अकबर इलाहाबादी : जो अक्ल को न बढ़ाये वो शायरी क्या है
(जन्म 16 नवम्बर 1846 – निधन 15 फरवरी 1921) इलाहाबाद का जिक्र हो और इलाहाबादी अमरूद और अकबर इलाहाबादी याद न आयें, यह सम्भव ही नहीं। इलाहाबाद, अमरूद और अपने बारे में कमाल की गर्वोक्ति की है अकबर इलाहाबादी ने, कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद1 के याँ धरा क्या है बजुज2 ‘अकबर’ के और अमरूद के (1– भलाई 2– सिवाय) अमरूद और अकबर जैसे एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। बनावट में भी और स्वाद में भी। अमरूद की सारी सिफत अकबर की शायरी में मौजूद है। कठोरता और कोमलता, चिकनाई और खुरदुरापन, मिठास और खटास, सरसता और तिक्तता। जैसे–– अमरूद कई विरोधी स्वादों का खजाना है, वैसे ही अकबर की शायरी कई विपरीत गुण–धर्मों का जखीरा है। वहाँ जिन्दगी है तो मौत की सर्द आहट भी है। सुन्दरता है तो कुरूपता भी है। अच्छाई और बुराई के बीच एक मुसलसल लड़ाई भी है। नेकी है तो बदकारी भी है।… आगे पढ़ें
अव्यवसायिक अभिनय पर दो निबन्ध –– बर्तोल्त ब्रेख्त
(1) सर्वहारा अभिनेता के बारे में एक–दो बातें सर्वहारा अभिनेता के बारे में सबसे पहले जो बात प्रभावित करती है वह है उसके नाटक खेलने की सादगी। सर्वहारा अभिनेता से मेरा मतलब न तो सर्वहारा मूल के बुर्जुआ थिएटर के अभिनेता से है और न ही बुर्जुआ अभिनेता से जो सर्वहारा के लिए अभिनय कर रहा है, बल्कि मेरा मतलब एक ऐसे अभिनेता से है जो एक सर्वहारा है और बुर्जुआ अभिनय स्कूल में नहीं गया और न ही किसी ऐसी पेशेवर संस्था से जुड़ा हुआ है। इसे मैं नाटक खेलने की सादगी कहता हूँ। वह सादगी ही मुझे सर्वहारा अभिनय की मूल तत्व लगती है। मैं तुरन्त स्वीकार कर लेता हूँ कि मैं किसी भी तरह से साधारण अभिनय को वास्तव में अच्छा नहीं मानता या किसी भी सरल चीज को पसन्द नहीं करता। मैं अप्रशिक्षित या अपर्याप्त प्रशिक्षित लोगों के उत्साह से खुद–ब–खुद प्रभावित नहीं होता… आगे पढ़ें
असरार उल हक ‘मजाज’ : ए गमे दिल क्या करूँ
(जन्म 19 अक्टूबर 1911 – निधन 5 दिसंबर 1955) मजाज का कवि व्यक्तित्व फूल और आग का मिश्रण है। इस मिश्रण में फूल अधिक हैं, जो दुनिया को मिले, लेकिन आग ने मजाज के दिल में ही घर बनाया और उसने सिर्फ मजाज को ही जलाया। ‘हुस्न–ओ–इक’ नज्म में वह लिखते हैं कि, मुझसे मत पूछ तिरे इक में क्या रक्खा है? सोज को साज के परदे में छुपा रक्खा है जगमगा उठती है दुनिया–ए–तखैयुल1 जिससे दिल में वो शो’ला–ए–जाँसोज2 दबा रक्खा है (1– कल्पनाओं की दुनिया 2– जान जला देने वाला शोला) जान को जला देने वाले शोलों से उनकी कल्पना और कविता की दुनिया रौशन थी। वह जानते थे कि आग से फूलों का बाग नहीं बनाया जा सकता। इस गुस्ताख कोशिश में जाने कितने पैगंबर खाक हो चुके हैं। अपनी नज्म ‘फिक्र’ में वह कहते हैं, आग को किसने गुलिस्ताँ न बनाना चाहा जल बुझे कितने… आगे पढ़ें
इब्ने इंशा : ख़ामोश रहना फ़ितरत में नहीं
(एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बदनाम हुए) व्यंग्य का तीर वही तीरन्दाज़ चला सकता है, जो अपने तर्इं ईमानदार हो, जो ज़िन्दगी की आग में जलकर खरा सोना बना हो और जिसका हर तीर निशाने पर लगता हो। उर्दू के ऐसे ही विख्यात कवि और व्यंग्य रचनाकार हैं–– इब्ने इंशा। उन्होंने हमेशा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अन्याय और ग़ैरबराबरी के ख़्िालाफ़ लड़ाई लड़ी है। उनका घराना मीर, कबीर, नज़ीर का है। उन्हीं की तरह इंशा समाज के सुख–दु:ख, हँसी–आँसू, आनन्द और पीड़ा से बावस्ता रहे। मनुष्य की स्वतंत्र चेतना और स्वाभिमान के वह प्रबल पक्षधर रहे। उनके पाँवों में ‘सनीचर’ था। वह घूमते रहे। घाट, मैदान, नदी, पहाड़ लाँघते रहे। अपनी भाषा को लगातार माँजते रहे, धारदार और मारदार बनाते रहे। उनकी मारक भाषा पाठक को तिलमिला कर रख देती है। ग़ुस्से, चिढ़ और ज़िद से भरी भाषा को इब्ने इंशा कलात्मकता और सहजता के साथ अपने पढ़ने–सुनने वालों… आगे पढ़ें
औपनिवेशिक सोच के विरुद्ध खड़ी अफ्रीकी कविताएँ
–– भगवान स्वरूप कटियार, ‘अफ्रीकी कविताएँ’ नाम से गार्गी प्रकाशन से प्रकाशित अफ्रीकी कविताओं की यह किताब कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। पहली बात यह किताब मंगलेश डबराल जैसे बड़े और संवेदनशील कवि की अनुपस्थिति के सूनेपन को भरने की कोशिश करती है। इस किताब के प्रकाशन की योजना समकालीन तीसरी दुनिया के सम्पादक और अफ्रीकी विषयों के विशेषज्ञ आदरणीय आनन्द स्वरूप वर्मा की पहल पर लोकप्रिय–प्रगतिशील कवि मंगलेश डबराल और गार्गी प्रकाशन के कर्ता–धर्ता दिगम्बर के साथ बनायी गयी थी। जाहिर है अनुवाद का महत्वपूर्ण काम मंगलेश को ही करना था। अफ्रीकी देशों के कवियों का चयन आनन्द स्वरूप वर्मा, मंगलेश और दिगम्बर ने किया। मंगलेश ने चयन और अनुवाद का काम बड़ी मेहनत और लगन से किया। वह कविता के मर्मज्ञ थे ही। आनन्द जी ने न सिर्फ उन्हें इस काम के लिए प्रोत्साहित किया बल्कि यथासम्भव कविताओं के प्रसंगों और सन्दर्भों को लेकर भरपूर सहयोग भी किया।… आगे पढ़ें
किसान आन्दोलन : समसामयिक परिदृश्य
(समय इस तरह का आ गया है) –– सुरजीत पातर पद्मश्री सम्मान वापिस करते समय मन में कई तरह की उधेड़बुन होती है। सम्मान प्राप्त करते समय के पूर्व–दृश्य मन में चलते हैं। मन में दुख और रोष होता है। जिसे सम्मान वापिस कर रहे होते हैं उसे हम अपने… आगे पढ़ें
केन सारो–वीवा : संघर्ष और बलिदान गाथा
रंगभेद और उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने वाले दक्षिण अफ्रीका और अफ्रीकी महाद्वीप के नेता, नेल्सन मण्डेला जेल से रिहा होने के बाद पहली बार 1995 में न्यूजीलैण्ड के ऑकलैण्ड शहर में राष्ट्रमण्डल देशों के सम्मेलन को सम्बोधित कर रहे थे। ठीक उसी समय अफ्रीका के ही सुदूर–पश्चिम के प्राकृतिक संसाधनों… आगे पढ़ें
कोरोना महामारी के समय ‘वेनिस का सौदागर’ नाटक की एक तहकीकात
(16वीं सदी में विलियम शेक्सपियर ने वेनिस का सौदागर (द मर्चेंट ऑफ वेनिस) नाटक की रचना की थी। यह नाटक कितना लोकप्रिय हुआ, इसका अंदाजा लगाने के लिए इतना कहना ही काफी है कि दुनिया की कई भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है और अपनी रचना काल से अब तक इसका दुनिया भर में अनगिनत बार मंचन किया जा चुका है। कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन जारी है। इस समय का फायदा उठाते हुए लेखक ने इस विश्व प्रसिद्ध और कालजयी रचना पर अपने चन्द शब्द लिखे हैं। इसके माध्यम से यहाँ 21वीं सदी की दो मुख्य परिघटनाओं पर भी जोर दिया गया है पहला, वित्तीयकरण जिसे सूदखोरी का ही उन्नत रूप कहा जा सकता है और दूसरा, साम्प्रदायिकता और नस्लवाद। कोरोना महामारी से भी ये परिघटना कहीं न कहीं गहराई से जुड़ती है, जिसका यहाँ केवल संकेत भर किया गया है।) बस्सानियो मौजमस्ती में व्यस्त अमीर घराने का… आगे पढ़ें
खामोश हो रहे अफगानी सुर
–– प्रो. कृष्ण कुमार रत्तू वतन इश्के तूं इछतेखारम उपरोक्त फारसी गीत का अर्थ है, “अपने प्यारे देश पर मुझे मान है।” 1970 के दशक में जब फारसी भाषा–भारत के सुप्रसिद्ध गायक अब्दुल वहाब मदादी ने इसे लिखा तो एक उत्कृष्ट रचना के तौर पर पूरे देश में गाया जाता था।… आगे पढ़ें
जनतांत्रिक समालोचना की जरूरी पहल – कविता का जनपक्ष (पुस्तक समीक्षा)
–– रामकिशोर मेहता सुप्रसिद्ध कवि–आलोचक शैलेन्द्र चैहान की एक महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तक ‘कविता का जनपक्ष’ प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में जनपक्षीय आलोचना और इस परम्परा के कवियों पर गम्भीरता से विवेचन किया गया है। आलोचक बहुत बार रचनात्मक लेखक और पाठक के बीच की बड़ी आवश्यक कड़ी होता है। वह लेखक के मन्तव्यों को खोलता है, पाठकों तक लेकर जाता है। वह लेखन की खूबियों को बहुविध समझाता है और खामियों को इंगित कर लेखक का पथ प्रशस्त करता है। वह ‘अन्तर हाथ सहार दे बाहर बाहे चोट’ की कला का मालिक है। एक अच्छा आलोचक रचनाकार का मित्र होता है। उसे ‘आँगन कुटी छवाय’ रखा जाना चाहिए। कई बार आलोचक रचना को वह अर्थ भी देता है जो रचनाकार को स्वयं भी मालूम नहीं होते। लेखक बहुत बार यह कह कर आलोचना से बचने का प्रयत्न करते हैं कि उनका लेखन ‘स्वान्त: सुखाय’ है। हर लेखन ‘स्वान्त: सुखाय’… आगे पढ़ें
जोश मलीहाबादी : अंधेरे में उजाला, उजाले में अंधेरा
शब्बीर हसन खाँ के जोश मलीहाबादी बनने की कहानी एक भरे–पूरे, आसमान छूते पहाड़ के टूटने और बिखरने की कहानी है। जिन्दगी के आखिरी दिनों के असह्य दु:ख, उपेक्षा और जानलेवा एकान्त के बीच जब जोश अतीत के सुख भरे पलों को याद करते हैं तो मानो आह भरते हैं,… आगे पढ़ें
नजीर अकबराबादी : जनता और जमीन का शायर
जन्म 1735 – निधन 1830 नजीर अकबराबादी सिद्ध और सच्चे हिन्दुस्तानी कवि हैं। बिलकुल धूप की तरह उजले, मिट्टी की तरह गीले, पहाड़ की तरह ऊँचे, बरछी की तरह नुकीले और बहार की तरह रंगीले। उन्होंने आदमी और चीजों की असलियत कुछ इस तरह से बयाँ की है कि दिल छलनी–छलनी हो जाता है। एक तर्जे बयाँ देखिए–– याँ आदमी पे जान को वारे है आदमी और आदमी पे तेग को मारे है आदमी पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी और सुन के दौड़ता है सो है वह भी आदमी (आदमीनामा) कविता के इतिहास में नजीर लोककवि की हैसियत रखते हैं। उनका पूरा वजूद जैसे मिट्टी, हवा, पानी और आग से बना हुआ है। वह मिट्टी के, यानी धरती के कवि हैं। पानी की चमक से भरे हुए पानीदार और हवा की तरह आजाद खयाल और आग की तासीर से भरे हुए।… आगे पढ़ें
निशरीन जाफरी हुसैन का श्वेता भट्ट को एक पत्र
2002 के गुजरात दंगे में मारे गये पूर्व सांसद एहसान जाफरी की बेटी निशरीन जाफरी हुसैन ने पूर्व आईपीएस संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट को एक पत्र लिखा है। इसमें उन्होंने मौजूदा भारत और उसके लोगों की स्थितियों की नंगी सच्चाई का बयान किया है। अंग्रेजी में लिखे गये पत्र का अनुवाद जनचैक ने प्रकाशित किया है। प्रिय श्वेता संजीव भट्ट, भारत में न्याय और मानवाधिकारों के लिए लड़ाई एक लम्बी और अकेली लड़ाई है। एक बार तीस्ता सीतलवाड़ ने एक साक्षात्कार में इस बात का जिक्र किया था और फिर उनके वाक्य की गहराई को समझने के लिए मैंने हफ्तों प्रयास किया। मैं यह अकेलापन पहले दिन से ही महसूस करने लगी थी लेकिन मैं नहीं जानती थी कि कैसे इसको जाहिर करूँ। इसलिए मुझे बताने दीजिए कि आपके पति ने जो रास्ता चुना है वह कितना अकेला है और आगे यह आपके, आपके बच्चों और परिवार के… आगे पढ़ें
फासीवाद के खतरे : गोरी हिरणी के बहाने एक बहस
–– जयपाल पंजाब के विख्यात साहित्यकार डॉ गुलजार सिंह सन्धू के उपन्यास ‘गोरी हिरणी’ की साहित्य जगत में आजकल काफी चर्चा है। मूल रूप से पंजाबी में लिखा गया यह उपन्यास पहले अंग्रेजी और अब हिन्दी में अनुदित हुआ है। प्रकाशक दिगम्बर (गार्गी प्रकाशन) के अनुसार पाँच महीने में ही इसकी सारी प्रतियाँ बिक चुकी हैं और बहुत जल्द ही इसका दूसरा संस्करण आ रहा है। खुद गुलजार सिंह सन्धु ने कहा कि इसके पंजाबी और अंग्रेजी संस्करणों को इतनी लोकप्रियता नहीं मिली जितनी कि हिन्दी संस्करण को। पिछले दिनों विश्व पुस्तक मेला–– दिल्ली, देहरादून, अम्बाला, बठिण्डा और समराला में इस उपन्यास पर पाँच समीक्षात्मक गोष्ठियाँ हुर्इं। इस बहस में लेखक और अनुवादक दोनों के साहित्यिक प्रयास को खूब सराहा गया। उपन्यास को एक ऐतिहासिक उपन्यास बताते हुए कहा गया कि यह रचना फासीवादी तानाशाह को कटघरे में खड़ा करती है और सामाजिक ढाँचे पर उसके दीर्घकालिक दुष्प्रभाव को बहुत… आगे पढ़ें
फिराक गोरखपुरी : जिन्दा अल्फाजों का शायर
(28 अगस्त 1896 – 3 मार्च 1982) फिराक गोरखपुरी जिन्दा अल्फाजों के महान शायर हैं। अल्फाज उन्हें रचते हैं और वह अल्फाजों को गढ़ते हैं। रचने और गढ़ने की अद्भुत जादूगरी ही कविता है। कविता या शायरी बैठे–ठाले का खेल नहीं, न ही जोड़–घटाव, गुणा–भाग का बहीखाता। कविता तो मृत्यु के पंजे से जीवन को खींच लाना है, विष को अमृत में बदलना है। शिव का विष–पान तो सुना होगा मैं भी ऐ दोस्त, पी गया आँसू विषपायी होता है कवि और कविता निरन्तर बहती हुई जीवन की धारा। अविकल जीवन–धारा की केन्द्रीय शक्ति हैं–– अल्फाज और जबान। शब्द और भाषा। विश्व प्रसिद्ध दागिस्तानी लेखक रसूल हमजातोव ने लिखा है कि, “दुनिया में अगर शब्द न होता, तो वह वैसी न होती, जैसी अब है। भाषा–ज्ञान के बिना कविता रचने का निर्णय करने वाला व्यक्ति उस पागल के समान है, जो तैरना न जानते हुए नदी में कूद पड़ता है।”(1)… आगे पढ़ें
फैज : अँधेरे के विरुद्ध उजाले की कविता
विद्रोह फैज का सहज स्वभाव है। उनकी जिन्दगी और शायरी इसका प्रमाण है। जब उन्होंने अंग्रेज लड़की एलिस से मुहब्बत और शादी की तो रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी। शायरी में भी फैज ने बने बनाये नुक्तों को तोड़ा और नयी जमीन तैयार की। शायरी की रवायत से उन्होंने हुस्नो–इश्क लिया और उसे अपने रंजो–गम से मिलाकर वक्त के सफों पर अपने खून से जमाने का दर्द लिखा। मताअ–ए–लौहो कलम छिन गयी तो क्या गम है कि डूबो ली हैं खूने दिल में अँगुलियाँ मैंने कविता के साथ फैज का रिश्ता खून का रिश्ता है। जैसे खून बेवजह नहीं बहाया जा सकता, उसी तरह कविता भी बेवजह नहीं हो सकती। अपने पहले कविता संग्रह ‘नक्श–ए–फरियादी’ में उन्होंने लिखा है, “शेर लिखना जुर्म न सही लेकिन बेवजह शेर लिखते रहना दानिशमन्दी भी नहीं।” कविता उनके लिए गहरे सामाजिक सरोकार की चीज है, जिन्दगी और जहान को बदल देने का… आगे पढ़ें
बाँध भँगे दाओ
(हिन्दी के जाने–माने साहित्यकार रांगेय राघव 1943 में बंगाल के अकाल की रिपोर्टिंग और राहत कार्य के लिए अपने अन्य युवा साथियों के साथ वहाँ गये थे! प्रस्तुत है उस यात्रा के बारे में उनका उत्कृष्ठ रिपोर्ताज जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज के समान है।) रेल रुक गयी। हम लोग बेहद फुर्ती से सामान उतारने लगे। एक बक्स, एक बिस्तर, दरवाजों के बड़े–बड़े बक्स–– सब कुल एक–डेढ़ मिनट में। भुइयाँ लम्बी–लम्बी साँसें लेता हुआ मुस्कराता जाता था। वह अपनी असमी उच्चारण की अंग्रेजी में कहने लगा—सब उतार लिया! सब! मगर गाड़ी तो अभी तक खड़ी है! जसवन्त अभी तक अदद गिन रहा था। उसने एकाएक ही सर उठाकर कहा–– अरे हाँ, गाड़ी तो अभी तक खड़ी है। हम चारों ने देखा, खिड़की पर खड़े वृद्ध महाशय बार–बार अपनी गलती के लिए क्षमा माँग रहे थे। उन्होंने कहा था, गाड़ी यहाँ केवल एक मिनट रुकेगी। सब हँस पड़े। गाड़ी चली गयी, ठीक… आगे पढ़ें
बड़ों के दुख की बच्चों पर छाया
हिन्दी गोबरपट्टी का आज भी यह सौभाग्य है कि जब बड़े–बड़े मीडिया घरानों ने हिन्दी की व्यावसायिक पत्रिकाएँ लगभग बन्द कर दी हैं और जब अंधविश्वासी– साम्प्रदायिक सोच चरम पर है, तब भोपाल से बच्चों की दो गैर व्यावसायिक और महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं–– ‘चकमक’ और ‘साइकिल’। ‘चकमक’ मासिक है जबकि ‘साइकिल’ द्वैमासिक। ‘साइकिल’ के प्रकाशन के अभी छह वर्ष हुए हैं और ‘चकमक’ का अप्रैल अंक उसका 451वाँ अंक है यानी यह पत्रिका लगभग 37 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। इसे मेरे बच्चों ने भी पढ़ा है, जो अब चालीस से अधिक उम्र के हैं। ‘चकमक’ हिन्दी की अब तक की इकलौती ‘बाल विज्ञान पत्रिका’ है। यह बच्चों पर विज्ञान की जानकारियों का बोझ नहीं लादती, उन्हें वैज्ञानिक सोच से लैस करने की विभिन्न विधियाँ अपनाती है। शहरी मध्यवर्ग के बच्चे तो अब अमूमन मजबूरी में ही अपने स्कूल में हिन्दी पढ़ते हैं मगर ‘चकमक’ का… आगे पढ़ें
मखदूम मोहिउद्दीन : एक दहकती हुई आग
मखदूम मोहिउद्दीन उर्दू अदब के अनोखे और बिल्कुल नयी रौशनी से भरे हुए सितारे हैं। उनकी निखरती हुई आभा हैरान करती है और बाहें फैलाकर अपने सौंदर्यपाश में बाँध लेती है। यह बन्धन हमें किसी दायरे में कैद नहीं करता बल्कि आजाद करता है। नये पंख देता है और उड़ने… आगे पढ़ें
मातीगारी : वह देशभक्त जिसने गोलियाँ झेली हैं।
‘मातीगारी’ उपन्यास न्गुगी वा थ्योंगो द्वारा गिकूयू भाषा में पहली बार 1986 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के चलते केन्या में एक तूफान खड़ा हो गया। इसे पढ़ने के बाद जो सवाल इस उपन्यास का नायक ‘मातीगारी’ दुहराता है, लोगों के जुबान पर वही सवाल घूमने लगे। लोग एक दूसरे से वही सवाल पूछने लगे। इस उपन्यास ने केन्याई समाज में उथल–पुथल मचा दिया। कुछ ही दिनों में हालत यह हो गयी कि उपन्यास का पात्र न होकर ‘मातीगारी’ वास्तविक नेता की तरह प्रसिद्ध हो गया। मातीगारी सरकार की आँखों की किरकिरी बन गया। केन्याई सरकार ने मातीगारी को गिरफ्तार करने का आदेश तक जारी कर डाला। पुलिस ने गिरफ्तारी का वारंट लेकर लोगों से पूछताछ की और मातीगारी को गिरफ्तार करने की पूरी कोशिश की। मातीगारी की असलियत जानने के बाद सरकार और पुलिस की बौखलाहट बढ़ गयी। इसके चलते ‘मातीगारी’ की प्रतियाँ दुकानों और प्रकाशनों से जब्त की… आगे पढ़ें
मिर्ज़ा ग़ालिब : फिर मुझे दीद–ए–तर याद आया
मिर्ज़ा ग़ालिब का ख़्ायाल आते ही हाथ सलाम के लिए उठता है और सिर अदब से झुक जाता है। उन्हें पढ़ते और गुनते हुए हर्फ़ की रौशनी से दिल–दिमाग़ रौशन हो उठता है। शब्द–लोक का जादू धीरे–धीरे खुलता जाता है और हम जादुई असर में बंधे हुए शब्दों का मोल… आगे पढ़ें
मीर तकी मीर : ‘पर मुझे गुफ्तगू आवाम से है’
(फरवरी 1723 – सितम्बर 1810) –– विजय गुप्त मीर की उस्तादी के बारे कोई लिखे भी तो कैसे लिखे? वहाँ तो जिन्दगी के कई रंग हैं। रंगों की कई छायाएँ हैं। युग का गर्दो–गुबार है, बवण्डर है। प्रकाश है, अन्धकार है। एक रंग पकड़ो तो दूसरा छूट जाता है। एक… आगे पढ़ें
राहुल सांकृत्यायन का विकासमान व्यक्तित्व
देश–दुनिया के वर्तमान दौर में राहुल सांकृत्यायन, लेनिन के बहुत करीब लगते हैं। दोनों का व्यक्तित्व विकासमान है। दोनों अपनी रचनाओं से अपने–अपने देश को बदलने का बीड़ा उठाते हैं। “लेनिन” पुस्तक में राहुल जी ने लिखा है–– “इतिहास में ऐसा अन्य व्यक्ति नहीं देखा गया जो इतनी सैद्धान्तिक सूझ, राजनीतिक प्रतिभा, दूरदर्शिता और इतना अदम्य साहस रखता हो। न ही कोई ऐसा राजनीतिक नेता हुआ, जो जनता के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रखता हो और जिसमें जनता विश्वास रखती हो। लेनिन सच्चे अर्थों में “असाधारण जनता” के नेता थे।” (पृष्ठ 180) जिन्होंने पाँच खण्डों में राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा–– मेरी जीवन यात्रा और जीवनियाँ–– नये भारत के नये नेता (खण्ड 1, 1942, खण्ड 2, 1942), बचपन की स्मृतियाँ (1953), अतीत से वर्तमान (प्रथम खण्ड, 1953), स्टालिन (1954), लेनिन (1954), कार्ल मार्क्स (1954), माओ–त्से तुंग (1954), सरदार पृथ्वी सिंह (1955), घुमक्कड़ स्वामी (1955), मेरे असहयोग के साथी (1956), जिनका मैं… आगे पढ़ें
लेखक संगठन आखिर आत्मालोचना से क्यों डरते हैं?
गत दो–तीन दशकों में वाम लेखक संगठनों का प्रभाव क्षीण हुआ है। उनमें कई तरह के विचलन, विभ्रम और विरूपताएँ देखने को मिल रही हैं। गत दिनों भाजपा मनोनीत एक राज्यपाल की जीवनी का सम्पादन राज्य के दो वरिष्ठ प्रगतिशील लेखकों द्वारा किया जाना इसका एक सामयिक उदाहरण है। इन लेखकों के इस कृत्य के बारे में न प्रलेस राज्य संगठन ने कोई प्रतिक्रिया या स्पष्टीकरण दिया न ही राष्ट्रीय संगठन ने। उनपर अनुशासनात्मक कार्रवाई करना तो दूर की बात है। विडम्बना यह है कि जब ये लेखक संगठन अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं तब ये अपनी कमजोरियों को अपने मौन से व्याख्यायित कर रहे हैं। ऐसे में नैतिकता की बात करना वाकई कष्टदायक है। वाम लेखक संगठनों का एक गौरवपूर्ण इतिहास है जिसे समझना सम्प्रति आवश्यक भी है और उचित भी है। प्रगतिशील लेखक संघ के जन्म के पाँच साल में ही देश की हर भाषा… आगे पढ़ें
विश्व साहित्य में महामारी का चित्रण
पिछले एक वर्ष से अधिक समय से कोविड–19 महामारी ने जीवन, समाज, साहित्य दर्शन और व्यापार सभी पर असर डाला है। बहुत सी चीजें, परिस्थितियाँ और मुद्दे पूरी तरह से बदल चुके हैं। व्यापारी अपने धंधे और मुनाफे के लिए परेशान है। कर्मचारी नौकरी के लिए, मजदूर दिहाड़ी के लिए,… आगे पढ़ें
हसरत मोहानी : उर्दू अदब का बेमिसाल किरदार
हसरत ‘मोहानी’ उर्दू के मकबूल शायर होने के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बड़े योद्धा थे। उन्होंने ऐशो–आराम की ज़िन्दगी छोड़ कर क्रान्ति की कठिन और जलती हुई राह चुनी। अपना सब कुछ होम किया और देशवासियों में ज्ञान, प्रेम और स्वाधीनता की जोत जगाई। 1857 की क्रान्ति के बाद वह पहले मुस्लिम राष्ट्रीय नेता थे जिनकी राजनीतिक गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने कठोर कारावास का दण्ड दिया। उन्होंने ही ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ का नारा बुलन्द किया और जनता–जनार्दन को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लड़ने को तैयार किया। वह अंग्रेज सरकार की चाकरी करने को पाप समझते थे। सरकार ने उन्हें कई तरह के लालच दिये। उन्होंने सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया और आजीविका के लिए साहित्य को ही चुना। वह ग़ज़लें लिखते रहे, मुशायरों में पढ़ते रहे और विभिन्न मंचों पर स्वतंत्रता की चेतना जगाते रहे। उन्होंने बहुतेरे काम किये और असफल हुएय लेकिन अपनी ज़िद पर अड़े रहे।… आगे पढ़ें
“मैं” और “हम”
मैं और मेरी पत्नी मोटर गाड़ी से सान जोक्विन घाटी के उत्तरी और पश्चिमी हिस्से में, सिंचाई की उन नहरों के किनारे–किनारे घूमे जो खेत मालिकों को सरकारी सहायता पाने में मदद करती हैं। जब कीटनाशकों से हमारा दम घुटने लगा तो हमने अफसोस जाहिर किया कि हवा अशुद्ध होने के कारण पूरब के पहाड़ों को हम देख नहीं पाये जो कोई ज्यादा दूर नहीं थे। यहाँ के फार्म और खेत बहुत बड़े और काफी मशीनीकृत हैं। जिन शोधों ने मशीनों को सम्भव बनाया वे सार्वजनिक खर्चे पर सरकारी विश्वविद्यालयों में होते हैं, जैसे कैलिफोर्निया के डेविस में–– खेत मालिकों के लिए एक और सरकारी सहायता। मजदूरी अभी भी सस्ती है एक और सरकारी सहायता जो सरकार की ओर से थोपी गयी है, जिसके लिए खेत मालिकों से मिलने वाला पैसा इतना ज्यादा होता है कि बेहतर कानून नहीं बनाये जाते और जो बने हुए हैं उनको लागू नहीं किया… आगे पढ़ें