सितम्बर 2024, अंक 46 में प्रकाशित

‘प्रतिरोध की संस्कृति’ पर केन्द्रित ‘कथान्तर’ का विशेषांक

(संस्कृति की विभिन्न धारणाओं से टकराता हुआ)

–– महेन्द्र नेह

राणा प्रताप के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कथान्तर’ कई मायनों में समकाल की अधिकांश पत्रिकाओं से अपनी अलग पहचान निर्मित करती है। कथान्तर का हर अंक विशेषांक होता है, किन्तु वह विशेषांक के नाम पर विशेषांक नहीं होता। राणा प्रताप जिस दिन से कथान्तर के ताजा अंक को पूरा करके डाक से भेज रहे होते हैं, उसी दिन से आगामी अंक उनके मन–मस्तिष्क में अपना आकार बनाना प्रारम्भ कर देता है। वे उसकी विषय वस्तु और सभी सम्भावित–सम्बद्ध पहलुओं की दुनिया में विचरण करने लगते हैं। उन्हें एक युद्ध लड़ना होता है और उसके लिए युद्ध की पूरी संरचना में वे जुट जाते हैं। यह युद्ध कोरा शाब्दिक और काल्पनिक नहीं, यथार्थ की जमीन पर लड़ा जाता है। समूची दुनिया का परिप्रेक्ष्य दृष्टि में होता है किन्तु पाँव अपने नीचे की खुरदुरी जमीन पर होते हैं। योद्धा–लेखकों का चयन उनकी युद्ध कला और ज्ञानात्मक–संवेदना के आधार पर होता है। इस युद्ध में वे लेखकों को भी शामिल करते हैं और अपने पाठकों को भी।

कथान्तर का यह 29 वाँ विशेष अंक है, जो मार्च, 2024 में निकला है। 144 पृष्ठों के इस अंक में देश–दुनिया के कुल 20 लेखक हैं, जिन्होंने अपने–अपने ढंग से संस्कृति के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, कलात्मक, साहित्यिक, सामरिक, लौकिक, भाषिक और पुरातात्विक पक्षों की व्याख्या की है। मुख्य आवरण पर मराठी और हिन्दी के लेखक–कलाकार गोपाल नायडू की पेंटिंग है। अंक में गोपाल नायडू का आलेख ‘हिंसा के बरक्स कला’ भी है। आवरण के पीछे मखदूम के एक शेर ‘फूल खिलते रहेंगे दुनिया में, रोज निकलेगी बात फूलों की’ पर आधारित कलाकर्मी पंकज का पोस्टर है। अन्तिम कवर पर कलम और तूलिका थामे एक मजबूत हाथ का चित्र है, उसके साथ जैनेन्द्र कुमार की एक सूक्ति है, “जिससे कोई व्यक्ति विचलित नहीं होता, ऐसा पुरुष और ऐसा साहित्य निर्जीव है।” अन्तिम कवर के पीछे–सफदर हाशमी को उनकी कविता ‘पढ़ना लिखना सीखो, ओ मेहनत करने वालो’ के साथ याद किया गया है। अन्दर के पृष्ठों में भी जन प्रतिरोध को व्यक्त करते अशोक भौमिक, पिकासो आदि के कुछ ऐसे चित्र हैं जो हमें संस्कृति के विभिन्न आयामों से जोड़ते हैं।

पिछले दो दशकों में धर्म और संस्कृति की राजनीति करने वाले संगठनों ने देशवासियों को बहुत बड़े धोखे दिये हैं। उन्होंने देश के अल्पसंख्यकों के विरुद्ध न केवल हिंसक अभियान चलाये अपितु भारतीय संस्कृति के नाम पर इतिहास और परम्परा को इस तरह तोड़–मरोड़ कर विकृत और विरूपित कर दिया कि उनकी असली और बुनियादी पहचान कहीं अँधेरे में विलुप्त हो गयी। हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स की तर्ज पर उन्होंने देश के कॉरपोरेट घरानों की अकूत आर्थिक मदद के जरिये मीडिया पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया, सूचना–प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग करके आईटी सेल खड़े किये गये, जिनके द्वारा सहस्त्रमुखी नागकन्या द्वारा विष–प्रसार की तरह अहर्निश झूठ को फैलाया गया। सम्पादक राणा प्रताप ने इसीलिए अपने सम्पादकीय का शीर्षक ‘संस्कृति की राजनीति’ दिया है। वे कहते हैं कि “आप भले ही जितना नाक–भौं सिकोड़ें, संस्कृति की राजनीति से आप बच कर नहीं चल सकते। या तो आप भाड़े के टट्टू बनकर सांस्कृतिक उद्योग–जगत से जुड़ेंगे या स्वतंत्र होकर जन–गण के गीत गायेंगे। बीच का कोई रास्ता नहीं होता। यही कारण है कि संस्कृति को छुई–मुई बताने वाले कलावादियों की चीख–पुकार अब बेअसर होने लगी है।”

कथान्तर के इस विशेषांक में जो आलेख हमारे अद्यतन ज्ञान को समृद्ध करने और चेतना को झकझोरने का काम करते हैं उनमें जितेन्द्र भाटिया के आलेख ‘टेक्नोलोजी, जनसंस्कृति और साहित्य’ से शुरुआत की जा सकती है। वे लिखते हैं कि “दरअसल टेक्नोलोजी के विश्वव्यापी हल्ले के बीच हम कई बार यह मानने की भूल कर बैठते हैं टेक्नोलोजी की आधारशिला पर ही संस्कृति का विकास और फैलाव हो रहा है। इस भूल के पीछे कहीं टेक्नोलोजी को संस्कृति से ऊँचा दर्जा देने का भाव भी होता है, कुछ उसी तरह जैसे साहित्य की सौन्दर्यवादी तहजीब में कई बार भाषिक शिल्प को रचना के मूल कथ्य या उसके सामाजिक सरोकार से अधिक महत्वपूर्ण मान लिया जाता है।” उनका मानना है कि विज्ञान और तकनीक का अपना निरपेक्ष चरित्र भासित होते हुए भी, यह चिन्तनीय है कि पिछली कई सदियों से टेक्नोलोजी का वर्ग–चरित्र न सिर्फ उसके पूँजी अथवा उपभोक्ताधर्मी सरमाएदार आकाओं के वर्ग चरित्र का ही पर्याय बनता चला गया है। जिस उपभोक्ता संस्कृति का व्यापक प्रचार और प्रसार आज की टेक्नोलोजी कर रही है, उसके प्रतिवेदनों की महीन छपाई या कि ‘फाइन प्रिण्ट’ में स्थानीय उद्यमों और जन–संस्कृति से जुड़े कार्यकलापों के आमूल विनाश का ‘मास्टर प्लान’ भी मुकम्मल और अनिवार्य रूप से शामिल है। जितेन्द्र भाटिया विज्ञान और टेक्नोलोजी के इस मनुष्य और प्रकृति विरोधी हिंसक दमन और खतरनाक उपयोग से चिन्तित होते हुए भी उम्मीद करते हैं कि ‘जादुई यथार्थ’ के लेखकों–– बूरमैन, अलेन्दे, मारखेज और हमारे अनेकानेक रचनाकर्मियों के जादुई सपने हमें परिवर्तन के लिए प्रेरित करते हैं। जितेन्द्र भाटिया मानव और पर्यावरणधर्मिता को जन संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष मानते हैं।

अफ्रीकी लेखक अमिल्कर कबराल, न्यूयार्क में 1970 में आयोजित एक स्मृति सभा में ‘राष्ट्रीय मुक्ति और संस्कृति’ विषय पर बोलते हुए कहते हैं कि उपनिवेशवादी शासक, शोषण और दमन पर टिके रहने के लिए संस्कृति का उपयोग एक अस्त्र की तरह करते हैं। वे उपनिवेश की जनता के एक हिस्से को अपनी औपनिवेशिक भाषा और संस्कृति में समाहित करके गुलाम बुद्धिजीवियों का एक समूह तैयार करते हैं जो स्वयं को अपने ही देश की जनता के मुकाबले सांस्कृतिक दृष्टि से श्रेष्ठ समझने लगते हैं, अपने देशवासियों के सांस्कृतिक मूल्यों की या तो अवहेलना करने लगते हैं या उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखने लगते हैं। वे कहते हैं कि राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में व्यापक सामाजिक स्तरों पर, जनता का सक्रिय और रचनात्मक प्रतिरोध उनके लिए एक नयी जन संस्कृति की दिशा में बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है। वे बताते हैं कि “वह जमाना बीत गया, जब अफ्रीकी जनता की सांस्कृतिक परिपक्वता साबित करने के लिए तरह–तरह की दलीलों की जरूरत पड़ती थी।” औपनिवेशिक प्रभुत्व के बावजूद अफ्रीका इस मामले में सफल हो सका कि वह अपने सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति लोगों के अन्दर सम्मान पैदा कर सका। कला के क्षेत्र में, सृष्टिशास्त्र में, संगीत तथा नृत्य में, धर्म के क्षेत्र में और आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक संरचना में गतिशील सन्तुलन बनाने के मामले में हर जगह अफ्रीकियों को रचनात्मक सफलता मिली है। अमिल्कर कबराल अपने भाषण के अन्त में साम्राज्यवादी संस्कृति के मुकाबले जन सांस्कृतिक–प्रतिरोध की एक वैकल्पिक अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, जिसके आधार पर अफ्रीकी जनता ने जीवन के हर क्षेत्र में सांस्कृतिक हस्तक्षेप के रास्ते निर्मित किये।

इस अंक में अफ्रीका, नेपाल समेत तीसरी दुनिया के विशेषज्ञ और जनपक्षधर पत्रकार आनन्द स्वरुप वर्मा के उस व्याख्यान की मोहित पुण्डीर द्वारा ट्रान्स्क्राइब संक्षिप्त प्रस्तुति है, जिसे उन्होंने ‘सामाजिक बदलाव और संस्कृति’ शीर्षक से 4 मई, 2023 को देहरादून में प्रो– लाल बहादुर वर्मा के दूसरे स्मृति–दिवस के अवसर पर दिया था। वे स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में, जहाँ वर्ग–विभाजित समाज है, संस्कृति भी दो प्रकार की होती है, एक संस्कृति शासन करने वाले शोषक वर्ग की और दूसरी संस्कृति उस शोषित उत्पीड़ित जनता की, जिन पर राज किया जाता है। इतिहास हमें बताता है कि इन दोनों संस्कृतियों के बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। इसी संघर्ष में उत्पीड़ित वर्ग अपनी आजादी को हासिल करने की तरफ बढ़ता है। अपने देश के सांस्कृतिक परिवेश के बारे में उनका मानना है कि “लम्बे समय तक उपनिवेश होने और अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होने की दिशा में कोई सचेत प्रयास न होने की वजह से हमारा पूरा तंत्र, मीडिया, बौद्धिक समुदाय मोटे तौर पर यूरोसेंट्रिक –––पश्चिमोन्मुख बन गया। यही वजह है कि हमारे–आपके पास अमरीका और यूरोप के साहित्य और राजनीति की जितनी जानकारी होती है उसकी तुलना में नेपाल, भूटान जैसे पड़ोसी देशों और दक्षिण एशिया के अन्य देशों की जानकारी नहीं के बराबर होती है।” प्रतिरोध की संस्कृति पर केन्द्रित अपने व्याख्यान में डा– वर्मा ने कहा कि आज प्रतिक्रियावादी संस्कृति जन संस्कृति पर हावी होती जा रही है। ऐसे समय में सभी जन संस्कृति कर्मियों को इतिहास चेतना से लैस होकर वर्तमान समय के कार्यभार को समझना बेहद आवश्यक है। वे नेपाल और अफ्रीका के उन छोटे–छोटे जन–प्रतिरोधों के विवरण देते हैं जिन्होंने नेपाल में राजशाही के विरुद्ध लोकशाही और अफ्रीका में औपनिवेशिक शासन द्वारा, दमन और अपसंस्कृति के प्रसार के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी मुक्ति आन्दोलन की सर्वव्यापी ऊँचाई ग्रहण कर ली। इन आन्दोलनों में सांस्कृतिक प्रतिरोध की उपस्थिति ने राजनीतिक आन्दोलन को तीव्र और प्रभावी बनाने में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया।

इस अंक में बहुत कुछ ऐसा है, जिसने संस्कृति–केन्द्रित बहस को एक नये और आवश्यक साहित्यिक–सामाजिक चैराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है। एक ऐसा चैराहा, जहाँ पर कबीर अपनी खंजरी हाथ में उठाये एक नये सांस्कृतिक जागरण के लिए चेतावनी दे रहे हैं, नागार्जुन नये युग के लिबरेटर युवा संस्कृति कर्मियों के जूते चमका रहे हैं, उनका चुम्बन ले रहे हैं और मुक्तिबोध अपनी अधूरी छूट गयी सांस्कृतिक मुहिम के लिए नये शब्दों और भाषा की तलाश में जुटे हुए दिख रहे हैं। ‘हिंसा बरक्स कला’ शीर्षक आलेख में गोपाल नायडू कहते हैं कि वर्तमान राज्यसत्ता ने न केवल राजनीतिक मोर्चे पर, अपितु सांस्कृतिक मोर्चे पर भी हिंसक बाना पहन लिया है। धर्म न केवल विधर्मियों के लिए बल्कि अपने ही अनुयाइयों के प्रति भी बर्बर रूप धारण कर चुका है। वे कहते हैं कि प्रभु वर्ग उन लेखकों, पत्रकारों, कवियों, इतिहासकारों, कलाकारों और खिलाड़ियों को राष्ट्र विरोधियों और आतंकवादियों की श्रेणी में आरोपित कर रहा है, जो धार्मिक कट्टरता के मुकाबले कला के स्वायत्त, यथार्थपरक, पारम्परिक और जन पक्षधरता की हिमायत करते हैं। ऐसे संस्कृतिकर्मियों को वह झूठे मुकदमे बनाकर जेल की काली सलाखों के पीछे ठेल देता है या फिर योजनाबद्ध ढंग से उनकी हत्या करवा देता है। इसके बावजूद प्रभु वर्ग के विरुद्ध सांस्कृतिक प्रतिरोध निरन्तर बढ़ रहा है। उनका मानना है कि प्रतिरोध की कला उत्पीड़ित लोगों के हीनता बोध को दूर करती है और वहीं स्वाभिमान की अलख जगाती है। चेतना को विकसित करती है। राज्य की हिंसा और जनता द्वारा आतताइयों के खिलाफ हिंसा में फर्क बताते हुए वे भगत सिंह के एक उद्धरण से अपने लेख की शुरुआत करते हुए लिखते हैं कि ऐसी हिंसा को जन–हिंसा की रचनात्मक कार्रवाई समझना चाहिए। उनका मानना है कि “यह तो तय है कि कला, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों और द्वन्द्वों के प्रतीकों का ‘युद्ध स्थल’ है।” एक और आलेख जो इस अंक में कुछ नया जोड़ता है, वह है–– प्रकाश चन्दायन का ‘शब्द–भाषा, संस्कृति–समाज की छिटपुट पहचान’। वे अनेक ऐतिहासिक और समकालीन समाजों में भाषा की वर्गीय भिन्नता और स्वरुप के अनेक उदाहरण देकर इस यथार्थ परिप्रेक्ष्य को सामने लाते हैं कि जिस तरह शासकों और अभिजात्य वर्गों की भाषा में मेहनतकश जनता के लिए नफरत की एक आन्तरिक शब्दावली होती है, शोषित वर्ग के समूहों और उनके लेखकों, कवियों और संस्कृति कर्मियों की भाषा में भी प्रतिरोध की आवाज सुनाई देती है। इस भाषा का विकास ही प्रतिरोध की संस्कृति को जन संस्कृति के रूप में ढालता है। नारायण सिंह ने भी अपने आलेख ‘भाषा और संस्कृति पर कुछ विचार’ में लिखा है कि ‘भाषा अपने साथ बोलने वालों की संस्कृति भी लेती चलती है–– ‘हमारे बोल सकने से /सभी डरते हैं इसलिए वे हमें भाषा देते हैं /ताकि हम वही बोलें/जो उनकी भाषा में मुमकिन हो।”

‘सांस्कृतिक मोर्चे के बारे में’ ऋत्विक घटक का आलेख वर्तमान सांस्कृतिक परिवेश में केवल गहरी चिन्ता ही व्यक्त नहीं करता, बल्कि प्रतिबद्ध कलाकर्मियों के लिए सांगठनिक प्रक्रिया को जन संस्कृति की अपरिहार्य जरूरत बताते हुए कहता है कि ‘हम लोग जो स्वयं को जन संस्कृति या प्रतिरोध की संस्कृति के प्रतिनिधि मानते हैं लगातार लू शुन की व्यंग्योक्ति ‘सैलून सोशलिस्टों’ की पंक्तियों में शामिल होते जा रहे हैं। पिछले चार सालों में हमारी तरफ से कोई ढंग की कलात्मक रचना पेश नहीं की गयी है, इस दौरान हम ‘बहसबाजी’ में सबसे आगे हैं, हम यानी कम्युनिस्ट कलाकार।’ वे इस बात पर चिन्तित हैं कि साहित्यिक संगठनों की बागडोर गैर लेखकों के हाथों में होती है और लेखक पार्टी से दूरी बना रहे हैं। उनका मानना है कि ‘जो कलाकार मजदूरों और किसानों के बीच से आयेंगे, अगर उनको आगे बढ़ाया जाये और शोहरत से बचाकर रखा जाये तो हम आखिरी मंजिल तक संघर्ष में साथ रहेंगे।’

इस विशेषांक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें एक ओर संस्कृति की सैद्धान्तिकी को विश्लेषित करने वाले आलेख, ‘संस्कृति’–– फ जार्ज एन डेविस, ‘संस्कृति अधिरचना का एक तत्व’–– ई एम एस नम्बूदरीपाद, ‘संस्कृति और फासिज्म’–– रामविलास शर्मा, ‘साम्राज्यवादी संस्कृति’–– विजय गुप्त, नव जनवाद की संस्कृति‘–– माओ त्से–तुंग हैं तो प्रतिरोध की संस्कृति के व्यावहारिक सवालों से टकराने वाले आलेख–– ‘वामपंथी लेखकों के संगठन पर विचार’ के साथ–साथ भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के जन पक्ष को उद्घाटित करने वाले आलेख भी हैं–– ‘भारत में बौद्ध संस्कृति बनाम ब्राह्मण संस्कृति’–– तुषार कान्ति, ‘आजीवक’–– ओ पी जायसवाल, ‘आदिवासी प्रतिरोध’–– अनुज लागुन, ‘दोस्तोवस्की से गोर्की तक’–– दीपांजन सिन्हा, ‘सिनेमा में मौन–मुखर प्रतिरोध की संस्कृति’–– विजय शर्मा आदि।

अन्त में गार्गी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और जन कवि मंगलेश डबराल द्वारा अनूदित संग्रह–– ‘अफ्रीकी कविताएँ’ की शैलेन्द्र शान्त द्वारा की गयी समीक्षा है। संग्रह में अफ्रीकी महाद्वीप के विभिन्न देशों के कवियों की 60 कविताएँ संकलित हैं। इन कविताओं में दर्द से कराहते अफ्रीकी गुलामों के आर्तनाद हैं, कराहें हैं और नयी करवट लेती जिन्दगी की उमीदें भी जन्म ले रही हैं। कबराल की कविता ‘वापसी’ का एक अंश है–– ‘मेरे साथ आओ, बूढ़ी अम्मा, आओ/अपनी ताकत जुटाओ दरवाजे तक आने के लिए /दोस्त बारिश आ पहुँची है तुम्हारी अगवानी के लिए /और धड़क रही है मेरे हृदय में’।

 ‘कथान्तर’ के इस विशेषांक से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि यह प्रतिरोध की संस्कृति में आ गये एकांगीपन और ठहराव को तोड़ने का काम करेगा, इसके साथ–साथ जन पक्षधर रचनाकर्मियों के बीच चलने वाली बहसों में इस मुद्दे को एक जरूरी सवाल बनाने का काम भी हर हाल में करेगा।

Leave a Comment

लेखक के अन्य लेख

राजनीति
सामाजिक-सांस्कृतिक
व्यंग्य
साहित्य
समाचार-विचार
कहानी
विचार-विमर्श
श्रद्धांजलि
कविता
अन्तरराष्ट्रीय
राजनीतिक अर्थशास्त्र
साक्षात्कार
अवर्गीकृत
जीवन और कर्म
मीडिया
फिल्म समीक्षा