अगस्त 2022, अंक 41 में प्रकाशित

सर्वोच्च न्यायलय द्वारा याचिकाकर्ता को दण्डित करना, अन्यायपूर्ण है. यह राज्य पर सवाल उठाने वालों के लिए भयावह संकेत है

(सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने 2009 में दन्तेवाड़ा में माओवादी ऑपरेशन के नाम पर सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों के प्रति कथित यातना और न्यायेतर हत्याओं की जाँच की माँग करते हुए सर्वोच्च न्यायलय में एक याचिका दायर की थी। यह घटना सितम्बर और अक्टूबर 2009 की है जब छत्तीसगढ़ के तत्कालीन दन्तेवाड़ा और अब सुकमा जिले के गाँवों में 12 साल की बच्ची सहित 17 आदिवासी मारे गये थे और कई घायल हो गये थे तथा उनके घर तबाह कर दिये गये थे। सर्वाेच्च न्यायलय ने उस याचिका को खारिज कर दिया और याचिकाकरता पर 5 लाख रुपये की ‘अनुकरणीय’ लागत का दण्ड भी लगा दिया। हिमांशु कुमार का कहना है कि वे गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन पर लगाये गये आर्थिक दण्ड का भुगतान नहीं करेंगे, क्योंकि इसका अर्थ होगा कि वे दोषी हैं। इस फैसले पर प्रस्तुत है–– इण्डियन एक्सप्रेस की सम्पादकीय टिप्पणी।)

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें 2009 में दन्तेवाड़ा में माओवाद विरोधी अभियानों के दौरान छत्तीसगढ़ पुलिस और केन्द्रीय बलों द्वारा कथित यातना और न्यायेतर हत्याओं की सीबीआई जाँच की माँग की गयी थी। इसके बाद जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस जे बी पारदीवाला की पीठ ने जो किया वह परेशान करने वाला मसला है। इसने मुख्य याचिकाकर्ता पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया। अदालत ने कहा कि जाँच ने संकेत दिया कि 17 सितम्बर और 1 अक्टूबर, 2009 को अलग–अलग घटनाओं में 17 लोगों की हत्या के लिए माओवादी जिम्मेदार थे, न कि सुरक्षा बल। साथ ही उसने हिमांशु कुमार पर एक ‘अनुकरणीय’ लागत भी लगायी, जो दन्तेवाड़ा में एक एनजीओ चलाते हैं। अदालत का भारी जुर्माना उन सभी लोगों के लिए एक भयावह संकेत देता है जो भविष्य में राज्य के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने जा सकते हैं, जिनके पास एक दलील के अलावा और चारा नहीं होता। यह याचिकाओं को कहीं से भी, और किसी भी रूप में स्वीकार करने के अदालत के अपने दृष्टिकोण को, जिसमें न्यायाधीश को सम्बोधित कोई पोस्टकार्ड या एक समाचार पत्र की किसी रिपोर्ट को भी याचिका मान लिया जाता था, उसको समाप्त कर देता है और उलट देता है। जनहित याचिका न्यायक्षेत्र में, वास्तव में, याचिकाकर्ता को अक्सर मामले में गौण मान लिया जाता है, क्योंकि अदालत मामले को अपने हाथ में लेती है, स्थानीय आयुक्तों और अधिकारियों की नियुक्ति करती है, सत्य की खोज में उचित तत्परता सुनिश्चित करती है। याचिकाकर्ता पर कठोर दण्ड मामला दर मामला राज्य के रुख को भी प्रतिध्वनित करता है–– उन सभी लोगों के ऊपर गलत मकसद की चिप्पी लगाता जो सवाल उठाते हैं और जवाब, इन्साफ या समाधान की माँग करते हैं।

दन्तेवाड़ा मामले में याचिकाकर्ता पर जुर्माना लगाना एक नये उभरते न्यायिक ढाँचे का हिस्सा है। इसमें गुजरात 2002 के एक मामले में पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी शामिल है। इधर, शीर्ष अदालत ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार को एसआईटी द्वारा क्लीन चिट दिये जाने को बरकरार रखा और राज्य के उच्च पदाधिकारियों द्वारा एक बड़ी साजिश के आरोपों को खारिज कर दिया। लेकिन यह यहीं नहीं रुका–– इसने याचिकाकर्ताओं के लिए सजा की भी माँग की। इसने उन लोगों को कटघरे में खड़ा कर दिया, जो इसकी निगाह में, ‘स्पष्ट रूप से गलत मकसद के लिए’ ‘मामले को गरमाते रहते हैं’ और आग्रह किया कि उनके खिलाफ कार्रवाई की जाये। इशारा पाते ही, सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात के पूर्व डीजीपी आर बी श्रीकुमार को अगले ही दिन गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि प्राथमिकी में शीर्ष अदालत के फैसले से बड़े पैमाने पर उद्धरण दिया गया। मामले का स्वरूप चाहे जैसा हो, और भले ही वह अदालत में टिकने लायक न भी हो, लेकिन याचिकाकर्ता को घेरना और दंडित करना अन्यायपूर्ण और अनुचित है। बेहद बुनियादी तौर पर, यह लोकतंत्र में नागरिक और एक स्वतंत्र अदालत के बीच बुनियादी समझौते का उल्लंघन करता है–– सर्वाेच्च न्यायलय व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रता का संरक्षक है और उसे होना चाहिए, उसे राज्य द्वारा उन अधिकारों के अतिक्रमण के खिलाफ उनकी रक्षा करना चाहिए, लेकिन इसके हालिया दृष्टिकोण से पता चलता है कि यह ऐसे व्यक्तियों को अड़चन के रूप में देखता है और राज्य को ही इस रूप में देखता है जिसे बचाये जाने की जरूरत है।

सुप्रीम कोर्ट को इस चिन्ताजनक विचलन पर विचार करना चाहिए और इससे पहले कि संवैधानिक सुरक्षा और सन्तुलन के रक्षक के रूप में अपनी कड़ी मेहनत से अर्जित प्रतिष्ठा को और अधिक नुकसान पहुँचे, ऐसी कार्रवाई को रोकना चाहिए। हर याचिकाकर्ता जो अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाता है, उसे यह महसूस करना चाहिए, उसे पता होना चाहिए कि भले ही उसकी याचिका को खारिज कर दिया गया, लेकिन उसे सुना गया, लेकिन दण्डित नहीं किया गया या उस पर अर्थदण्ड नहीं लगाया गया।

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