दिसंबर 2018, अंक 30 में प्रकाशित

न्यूज चैनल : जनता को गुमराह करने का हथियार

देश की प्रगति के लिए समाचार पत्र–पत्रिकाओं के साथ–साथ न्यूज चैनलों की भी अहम भूमिका होती है। इनका काम जनता के सामने सही चीजों को पेश करना होता है। लेकिन आज ये अपनी मुख्य भूमिका को भूलकर जनता को गुमराह करने का काम कर रहे हैं।

याद कीजिए वर्ष 2014 को जब चैनलों पर पानी की तरह पैसा बहाया गया था। ऐसा कोई न्यूज चैनल नहीं था जहाँ मोदी भावी प्रधानमंत्री के रूप में छाये न रहे हों। चैनलों ने कमाल दिखाया और मोदी पूरे बहुमत से भारत के प्रधानमंत्री बनकर आये। उसके बाद से अब तक इन चैनलों पर जो भी कार्यक्रम दिखाये जा रहे हैं उनका सरोकार आम जनता की मूलभूत जरूरतों से बिलकुल नहीं है। हर दिन ऐसे–ऐसे कार्यक्रम दिखाये जा रहे हैं जो जनता की चेतना को कुन्द कर रहे हैं। इनके जरिये जनता को जातिवादी, साम्प्रदायिक, स्वार्थी और उपभोक्तावादी बनाया जा रहा है।

आज अधिकांश न्यूज चैनल निजी कम्पनियों द्वारा नियंत्रित हैं। 30 मई 2014 को देश के सबसे बड़े पूँजीपति मुकेश अम्बानी ने कई चैनलों को 4000 हजार करोड़ में खरीद लिया जिनमें आईएन डॉटकॉम, आईबीएन डॉटकॉम, लाइव डॉटकॉम, मनी कंट्रोल डॉटकॉम, फर्स्ट डॉटकॉम, क्रिकेट नेक्स्ट, होमशाप 18, बुक माई शो डॉटकॉम के अलावा कलर्स, सीएनबीसी टीवी जैसे चैनल शामिल हैं। इन चैनलों पर कौन सी खबर प्रसारित करनी है ये इन्हीं द्वारा तय होता हैं।

ये चैनल खासकर भारत के लोकतंत्र की हत्या करने में लगे हैं। पिछले पाँच सालों के दौरान इन चैनलों की बहसों को देखें तो आपको पता चल जायेगा कि ये आपको क्या बनाना चाहते हैं। अधिकांश न्यूज चैनलों की प्राइम टाइम बहसों का मकसद वैज्ञानिक नजरिये और लोकतान्त्रिक संवाद को बढ़ावा देना नहीं बल्कि लोगों के अन्दर डर पैदा करना तथा उनकी चेतना को खत्म करना है। बहस के अधिकांश मुद्दे बुनियादी सवालों से ध्यान भटकाने वाले नकली मुद्दे होते हैं। इनकी अधिकांश बहसों में गिने–चुने लोग होते हैं, जिन्हंे जनता के सामने संकीर्ण विचार परोसने की पूरी आजादी होती है। इन बहसों से फासीवादी ताकतों और हिन्दुत्ववादी संगठनों से लेकर कट्टरपंथी–पोंगापंथी मौलवियों को संकीर्णता फैलाने तथा प्रगतिशील मूल्य–मान्यताओं को पीछे धकेलने में मदद मिलती हैं। चैनलों का यह रूप व्यवस्था तथा सरकार को फायदा पहुँचाता है। इन सभी चैनलों की भूमिका अब बस राजा का बाजा बजाने, उनका गुणगान करने तक ही सीमित है, वे पूँजीपतियों, खिलाड़ियों और धर्मगुरुओं का जीवन दर्शन दिखाते रहते हैं कि कौन–कैसे–कितना मालमाल हो गया। दूसरी ओर शिक्षा, स्वास्थ, बेरोजगारी, भुखमरी, महँगाई जैसी चीजों को ऐसे दिखाते हैं, जैसे लगता है कि मुहल्ले की नाली जाम हो गयी हो।

खबर की जगह धारावाहिक, जैसे–– (सास–बहू, बिग–बॉस, नागिन, रियलिटी सो, कॉमेडी सरकश आदि), फिल्मांे का प्रमोशन, अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, कैटरीना, सचिन तेन्दुलकर जैसे सेलिब्रिटी के खाँसने–छींकने, किसी एक्ट्रेस के गर्भवती होने की खबरों से भरे होते हैं। मेंढक–मेंढकी की शादी तथा अपराध की खबरों का नाट्य रूपान्तरण दिखाने वाले ये चैनल समाज को मूर्खता और अपराध के दलदल में ले जा रहे हैं। वे आधी रात के बाद न्यूज के नाम पर फर्जी सामानों का अंधविश्वासी विज्ञापन दिखाते हैं। निर्मल बाबा, बाबा रामदेव जैसे लोगों की दुकान खड़ी कर इन्हंे सेलीब्रिटी बना देते हैं। इससे साफ पता चलता है कि ये लोग पैसा देकर कोई भी न्यूज या विज्ञापन चलवा सकते हैं और जनता की आँखों में धूल झांेक सकते हैं। भूमण्डलीकरण के आगमन के साथ निजी न्यूज चैनलों का बहुत तेजी से प्रसार हुआ है। हर चैनल का एक ही ध्येय है ऊँची टीआरपी, यानी अधिक से अधिक पैसा कमाना। जैसे–जैसे इनका प्रसार हो रहा है वैसे–वैसे ये जनहित के अपने असली कामों को छोड़ते चले जा रहे हैं।

केबल के माध्यम से जनता तक न्यूज पहुँचाने वाले ये चैनल हर साल अरबों रुपये अवैध तरीके से केबल कम्पनियों को बाँटते हैं। अब तो न्यूज चैनल डिश सेवा प्रदाता कम्पनियों को भी करोड़ांे रुपये देते हैं ताकि उनके चैनल को ज्यादा–से–ज्यादा दिखाया जाये। केबल कम्पनियों के सहारे बनने वाली टीआरपी किसी भी न्यूज चैनल या मनोरंजन चैनल की मुख्य चिन्ता होती है। इनका असर विज्ञापन बाजार से लेकर सरकार तक पर होता है जो खास चैनल को देखने की टीआरपी तय करते हैं। चाहे न्यूज चैनल हो या मनोरंजन चैनल ये प्रसारित सामग्री में पैसा लगाने के बजाय केबल कम्पनियों में पैसा खर्च करते हैं। टीवी पर केबल के माध्यम से 70–80 चैनल ही एक बार में दिखाये जा सकते हैं, तो बाकी के चैनल खुद को स्क्रीन तक पहुँचने में कितना रुपया खर्च करते होगे। और रुपया खर्च करना हो ही टीआरपी यानी मुनाफे के लिए तो ये जनता के लिए कैसे हो सकते हैं। देश में कोई ऐसा राज्य नहीं है जहाँ सत्ताधारियों तथा निजी कम्पनियों के मालिकों का केबल कम्पनियों पर कब्जा न हो, यही कब्जा उन्हें न्यूज चैनलों के चंगुल से भी बचाये रखता है क्योकि किसी भी सत्ताधारी के खिलाफ आवाज उठाने पर अगर उस चैनल को केबल कम्पनियाँ ही दिखाना बन्द कर दंे तो फिर खबर का मतलब ही क्या होगा?

आज क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर निजी धंधेबाजों को ही चैनलों का लइसेंस दे दिया गया है। उनका सबसे बड़ा हुनर टीआरपी बढ़ाना है। चैनलों में वेतन सबसे ज्यादा उसी सख्स को दिया जाता है जो चैनल का टीआरपी बढा़ता है। आज भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहाँ साम्प्रदायिकता और नफरत तेजी से बढ़ रही है। चैनलों के माध्यम से बहस के नकली मुद्दे सजाये जा रहे हैं, जिससे जनता का कोई सरोकार नहीं हैं। धर्म की रक्षा के लिए लोगों को उकसाया जा रहा है। हिन्दू–मुस्लिम की बहस अपने चरम पर है। इस बहस का एक ही मकसद है, बड़ी संख्या में युवाओं को दंगाई बनाना।

 इन सभी तथ्यों से पता चलता है कि आज जितने भी चैनल हैं वे सरकार तथा पूँजीपतियों के हित साधने में लगे हैं। आज हमें वैकल्पिक न्यूज चैनलों की जरूरत है जो जनता की समझ को बढ़ायें।

––शैलेश

 
 

 

 

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