ग्रामीण गरीबों के लिए गढ़ा गया एक संकट
–– राजेन्द्रन नारायणन
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और एक सम्भावित राष्ट्रीय रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी), जो एक मानवीय संकट का आगाज करेगा, ऐसे समय में आगे बढ़ाया जा रहा है जब ग्रामीण जनता भयावह संकट की गिरफ्त में है। जल्द ही बजट आने वाला है, इसलिए आइये, देखें कि भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने ग्रामीण गरीबों के हित में अब तक क्या किया है।
एक भयावह तस्वीर
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा हर पाँच साल में एक बार उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) किया जाता है। इसमें परिवारों के खर्च करने के पैटर्न के बारे में विवरण संग्रह किया जाता है। इससे एकत्रित आँकड़े आर्थिक योजना और बजटीय आवण्टन में सुधार के लिए सूचना का एक महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। हालाँकि, केन्द्र सरकार ने 2017–2018 के सबसे हालिया सर्वेक्षण के आँकड़ों को दबा दिया। किसी तरह बाहर आ गयी रिपोर्ट को बिजनेस स्टैंडर्ड द्वारा प्रकाशित किया गया, जिसके मुताबिक 40 वर्षों में पहली बार उपभोक्ता खर्च में गिरावट आयी। ‘द इण्डिया फोरम’ में प्रोफेसर एस सुब्रमण्यन द्वारा किया गया इस रिपोर्ट का एक उल्लेखनीय विश्लेषण 2011–2012 और 2017–2018 के बीच सीईएस और मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (एमपीसीई) में तुलना करता है। यह ग्रामीण भारत की एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करता है।
उनके लेख के अनुसार, यदि हम ग्रामीण आबादी का सबसे गरीब से सबसे अमीर तक श्रेणीबद्ध करें, और उन्हें 10 समूहों में विभाजित करें, तो हम पाते हैं कि हर समूह के लोगों का मासिक उपभोग व्यय गिरा है। इसका मतलब है कि ग्रामीण समाज की सभी श्रेणियों की खपत, यानी कि आय में कमी आयी। उदाहरण के लिए, 2011–2012 में ग्रामीण आबादी के सबसे गरीब लोगों के औसत मासिक उपभोग का स्तर 1,138 था। 2017–2018 में यह घटकर 1,082 रह गया। कुल मिलाकर, सभी श्रेणियों में 2011–12 में औसत मासिक घरेलू खपत 1,430 थी जो घटकर 2017–18 में 1,304 हो गयी, यानी लगभग 9 प्रतिशत की तीव्र गिरावट आयी। दूसरे शब्दों में, बड़ी संख्या में लोग गरीब हो गये हैं और इसलिए उनके पास खर्च करने के लिए कम पैसे हैं।
ऐसी असुविधाजनक सच्चाइयों को भाँपते हुए, सरकार ने ‘डेटा गुणवत्ता मुद्दों’ का हवाला देकर सर्वेक्षण के नतीजों को टालने की कोशिश की। असुविधाजनक तथ्यों से सामना होने पर पारदर्शिता के बजाय उनको छुपाने की यह प्रवृत्ति नयी नहीं है। सरकार ने 2017–2018 के मियादी श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) डेटा को जारी करने में भी देरी की थी। जनवरी 2019 में, पीएलएफएस का वह डेटा लीक हो गया था, जिससे पता चलता था कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के तहत बेरोजगारी पिछले 45 साल के उच्च स्तर पर पहुँच गयी थी। सरकार ने जवाब दिया कि लीक हुई रिपोर्ट ‘एक मसौदा रिपोर्ट’ थी और आम चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद तक डेटा जारी नहीं किया था। हालाँकि, सच्चाई बदली नहीं। वर्षों के संघर्ष से हासिल, पारदर्शिता को रोज–ब–रोज कम किया जा रहा है। डेटा को इस तरह व्यवस्थित रूप से कुचले जाने से संस्थागत मूल्य और राजनीतिक अर्थव्यवस्था तबाह होती है।
एनएसओ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि उपभोक्ता खाद्य मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति अगस्त 2019 में 2.99 प्रतिशत से बढ़कर दिसम्बर 2019 में 14 प्रतिशत से अधिक हो गयी। सबसे तेज वृद्धि सब्जी की कीमतों (60 प्रतिशत से अधिक) में देखी गयी जबकि दालों की कीमत में 15 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई। हो सकता है कि कीमतों में वृद्धि से चन्द किसानों को लाभ हो, और सब्जी की कीमतों में वृद्धि मौसमी हो सकती है, लेकिन यह भूमिहीन और छोटे किसानों को कैसे प्रभावित करेगी? इन रिपोर्टों के अनुसार, यदि चार सदस्यों वाले एक परिवार को लिया जाये, यहाँ तक कि सबसे अमीर 5 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को भी, तो अनाज और दालों पर प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्च 2.50 रुपये से कम है। गरीब वर्गों के परिवारों में, खर्च करने की क्षमता प्रति व्यक्ति प्रति दिन लगभग 1 रुपया है। इसे समझने के लिए यही जान लेना काफी है कि आजकल एक अण्डे की कीमत 7 रुपये और एक लीटर दूध की कीमत 55 रुपये है। 2011 की सामाजिक–आर्थिक जाति जनगणना के अनुसार, 56 प्रतिशत परिवारों के पास अपनी जमीन नहीं है और लगभग 51 प्रतिशत परिवार आय के लिए कभी–कभार मिलने वाली दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर हैं। ग्रामीण आबादी के इस हिस्से के लिए, मनरेगा एक जीवन रेखा के रूप में काम कर सकता है। हालाँकि, पिछले पाँच वर्षों में, मनरेगा के लिए बजट आवण्टन बहुत ही कम रहा है। प्रत्येक वर्ष के आवण्टन का छठा हिस्सा पिछले वर्षों की बकाया मजदूरी भुगतान के मद में चला जाता है। अक्टूबर के बाद से ही केन्द्र सरकार द्वारा अधिकांश राज्यों के भुगतान जारी नहीं किये गये हैं।
उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करते हुए, वेतन भुगतान में लगातार देरी और कम मजदूरी दर, मजदूरों को मनरेगा का काम करने से हतोत्साहित करती है। दरअसल, कम आमदनी और खाद्य पदार्थों की ऊँची कीमतों की दोहरी बुराई का मतलब है कि भूमिहीन गरीबों को अपने भोजन की खपत में और भी कटौती करनी होगी। इसके चलते कम पोषण के नतीजे सामने आयेंगे, जो उनके शारीरिक और मानसिक विकास को कम कर सकते हैं। अगर काम की माँग, बकाया मजदूरी का भुगतान और मुद्रास्फीति का हिसाब लगाया जाय, तो मनरेगा के लिए 1 लाख करोड़ से कम बजट आवण्टन अपर्याप्त होगा।
गलत लक्ष्य
यह दुखद है कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ग्रामीण मजदूरी बढ़ाने और मनरेगा के कामकाज और भुगतान में सुधार करने पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) जैसी विभाजनकारी नीतियों पर संसाधनों को बर्बाद कर रही है। एनपीआर की अनुमानित लागत 4,000 करोड़ रुपये है, यह राशि मौजूदा मजदूरी दरों पर मनरेगा के माध्यम से 100 दिनों के लिए 2.2 करोड़ भूमिहीन मजदूरों की सहायता कर सकती है। इसके अलावा, कश्मीर चैम्बर ऑफ कॉमर्स की रिपोर्टों के अनुसार, धारा 370 में मनमाना बदलाव के कारण, कश्मीर घाटी को लगभग 18,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है, और 5 अगस्त के बाद से वहाँ लगभग 5 लाख लोग अपनी नौकरी गँवा चुके हैं। अगर जम्मू और लद्दाख को भी इस गणना में जोड़ा जाये तो यह और भी ज्यादा होगा। भारत के कुछ हिस्सों से वहाँ आनेवाले 4 लाख से अधिक प्रवासी मजदूरों को, जिनमें से ज्यादातर बिहार और उत्तर प्रदेश के थे, 5 अगस्त को कश्मीर घाटी छोड़ने को मजबूर किया गया और उन्हें रातोंरात बेरोजगार बना दिया गया था। इन नुकसानों में अगर “स्टेटलेस” करार दिये गये लोगों के लिए डिटेंशन सेन्टर चलाने का खर्च भी जोड़ लें तो हम एक विराट बनावटी संकट को निहार रहे हैं। महिलाएँ, विशेष रूप से, शादी के बाद ससुराल जाने के कारण एक बड़ी कीमत चुकाएँगी और क्योंकि उनके पास प्रासंगिक दस्तावेज नहीं होते हैं। जब केन्द्र सरकार प्रधानमंत्री मातृ वन्दना योजना कार्यक्रम के तहत ग्रामीण महिलाओं को दस्तावेजों में भिन्नता के कारण धन नहीं दे सकती है, तो एनपीआर–एनआरसी को लागू करना गाँव के गरीबों की जिन्दगी में कितनी भारी तबाही लाएगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
(आभार–– द हिन्दू)
(2 फरवरी 2020 को नया बजट आ गया। इसके बारे में इस लेख में पहले ही जाहिर की गयी आशंकाएँ सच साबित हुर्इं, जो इसके बाद वाले लेख से और स्पष्ट हो जाता है।–– अनु–)
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