डॉलर के वर्चस्व से मुक्ति का रास्ता सऊदी अरब से होकर जायेगा
–– विजय प्रसाद
9 दिसम्बर 2022 को सऊदी अरब के रियाद में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने खाड़ी देशों और चीन के बीच सम्बन्धों को मजबूत करने के बारे में बातचीत के लिए खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के नेताओं से मुलाकात की। ‘कच्चे तेल को लगातार और बड़ी मात्रा में जीसीसी से आयात’ करें और ऐसे ही प्राकृतिक गैस के आयात को बढ़ायें, इस पूर्व प्रतिज्ञा के साथ चीन और जीसीसी के बीच व्यापार में हुई वृद्धि इस बातचीत का प्रमुख एजेण्डा था। 1993 में चीन तेल का शुद्ध आयातक बन गया था और 2017 तक कच्चे तेल के सबसे बड़े आयातक के रूप में उसने संयुक्त राज्य अमरीका को पीछे छोड़ दिया था। उसके तेल आयात का आधा अरब प्रायद्वीप से आता है और सऊदी अरब के तेल निर्यात का एक चैथाई से अधिक चीन को जाता है। तेल का बड़ा आयातक होने के बावजूद चीन ने अपना कार्बन उत्सर्जन कम किया है।
रियाद पहुँचने से कुछ दिन पहले अल रियाद में शी जिनपिंग का एक लेख छपा था, जिसमें 5जी संचार, नयी ऊर्जा, अन्तरिक्ष और डिजिटल अर्थव्यवस्था और उच्च तकनीक क्षेत्रों में सहयोग सहित इस क्षेत्र के साथ पहले से अधिक रणनीतिक और वाणिज्यिक साझेदारी की घोषणा की गयी थी। सऊदी अरब और चीन ने 30 अरब डॉलर के वाणिज्यिक सौदों पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसमें बेल्ट एण्ड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को मजबूत करने वाले क्षेत्र भी शामिल हैं। शी की रियाद यात्रा कोविड–19 महामारी के बाद से उनकी केवल दूसरी विदेश यात्रा हैय सितम्बर में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन के लिए उनकी पहली यात्रा मध्य एशिया की थी, जहाँ नौ सदस्य देश (जिनमें दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी बसती है) अपनी स्थानीय मुद्राओं का उपयोग करके एक दूसरे के साथ व्यापार बढ़ाने पर सहमत हुए।
इसे पहले चीन–जीसीसी शिखर सम्मेलन में, शी ने खाड़ी देशों से ‘चीनी मुद्रा का इस्तेमाल करके तेल और गैस की बिक्री के लिए शंघाई पेट्रोल और गैस एक्सचेंज का एक मंच के रूप में पूर्ण उपयोग करने’ का आग्रह किया है। 2021 की शुरुआत में सऊदी अरब ने सुझाव दिया था कि वह चीन को अमरीकी डॉलर के बजाय चीनी युआन में तेल बेच सकता है। हालाँकि, जीसीसी शिखर सम्मेलन में इसकी कोई औपचारिक घोषणा नहीं की गयी और न ही चीन और सऊदी अरब द्वारा जारी किये गये संयुक्त बयान में इसका जिक्र किया गया, ऐसे भरपूर संकेत हैं कि ये दोनों देश अपने व्यापार को निरूपित करने के लिए चीनी युआन का उपयोग करने की ओर बढ़ेंगे। हालाँकि, वे ऐसा धीरे–धीरे करेंगे, क्योंकि दोनों का ही अमरीकी अर्थव्यवस्था के साथ रिश्ता है (उदाहरण के लिए, चीन के पास 1000 अरब डॉलर से कुछ ही कम रकम के अमरीकी ट्रेजरी बाण्ड हैं)।
चीन–सऊदी व्यापार युआन में करने की बात ने संयुक्त राज्य अमरीका की भौहें तान दी हैं, जो डॉलर को स्थिर रखने के लिए पचास वर्षों से सउदी अरब पर निर्भर है। 1971 में अमरीकी सरकार ने स्वर्ण मानक से डॉलर का रिश्ता तोड़ दिया था और दुनिया के केन्द्रीय बैंकों ने अपना मुद्रा भण्डार रखने के लिए अमरीकी ट्रेजरी सिक्योरिटीज और दूसरी अमरीकी वित्तीय सम्पत्तियों पर भरोसा करना शुरू कर दिया था। 1973 में जब तेल की कीमतें आसमान छूने लगी, तो अमरीकी सरकार ने सऊदी तेल के मुनाफे के जरिये डॉलर के प्रभुत्व की एक प्रणाली बनाने का फैसला किया। 1974 में अमरीकी ट्रेजरी सचिव विलियम साइमन, जिन्होंने निवेश बैंक, सॉलोमन ब्रदर्स में ट्रेडिंग डेस्क बनायी थी, वह अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के निर्देश के साथ सऊदी तेल मंत्री, अहमद जक यमानी के साथ गम्भीर बातचीत करने के लिए रियाद पहुँचे।
साइमन ने प्रस्ताव दिया कि अमरीका भारी मात्रा में डॉलर में सऊदी तेल खरीदता है और सउदी इन डॉलरों का इस्तेमाल अमरीकी ट्रेजरी बॉण्ड और हथियार खरीदने के लिए करता है और तेल के भारी मुनाफे को रीसायकल करने के तरीके के रूप में अमरीकी बैंकों में निवेश करता है। और इस तरह से पेट्रोडॉलर का जन्म हुआ, जिसने नये डॉलर के प्रभुत्व वाले विश्व व्यापार और निवेश प्रणाली को सहारा दिया। अगर सउदी ने इस व्यवस्था को वापस लेने का संकेत भी दिया, जिसे लागू करने में कम से कम एक दशक का समय लगेगा, तो यह अमरीका को मिले मौद्रिक विशेषाधिकार को गम्भीर चुनौती देगा। जैसा कि इंस्टीट्यूट फॉर एनालिसिस ऑफ ग्लोबल सिक्योरिटी के सह निदेशक गैल लुफ्ट ने द वॉल स्ट्रीट जर्नल को बताया है, “तेल बाजार और पूरे वैश्विक माल बाजार का विस्तार, आरक्षित मुद्रा के रूप में डॉलर की स्थिति की गारन्टी है। अगर उस ब्लॉक को दीवार से हटा दिया गया तो दीवार ढहने लगेगी”।
पेट्रोडॉलर प्रणाली को दो गम्भीर क्रमबद्ध झटके मिले हैं।
सबसे पहले, 2007–08 के वित्तीय संकट ने जाहिर कर दिया था कि पश्चिमी बैंकिंग प्रणाली उतनी स्थिर नहीं है जितनी मानी जाती है। बड़े विकासशील देशों समेत कई देश व्यापार और निवेश के लिए जल्दबाजी में दूसरी प्रक्रियाओं को खोजने लगे। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका द्वारा ब्रिक्स की स्थापना ‘एक नयी वित्तीय प्रणाली के लिए मापदण्डों पर चर्चा’ करने की इस जल्दबाजी का एक उदाहरण है। ब्रिक्स देशों द्वारा कई प्रयोग किये गये हैं, जैसे कि ब्रिक्स भुगतान प्रणाली का निर्माण।
दूसरा, अपने हाइब्रिड युद्ध के हिस्से के रूप में अमरीका ने 30 से अधिक देशों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए अपनी डॉलर की ताकत का इस्तेमाल किया है। ईरान से लेकर वेनेजुएला तक, इनमें से कई देशों ने सामान्य वाणिज्य के संचालन के लिए अमरीकी–प्रभुत्व वाली वित्तीय प्रणाली के विकल्पों की माँग की है। जब अमरीका ने 2014 में रूस पर प्रतिबन्ध लगाना शुरू किया और 2018 में चीन के खिलाफ अपने व्यापार युद्ध को गहरा दिया तो इन दोनों ताकतों ने डॉलर–मुक्त व्यापार की प्रक्रियाओं को तेज कर दिया, जिसे दूसरे प्रतिबन्धित देशों ने पहले ही मजबूरीवश करना शुरू कर दिया था। उस समय, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने तेल व्यापार को डॉलर मुक्त करने का आह्वान किया था। मॉस्को ने अपने डॉलर के भण्डार को तेजी से कम करना शुरू कर दिया तथा सोने और दूसरी मुद्राओं में अपनी सम्पत्ति रखने लगा। 2015 में चीन और रूस के बीच 90 प्रतिशत द्विपक्षीय व्यापार डॉलर में होता था, लेकिन 2020 तक यह घटकर 50 प्रतिशत से नीचे आ गया। जब पश्चिमी देशों ने अपने बैंकों में रखे रूसी केन्द्रीय बैंक के भण्डार को फ्रीज कर दिया, तो जैसा कि अर्थशास्त्री एडम टूज ने लिखा था, “यह ऐसे ‘अटल कदम’ के समान था जिससे पीछे नहीं हटा जा सकता। इसने संघर्ष को अन्तरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली को केन्द्र में ला दिया है। अगर जी 20 के किसी सदस्य देश के केन्द्रीय बैंक द्वारा जी 20 के किसी दूसरे सदस्य के केन्द्रीय बैंक के खातों में डाले गये भण्डार पवित्र नहीं हैं, तो वित्तीय दुनिया में कुछ भी पवित्र नहीं है। हम वित्तीय युद्ध के दौर में हैं”।
ब्रिक्स और प्रतिबन्धित देशों ने नये संस्थानों का निर्माण शुरू कर दिया है जो डॉलर पर उनकी निर्भरता को कम कर सकते हैं। अब तक, बैंकों और सरकारों ने सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकॉम (स्विफ्ट) नेटवर्क पर भरोसा किया है, जो अमरीकी फेडरल रिजर्व के क्लियरिंग हाउस इंटरबैंक पेमेंट सर्विसेज और इसकी फेडवायर फण्ड्स सर्विस के माध्यम से चलाया जाता है। इन देशों पर एकतरफा अमरीकी प्रतिबन्ध थोपे गये हैं–– जैसे ईरान और रूस–– वे दुनियाभर में 11,000 वित्तीय संस्थानों को जोड़ने वाली स्विफ्ट प्रणाली से कट गये हैं। 2014 के अमरीकी प्रतिबन्धों के बाद रूस ने सिस्टम फॉर ट्रांसफर ऑफ फाइनेंशियल मैसेजिज (एसपीएफएस) बनाया, जो मुख्य रूप से घरेलू उपयोगकर्ताओं के लिए डिजाइन किया गया है लेकिन इसने मध्य एशिया, चीन, भारत और ईरान के केन्द्रीय बैंकों को आकर्षित किया है। 2015 में चीन ने पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना द्वारा संचालित क्रॉस–बॉर्डर इंटरबैंक पेमेंट सिस्टम (सीआईपीएस) बनाया था, जिसका धीरे–धीरे अन्य केन्द्रीय बैंक भी इस्तेमाल कर रहे हैं।
रूस और चीन की इन घटनाओं के साथ–साथ और दूसरे विकल्प भी हैं, जैसे वित्तीय प्रौद्योगिकी (फिनटेक) की नयी प्रगति में निहित भुगतान नेटवर्क और केन्द्रीय बैंक डिजिटल मुद्राएँ। भले ही वीजा और मास्टरकार्ड इस उद्योग की सबसे बड़ी कम्पनियाँ हैं लेकिन वे चीन के यूनियनपे और रूस के मीर के साथ–साथ चीन के निजी खुदरा तंत्र, जैसे अलीपे और वीचैट पे, जैसे नये प्रतिद्वन्द्वियों का सामना कर रही हैं। दुनिया के लगभग आधे देश ज्यादा उन्नत मौद्रिक प्लेटफॉर्मों में से एक के रूप में डिजिटल युआन (ई–सीएनवाई) के साथ केन्द्रीय बैंक की डिजिटल मुद्राओं के रूपों के साथ प्रयोग कर रहे हैं, जो बीआरआई (ओबीओआर परियोजना) के साथ स्थापित डिजिटल सिल्क रोड में डॉलर को हाशिये पर धकेलना शुरू कर चुका है।
‘मुद्रा शक्ति’ पर अपनी चिन्ता के हिस्से के तौर पर दक्षिणी गोलार्द्ध के कई देश गैर–डॉलर व्यापार और निवेश प्रणालियाँ विकसित करने के इच्छुक हैं। 1 जनवरी 2023 से ब्राजील के नये वित्त मंत्री, फर्नाण्डो हद्दाद, ने अन्तरक्षेत्रीय व्यापार में स्थिरता बनाने और ‘मौद्रिक सम्प्रभुता’ स्थापित करने के लिए दक्षिण अमरीकी डिजिटल मुद्रा सुर (जिसका अर्थ स्पेनिश में ‘दक्षिण’ है) के निर्माण का समर्थन किया है। सुर पहले से ही अर्जेंटीना, ब्राजील, पैराग्वे और उरुग्वे द्वारा उपयोग किये जाने वाले तंत्र पर आधारित होगी, जिस तंत्र को स्थानीय मुद्रा भुगतान प्रणाली या एसएमएल कहा जाता है।
अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की मार्च 2022 की रिपोर्ट को ‘द स्टील्थ इरोजन ऑफ डॉलर डोमिनेंस’ शीर्षक दिया गया था, जिससे पता चलता है कि “केन्द्रीय बैंकों द्वारा अमरीकी डॉलर में रखे गये भण्डार का हिस्सा सदी की शुरुआत के बाद से 12 प्रतिशत अंक घटकर 2021 में 59 प्रतिशत रह गया है, जो 1999 में 71 प्रतिशत था।” आँकड़ों से पता चलता है कि केन्द्रीय बैंक भण्डार के प्रबन्धक अपनी वित्तीय सम्पत्तियों को चीनी रन्मिन्बी (जिसमें कुल बदलाव का एक चैथाई आया है) और गैर–पारम्परिक आरक्षित मुद्राओं (जैसे ऑस्ट्रेलियाई, कनाडाई, न्यूजीलैण्ड और सिंगापुर डॉलर, डेनिश और नार्वेजियन क्रोनर, स्वीडिश क्रोना, स्विस फ्रैंक और कोरियाई वोन) के साथ बदलकर अपने भण्डार को विविधतापूर्ण बना रहे हैं। आईएमएफ का निष्कर्ष है, “अगर डॉलर का प्रभुत्व समाप्त हो जाता है तो डॉलर के मुख्य प्रतिद्वन्द्वियों द्वारा नहीं बल्कि वैकल्पिक मुद्राओं के एक व्यापक समूह द्वारा ग्रीनबैक (बैंक नोट) को गिराया जा सकता है”।
वैश्विक मुद्रा विनिमय एक नेटवर्क–प्रभाव एकाधिकार के पहलुओं को प्रदर्शित करता है। ऐतिहासिक रूप से, दक्षता बढ़ाने और जोखिम को कम करने के लिए एक सार्वभौमिक माध्यम उभरा था, यह कोई प्रणाली नहीं थी जिसमें प्रत्येक देश विभिन्न मुद्राओं का उपयोग करके दूसरों के साथ व्यापार करता है। सालों तक, सोना ही मानक था।
किसी इकलौते सार्वभौमिक तंत्र को किसी भी प्रकार के बल के बिना विस्थापित करना कठिन है। अभी के लिए, अमरीकी डॉलर प्रमुख वैश्विक मुद्रा बना हुआ है, आधिकारिक विदेशी मुद्रा भण्डार का 60 प्रतिशत से थोड़ा ही कम अमरीकी डॉलर में है। पूँजीवादी व्यवस्था की मौजूदा परिस्थितियों में अगर चीन वैश्विक मुद्रा के रूप में अपनी मुद्रा से डॉलर को प्रतिस्थापित करना चाहता है तो उसे युआन की पूर्ण परिवर्तनीयता की, पूँजी नियंत्रण समाप्त करने की और अपने वित्तीय बाजारों को उदार बनाने की अनुमति देनी होगी। ये असम्भावित विकल्प हैं, जिसका अर्थ है कि डॉलर के आधिपत्य का पतन तुरन्त नहीं होगा, और ‘पेट्रोयुआन’ की बात करना समय से पहले है।
चीन की सरकार और जीसीसी ने 2004 में मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत शुरू की थी। 2009 में सऊदी अरब और कतर के बीच तनाव के कारण यह समझौता ठप पड़ गया था, अब यह वापस मेज पर है क्योंकि खाड़ी खुद को बीआरआई में खिंचता हुआ देख रही है। 1973 में, सउदी ने अमरीका से कहा था कि वे “अपने खुद के औद्योगिक विविधीकरण के लिए आय–तेल की बिक्री, का उपयोगी निवेश करने के तरीके खोजना चाहते हैं, और ऐसे दूसरे निवेश चाहते हैं जो उनके राष्ट्रीय भविष्य के लिए कुछ योगदान करें”। पेट्रोडॉलर शासन की शर्तों के तहत कोई वास्तविक विविधीकरण सम्भव नहीं था। अब, एक सम्भावना के रूप में कार्बन के अन्त के साथ, खाड़ी के अरब विविधीकरण के लिए उत्सुक हैं, जैसा कि सऊदी विजन 2030 द्वारा उदाहरण पेश किया गया है, जिसे बीआरआई में समन्वित किया गया है। चीन के पास तीन फायदे हैं जो इस विविधीकरण में सहायता करते हैं जो अमरीका नहीं करता–– एक पूर्ण औद्योगिक प्रणाली, एक नये प्रकार की उत्पादक शक्ति (विशाल पैमाने पर बुनियादी ढाँचा परियोजना प्रबन्धन और विकास) और एक विशाल बढ़ता हुआ उपभोक्ता बाजार।
शी जिनपिंग की रियाद यात्रा के दौरान क्षेत्र की आर्थिक प्रतिष्ठा और प्रभुत्व के अपमानजनक नुकसान के बारे में पश्चिमी मीडिया लगभग चुप रहा। ईरान, जीसीसी, रूस और अरब लीग के देशों के साथ जटिल सम्बन्धों को चीन अब एक साथ चला सकता है। इसके अलावा पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका में एससीओ के विस्तार को पश्चिम नजरअन्दाज नहीं कर सकता है। मिस्र, सऊदी अरब, ईरान, तुर्की और कतर या तो एससीओ के साथ जुड़े हुए हैं या उसके साथ बातचीत चला रहे हैं, जिसकी भूमिका विकसित हो रही है।
पाँच महीने पहले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाईडेन ने बहुत कम धूमधाम और समारोह के साथ रियाद का दौरा किया था–– और निश्वित रूप से अमरीका और सऊदी अरब के बीच कमजोर सम्बन्धों को मजबूत करने के लिए मेज पर कम मुद्दे थे। जब शी की रियाद यात्रा के बारे में पूछा गया तो अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता ने कहा, “हम दुनिया के देशों को संयुक्त राज्य अमरीका और पीआरसी के बीच चुनाव करने करने के लिए नहीं कह रहे हैं।” यह कथन अपने आप में शायद कमजोरी की निशानी है।
(मंथली रिव्यु से साभार, अनुवाद–– प्रवीण कुमार)
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