दिल्ली सरकार की ‘स्कूल्स ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सलेंस’ की योजना : एक रिपोर्ट!
–– लोक शिक्षक मंच
पृष्ठभूमि
13 अगस्त को दिल्ली सरकार ने घोषित किया कि नवगठित दिल्ली बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन को कॉउन्सिल ऑफ बोर्डस ऑफ स्कूल एजुकेशन और एसोसिएशन ऑफ इण्डियन यूनिवर्सिटीज से मंजूरी मिल गयी है। शिक्षा मंत्री ने जो इस बोर्ड के प्रमुख भी हैं, यह भी कहा कि इण्टरनेशलन बॅकलॉरियट (आईबी) के साथ मिलकर काम करने से बच्चों के लिए ‘विश्वस्तरीय’ अवसर खुलेंगे।
द हिन्दू में 12 अगस्त को छपी एक रपट के अनुसार इस नवगठित बोर्ड ने इण्टरनेशलन बॅकलॉरियट के साथ एक समझौता किया है जिसके तहत इसी सत्र में दिल्ली सरकार के तीस स्कूलों में पाठ्यचर्या, शिक्षाशास्त्र और मूल्यांकन के क्षेत्रों में ‘वैश्विक चलन’ अपनाये जाएँगे। रपट में कहा गया कि नवगठित बोर्ड से सम्बद्ध दस सर्वोदय स्कूलों के नर्सरी से आठवीं तक के विद्यार्थी और 20 ‘स्कूल्स ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सेलेंस’ (एसओएसई, यह स्पष्ट नहीं है कि इन्हें हिन्दी में कोई नाम दिया गया है या नहीं) के नवीं से बारहवीं तक के विद्यार्थी अब उच्चतम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा पा सकेंगे। अमरीका, कनाडा, स्पेन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे ‘विकसित देशों’ की सरकारों के उदाहरण देते हुए मुख्यमंत्री ने बताया कि इण्टरनेशनल बॅकलॉरियट 159 देशों में 5,500 स्कूलों के साथ मिलकर काम कर रहा है। उन्होंने इस पहल को सबसे वंचित लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराने के मॉडल के रूप में व्याख्यायित किया। कहा गया कि आईबी के मार्गदर्शन में स्कूलों की जाँच–परख की जाएगी और उन्हें सुधारने के उपाय बताये जाएँगे, जिसमें प्रशिक्षण आदि शामिल होगा, जिससे और स्कूलों को नवगठित बोर्ड से सम्बद्ध होने की प्रेरणा मिलेगी। शिक्षा मंत्री ने बताया कि सरकार का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दिल्ली के विद्यार्थी वैश्विक नेता बनें। यह भी बताया गया कि आईबी सरकारी बोर्ड के साथ ज्ञान सहयोगी (नॉलेज पार्टनर) की तरह काम करेगा।
लोक शिक्षक मंच इन स्कूलों की संकल्पना और सिद्धान्त पर कुछ बिन्दु और प्रश्न साझा करते हुए, माँगों सहित एक बयान सार्वजनिक कर रहा है।
सिर्फ ‘कुछ’ गड़बड़ नहीं है, बल्कि ‘सब कुछ’ ही गड़बड़ है
अगर दिल्ली की, या कोई भी सरकार कुछ विशिष्ट स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाई का ‘सर्वोत्तम महौल देने का दावा करती है, तो अखिर हमें क्या समस्या हैं? हमें इस पूरी सोच से ही अनेक दिक्कते हैं, जो नीचे दर्ज हैं।
1– जब कोई सरकार अपने सभी शिक्षा संस्थानों पर बराबर ध्यान नहीं देना चाहती, तब वह इनमें से कुछ संस्थानों को चमकाकर वाहवाही लूटने की राजनीति करती है। प्रतिभा विद्यालय भी तो इसी राजनीति का हिस्सा थे जिनमें स्कूलों से बच्चों को छाँटकर ले जाया जाता था और उन्हें ‘बढ़िया’ शिक्षा दी जाती थी। मतलब, क्या सरकार खुद यह स्वीकारती है कि वह अपने सभी स्कूलों में अच्छी शिक्षा देने में विफल है?
इसके बाद स्कूल ऑफ एक्सेलेंस गैर–बराबरी की मिसाल बने और अब इस बहुपरती व्यवस्था की नाइन्साफी छुपाने के लिए इस पर एसओएसई की नयी क्रीम पोती जा रही है।
2– पहले निगम और निदेशालय के स्कूलों में दो साल पढ़ने पर ही प्रतिभा स्कूलों में प्रवेश के लिए परीक्षा दी जा सकती थी। ऐसा इसलिए किया गया था कि प्रतिभा जैसे विशिष्ट सार्वजनिक स्कूलों में उन बच्चों को पढ़ने का मौका सुरक्षित हो जो सरकारी स्कूलों से आये हैं। अब यह शर्त हटा दी गयी है। इनमें केवल 50 प्रतिशत प्रवेश ही सरकारी सकूल से पढ़े बच्चों के लिए सुरक्षित होगा। जिसका मतलब है कि 50 प्रतिशत सीटें प्राइवेट स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए अपने–आप सुरक्षित हो जाएँगी। इसका नतीजा यह भी होगा कि अब एक ही विद्यालय में विद्यार्थियों के दो वर्ग होंगे। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए मौके बढें़गे नहीं, घटेंगे।
3– इन खास विद्यायलों में प्रवेश के लिए अब बच्चे गलाकाट प्रतिस्पर्धा करेंगे। वैसी ही प्रतिस्पर्धा जो हम मेडिकल या इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं में देखते हैं। जाहिर है, यहाँ शिक्षा अधिकार अधिनियम का ‘कोई प्रवेश परीक्षा नहीं’ लेने का सिद्धान्त मायने नहीं रखेगा।
क्या प्रतिस्पर्धा पर खड़े ऐसे विद्यालय से कोचिंग केन्द्रों के लक्षणों का आभास नहीं होता है? ये विद्यालय सिर्फ नये तरह के संस्थान नहीं हैं, बल्कि ये नये तरह के नवउदारवादी शिक्षा दर्शन के परिणाम हैं। इनसे आम सार्वजनिक स्कूलों का महत्व और कम होगा।
4– एक सवाल यह भी है कि ‘सर्वोतम शिक्षा’ की परिभाषा क्या है। अगर एसओएसई में बच्चों को मेडिकल, इंंजीनियरिंग, कानून आदि की प्रवेश परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाएगा तो इस काम के लिए तो कोंचिंग इण्डस्ट्री के केन्द्र्रों की भीड़ पहले से मौजूद है। सरकारी स्कूलों को कोंचिग केन्द्र बनाने की क्या जरूरत आन पड़ी?
या तो सरकार को अपनी शेखी बघारने के लिए ऐसा करना पड़ रहा हैं ताकि वह विज्ञापनों में प्रचारित कर सके कि ‘सरकारी स्कूलों के 100–200–300 बच्चों ने आईआईटी में प्रवेश लिया, या फिर मध्यम–वर्गीय अभिभावकों के एक हिस्से को खुश करना पड़ रहा है कि उनके बच्चे को भी महँगी कोंचिग वाली तैयारी सरकारी स्कूल में मुफ्त करायी जाएगी या फिर सरकार चाहती है कि जनता ज्यादातर सरकारी स्कूलों में दी जा रही दोयम दर्जे की शिक्षा (जिनमें महज साक्षरता प्रोग्राम पर जोर है) पर बात करने के बजाय एसओएसई की चकाचैंध में खो जाये।
5– हम इस कोंचिग को शिक्षा नहीं ‘प्रति–शिक्षा’ यानी शिक्षा का दुश्मन मानते हैं। कोंचिग का जो बाजार दशकों से भारत, चीन, कोरिया जैसे विकासशील देशों में फल–फूल रहा है, उसका इतिहास दागदार है। जिस व्यवस्था में एक नौकरी के लिए हजारों अभ्यार्थी खड़े हैं, उसमें कुछ मुनाफाखोर इस तंगी को प्रतिस्पर्धा में बदलकर पैसे कमाने के साधन अवश्य ढूँढ लेंगे। हर एक ‘सफल बच्चे’ पर 1000 ‘असफल बच्चे’ तैयार होंगे जो पिछडेंगे और मानसिक तनाव के शिकार बनेंगे।
भयावह यह है कि अभी तक जो विकृति सरकारी स्कूलों से बाहर थी, अब उस बीमारी को अन्दर घुसाया जा रहा है। जब मेडिकल, इंजीनियरिंग की शिक्षा का बाजारीकरण हो रहा था, तब तो हम उसे रोक नहीं पाये, उल्टा अब हमारे सरकारी स्कूलों को ही इस बाजार की दुकानें बनाने की तैयारी हो रही है।
6– यह भी अभी तक स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया है कि इन विद्यालयों में वित्त, फीस, प्रवेश और नियुक्तियों में सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधान लागू होंगे या नहीं और अगर होंगे तो कैसे लागू होंगे। यह साफ नहीं है कि इन स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति किन आधारों पर होगी। हमारा मानना है कि इन स्कूलों में निजी संस्थाओं की प्रस्तावित नियंत्रणकारी भूमिकाओं के चलते शिक्षकों की अकादमिक और पेशागत स्वयत्तता और गरिमा भी खतरे में पड़ जाएगी। इन पहलुओं के बारे में एक अघोषित चुप्पी है जिसे केवल सीमित आधिकारिक बयानों या प्रचारी रपटों से पोछा जा रहा है। इससे इन स्कूलों के प्रबन्धन करार की शर्तों आदि को लेकर गम्भीर शंकाएँ उभरती हैं।
7– क्या इनमें विशेष जरूरतों वाले बच्चों को प्रवेश मिलेगा? हम देखते आये हैं कि तथाकथित उच्च–स्तरीय या विश्वस्तरीय संस्थानों की चमक–धमक बनाने के लिए सबसे कमजोर की बलि ली जाती है, उन्हें बाहर रखकर ही ये संस्थान विशिष्ट होने का गर्व महसूस करते हैं और समाज में प्रतिष्ठा पाते हैं।
8– आज दिल्ली के सरकारी स्कूलों में कक्षा 6 से 8 के हर बच्चे पर मिशन बुनियाद थोपा जा रहा हैं। उन्हें केवल कामचलाउ़ (हिन्दी और गणित) साक्षरता प्रोग्राम के लायक बताया जा रहा है। उनकी पाठ्यचर्या से सिद्धान्तों को खत्म कर दिया गया हैं। एक तरफ अधिकतम बच्चों के स्तर को गिराया जा रहा है और दूसरी तरफ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के नाम पर आईबी से करार करके विश्वस्तरीय शिक्षा देने का ढोल पीटा जा रहा है। यह कैसा विरोधाभास है?
दरअसल यह विरोधाभास नहीं, बल्कि इस व्यवस्था का एक अनिवार्य परिणाम है। वर्तमान अर्थव्यवस्था को जैसे श्रमिकों की जरूरत है, यह उन्हीं को तैयार करने की शिक्षा योजना है। अधिकतम बच्चे दोयम दर्जे की साक्षरता पाकर मशीन चलाने वाली लेबर फौज का हिस्सा बनेंगे। इनकी शिक्षा को गहन सिद्धान्तों से खाली करके इन्हें जागरूक सशक्त मजदूर बनने से रोका जाएगा। वहीं दूसरी तरफ मुट्ठीभर युवाओं को प्रशासकीय प्रबन्धकीय और अत्यधिक कुशल भूमिकाओं के लिए तैयार करने के लिए स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक प्रवेश परिक्षाओं की छलनियाँ बिछा दी जाएँगी।
9– दिल्ली सरकार एक तरफ ‘देशभक्ति पाठ्यक्रम ला रही है और दूसरी तरफ ‘अन्तर्रराष्ट्रीय नागरिक बनाने के घोषित मकसद वाले आईबी ला रही है, केन्द्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इसी तरह के दोमुँही आग्रह हैं। यह दोनों ‘प्रतीकात्मक राष्ट्रवादी’ तत्वों को खुश करके और जनता को भरमाकर शिक्षा में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार को घुसाने की योजना का मिला–जुला पैंतरा है।
10– स्कूलबन्दी और कोरोना के सन्दर्भ में खासमखास स्कूल खोलना दरअसल खोलना नहीं, पुरानों को बन्द करके उनके सार्वजनिक जमीन–संसाधनों को ‘विश्वस्तरीय’ स्कूलों की मृगतृष्णा के नाम पर निजी नहीं तो अर्धनिजी हाथों में सौंपना है। और उनमें दाखिले के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करना (जैसे कि सब कुछ सामान्य हो) शिक्षा और लोगों के जमीनी हालात के साथ एक क्रूर मजाक है।
कोरोना, तालाबन्दी और आर्थिक संकट के दबाव में सरकारी स्कूलों में बढ़ते दाखिलों के सन्दर्भ में जहाँ वक्त की माँग थी कि नये सरकारी स्कूल खोले जाये, पर्याप्त संख्या में नियमित शिक्षकों तथा कर्मचारियों की नियुक्ति की जाये, प्राइवेट स्कूलों की मनमर्जी रोकी जाये आदि। सरकार ने ऐसा कुछ नहीं करके, बल्कि एक तरह से सार्वजनिक स्कूलों और उनकी ‘सीटों’ को कम करने की योजना बनाकर बच्चों के आधे–अधूरे अधिकारों को और सीमित कर दिया है।
जनता के सामने सवाल
क्या हमें सचमुच लगता है कि इन नयी परतों से सभी स्कूलों में एक–जैसी, एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा मजबूत होगी या अब हमने वह सपना देखना ही छोड़ दिया है? क्या इन विशिष्ट स्कूलों को खोलकर सरकार सभी बच्चों का भला कर रही है या कुछ बच्चों को छाँटकर बाकी को अपने हाल पर छोड़ रही हैं? ऐसे प्रोग्राम मौजूदा गैर–बराबरी को और बढ़ाएँगे या कम करेंगे?
हमारी माँग तो यह होनी चाहिए कि सभी सरकारी स्कूलों में एक समान फण्ड, बराबर ध्यान और एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा होनी चाहिए।
जनता भूखी है। उसे भूखा रखा गया है। अपनी जिम्मेदारी निभाने के नाम पर सरकार 100 में से 4 लोगों के लिए केक बनवाती है। विण्डबना यह है कि हम 100 लोग एक होकर सरकार से सवाल नहीं पूछते कि 96 लोगों का हिस्सा कहाँ गया, बल्कि इन 4 लोगों के हिस्से वाले केक के लिए आपस में लड़ने लगते हैं। साथ ही सरकार की वाहवाही भी करते हैं कि सरकार ने भूखे लोगों के लिए केक बनवाया!
सरकार जवाब दे!
1– अगर इन विशिष्ट स्कूलों में ‘सर्वोत्तम शिक्षा’ दी जाएगी तो अन्य सैकड़ों दिल्ली सरकार के स्कूलों को क्या कामचालाउ़ शिक्षा देने के लिए खोला गया है? सरकार द्वारा सरकारी स्कूलों के बीच में ही यह भेदभाव क्यों?
2– हिसाब दीजिए कि जितने संसाधन एक एसओएसई को दिये जाएँगे, उसमें कितने सामान्य सरकारी स्कूल अपनी स्थिति सुधार सकते हैं। एक तरफ 15 विद्यालयों में कक्षा 11–12 के हर विद्यार्थी को टैब दिया जा सकता है, दूसरी तरफ सरकारी स्कूलों के हजारों बच्चों को मासिक इण्टरनेट डाटा के लिए कोई मदद नहीं पहुँचायी गयी। क्या हम कुछ विद्यार्थियों को टैब देने के लिए सरकार की वाहवाही करके इसके हाथ मजबूत करें या अधिकतम बच्चों को आधारभूत संसाधनों से वंचित रखने के लिए इसे कटघरे में खड़ा करें?
3– 10 विशिष्ट विज्ञान विद्यालय खोलने से कुछ नहीं होता। पहले सभी सरकरी स्कूलों में विज्ञान और कॉमर्स विकल्प वापस लेकर आओ, विज्ञान लैब को जिन्दा करो, हर बच्चे को वैज्ञानिक प्रयोगों का आदी बनाओ। तब तक यह दावा बेमानी है और भ्रमित करने वाला सस्ता प्रचार मात्र है कि सरकार ने विज्ञान की शिक्षा के लिए कुछ सार्थक किया है।
4– दिल्ली सरकार आईबी पाठ्यचर्या खरीदने और निजी संस्थाओं को दिये गये सैकड़ों करोड़ों का चिट्ठा प्रस्तुत करे, सारे कॉन्टैªक्ट, नियम आदि को सार्वजनिक पटल पर रखे, ताकि इनकी जाँच हो सके और जनता सच्चाई जाने। इस भेदभावपूर्ण और शिक्षा–विरोधी योजना को वापस लिया जाये।
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