अव्यवसायिक अभिनय पर दो निबन्ध –– बर्तोल्त ब्रेख्त
(1) सर्वहारा अभिनेता के बारे में एक–दो बातें
सर्वहारा अभिनेता के बारे में सबसे पहले जो बात प्रभावित करती है वह है उसके नाटक खेलने की सादगी। सर्वहारा अभिनेता से मेरा मतलब न तो सर्वहारा मूल के बुर्जुआ थिएटर के अभिनेता से है और न ही बुर्जुआ अभिनेता से जो सर्वहारा के लिए अभिनय कर रहा है, बल्कि मेरा मतलब एक ऐसे अभिनेता से है जो एक सर्वहारा है और बुर्जुआ अभिनय स्कूल में नहीं गया और न ही किसी ऐसी पेशेवर संस्था से जुड़ा हुआ है। इसे मैं नाटक खेलने की सादगी कहता हूँ। वह सादगी ही मुझे सर्वहारा अभिनय की मूल तत्व लगती है।
मैं तुरन्त स्वीकार कर लेता हूँ कि मैं किसी भी तरह से साधारण अभिनय को वास्तव में अच्छा नहीं मानता या किसी भी सरल चीज को पसन्द नहीं करता। मैं अप्रशिक्षित या अपर्याप्त प्रशिक्षित लोगों के उत्साह से खुद–ब–खुद प्रभावित नहीं होता हूँ, जो कला के बारे में कम जुनून महसूस नहीं करते हैं, और न ही मेरे पास उन घमण्डी लोगो के लिए कोई काम है जो साधारण अभिनय को बाकी सभी चीजों के ऊपर रखते हैं।
छोटे मजदूर वर्ग के रंगमंच के अभिनेता जो यूरोप, एशिया और अमरीका के प्रमुख शहरों में पाये जाते हैं जिन्हें फासीवाद ने बर्बाद नही किया, वे किसी भी तरह से कमजोर नही हैं और उनका अभिनय बहुत अच्छा नहीं है। वे साधारण हैं, लेकिन केवल एक तरह से।
छोटे मजदूर वर्ग के रंगमंच हमेशा बहुत गरीब होते हैंय वे प्रस्तुती पर ज्यादा खर्च नहीं कर सकते हैं। दिन के समय में अभिनेता नौकरी कर रहे होते हैं। वे लोग जिनके पास नौकरी नहीं है उन्हें हर दिन लगभग उतना ही काम करना पड़ता है जितना बाकी लोगों को, क्योंकि नौकरी तलाशना अपने आप में एक काम है। पक्के तौर पर जब वे शाम को रिहर्सल के लिए आते हैं तो कम थके हुए नहीं होते हैं। इस तरह से वे लोग जो अभिनय करते हैं यह उनकी शारीरिक ऊर्जा को धोखा देने के सामान है। ठीक उसी समय आत्मविश्वास की कमी उनके अभिनय की चमक को फीका कर देती है। मजदूर वर्ग का रंगमंच महान व्यक्तिगत भावनाएँ, अलग–अलग व्यक्तित्वों, बदलते मनोवैज्ञानिक भाव, सामान्य रूप से “एक ऊँची आन्तरिक जिन्दगी” जैसी चीजें नहीं दिखाता है। इस तरह से मजदूर वर्ग का अभिनय साधारण है जो कि गरीब है।
और फिर भी एक दूसरे तरह की सादगी उनके अभिनय में दिखायी पड़ती है, जो एक तरह से बुनियादी कमी का परिणाम नहीं, बल्कि वह एक विशेष नजरिये और विशेष चिन्ता से पैदा होती है। हम सरलता की बात तब करते हैं जब जटिल समस्याओं ने महारत हासिल कर लेते हैं कि उनका सामना करना आसान हो जाता हो और समझने में कम मुश्किल होती हो। बहुत सारे विरोधाभासी दिखने वाले तथ्य, एक विशाल और हतोत्साहित करने वाली समस्या, अक्सर विज्ञान द्वारा इस ढंग से व्यवस्थित की जाती है कि एक आसान सत्य सामने आता है। इस तरह की सादगी गरीबी को शामिल नहीं करती है। फिर भी जब कभी लोगों के सामाजिक जीवन को एक साथ चित्रित करने का सवाल आता है, तो यह सबसे अच्छे सर्वहारा अभिनेताओं के अभिनय में मिलता है।
मजदूर वर्ग का छोटा रंगमंच हमारे समय के लोगों के बीच के जटिल और रहस्यमयी सम्बन्धों पर अक्सर विचित्र रौशनी डालता है। जहाँ से युद्ध आते हैं, और जो उनसे लड़ता है, और जो उनकी कीमत चुकाता हैय एक आदमी पर दूसरे आदमी के शोषण से जिस तरह की तबाही पैदा होती हैय और बहुत लोगो के प्रयासों को जिस तरफ दिशा दी जाती हैय और जिस तरह की आसान जिन्दगी कुछ लोगों को मिलती हैय जिसका ज्ञान जिनकी सेवा करता हैय जो जिसके काम से आहत हुआय यह सब मजदूरों के छोटे और संघर्षरत रंगमंच ने दिखाया है। मैं सिर्फ नाटक के बारे में नहीं कह रहा हूँ, बल्कि उन लोगों की बात कर रहा हूँ जो उनका सबसे अच्छा मंचन सबसे ज्यादा जीवन्त चिन्ता के साथ करते हैं।
थोड़ा सा और पैसा, और मंच पर दिखाया गया कमरा एक कमरा होगाय थोड़ा सा बोलने का प्रशिक्षण, और अभिनेताओं का भाषण ‘पढ़े लिखे लोगों’ की तरह होगाय थोड़ी सी सार्वजनिक प्रशंसा, और मंचन ताकत लगाकर किया गया होगाय थोड़ा सा पैसा खाने और आराम के लिए, और इस तरह अभिनेता थकेंगे नहीं और अच्छा काम करेंगे। क्या ये चीजें नहीं दी जा सकती हैं ? धनी बुर्जुआ रंगमंच में जो कमी है उसकी पूर्ति करना बहुत आसान नहीं है। उनके मंच पर सम्भवत: युद्ध कैसे युद्ध हो सकता है ? वह कैसे दिखा सकते हैं कि बहुत सारे लोग किस दिशा में प्रयास कर रहे हैं और कुछ लोगों की जिन्दगी इतनी आसान कैसे है ? वह कैसे एक साथ लोगों के जीवन के बारे में महान सरल सत्य का पता लगा सकते हैं, और उन्हें कैसे सामने ला सकते हैं ? एक बार जैसे ही यह गरीबी से ऊपर उठता है तो मजदूर वर्ग का छोटा रंगमंच उस सादगी से भी ऊपर उठने का कुछ मौका पाता है जो उसकी एक पहचान है जिसे गरीबी ने पैदा किया हैय लेकिन अमीर बुर्जुआ रंगमंच के पास सत्य की खोज से मिलने वाली सादगी को पाने का कोई मौका नहीं है।
तो एक ऊँची आन्तरिक जिन्दगी के बारे में महान व्यक्तिगत भावनाएँ, अलग–अलग बदलते व्यक्तित्व, बदलते मनोभाव क्या हैं ? हाँ, यह ऊँची आन्तरिक जिन्दगी जो कुछ बुद्धिजीवियों के लिए एक बाहरी ऊँची जिन्दगी का केवल एक गरीब विकल्प है, उसके बारे में क्या मानना है ? इसका उत्तर यह है कि कला का इससे कोई लेना–देना नहीं है जब तक यह विकल्प के रूप में मौजूद है। महान व्यक्तिगत भावनाएँ कला में साधारण विकृती के रूप में जाहिर होंगी, अप्राकृतिक भाषा और अतिशयोक्ति, संकुचित स्वभावय बढ़ा–चढ़ाकर और अस्वस्थ्य रूप से केवल मनोवैज्ञानिक भावो में दिखाये गये बदलाव, जब तक व्यक्तिगत अल्पसंख्यकों का विशेषाधिकार बना रहता है, जो न केवल ‘व्यक्तित्व’ बल्कि अन्य, अधिक सामग्री का मालिक होता है।
सच्ची कला जनता के साथ गरीब हो जाती है और जनता के साथ ही ऊँचाईयाँ छूती है।
(2) क्या शौकिया रंगमंच के बारे में चर्चा मूल्यवान है ?
जो व्यक्ति गम्भीरता से रंगमंच की कला का अध्ययन करता है उसकी निगाह महान संस्थानों के बाहर सामाजिक कार्य के रूप में रंगमंच की गतिविधियों के विभिन्न रूपों पर जा सकती है जो शौकिया रंगमंच के आधारभूत सिद्धान्त, विकृत, स्वत: प्रवर्तित प्रयास हैं। भले ही शौकिया केवल वही हो जो पेशेवर उन्हें मानते हैं–– दर्शकों के बीच के लोग जो मंच पर उठते हैं–– वे अभी भी काफी दिलचस्प होंगे। स्वीडन शौकिया रंगमंचों के लिए विशेष रूप से समृद्ध देशों में से एक है। इस देश की एक छोर से दूसरे छोर तक की दूरी जो वस्तुत: अपने आप में एक महाद्वीप है राजधानी की पेशेवर कम्पनियों के लिए भी यहाँ की यात्रा उपलब्ध करवाना मुश्किल होता है, इस प्रान्त के लोग तदनुसार अपना रंगमंच खुद बनाते हैं।
स्वीडिश शौकिया नाटक आन्दोलन में लगभग 1000 सक्रिय नाटक समूह हैं और वे कम–से–कम पाँच लाख दर्शकों के लिए हर साल कम–से–कम 2000 शो करते हैं। इस तरह के आन्दोलन का 60 लाख की आबादी वाले देश में सांस्कृतिक महत्व है।
अक्सर यह कहा जाता है कि शौकिया नाट्य प्रदर्शन का कलात्मक और बौद्धिक स्तर घटिया होते हैं। हम यहाँ उनमें नहीं जाएँगे। एक अन्य विचारधारा भी है जो यह मानती है कि कुछ प्रदर्शन कम–से–कम पर्याप्त स्वभाविक प्रतिभा का प्रमाण देते हैं, और कुछ समूह पूर्णता के साथ एक वास्तविक चिन्ता दिखाते हैं। हालाँकि शौकिया रंगमंच को नीची निगाह से देखना इतना सामान्य हो गया है कि कोई भी सोचता है अगर उसका स्तर वास्तव में इतना खराब होता तो कैसा होता। क्या अब इसकी गिनती नहीं होगी ? जवाब बिल्कुल नहीं है।
इसके लिए यह कल्पना नहीं की जानी चाहिए कि कला में शौकिया प्रयासों पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है, अगर कला से कुछ लाभ नहीं होता है। एक खराब मंच प्रदर्शन सिर्फ ऐसा प्रदर्शन नहीं है जो एक अच्छे प्रदर्शन के विपरीत कोई प्रभाव नहीं डालता है। हो सकता है कि जो छाप छोड़ी गयी है वह अच्छी नहीं है, लेकिन एक खराब प्रदर्शन की एक छाप भी कम नहीं होती है। कला में यह सिद्धान्त काफी गलत है कि यदि वह बहुत भला नहीं करती है तो कम–से–कम कोई नुकसान नहीं कर सकती है। अच्छी कला, कला के प्रति संवेदनशीलता को प्रोत्साहित करती है। खराब कला इस को नुकसान पहुँचाती हैय यह इसे अछूता नहीं छोड़ती है।
अधिकांश लोगों के पास कला के परिणामों के बारे में स्पष्ट विचार नहीं होते हैं, चाहे वह अच्छे के लिए हो या बुरे के लिए। वे मानते हैं कि दर्शक कला से आन्तरिक रूप से नहीं जकड़ा है, क्योंकि यह काफी अच्छी कला नहीं है, बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करती है। इस तथ्य के अलावा कि किसी को भी बुरी कला से उतनी ही आसानी से जकड़ लिया जा सकता है जितनी कि अच्छी कला से।
अच्छा हो या बुरा, नाटक में हमेशा दुनिया की छवि शामिल होती है। अच्छा हो या बुरा, अभिनेता दिखाता है कि दी गयी परिस्थितियों में लोग कैसा व्यवहार करते हैं, ईर्ष्यालु व्यक्ति इस तरह से व्यवहार करता है, या यह और वह कार्य ईर्ष्या का परिणाम है। एक अमीर आदमी इन विशेष इच्छाओं के अधीन है, एक बूढ़े व्यक्ति का अनुभव ये विशेष भावनाएँ हैं, एक देश की महिला इस विशेष तरीके से कार्य करती है, आदि आदि। इसके अलावा दर्शकों को इस बारे में कुछ निष्कर्ष निकालने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि दुनिया कैसे काम करती है, यदि वह इस तरह से व्यवहार करता है, वह सुनता है, उसे इसके और उसके परिणाम के बारे में विचार करना चाहिए। उन्हें मंच पर उपस्थित व्यक्तियों की कुछ भावनाओं को साझा करने के लिए लाया जाता है, और इस तरह उन्हें सार्वभौमिक मानवीय भावनाओं के रूप में स्वीकृत करने के लिए, प्राकृतिक मान लेना चाहिए। चूँकि फिल्में इस सम्बन्ध में नाटकों से मिलती–जुलती हैं, लेकिन अधिक व्यापक रूप में जानी जाती हैं। शायद एक फिल्म यह समझाने का काम कर सकती है कि उसका क्या मतलब है।
किपलिंग की एक छोटी कहानी पर आधारित फिल्म “गूंगादीन” में, मैंने ब्रिटिश कब्जे वाली ताकतों को एक देश की आबादी से लड़ते देखा। एक भारतीय जनजाति–– यह शब्द अपने आप में ही कुछ जंगली और असभ्य है–– जैसे ‘लोग’ शब्द के विपरीत हो, उसने भारत में तैनात ब्रिटिश सैनिकों के एक लड़के पर हमला किया। भारतीय आदिम जीव थे, या तो मनोरंजक थे या दुष्ट थे–– अंग्रेजों के प्रति वफादार होने पर मनोरंजक थे और शत्रुता होने पर दुष्ट थे। ब्रिटिश सैनिक ईमानदार, अच्छे, विनोदी व्यक्ति थे और जब उन्होंने भीड़ पर अपनी मुट्ठी का इस्तेमाल किया और उसमें दर्शकों को जब कुछ समझ आ गया, तो वे हँस पड़े। एक भारतीय ने अंग्रेजों के साथ मिलकर अपने हमवतनों को धोखा दिया, अपनी जिन्दगी का बलिदान दिया, ताकि उसके साथी देशवासियों को पराजित किया जा सके, और दर्शकों की हार्दिक प्रशंसा प्राप्त हुई।
मेरा दिल भी छू गया था–– मेरा तालियाँ बजाने का भी मन हुआ, और सभी हँसने वाली जगह पर में हँसा। यह जानते हुए भी कि कुछ गड़बड़ है कि भारतीय आदिम और असंस्कृत लोग नहीं हैं, बल्कि एक शानदार सदियों पुरानी संस्कृति है और इस गूंगादीन को एक अलग तरह से भी देखा जा सकता है जैसे कि अपने लोगों के प्रति गद्दार। मैं खुश और प्रभावित हुआ था क्योंकि यह पूरी तरह से विकृत वर्णन एक कलात्मक सफलता थी और इसे बनाने में प्रतिभा और सरलता में काफी संसाधन लगाये गये थे।
स्पष्टत: इस प्रकार की कलात्मक प्रशंसा सिफारिश किये बिना सम्भव नहीं है। यह अच्छी प्रवृति को कमजोर करती है, और बुरी प्रवृत्ति को मजबूत करती है। यह सच्चे अनुभव के विपरीत है और गलत धारणा फैलाती है। संक्षेप में यह हमारी दुनिया की तस्वीर को उल्टा दिखाती है। ऐसा कोई नाटक या नाट्य प्रदर्शन नहीं है जो किसी–न–किसी तरह से दर्शकों के स्वभाव और भावनाओं को प्रभावित नहीं करता है। कला कभी भी परिणामों के बिना नहीं होती है और वास्तव में इसके बारे में कुछ कहती है।
रंगमंचों पर काफी ध्यान दिया गया है। यहाँ तक कि तथाकथित गैर राजनीतिक रंगमंच–– राजनीतिक प्रभाव को भी दिखाते हैं–– यह राजनीतिक निर्णयों के गठन पर, राजनीतिक मनोदशा और भावनाओं पर भी प्रकाश डालता है। न तो समाजवादी विचारक और न ही पादरी अपने मंच पर इस बात से इनकार करेंगे कि इससे हमारी नैतिकता प्रभावित होती है। यह मायने रखता है कि मंच पर प्रेम, शादी, कार्य और मौत के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। किस तरह के विचार प्रेमियों के लिए, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे व्यक्ति आदि के लिए, स्थापित और प्रचारित किये जाते हैं। इस अत्यन्त गम्भीर क्षेत्र में मंच वस्तुत: एक फैशन शो के रूप में कार्य कर रहा है, न केवल कपड़ों के नये डिजाइन, बल्कि व्यवहार के नये लहजे भी प्रदर्शित कर रहा है, न केवल जो पहना जा रहा ह, बल्कि जो किया जा रहा है। रुचियों के गठन पर रंगमंच का क्या प्रभाव पड़ता है, यह शायद सबसे अधिक रोशनी डालने वाला बिन्दु है, हालाँकि सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु नहीं है। कोई अपने आप को खूबसूरती से कैसे व्यक्त करता है ? समूह बनाने का सबसे अच्छा तरीका क्या है ? सुन्दरता क्या है ? हल्के–फुल्के व्यवहार से क्या बनता है ? सराहने योग्य चालाकी क्या है ? अनगिनत विस्तृत तरीकों से मंच, टकटकी लगाकर देखने वाले दर्शकों की रुचि पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालता है। आस्वादन यथार्थवादी कला में भी एक निर्णायक भूमिका निभाता है, और यथार्थवादी कला से अधिक कहीं और नहीं निभाता। यहाँ तक कि कुरूपता के प्रतिरूप को भी इसके द्वारा निर्देशित करने की आवश्यकता होती है। मंच पर समूह–बद्धताएँ, इसके जरिये पात्रों का अवतरण, रंगों का पैमाना, ध्वनि का नियंत्रण और मुख्य तालय यह सब रुचियो का प्रश्न है।
इसलिए राजनीतिक, नैतिक और सौंदर्य सम्बन्धी सभी प्रभाव रंगमंच से निकलते हैं। अगर ये सभी अच्छे हैं, तब अच्छे प्रभाव और बुरे हैं तो बुरे प्रभाव डालते हैं।
कोई आसानी से भूल जाता है कि मानव शिक्षा अत्यधिक नाटकीय ढंग से आगे बढ़ी है। काफी नाटकीय तरीके से बच्चों को सिखाया जाता है कि व्यवहार कैसे करना हैय तार्किक बहस बाद में आती है। जब फलाँ–फलाँ कुछ होता है तो बच्चों को बताया, दिखाया जाता है कि हँसना चाहिए, जब कोई हँसी हँ स रहा होता है तो वह भी इसमें शामिल हो जाता है, बिना यह जाने कि क्यों हंँ रहे हैं। अगर पूछा जाये कि यह क्यों हँस रहे हैं, तो वह पूरी तरह से परेशान हो जाता है। इसी तरह से बच्चा आँसू बहाने में शामिल हो जाता है। वह केवल इसलिए नहीं रोता कि बड़े रो रहे हैं, बल्कि वास्तविक दुख भी महसूस करता है। यह अंतिम संस्कार में देखा जा सकता है, जिसका अर्थ पूरी तरह से बच्चा समझ नहीं पाता है। ये नाटक की ऐसी घटनाएँ हैं, जो चरित्र बनाती हैं। मानव इशारों, अनुकरण, आवाज के स्वरों की नकल करता है। और दुख से रोना उत्पन्न होता है, किन्तु दुख भी रोने से पैदा होता है।
यह बड़ों के लिए भिन्न नहीं है। उनकी शिक्षा कभी खत्म नहीं होती। उनके साथियों के द्वारा केवल मरे हुए लोगों में ही बदलाव नहीं लाया जा सकता। इस पर विचार करें और आपको महसूस होगा कि चरित्र के निर्माण के लिए रंगमंच कितना महत्वपूर्ण है। आप देखेंगे कि इसका मतलब है कि हजारों को सैकड़ों–हजारों की संख्या में अभिनय करना चाहिए। कला के प्रति इतने सारे लोगों के सरोकार को कोई नकार नहीं सकता है।
और कला खुद उस तरीके से अप्रभावित नहीं होती है जिस तरीके से इसका सबसे आकस्मिक, लापरवाह, अनुभवहीन स्तर पर अभ्यास किया जाता है। रंगमंच सबसे मानवीय और सार्वभौमिक कला है, जो सबसे अधिक प्रचलित है जो न केवल मंच पर, बल्कि रोजमर्रा की जिन्दगी में भी शामिल है। किसी वांछित जन–समुदाय या किसी वांछित दौर के रंगमंच को समग्रता मेंे आँका जाना चाहिए, एक सप्राण जीव के रूप में जो तब तक स्वस्थ नहीं है जब तक कि वह हर अंग में स्वस्थ न हो। यह एक और कारण है कि क्यों शौकिया रंगमंच के बारे में बात करना मूल्यवान है।
अनुवाद–– शालू पवांर
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- क्या लोकतन्त्र का लबादा ओढ़े अमरीका तानाशाही में बदल गया है? 14 Dec, 2018
- पश्चिम एशिया में निर्णायक मोड़ 15 Aug, 2018
- प्रतिबन्धों का मास्को पर कुछ असर नहीं पड़ा है, जबकि यूरोप 4 सरकारें गँवा चुका है: ओरबान 20 Aug, 2022
- बोलीविया में तख्तापलट : एक परिप्रेक्ष्य 8 Feb, 2020
- भारत–इजराइल साझेदारी को मिली एक वैचारिक कड़ी 15 Oct, 2019
- भोजन, खेती और अफ्रीका : बिल गेट्स को एक खुला खत 17 Feb, 2023
- महामारी के बावजूद 2020 में वैश्विक सामरिक खर्च में भारी उछाल 21 Jun, 2021
- लातिन अमरीका के मूलनिवासियों, अफ्रीकी मूल के लोगों और लातिन अमरीकी संगठनों का आह्वान 10 Jun, 2020
- सउ़दी अरब की साम्राज्यवादी विरासत 16 Nov, 2021
- ‘जल नस्लभेद’ : इजराइल कैसे गाजा पट्टी में पानी को हथियार बनाता है 17 Nov, 2023
- राजनीतिक अर्थशास्त्र
- साक्षात्कार
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- चे ग्वेरा की बेटी अलेदा ग्वेरा का साक्षात्कार 14 Dec, 2018
- फैज अहमद फैज के नजरिये से कश्मीर समस्या का हल 15 Oct, 2019
- भारत के एक बड़े हिस्से में मर्दवादी विचार हावी 15 Jul, 2019
- अवर्गीकृत
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- एक अकादमिक अवधारणा 20 Aug, 2022
- डीएचएफएल घोटाला : नवउदारवाद की एक और झलक 14 Mar, 2019
- फिदेल कास्त्रो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के हिमायती 10 Jun, 2020
- बायोमेडिकल रिसर्च 14 Jan, 2021
- भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारत को मुसलमानों का महान स्थायी योगदान 23 Sep, 2020
- सर्वोच्च न्यायलय द्वारा याचिकाकर्ता को दण्डित करना, अन्यायपूर्ण है. यह राज्य पर सवाल उठाने वालों के लिए भयावह संकेत है 20 Aug, 2022
- जीवन और कर्म
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- मीडिया का असली चेहरा 15 Mar, 2019
- फिल्म समीक्षा
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- समाज की परतें उघाड़ने वाली फिल्म ‘आर्टिकल 15’ 15 Jul, 2019