सितम्बर 2024, अंक 46 में प्रकाशित

समझौता

–– गजानन माधव मुक्तिबोध

अँधेरे से भरी, धुँधली, सँकरी प्रदीर्घ कॉरिडार और पत्थर की दीवारें। ऊँची घन की गहरी कार्निस पर एक जगह कबूतरों का घोंसला और कभी–कभी गूँज उठनेवाली गुटरगूँ, जो शाम के छह बजे के सूने को और भी गहरा कर देती है। सूनी कॉरिडार घूमकर एक जीने तक पहुँचती है। जीना ऊपर चढ़ता है, बीच में रुकता है और फिर मुड़कर एक दूसरी प्रदीर्घ कॉरिडार में समाप्त होता है।

सभी कमरे बन्द हैं। दरवाजों पर ताले लगे हैं। एक अजीब निर्जन, उदास सूनापन इस दूसरी मंजिल की कॉरिडार में फैला हुआ है। मैं तेजी से बढ़ रहा हूँ। मेरी चप्पलों की आवाज नहीं होती। नीचे मार्ग पर टाट का मैटिंग किया गया है।

दूर, सिर्फ एक कमरा खुला है। भीतर से कॉरिडार में रोशनी का एक खयाल फैला हुआ है। रोशनी नहीं, क्योंकि कमरे पर तक हरा परदा है। पहुँचने पर बाहर, धुँधले अँधेरे में एक आदमी बैठा हुआ दिखाई देता है। मैं उसकी परवा नहीं करता। आगे बढ़ता हूँ और भीतर घुस जाता हूँ।

कमरा जगमगा रहा है। मेरी आँखों में रोशनी भर जाती है। एक व्यक्ति काला ऊनी कोट पहने, जिसके सामने टेबिल पर कागज बिखरे पड़े हैं, अलसायी–थकी आँखें पोंछता हुआ मुसकराकर मुझसे कहता है, “आइए, हुजूर, आइए!”

मेरा जी धड़ककर रह जाता है, ‘हूजूर’ शब्द पर मुझे आपत्ति है। उसमें गहरा व्यंग्य है। उसमें एक भीतरी मार है। मैं कन्धों पर फटी अपनी शर्ट के बारे में सचेत हो उठता हूँ। कमर की जगह पैंट तानने के लिए बेल्टनुमा पट्टी के लिए जो बटन लगाया गया था, उसकी गैरहाजिरी से मेरी आत्मा भड़क उठती है।

और मैं ईर्ष्या से उस व्यक्ति के नये फैशनेबल कोट की ओर देखने लगता हूँ और जवान चेहरे की ओर मुस्कान भरकर कहता हूँ, “आपका काम खत्म हुआ!”

मेरी बात में बनावटी मैत्री का रंग है। उसका काम खत्म हुआ या नहीं, इससे मुझे मतलब?

उसकी अलसायी थकान के दौर में वहाँ मेरा पहुँचना शायद उसे अच्छा लगा। शायद अपने काम से उसकी जो उक्ताहट थी, वह मेरे आने से भंग हुई। अकेलेपन से अपनी मुक्ति से प्रसन्न होकर उसने फैलते हुए कहा, “बैठो, बैठो, कुरसी लो!”

उसका वचन सुनकर मैं धीरे–धीरे कुरसी पर बैठता हूँ। वह अफसर फिर फाइलों में डूब जाता है। दो पलों का विश्राम मुझे अच्छा लगता है। मैं कमरे का अध्ययन करने लगता हूँ। वही कमरा, मेरा जाना पहचाना, जिसकी हर चीज मेरी जमायी है। मेरी देख–रेख में उसका पुरा इन्तजाम हुआ है। खूबसूरत आराम कुरसियां, सुन्दर टेबल, परदे, आलमारियाँ, फाइलें रखने का साइडरेक आदि–आदि। इस समय वह कमरा अस्त–व्यस्त लगता है और बेहद पराया। बिजली की रोशनी में, उसकी अस्त–व्यस्तता चमक रही है, उसका परायापन जगमगा रहा है।

मैं एक गहरी साँस भरता हूँ और उसे धीरे–धीरे छोड़ता हूँ। मुझे हृदय–रोग हो गया है–– गुस्से का, क्षोभ का, खीझ का और अविवेकपूर्ण कुछ भी कर डालने की राक्षसी क्षमता का।

मेरे पास पिस्तौल है। और, मान लीजिए, मैं उस व्यक्ति का–– जो मेरा अफसर है, मित्र है, बन्धु है–– अब खून कर डालता हूँ। लेकिन पिस्तौल अच्छी है, गोली भी अच्छी है, पर काम–– काम बुरा है। उस बेचारे का क्या गुनाह है? वह तो मशीन का एक पुर्जा है। इस मशीन में गलत जगह हाथ आते ही वह कट जाएगा, आदमी उसमें फँसकर कुचल जाएगा, जैसे बैगन। सबसे अच्छा है कि एकाएक आसमान में हवाई जहाज मँडराये, बमबारी हो और वह कमरा ढह पड़े, जिसमें मैं और वह दोनों खत्म हो जाएँ। अलबत्ता, भूकम्प भी यह काम कर सकता है।

फाइल से सिर ऊँचा करके उसने कहा, “भाई, बड़ा मुश्किल है।” और उसने घण्टी बजायी।

एक ढीला–ढाला बेवकूफ–सा प्रतीत होनेवाला स्थूलकाय व्यक्ति सामने आ खड़ा हुआ।

अफसर ने, जिसका नाम मेहरबान सिंह था, भौंहें ऊँची करके सप्रश्न भाव से कहा, “कैण्टीन से दो कप गरम चाय ले आओ।” मेरी तरफ ध्यान से देखकर फिर उससे कहा, “कुछ खाने को भी ले आना।”

चपरासी की आवाज ऊँची थी। उसने गरजकर कहा, “कैण्टीन बन्द हो गयी।”

“देखो, खुली होगी, अभी छह नहीं बजे होंगे।”

चाय और अल्पाहार के प्रस्ताव से मेरा दिमाग कुछ ठण्डा हुआ। जरा दिल में रोशनी फैली। आदमीयत सब जगह है। इनसानियत का ठेका मैंने ही नहीं लिया। मेरा मस्तिष्क का चक्र घूमा। पैवलॉव ने ठीक कहा था–– ‘कंडिशण्ड रिफ्लेक्स!’ खयाल भी रिफ्लेक्स ऐक्शन है, लेकिन मुझे पैवलॉव की दाढ़ी अच्छी लगती है। उससे भी ज्यादा प्रिय, उसकी दयालु, ध्यान भरी आँखें। उसका चित्र मेरे सामने तैर आता है।

मैं कुरसी पर बैठे–बैठे उकता जाता हूँ। कोई घटना होनेवाली है, कोई बहुत बुरी घटना। लेकिन मुझे उसका इन्तजार नहीं है। मैं उसके परे चला गया। कुछ भी कर लूँगा। मेहनत, मजदूरी। फाँसी पर तो चढ़ा नहीं देंगे। लेकिन, एक दॉस्तॉएवस्की था, जो फाँसी पर चढ़ा और जिन्दा उतर आया। जी हाँ, ऐन मौके पर जार ने हुक्म दे दिया। देखिए, भाग्य ऐसा होता है।

मैं कॉरिडार में जाता हूँ वहाँ अब घुप अँधेरा हो गया। मैं एक जगह ठिठक जाता हूँ, जहाँ से जीना घूमकर नीचे उतरता है। यह एक सँकरी आँगननुमा जगह है। मैं रेलिंग के पास खड़ा हो जाता हूँ। नीचे कूद पडूँ तो। बस काम तमाम हो जाएगा! जान चली जाएगी, फिर सब खत्म, अपमान खत्म, भूख खत्म––– लेकिन प्यार भी खत्म हो जाएगा, उसको सुरक्षित रखना चाहिए–––और फिर चाय आ रही है। चाय पीकर ही क्यों न जान दी जाए, तृप्त होकर, सबसे पूछकर!

बिल्ली जैसे दूध की आलमारी की तरफ नजर दौड़ाती है, उसी तरह मैंने बिजली के बटन के लिए अँधेरे भरी पत्थर की दीवार पर नजर दौड़ायी। हाँ, वो वहीं है। बटन दबाया। रोशनी ने आँख खोली। लेकिन प्रकाश नाराज–नाराज–सा, उकताया–उकताया–सा फैला।

चलो, मैंने सोचा, चपरासी को रास्ता साफ दीखेगा।

मैंने एक ओर के दरवाजे से प्रवेश किया। दूसरी ओर के दरवाजे से चपरासी ने। मेरा चेहरा खुला। मेहरबान सिंह, नाटे–से, काले–से, कभी फीस की माफी के लिए हरिजन, कभी गोण्ड–ठाकुर, अलमस्त और बेफिक्रे, जबान के तेज, दिल से साफ, अफसरी बू और आदमीयत की गन्ध! और एक छोटा–सा चैकोर चेहरा! उन्होंने हाथ ऊँचे कर, देह मोड़कर बदन से आलस मुक्त किया और एक लम्बी जमुहाई ली।

मेरा ध्यान चाय की ट्रे पर था। उनका ध्यान कागज पर।

उन्होंने कहा, “करो दस्तखत–––यहाँ––– यहाँ”

मैं धीरे–धीरे कुरसी पर बैठा। आँखें कागज पर गड़ायीं। भवें सिकुडीं और मैं पूरा–का–पूरा, कागज में समा गया।

मैंने चिढ़कर अँगरेजी में कहा, “यह क्या है?”

उन्होंने दृढ़ स्वर में जवाब दिया, “इससे ज्यादा कुछ नहीं हो सकता।”

विरोध प्रदर्शित करने के लिए मैं बेचैनी से कुरसी से उठने लगा तो उन्होंने आवाज में नरमी लाकर कहा, “भाई मेरे, तुम्हीं बताओ, इससे ज्यादा क्या हो सकता है! दिमाग हाजिर करो, रास्ता सुझाओ”

“लेकिन मुझे ‘स्केपगोट’ बनाया जा रहा है, मैंने क्या किया!”

चाय के कप में शक्कर डालते हुए उन्होंने, एक और कागज मेरे सामने सरका दिया और कहा, “पढ़ लीजिए”

मुझे उस कागज को पढ़ने की कोई इच्छा नहीं थी। चाहे जो अफसर मुझे चाहे जो काम नहीं कह सकता। मेरा काम बँधा हुआ है।

नियम के विरुद्ध मैं नहीं था, वह था। लेकिन, उसने मुझे जब डाँटकर कहा तो मैंने पहले अदब से, फिर ठण्डक से, फिर और ठण्डक से, फिर खीझकर एक जोरदार जवाब दिया। उस जवाब में ‘नासमझ’ और ‘नाख्वाँद’ जैसे शब्द जरूर थे। लेकिन, साइण्टिफिकली स्पीकिंग, गलती उसकी थी, मेरी नहीं! फिर गुस्से में मैं नहीं था। एक जूनियर आदमी मेरे सिर पर बैठा दिया गया, जरा देखो तो! इसीलिए कि वह फलाँ–फलाँ का खास आदमी, वह ‘खास–खास’ काम करता था। उस शख्स के साथ मेरी ‘ह्यूमन डिफिकल्टी’ थी।

मेहरबान सिंह ने कहा, “भाई, गलती मेरी भी थी, जो मैंने यह काम तुम्हारे सिपुर्द करने के बजाय, उसको सौंप दिया। लेकिन चूँकि फाइलें दौड़ गयी हैं, इसलिए ऐक्शन तो लेना ही पड़ेगा। और उसमें है क्या वार्निंग है, सिर्फ हिदायत!”

हम दोनों चाय पीने लगे और बीच–बीच में खाते जाते।

एकाएक उन्हें जोर की गगन–भेदी हँसी आयी। मैं विस्मित होकर देखने लगा। जब उनकी हँसी का आलोड़न खत्म होने को था कि उन्होंने कहा, “लो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। तुम अच्छे, प्रसिद्ध लेखक हो। सुनो और गुनो!”

और मेहरबान सिंह का छोटा–सा चेहरा गम्भीर होकर कहानी सुनाने लगा।

––मुसीबत आती है तो चारों ओर से। जिन्दगी में अकेला, निस्संग और बीए पास एक व्यक्ति। नाम नहीं बताऊँगा।

कई दिनों से आधा पेट। शरीर से कमजोर। जिन्दगी से निराश। काम नहीं मिलता। शनि का चक्कर।

हर भले आदमी से काम माँगता है। लोग सहायता भी करते हैं। लेकिन उससे दो जून खाना भी नहीं मिलता, काम नहीं मिलता, नौकरी नहीं मिलती। चपरासीगिरी की तलाश है, लेकिन वह भी लापता। कपबशी धोने और चाय बनाने के काम से लगता है कि दो दिनों बाद अलग कर दिया जाता है। जेब में बीए का सर्टिफिकेट है। लेकिन किस काम का?

मैंने सोचा, मेहरबान सिंह अपनी जिन्दगी की कथा कह रहे हैं। मुझे मालूम तो था कि मेरे मित्र के बचपन और नौजवानी के दिन अच्छे नहीं गये हैं। मैं और ध्यान से सुनने लगता हूँ।

मेहरबान सिंह का छोटा–सा काला चैकोर चेहरा भावना से विद्रूप हो जाता है। वह मुझसे देखा नहीं जाता। मेहरबान सिंह कहता है–– नौकरी भी कौन दे? नीचे की श्रेणी में बड़ी स्पर्धा है। चेहरे से वह व्यक्ति एकदम कुलीन, सुन्दर और रौबदार, किन्तु घिघियाया हुआ। नीचे की श्रेणी में जो अलकतियापन है, गाली–गलौज की जो प्रेमपदावली, फटेहाल जिन्दगी की जो कठोर, विद्रूप, भूखी, भयंकर सभ्यता है, वहाँ वह कैसे टिके। कमजोर आदमी, रिक्शा कैसे चलाए।

नीचे की श्रेणी उस पर विश्वास नहीं कर पाती। उसे मारने दौड़ती है। उसका वहाँ टिकना मुश्किल है। दरमियानी वर्ग में वह जा नहीं सकता। कैसे जाए, किसके पास जाए! जब तक उसकी जेब में एक रुपया न हो।

मेहरबान सिंह के गले में आँसू का काँटा अटक गया। मैं सब समझता हूँ, मुझे खूब तजरबा है, इस आशय से मैंने उनकी तरफ देखा और सिर हिला दिया।

उन्होंने सूने में, अजीब से सूने में, निगाह गड़ाते हुए कहा–– शायद उनका लक्ष्य आँखों–ही–आँखों में आँसू सोख लेने का था, जिन्हें वे बताना नहीं चाहते थे–– आत्महत्या करना आसान नहीं है। यह ठीक है कि नयी शुक्रवारी–तालाब में महीने में दो बार आत्महत्याएँ हो जाती हैं। लेकिन छ: लाख की जनसंख्या में सिर्फ दो माहवार, यानि साल में चैबीस। दूसरे जरियों से की गयी आत्महत्याएँ मिलायी जायें तो सालाना पचास से ज्यादा न होंगी। यह भी बहुत बड़ी संख्या है। आत्महत्या आसान नहीं है।

उनके चेहरे पर काला बादल छा गया। अब वे पहचान में नहीं आते थे। अब वे मेरे अफसर भी न रहे, मेरे परिचित भी नहीं। सिर्फ एक अजनबी–– एक भयानक अजनबी। मेरा भी दम घुटने लगा। मैंने सोचा, कहाँ का किस्सा छेड़ दिया। मेहरबान सिंह ने मेरी ओर कहानीकार की निगाह से देखा और कहा कि उन दिनों शहर में एक सर्कस आया हुआ था। बड़ी धूम–धाम थी। बड़ी चहल–पहल।

रोज सुबह–शाम सर्कस का प्रोसेशन निकलता, बाजे–गाजे के साथ बैण्ड–बाजे के साथ। जुलुस में एक मोटर का ठेला भी चलता, खुला ठेला, प्लेटफार्म–नुमा। उस पर रंग–बिरंगे, अजीबोगरीब जोकर विचित्र हावभाव करते हुए नाचते रहते। लोगों का ध्यान आकर्षित करते।

––जो एक लम्बे अरसे से बेघरबार और बेकार रहा है, उसकी इंस्टिंक्ट (प्रवृत्ति) शायद आपको मालूम नहीं। वह व्यक्ति क्रान्तिकारी नहीं होता, वह खासतौर पर––– घुमन्तु ‘जिप्सी’ होता है। उसे चाहे जो वस्तु, दृश्य, घटना, दुर्घटना, यात्रा, बारिश, कष्ट, दुख, सुन्दर चेहरा, बेवकूफ चेहरा, मलिनता, कोढ़, सब तमाशे–नुमा मालूम होता है। चाहे जो––– खींचता है––– आकर्षित करता है और कभी–कभी पैर उधर चल पड़ते हैं।

एक आइडिया, एक खयाल आँखों के सामने आया। जोकर होना क्या बुरा है! जिन्दगी–एक बड़ा भारी मजाक हैय और तो और, जोकर अपनी भावनाएँ व्यक्त कर सकता है। चपत जड़ सकता है। एक–दूसरे को लात मार सकता है और, फिर भी, कोई दुर्भावना नहीं है। वह हँस सकता है, हँसा सकता है। उसके हृदय में इतनी सामर्थ्य है।

मेहरबान सिंह ने मेरी ओर अर्थ–भरी दृष्टि से देखकर कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि जोकर का काम करना एक परवर्शन–– अस्वाभाविक प्रवृत्ति है। मनुष्य की सारी सभ्यता के पूरे ढाँचे चरमराकर नीचे गिर पड़ते हैं, चूर–चूर हो जाते हैं। लेकिन असभ्यता इतनी बुरी चीज नहीं, जितना आप समझते हैं। उसमें इंस्टिंक्ट का, प्रवृत्ति का खुला खेल है, आँख–मिचैनी नहीं। लेकिन अलबत्ता, वह परवर्शन जरूर है। परवर्शन इसलिए नहीं कि मनुष्य परवर्ट है, वरन इसलिए कि परवर्शन के प्रति उसका विशेष आकर्षण है, या कभी–कभी हो जाता है। अपने इंस्टिंक्ट के खुले खेल के लिए असभ्य और बर्बर वृत्ति के सामर्थ्य और शक्ति के प्रति खिंचाव रहना, मैं तो एक ढंग का परवर्शन ही मानता हूँ।

मेहरबान सिंह के इस वक्तव्य से मुझे लगा कि वह उनका एक आत्मनिवेदन मात्र है। मैं यह पहचान गया। इसे भाँप गया। उनकी आँखों में एकाएक प्रकट हुई और फिर वैसे ही तुरन्त लुप्त हुई रोशनी से मैं यह जान गया। लेकिन मेरे खयाल की उन्होंने परवा नहीं की। और उनकी कहानी आगे बढ़ी।

––आखिरकार उसने जोकर बनने का बीड़ा उठाया। भूख ने उसे काफी निर्लज्ज भी बना दिया था।

शाम को, जब खेल शुरू होने के लिए करीब दो घण्टे बाकी थे, उसने सर्कस के द्वार से घुसना चाहा कि वह रोक दिया गया। वह अन्दर जाने के लिए गिड़गिड़ाया। दो मजबूत आदमियों ने उसकी दो बाँहें पकड़ ली। वे गोआनीज मालूम होते थे।

“कहाँ जा रहे हो?”

रौब जमाने के लिए उसने अंगरेजी में कहा, “मैनेजर साहब से मिलना है।”

अंगरेजी में जवाब मिला, “वहाँ नहीं जा सकते! क्या काम है?”

हिन्दी में–– “नौकरी चाहिए।”

अंगरेजी में जवाब मिला, “नौकरी नहीं है, गेट–आउट।” और वह बाहर फेंक दिया गया।

दिल को धक्का लगा। बाहर, एक पत्थर पर बैठे–बैठे वह सोचने लगा–– कहीं भी जनतंत्र नहीं है। यहाँ भी नहीं। भीख नहीं माँग सकता, यह असम्भव है, इसलिए नौकरी की तलाश है। और वह मन–ही–मन न मालूम क्या–क्या बड़बड़ाने लगा।

मेहरबान सिंह ने कहा कि यहाँ से कहानी एक नये और भयंकर तरीके से मुड़ जाती है। वह मैनेजर को देखने का प्रयत्न करे, या वापस हो! बताइए, आप बताइए! और, उन्होंने मेरी आँखों में आँखें डालीं।

उनके प्रश्न का मैं क्या जवाब देता! फिर भी मैंने अपने तर्क से कहा कि स्वाभाविक यही है कि वह मैनेजर से मिलने की एक बार और कोशिश करे। जोकर की कमाई भी मेहनत की कमाई होती है! कोई धर्मादाय पर जीने की बात तो है नहीं।

––एक्जैक्टली! (ठीक बात है) उन्होंने कहा। उसने भी यही निर्णय लिया, लेकिन यह निर्णय उसके आगे आनेवाले भीषण दुर्भाग्य का एकमात्र कारण था। वह निर्णयात्मक क्षण था, जब उसने यह तय किया कि मैनेजर से मिलने के लिए सर्कस के सामने वह भूख–हड़ताल करेगा। उसने यह तय किया, संकल्प किया, प्रण किया। और, वह प्रण आगे चलकर उसके नाश का कारण बना! दिल की सचाई और सही–सही निर्णय से, दुर्भाग्य का कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका चक्र स्वतन्त्र है, उसके अपने नियम हैं।

मेहरबान सिंह अपनी कुरसी से उठ पड़े। कोट की जेबों में माचिस की तलाश करने लगे। मैंने अपनी जेब से उन्हें दियासलाई दी, जिसमें कुछ ही तीलियाँ शेष थीं। उन्होंने मुझे सिगरेट ऑफर की। मैंने कहा, “नहीं–नहीं, मेरे पास बीड़ी है।” “अरे लो!! कमरेड! लाओ मुझे बीड़ी दो! मैं बीड़ी पीऊँगा!!”

कामरेड शब्द के प्रयोग पर मुझे ताज्जुब है। ऐसा उन्होंने क्यों कहा? मेरे लिए इस शब्द का आज तक किसी ने प्रयोग नहीं किया। मैं मेहरबान सिंह के अतीत के विषय में कुछ जिज्ञासु और सशंक हो उठा। मेरी कल्पना ने कहा– इनके भूतकाल में कोई भूत जरूर बैठा है। एक सेकण्ड क्लास गजटेड अफसर की रैंक का आदमी, इस शब्द का प्रयोग करता है, जरूर वह पुराने जमाने में उचक्का रहा होगा।

मेहरबान सिंह ने भौंहों के परे देखते हुए, मानो आसमान की तरफ देख रहे हों, बीड़ी का एक कश खींचा और कहा, “इसके आगे मैं ज्यादा नहीं कह सकूँगा, केवल इम्प्रेशन ही कहूँगा।”

––भूख हड़ताल के आस–पास लोगों के जमाव से घबराकर नौकरों ने शायद, मैनेजर के सामने जाकर यह बात कही। थोडे ही समय बाद, शामियाने के अन्दर बनाये गये एक कमरे में वह ले जाया गया। भीड़ बाहर रोक दी गयी। थोड़ी देर बाद सर्कस शुरू हुआ।

काले पैंट पर सफेद झक कोट पहने वह साढ़े छ: फुट का एक मोटा–ताजा आदमी था, जो बिलकुल गोरा, यहाँ तक कि लाल मालूम होता था। वह या तो ऐंग्लो–इंडियन होगा य गोआनीज! आँखें कंजी, जिसमें हरी झाँक थी। वह एकदम चीता मालूम होता था। उतना ही खूबसूरत, वैसा ही भयंकर!

उसने साफ हिन्दी में कहा, “क्या चाहते हो?”

उसे काटो तो खून नहीं। उसके राक्षसी भव्य सफेद सौन्दर्य को देखकर, वह इतना हतप्रभ हो गया था।

मैनेजर ने फिर पूछा, “क्या चाहते हो?”

दिमाग सुन्न हो गया था। मैनेजर के आसपास खूबसूरत औरतें आ–जा रही थीं। गुलाब–सी खिली हुई, या जिन्दा लाल माँस–सी चमकती हुई। लेकिन भयंकर आकर्षक।

उसने सोचा, यह एक नया तजरबा है।

उसने शब्दों में दयनीयता लाते हुए कहा, “मुझे नौकरी चाहिए, कोई भी। चाहो तो झाडू दे सकता हूँ, कपड़े साफ कर सकता हूँ। मुझे नौकर रख लो। चाहो तो मुझे जोकर बना दो, कई दिन से, पेट में कुछ नहीं! मैं आपके पाँव पड़ता हूँ।”

––तो, साहब वह गिड़गिड़ाहट जारी रही। शब्द, वाक्य बगैर कामा फुलस्टाप के बहते गये, गहते गये! वहाँ के वातावरण के चमत्कारपूर्ण भयंकर आकर्षण ने उसे जकड़ लिया। उसने निश्चय कर लिया कि मैं जान दे दूँगा, लेकिन यहाँ से टलूँगा नहीं।

मैनेजर ने ऐसा आदमी नहीं देखा था। पता नहीं, उसने क्या सोचा। लेकिन उसके चेहर पर आश्चर्य और घृणा के भाव रहे होंगे।

उसने कठोर स्वर में कहा, “मेरे पास कोई नौकरी नहीं है। लेकिन तुम्हें रख सकता हूँ, सिर्फ एक शर्त पर।”

वह उसका चेहरा देखता खड़ा रह गया। अचानक दया से, उसके मुँह से एक शब्द भी न निकला। उसने केवल इतना सुना,‘सिर्फ एक शर्त पर’।

उसने मौखिक व्यायाम–सा करते हुए कहा, “मैं हर शर्त मानने के लिए तैयार हूँ। मैं झाडू दूँगा। पानी भरूँगा। जो कहेंगे सो करूँगा।” (जिन्दगी का एक ढर्रा तो शुरू हो जाएगा।)

मैनेजर ने घृणा, तिरस्कार और रौब से उसके सामने एक रुपया फेंकते हुए कहा, “जाओ, खा आओ, कल सुबह आना!” और मुँह फिराकर वह दूसरी ओर चलता बना। एक सीन खत्म हुआ।

दुर्भाग्य के मारे इस व्यक्ति ने फिर उस मैनेजर का चेहरा कभी नहीं देखा।

मेहरबान सिंह किस्सा कहते–कहते थक गये–से मालूम हुए। उन्होंने एक सिगरेट मेरे पास फेंकी, एक खुद सुलगायी और कहने लगे, “किस्सा मुख्तसर में यों है कि दूसरे दिन जब तड़के ही वह व्यक्ति सर्कस में दाखिल हुआ तो दो अजनबी आदमियों ने उसकी बाँहे पकड़ ली और एक बन्द कोठे में ले गये। उसे कहा गया कि उसकी ड्यूटी सिर्फ कमरे में बैठे रहना है। उस दिन उसे खाना–पीना नहीं मिला। कोठे में किसी जंगली दरिन्दे की बास आ रही थी। उसके शरीर की उग्र दुर्गन्ध वहाँ वातावरण में फैली हुई थी। कमरा छोटा था। और बहुत ऊँचाई पर एक छोटा–सा सूराख था, जहाँ से हवा और प्रकाश आता थाय लेकिन वह अँधेरे के सूनेपन को चीरने में असमर्थ था। वह व्यक्ति एक दिन और एक रात वहाँ पड़ा रहा। उसे सिर्फ दरिन्दों का खयाल आता। उनके भयानक चेहरे उसे दिखाई देते, मानो वे उसे खा जाएँगे।

एक बड़े ही लम्बे और कष्टदायक अरसे के बाद, जब एक चमकदार यहूदी औरत ने कोठे का दरवाजा खोला और कहा, “गुड मार्निंगष्, तब उसे समझ में आया कि वह स्वयं जिन्दगी का एक हिस्सा है, मौत का हिस्सा नहीं। औरत बेतकल्लुफी से उसके पास बैठ गयी और उसे नाश्ता कराया, जिसमें कम–से–कम तीन कप गरम–गरम चाय, ताजा भुना गोश्त, अण्डा, सेण्डविचेज और कुछ भारतीय मिठाई भी थी।

लेकिन, इतना सब कुछ उससे खाया नहीं गया। मरे हुए की भाँति उसने पूछा, “मुझे कब तक कोठे में रखा जाएगा, मेरी ड्यूटी क्या है?”

यहूदी औरत सिर्फ मुसकरायी। उसने कहा, “ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम्हारी तरक्की का रास्ता खुल रहा है। ये तो बीच के इम्तिहानात हैं, जिन्हें पास करना निहायत जरूरी है।” किन्तु, उस व्यक्ति का मन नहीं भरा। उसने फिर पूछा, “क्या मैं मैनेजर से मिल सकता हूँ?”

यहूदी औरत ने उसकी तरफ सहानुभूतिपूर्वक देखते हुए कहा, “अब मैनेजर से तुम्हारी मुलाकात हो ही नहीं सकती। अब तुम दूसरे के चार्ज में पहुँच गये हो, वह तुम्हें मैनेजर से मिलने नहीं देगा।”

यहूदी औरत जब वापस जाने लगी तब उसने कहा, “कल फिर आओगी क्या?”

उसने पीछे की ओर देखा, मुसकरायी और बगैर जवाब दिये वापस चली गयी। कोठे का दरवाजा बाहर से बन्द हो गया। और, एक बच्चे की भाँति वह उस चमकदार और छाया–बिम्ब से खेलता रहा।

किन्तु उसका यह सुख क्षणिक ही था। लगभग दो घण्टे घुप अँधेरे में रहने के बाद दरवाजा चरमराया और वास्कट पहने हुए दो काले व्यक्ति हण्टर लिए हुए वहाँ पहुँचे।

वे न मालूम कैसी–कैसी भयंकर कसरतें करवाने लगे, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। वे कसरतें नहीं थीं, शारीरिक अत्याचार था। जरा गलती होने पर वे हण्टर मारते। इस दौरान उस व्यक्ति की काफी पिटाई हुई। उसके हाथ, पैर, ठोढ़ी में घाव लग गये। वह कराहने लगा। कराह सुनते ही, चाबुक का गुस्सा तेज हो जाता। मतलब यह कि वह अधमरा हो गया। उसको ऐसी हालत में छोड़कर, हण्टरधारी राक्षस चले गये।

करीब तीन घण्टे बाद, चाय आई, डॉक्टर आये, इंजेक्शन लगे, किन्तु किसी ने दरिन्दे की दुर्गन्ध से भरे हुए उस कोठे में से उसे नहीं निकाला। समय ने हिलना–डुलना छोड़ दिया था। वह जड़ीभूत सूने में परिवर्तित हो गया था।

बाद मे, दो–एक दिन तक, किसी ने उसकी खबर नहीं ली। उसे प्रतीत होने लगा कि वह किसी कब्र के भीतर के अन्तिम पत्थर के नीचे गड़ा हुआ सिर्फ एक अधमरा प्राण है।

एकाएक तीन–चार आदमियों ने प्रवेश किया और उसे उठाकर, मानो वह प्रेत हो, एक साफ–सुथरे कमरे में ले गये। वहीं उसे दो–चार दिन रखा गया, अच्छा भोजन दिया गया।

कुछ दिनों बाद, ज्यों ही उसके स्वास्थ में सुधार हुआ, उसे वहाँ से हटाकर रीछों के एक पिंजरे में दाखिल कर दिया गया।

अब उसके दोस्त रीछ बनने लगे। वहीं उसका घर था, कम–से–कम वहाँ हवा और रोशनी तो थी।

लेकिन, उसकी यह प्रसन्नता अत्यन्त क्षणिक थी। उसके शरीर पर अत्याचार का नया दौर शुरू हुआ। उससे अजीबोगरीब ढंग की कवायदें कराई जातीं। रीछों के मुँह में हाथ डलवाये जाते, रीछ छाती पर बढ़वाया जाता और जरा गलती की कि हण्टर। कुछ रीछ बडे शैतान थे। उसका मुँह चाटते, कान काट लेते। उनके बालों में कीड़े रहा करते और हमेशा यह डर रहता कि कहीं रीछ उसे मार न डालें। शुरू–शुरू में, व्यक्ति को भुना हुआ मांस मिलता। अब उसके सामने कच्चे माँस की थाली जाने लगी। अगर न खाए तो मौत, खाए तो मौत।

और हण्टर का तो हिसाब न पूछो। शायद ही कोई ऐसा दिन गया होगा, जब उस पर हण्टर न पड़े हों, बाद में भले ही टिंक्चर आयोडिन और मरहम लगाया गया हो।

वह यह पहचान गया कि उसे जान–बूझकर पशु बनाया जा रहा है। पशु बन जाने की उसे ट्रेनिंग दी जा रही है। उसके शरीर के अन्दर नयी सहनशक्ति पैदा की जा रही है।

अब उसे कोठे से निकाल बाहर किया गया और एक दूसरे छोटे पिंजरे में बन्द कर दिया गया। यहाँ कोई नहीं था और एक निर्द्वन्द्व अकेला जानवर था। अकेलेपन में वह पिछली जिन्दगी से नयी जिन्दगी की तुलना करने लगता और उसे आत्महत्या करने की इच्छा हो जाती। इस नये क्षेत्र में, जीवन–यापन का एकमात्र स्टैण्डर्ड यह था कि वह पशु–रूप बन जाए। उसने इसकी कोशिश भी की।

अति भीषण क्षण में चार–पाँच आदमी पिंजरे में घुसे और उसे घेर लिया। उसकी भयभीत पुतलियाँ आँखों में मछली–सी तैर रही थीं। वह डर के मारे बर्फ हो रहा था। शायद, अब उसे बिजली के हण्टर पड़ेंगे। पाँचों आदमियों ने उसे पकड़ लिया और उसके शरीर पर जबरदस्ती रीछ का चमड़ा मढ़ दिया गया और उससे कह दिया गया कि साले अगर रीछ बनकर तुम नहीं रहोगे तो गोली से फौरन से पेश्तर उड़ा दिये जाओगे।

यहाँ से उस व्यक्ति का मानव–अवतार समाप्त होकर ऋक्षावतार शुरू होता है। उससे वे सभी कवायदें करवायी जाती है, जो एक रीछ करता है। उस सबकी प्रैक्टिस दी जाती है और प्रैक्टिस भी कैसी–– महाभीषण! और अगर नहीं की तो सभी आदमी एकदम उस पर हमला करते हैं। बिजली के हण्टरों की फटकार, गाली–गलौज और मारपीट तो मानो रुटीन हो गयी है। जलते हुए लोहे के पहिये के बीच से उसे निकल जाने को कहा जाता है। उसे खौफनाक ऊँचाई से कुदवाया जाता है आदि आदि।

फिर उसे कच्चा माँस, भुना माँस और शराब पिलायी जाती है और यह घोषित किया जाता है कि कल उसकी प्रैक्टिस अकेल–अकेले सिर्फ शेरों के साथ होगी।

शीघ्र ही इम्तिहान का चरम क्षण उपस्थित होता है। वह रात भर भयंकर दु:स्वप्न देखता रहा है। वैसे तो सर्कस की उसकी पूरी जिन्दगी एक भीषण दु:स्वप्न है, किन्तु कल रात का उसक सपना, दु:स्वप्न के भीतर का एक भीषण दु:स्वप्न रहा है, जिसे वह कभी नहीं भूल सकता। सुबह उठता है तो विश्वास नहीं कर पाता है कि वह इन्सान है। चले गये वे दिन जब वह किसी का मित्र तो किसी का पुत्र था। पेट भूखा ही क्यों न सही, आँखें तो सुन्दर दृश्य देख सकती थीं और वह सुनहली धूप! आहा! कैसी खूबसूरत! उतनी ही मनोहर जितनी सुशीला की त्वचा!

लेकिन वह अपने पर ही विस्मित हो उठा। यह सब वह सह सका, जिन्दा रह सका, कच्चा मांस खा सका। मार खा सका और जीवित रह सका। क्या वह आदमी है? शायद, पशु बनने की प्रक्रिया पहले से ही शुरू हो गयी थी।

नाश्ते का समय आया। किन्तु, नाश्ता गोल! राम–राम कहते–कहते भोजन का समय आया तो वह भी गैर–हाजिर! पेट का भूखा! क्या करे! शायद, भोजन आता ही होगा!

लेकिन, उसे बिलकुल भूख नहीं है, जबान सूखी हुई है। अगर वह चिल्लाया तो पहले की भाँति, मुँह में कपड़ा ठूँस दिया जाएगा और उससे और तकलीफ होगी। खैरियत इसी में है कि चुप रहे और आराम से साँस ले।

एकाएक सामने का एक बड़ा भारी पिंजरा खुला। अब तक उसमें कुछ था नहीं, लेकिन अब उसमें एक बड़ा–डरावना शेर हलचल करता हुआ दिखाई दे रहा था। एकाएक उसका भी पिंजरा खुला और दोनों पिंजरों के दरवाजे एक–दूसरे के सामने हो लिए। और, आदमियों की जो छायाएँ इधर–उधर दिखाई दे रही थीं, वे गायब हो गयीं।

एकाएक शेर चिंघाड़ा। ऋक्षावतार का रोम–रोम काँप उठा, कण–कण में भय की मर्मान्तक बिजली समा गयी। रीछ को मालूम हुआ कि शेर ने ऐसी जोरदार छलाँग मारी कि एकदम उसकी गरदन उस दुष्ट पशु के जबड़े में जकड़ी गयी। हृदय से अनायास उठनेवाली ‘मरा–मरा’ की ध्वनि के बाद अँधेरा–सा फैलने लगा। शेर की साँस उसके आसपास फैल गयी, शेर के चमड़े की दुर्गन्ध उसके कानों में घुसी थी कि इतने में उसके कान में कुछ कम्पन हुआ, कुछ स्वर–लहरें घुसी जो कहने लगीं––

“अबे डरता क्या है, मैं भी तेरे ही सरीखा हूँ, मुझे भी पशु बनाया गया है, सिर्फ मैं शेर की खाल पहने हूँ, तू रीछ की!”

इस बात पर रीछ को विश्वास करने या न करने की फुर्सत ही न देते हुए शेर ने कहा, “तुम पर चढ़ बैठने की सिर्फ मुझे कवायद करनी है, मैं तुझे खा डालने की कोशिश करूँगा, खाऊँगा नहीं। कवायद नहीं की तो हण्टर पडेंगे तुमको और मुझको भी! आओ, हम दोस्त बन जाएँ, अगर पशु की जिन्दगी बितानी है तो ठाठ से बिताएँ, आपस में समझौता करके।”

मैं ठहाका मारकर हँस पड़ा। बात मुझ पर कसी गयी थी। बड़ी देर तक बात का मजा लेता रहा। फिर मेरे मुँह से निकल पड़ा, “तो गोया आप शेर हैं और मैं रीछ।”–––

मुझ पर कहानी का जो असर हुआ उसकी ओर तनिक भी ध्यान न देते हुए, अत्यन्त दार्शनिक भाव से मेरे अफसर ने कहा, “भाई, समझौता करके चलना पड़ता है जिन्दगी में, कभी–कभी जान–बूझकर अपने सिर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है। लेकिन उससे फायदा भी होता है। सिर सलामत तो टोपी हजार।”

अफसर के चेहरे पर गहरा कड़वा काला खयाल जम गया था। लगता था मानो वह स्वयं कोई रटी–रटाई बात बोल रहा हो। मुझे लगा कि जिन्दगी से समझौता करने में उसे अपने लम्बे–लम्बे पैर और हाथ काटने–छाँटने पड़े हैं। शायद मुझे देखकर उसे उस बैल की याद आयी थी, जिसके सिर पर जुआ रखा तो गया है, लेकिन जो उससे भाग–भाग उठा है। शायद, उसे इस बात की खुशी भी हुई थी कि मुझमें वह जवान नासमझी है, जो गलत और फालतू बातें एक मिनट गवारा नहीं कर सकता।

मैंने पूछा, “तो मैं इस कागज पर दस्तखत कर दूँ?”

उसने दबाव के साथ कहा, “बिला शक, वार्निंग देनेवाला मैं, लेनेवाले तुम, मैं शेर तुम रीछ।”

यह कह कर हँस पड़ा, मानो उसने अनोखी बात कही हो। मैंने मजाकिया ढंग से पूछा, “मैं देखना चाहता हूँ कि शेर के कहीं दाँत तो नहीं हैं।”

“तुम भी अजीब आदमी हो, यह तो सर्कस है, सर्विस नहीं।”

“देखो, आज पाँच साल की नौकरी हो गयी। एक बार भी न एक्स्प्लेनेशन दिया, न मुझे वार्निंग आयी। मजा यह है कि यह ऐक्टिंग उस बात के खिलाफ है जो मैंने कभी की ही नहीं। यह कलंक है उस अपराध का जो मैंने कभी किया ही नहीं।”

उसने कहा, “तब तुमने भाड़ झोंका। अगर एक्सप्लेनेशन देने की कला तुमको नहीं आयी तो फिर सर्विस क्या की। मैंने तीन सौ साठ एक्स्प्लेनेशन दिये हैं। वार्निंग अलबत्ता मुझे नहीं मिली, इसलिए कि मुझे एक्स्प्लेनेशन लिखना आता है और इसलिए कि मैं शेर हूँ, रीछ नहीं। तुमसे पहले पशु बना हूँ। सीनियॉरिटी का मुझे फायदा भी तो है। कभी आगे तुम भी शेर बन जाओगे।” बात में गम्भीरता थी, मजाक भी। मजाक का मजा लिया, गम्भीरता दिल में छिपा ली।

इतने में मैंने उससे पूछा, “यह कहानी आपने कहाँ सुनी?”

वह हँस पड़ा। बोला, “यह एक लोककथा है। इसके कई रूप प्रचलित हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वह रीछ बीए नहीं था, हिन्दी में एमए था।” भयानक व्यंग्य था उसके शब्दों में। मैंने उससे सहज जिज्ञासा के भोले भाव से पूछा, “तो क्या उसने सचमुच फिर से मैनेजर को नहीं देखा।”

वह मुस्कराया। मुसकराता रह गया। उसके मुँह से सिर्फ इतना ही निकला, “यह तो सोचो कि वह कौन मैनेजर है जो हमें–तुम्हें, सबको रीछ–शेर–भालू–चीता–हाथी बनाये हुए है।” मेरा सिर नीचे लटक गया। किसी सोच के समन्दर में तैरने लगा। तब तक चाय बिलकुल ठण्डी हो चुकी थी और दिल भी।

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