कि “समस्याग्रस्त कौन है?” प्रोफेसर उपेन्द्र बख्शी ने यह बताने के लिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने अब लोगों के दुखों को गम्भीरता से लेना शुरू कर दिया है, रोनाल्ड डार्किन की पुस्तक टेकिंग राइट्स सीरयसली के शीर्षक को अपनाया है।

और फिर भी, न्यायिक सक्रियतावाद को हमेशा न्यायिक दुस्साहसवाद से बचाना चाहिए। न्यायाधीशों को नीति सम्बन्धी फैसले नहीं लेने चाहिए और विधायिका या कार्यपालिका सम्बन्धी कार्रवाईयों का आदेश नहीं देना चाहिए। यह लक्ष्मण रेखा नहीं लाँघी जानी चाहिए।

वरिष्ठ न्यायाधीशों की 12 जनवरी की प्रेस कॉनफ्रेंस और इसके नतीजों के बारे में

ऐसा नहीं होना चाहिए था, वे (सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के बाद के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश) उन्हें इसका समाधान निकालने की कोशिश करनी चाहिए थी और अगर आपने उनके चेहरे देखें हों, वे परेशान दिखायी पड़ रहे थे। उन्होंने मुश्किल से एक पत्र जारी किया जो उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को लिखा था और जो वे कह रहे थे वह यह कि अगर वे जनता के सामने नहीं आये होते तो आनेवाली पीढ़ियाँ उन्हें सही मौके पर आवाज न उठाने के लिए कोसती। मुझे लगता है यह एक दुखभरा दिन था जब न्यायाधीश न्याय माँगने के लिए जनता के पास आये थे लेकिन उन्होंने जो मुद्दा उठाया वह बिल्कुल उचित था। एक संवैधानिक लोकतंत्र को निश्चय ही केवल संविधान ही नहीं होना चाहिए बल्कि संविधानवादी भी होना चाहिए। संविधान तो हिटलर का भी था लेकिन संविधानवाद नहीं था। बहुत से इस्लामी देशों में संविधान है लेकिन संविधानवाद नहीं है। संविधानवाद माँग करता है कि राज्य की किसी भी कार्यकारी संस्था के पास असीमित सत्ता नहीं हो, जैसा कि उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के एफ जोसफ ने कहा था (21 अप्रैल 2016 को हरीश रावत की निलम्बित सरकार को पुन: स्थापित करते हुए) कि निरंकुशतावाद के लिए कोई जगह नहीं है। राष्ट्रपति किसी राजा की तरह व्यवहार नहीं कर सकते। जनवरी के प्रेस कॉन्फ्रेंस के बारे में मेरा मानना है कि यह एक वैध सवाल है कि क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश को कार्यसूची के मालिक की हैसियत से पीठ गठित करने का निरंकुश अधिकार है? इस समस्या को दूर करना मुश्किल काम है और उन्हें बातचीत से कुछ आधार तलाशने की जरूरत है। एक भय है कि अगर उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश अपने साथी न्यायाधीशों से विमर्श करते हैं तो गड़बड़ी पैदा हो जायेगी। सीजेआई दीपक मिश्रा ने अब मामलों का विषयवार बँटवारा करके एक स्वागतयोग्य कदम उठाया है, वास्तव में इस तरह उस तथाकथित प्रेस कॉन्फ्रेंस  कुछ सकारात्मक नतीजा सामने आया है।

मेरी राय में किसी के लिए भी यह कहना कि उसके पास परम विवेकाधीन अधिकार है और यह कि उसकी सत्ता की कोई सीमा नहीं है, संविधानवाद के पूर्णत: खिलाफ होगा। लेकिन मेरा यह भी मानना है कि सीजेआई के खिलाफ अभियोग चलाना भी वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण था। यह ‘बदसलूकी’ का मामला नहीं था। आज ऐसी स्थिति हो गयी है, मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का सर्वेसर्वा है, वह पीठ गठित कर सकता है, यहाँ तक कि कनिष्ठ साथी न्यायाधीशों को भी चुन सकता है। और अगर कोई इस शक्ति का दुरुपयेेग भी करता है तो क्या वह ‘बदसलूकी’ है? संविधान में बदसलूकी की परिभाषा नहीं दी है ना ही इसने यह कहा है कि मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का सर्वेसर्वा होगा। हमें इस शक्ति को गहराई से समझने की जरूरत है। प्रशासनिक विवेकाधीन अधिकार का सवाल गैर–मनमानेपन, तर्कसंगतता, विवेकशीलता के साथ हल किया जाना चाहिए।

जजों की नियुक्ति पर जारी खींचतान के बारे में

संविधानवाद के प्राथमिक सिद्धान्तों के अनुसार न्यायाधीशों का इस बात पर जोर देना कि वे जो भी कहते हैं, सरकार द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए, ठीक नहीं है। लेकिन सभी संवैधानिक न्याय निर्णयों का एक सन्दर्भ होता है। और सन्दर्भ यह है कि सरकार ने न्यायाधीशों को प्रभावित करने की कोशिश की थी, गठबन्धन के दौर में कार्यपालिका कमजोर थी और इसलिए न्यायालय को यह शक्ति मिली। न्यायालय और कोलेजियम के प्रति मेरी शिकायत यह है कि इस शक्ति को पा लेने के बावजूद उन्होंने इसे पारदर्शी ढंग से लागू नहीं किया। इसी कारण से एनजेएसी (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग), जिसे 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने भंग कर दिया था उस मामले में राजनीतिक घेरे में इस पर लगभग सभी एकमत थे कि न्यायाधीशों को खुद ही अपनी नियुक्ति करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों ने इस समस्या को अपने आप ही बुलावा दिया है। हालाँकि न्यायाधीश शायद सरकार से ज्यादा मुक्त हैं और कम से कम जनता को उन पर कुछ विश्वास है फिर भी पिछले सालों में कोलोजियम ने जिस तरीके से काम किया है,वह विवादों से परे नहीं रहा है। फिर जब एनजेएसी का निर्णय लिया गया था तो मेरी राय में न्यायालय को इसे पूरी तरह भंग करने के बजाय प्रावधान को पढ़ना चाहिए था, क्योंकि इससे टकराव पैदा हुआ, ठीक उसी तरह जैसे लगभग 50 साल पहले गोलकनाथ  मामले में हुआ था। इसे भंग करने से पहले (इसे सरकार पर छोड़ने के बजाय, जो ढाई सालों से लगातार इसकी टांग खींच रही थी) वे खुद प्रक्रिया की विवरणिका (उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए) तय कर सकते थे।

धर्म से जुड़े मामलों में बहुधार्मिक पीठों के बारे में

हमें निश्चय ही ऐसी पीठ नहीं बनानी चाहिए। मैं लिख चुका हूँ कि तीन तलाक के मामले की सुनवाई (22 अगस्त 2017) के लिए जो बहुधार्मिक पीठ (एक सिख, एक हिन्दू, एक पारसी, एक मुस्लिम और एक ईसाई न्यायाधीश) बनायी गयी थी उसकी  कोई जरूरत नहीं थी। अगर कुछ करना ही था तो एक महिला न्यायाधीश को पीठ में रखा जाना चाहिए था। वास्तव में, हालाँकि मैं फैसले से कुल मिलाकर सहमत हूँ, मेरी समस्या यह है कि इसमें लैंगिक न्याय पर मुश्किल से कुछ कहा गया है। सभी अल्पसंख्यकों, सभी समुदायों, सभी जातियों को हमारे न्यायाधीशों पर पूरा भरोसा है। कोई भी न्यायाधीश कुर्सी पर बैठते समय मुस्लिम या ईसाई नहीं होता।

जो न्यायाधीश सेवानिवृत्त होकर आयोग के प्रमुख और राज्यपाल बन रहे हैं उनके बारे में

एक ऐसा न्यायाधीश जो ऐसी जिम्मेदारियाँ सम्हालता है, जैसे–– राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का प्रमुख, वह एक ऐसे न्यायाधीश से बिल्कुल अलग है जो गवर्नर बनता है। एनएचआरसी राज्य के खिलाफ मामले सुनता है और पहले मुख्य न्यायाधीशोें ने इस पद पर अच्छा काम किया था। मैं न्यायाधीशों को उनका अन्तिम वेतन पेंसन के रूप में देने को बहुत महत्त्व दूँगा और मानवाधिकार आयोग या लोकपाल जहाँ एक न्यायिक दिमाग की जरूरत है, के अलावा दूसरे पैनलों से उन्हें दूर रहने को महत्त्व दूँगा। लेकिन मैं नहीं सोचता कि किसी न्यायाधीश को राज्यपाल बनना चाहिए।

अनुवाद–– प्रवीण

 
 

 

 

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