जनवरी 2021, अंक 37 में प्रकाशित

मोदी के शासनकाल में बढ़ती इजारेदारी

–– रविकान्त

मुकेश अम्बानी और कुछ मुट्ठीभर अरबपतियों ने राजनीतिक साँठ–गाँठ से चलने वाले इस पूँजीवाद को मोदी शासन के दम पर अपने हाथों का खिलौना बना लिया है।

एक बार जॉन डी रॉकफेलर ने कहा था, “खुद कुछ न होते हुए भी सब कुछ नियंत्रित किया जा सकता है।” यह, पिछली शताब्दी के सबसे अमीर व्यक्ति के पीछे का दर्शनशास्त्र था। आधुनिक एकाधिकार के सिद्धान्तों को अमल में लाने वाला वह पहला व्यक्ति था। आपसी प्रतिस्पर्धा के इतर रॉकफेलर बड़े–बड़े निगमों के आपसी साँठ–गाँठ का पक्का समर्थक था।

रेलमार्गों, तेल रिफाइनरी और चुनाव जीतकर आये भ्रष्ट नेताओं के निजी गठजोड़ के चलते उसने अमरीका में बेतहाशा सम्पत्ति और ताकत इकट्ठा कर ली थी। उसने बड़े पैमाने पर फैले एकाधिकार और उत्पादक संघों के जरिये व्यक्तिगत रूप से चलने वाले व्यवसायों को बेरहमी से खत्म कर दिया था।

उसकी कम्पनी स्टैण्डर्ड ऑयल तो खैर डूब गयी जिसने अमरीका के एण्टीट्रस्ट नियमों को जन्म दिया, लेकिन उसकी सोच एक विचारधारा का रूप ले चुकी थी और वह बहुत से व्यापारियों के लिए एक आदर्श साबित हुई जिसके अनुसार पैसा बनाने के लिए कोई नयी खोज करने के बजाय बने बनाये नियमों को अपने पक्ष में कर लेना अधिक आसान रास्ता है।

मुकेश अम्बानी रॉकफेलर के नक्शे–कदम पर चलने वाला एक ऐसा ही पूँजीपति है।

2019 में हर महीने भारत में तीन नये अरबपति शामिल हुए जबकि बचे हुए अधिकतर दुनिया के देश उस समय आर्थिक मन्दी के शिकार थे। भारत में अरबपतियों की कुल संख्या चीन और अमरीका के बाद सबसे अधिक 138 तक पहुँच गयी है।

नि: सन्देह, मुकेश अम्बानी भारत का सबसे अमीर व्यक्ति है। और इस साल उसने 80–2 अरब डॉलर की कुल सम्पत्ति के साथ जैफ बेजोस (187 अरब डॉलर), बिल गेट्स (121 अरब डॉलर) और मार्क जुकरबर्ग (102 अरब डॉलर) के बाद पूरी दुनिया के चैथे सबसे अमीर व्यक्ति बनने की होड़ में यूरोप के सबसे धनी व्यक्ति बेनार्ड आरनॉल्ट को भी पछाड़ दिया है।

दिलचस्प बात यह है कि ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) और सभी विकासशील देशों में से 10 सबसे अमीर लोगों की सूची में आने वाला वह अकेला ऐसा पूँजीपति/व्यापारी है। अनोखी उपलब्धि, लेकिन फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के सत्ता में आने से पहले 18.6 अरब डॉलर की कुल सम्पत्ति के साथ वह दुनिया का चालीसवाँ सबसे धनी व्यक्ति था।

यह छह सालों में एक लम्बी छलांग है। गजब की बात यह कि उसकी सम्पत्ति में 22 अरब डॉलर की बढ़ोत्तरी इसी साल हुई है, बावजूद इसके कि देश एक बेहद गम्भीर मन्दी का सामना कर रहा है। हालाँकि इसमें कोई संशय नहीं है कि अम्बानी की सम्पत्ति में इतनी अधिक बढ़ोत्तरी कोई सामान्य बात तो नहीं है, पर महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि इस अकूत सम्पत्ति के इतनी तेजी से बढ़ने का कारण क्या है ? कोई नयी तकनीक अथवा राजनीतिक साँठ–गाँठ से चलने वाली चरम पूँजीवादी व्यवस्था ?

पिछले कुछ दशकों में यदि भारत की अर्थव्यवस्था चीन की अर्थव्यवस्था जितनी तेजी से विकसित नहीं हो पायी तो इसका मुख्य कारण केवल नयी तकनीक और उत्पादकता की कमी है। असल में तो भारत ग्लोबल इनोवेशन इण्डेक्स (वैश्विक नवाचार सूचकांक) की श्रेणी में बहुत नीचे है। हाल ही में आयी वैश्विक बौद्धिक सम्पदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल इनोवेशन इण्डेक्स (जीआईआई) में भारत 48वें पायदान पर है।

हालाँकि, भारत मेंे अंग्रेजी बोलनेवाले लोग बड़ी संख्या में हैं, जोे लम्बे समय तक उत्पादन पर टिकी अर्थव्यवस्था से दूर ही रहे हैं। नयी और स्वदेशी तकनीक के अभाव के चलते निचले दर्जे की उत्पादकता बनी हुई है। दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी इस बात का साक्ष्य है कि अमरीका, चीन और जापान की तुलना में भारत अपनी खुद की तकनीक विकसित करने और सुसंगत उत्पादन व्यवस्था के मामले में कितना कमतर है।

उत्पादकता के कम होने में भारत की भ्रष्ट कार्यप्रणाली के साथ–साथ इसकी आधारभूत संरचना, परिवहन, भण्डारण, प्रबन्धन, सूचना सम्बन्धी सुविधाएँ और उत्पादक से ग्राहक तक पहुँचने की प्रक्रिया (आपूर्ति ) के दुरुस्त न होने का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है।

लेकिन सम्पदा के निर्माण में उत्पादकता बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। उत्पादकता में वृद्धि पूरे देश के लोगों के जीवन–स्तर को ऊँचा उठा देती है। टिकाऊ और अनवरत विकास उत्पादकता पर टिकी अर्थव्यवस्था का परिणाम होता है जो देश को पूर्ण रूप से समृद्ध बनाता है। इससे अलग किसी भी व्यवस्था का परिणाम असमानता और राजनीतिक साँठ–गाँठ से चलने वाला पूँजीवाद ही है।

वैश्विक असमानता डेटाबेस के हाल ही में आये आँकड़ों के अनुसार भारत की बहुसंख्यक गरीब आबादी के पास देश की कुल सम्पत्ति का 6.4 फीसदी हिस्सा है जबकि देश के 1 फीसदी अमीर लोगों के पास कुल सम्पत्ति का 30 फीसदी हिस्सा है। इससे अलग ‘द इकोनॉमिस्ट’ पत्रिका के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में राजनीतिक साँठ–गाँठ से चलने वाले कारोबार की सम्पत्ति (क्रोनी सेक्टर वेल्थ) जीडीपी की 3.4 फीसदी है और इसके साथ ही भारत क्रोनी कैपटेलिज्म सूचकांक में नौवें स्थान पर है।

1991 में हुए आर्थिक सुधारों के समय भारतीय नीति निर्माताओं के बीच एक आम राय यह थी कि आर्थिक उदारीकरण धनाढ्य वर्ग के व्यापारियों और राजनेताओं के बीच के सम्बन्ध को खत्म कर देगा और इस प्रकार समाज में अधिक बेहतर और कल्याणकारी अवसर मुहैया कराने के लिए, वस्तुओं और सेवाओं के स्वतंत्र क्रमबद्ध उत्पादन को शुरू करने और उसको सुचारू रूप से चलाने के लिए लोगों को मुक्त कर देगा।

लेकिन इसके उलट, इन दो समूहों के बीच का सम्बन्ध और अधिक मजबूत होता चला गया। भारतीय बाजारों के खुल जाने से आकर्षित हुए बड़े–बड़े निवेशक राजनीतिक नेताओं को खूब घूस देने लगे जो खुद तो प्राय: व्यापारी बने रहे और सरकारी बैंकों को अपने करीबी उद्योगपतियों को कर्ज देने के लिए मजबूर करने लगे।

मुख्य–मुख्य भगोड़े व्यापारी–– विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और बड़े–बड़े घोटाले सरकारी अधिकारों के गलत इस्तेमाल के कुछ उदाहरण हैं। मोदी युग में यह परम्परा लगातार जारी है और बदले में इनको अम्बानी, गौतम अडानी और अन्य उभरते पूँजीपतियों का समर्थन मिलता है।

इनका एक दूसरे के लिए प्रशंसा और समर्थन साफ तौर पर दिखाई देता है, जैसे मुकेश अम्बानी ने खुले तौर पर सरकार के फैसलों को बढ़–चढ़कर अपना समर्थन दिया है। उसने मोदी द्वारा लागू की गयी नोटबन्दी का गुणगान देश के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में किया जबकि यह साबित हो चुका है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह कितनी बड़ी मुसीबत की घड़ी थी।

मुकेश अम्बानी की सम्पत्ति में लॉकडाउन के दौरान लगभग 100 फीसदी की वृद्धि हुई है। (9 अगस्त, 2020)

पिछले छह सालों में अम्बानी की सम्पत्ति में लगभग पाँच गुना और अडानी की सम्पत्ति में लगभग 3 गुना वृद्धि हुई है। अम्बानी की लगातार बढ़ती सम्पत्ति का स्रोत कोई नयी तकनीक या खोज नहीं है बल्कि इजारेदारी है। उसने हर क्षेत्र में अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया है जैसे–– दूरसंचार क्षेत्र, तेल व्यापार, खुदरा व्यापार, मनोरंजक क्षेत्र। उसकी कम्पनी रिलायंस की भागीदारी हर क्षेत्र में है। बहुत से ऐसे उदाहरण भी हैं जहाँ उसने मौजूदा केन्द्र सरकार में अपने राजनीतिक समर्थन का फायदा उठाकर सरकारी नियम–कानूनों को अपने पक्ष में करा लिया है।

दूरसंचार विभाग में रिलायंस जियो का धमाकेदार प्रवेश एक महत्त्वपूर्ण मामला है। उसने अकेले ही अपने ग्राहकों को दुनिया में सबसे कम दामों पर डेटा पैक उपलब्ध करवाया जिससे बाकी टेलीकॉम कम्पनियों के बीच कीमतों को लेकर एक युद्ध छिड़ गया।

इसके परिणाम चैकाने वाले थे–– जियो को छोड़कर बाकी सभी टेलीकॉम ऑपरेटर कम्पनियों की कुल आय और ईबीआईटीडीए (ब्याज, कर, विमूल्यन और कर्ज से पहले की आय) 15 से 40 फीसदी तक गिर गयी और एक मुख्य टेलीकॉम कम्पनी आइडिया के कर्ज और आय (ईबीआईटीडीए) का अनुपात 9 : 1 तक पहुँच गया। कम्पनी के लिए यह एक बहुत ही संकटमय स्थिति है।

सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इण्डिया ने सरकार को तत्काल इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए कहा कि रिलायंस जियो ने भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) के इस आदेश की अवहेलना की है कि सभी प्रचारात्मक मुफ्त योजनाएँ 90 दिन की अधिकतम अवधि से ज्यादा नहीं हो सकतीं। लेकिन ट्राई ने खुद अपनी पुराने दिशा–निर्देशों की सूची में सुधार कर दिया और साथ ही महत्त्वपूर्ण बाजार अधिकारों (एसएमपी) में भी बदलाव कर दिया, जहाँ अब एक ऑपरेटर कम्पनी को 30 फीसदी से भी अधिक बाजार शेयर रखने जैसी खुली लूट को भी उचित करार कर दिया गया। आज जियो का बाजार शेयर 34 फीसदी है।

इसी प्रकार, पिछले साल जनवरी में भारत सरकार ने ई–कॉमर्स की नीतियों में संशोधन किया, जिसके अनुसार विदेशी निवेशकों वाली ई–कॉमर्स कम्पनियों को एकल बाजार स्रोत के जरिए 25 फीसदी से अधिक सामान की बिक्री पर रोक थी। निश्चित रूप से यह नियम विदेशी ई–कॉमर्स कम्पनियों के बड़े–बड़े खिलाड़ियों जैसे अमेजन और फ्लिपकार्ट की विकास वृद्धि की सम्भावनाओं में रुकावट पैदा करता था क्योंकि ये कम्पनियाँ भारत में त्यौहारों के दौरान चलने वाली सेल में बड़ी–बड़ी लुभावनी छूट देकर वनप्लस, सैमसंग, शाओमी जैसे स्मार्टफोन्स की बिक्री से ही 50 फीसदी तक का मुनाफा कमा लेती हैं।

यह लगभग ग्राहक (उपभोक्ता) और ई–कॉमर्स कम्पनियों दोनों के लिए फायदे जैसा सौदा होता है। सरकार यह दावा करती है कि ये नये कानून आन्तरिक स्वदेशी कम्पनियों के लिए समान स्तर का बाजार सुनिश्चित कराएँगे और सबके लिए एक बराबर प्रतियोगिता को बढ़ावा देंगे।

लेकिन इसके सबसे बड़े लाभार्थी भारत के बड़े–बड़े व्यापारी हैं और इन सब में सबसे बड़ा मुकेश अम्बानी की रिलायंस है। अभी हाल ही में आयी ई–कॉमर्स बाजारों पर वैश्विक स्तर पर की गयी गोल्डमैन सैक्स की समीक्षा पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार भारतीय ई–कॉमर्स उद्योग 2024 तक सम्भवत: 99 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगा और रिलायंस हाल ही में फेसबुक के साथ तय हुए अपने अनुबन्ध/करार के जरिये ऑनलाइन किराना बाजार के आधे हिस्से पर कब्जा कर लेगी।

ई–कॉमर्स क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए दो कम्पनियों जियोमार्ट और व्हाट्सएप ने एक व्यावसायिक समझौता किया है ताकी ग्राहकों के घरों तक उनके नजदीकी स्थानीय किराना दुकानों की पहुँच को सुनिश्चित कराया जा सके। इससे इन कम्पनियों के लिए भारत के 3 करोड़ छोटे दुकानदारों तक पहुँचने का रास्ता खुल जाएगा। दो महीने के अन्दर भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीई) ने 5.7 अरब डॉलर के फेसबुक–रिलायंस करारनामे को मंजूरी दे दी जिसको भारतीय तकनीकी क्षेत्र में सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) करार कहकर प्रस्तुत किया गया।

अचम्भे वाली बात यह है कि प्रबन्धकर्ता नेट न्यूट्रेलिटी के मुद्दे को पूरी तरह से नजरअन्दाज कर रहे हैं क्योंकि हर क्षेत्र चाहे वह जियो (38.8 करोड़ उपभोक्ता) हो, फेसबुक (32.8 करोड़ उपभोक्ता) हो या फिर व्हाट्सएप (40 करोड़ उपभोक्ता) हो, के पास लाखों–लाख भारतीयों की निजी जानकारी होती है जो कि उनके प्रतिद्वंदियों को सामूहिक रूप से अत्यधिक फायदा पहुँचा सकती है, खासतौर पर यहाँ जियो कम्पनी (टेलीकॉम क्षेत्र में एक बड़ा दावेदार होने के चलते) के द्वारा फेसबुक और व्हाट्सएप पर पक्षपातपूर्ण बर्ताव की सम्भावनाएँ अधिक हैं।

ये कुछ ऐसे अप्रत्यक्ष उदाहरण हैं जिनकी सरकार अपने कुछ विशेष हितों के लिए रक्षा करती है। लेकिन 2018 में तो नरेन्द्र मोदी ने रिलायंस के लिए भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े भारतीय स्टेट बैंक के पीछे का रास्ता जियो पेमेण्ट बैंक जिसको 2015 में मान्यता प्राप्त हुई है, के साथ अनुपात 30 : 70 के संयुक्त उपक्रम के माध्यम से खोल दिया है। इसलिए अब रिलायंस के पास अपने ऋणों से छुटकारा पाने के लिए भारतीय स्टेट बैंक के अथाह संसाधन हैं।

मजेदार बात यह है कि भारतीय स्टेट बैंक की पूर्व अध्यक्ष अरुन्धति भट्टाचार्य जिसने इस करारनामे को अन्तिम रूप दिया, अक्टूबर 2017 में अपना कार्यकाल पूरा करके फिर एक साल की पुनर्विचार अवधि के बाद रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड के बोर्ड में एक स्वतंत्र निदेशक के बतौर 5 साल के लिए शामिल हो गयीं। इसलिए एसबीआई–आरआईएल समिति ने उनके कार्यकाल के दौरान उन पर इस मुद्दे से सम्बन्धित बहुत से गम्भीर सवाल उठाये।

ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब मोदी सरकार ने देश के हितों को दरकिनार करके मुट्ठीभर उच्च वर्ग के हितों की रक्षा की है। इसलिए अगर भारत के किसान नये कृषि बिलों में अपने अधिकारों/हितों को दरकिनार कर दिये जाने को लेकर फिक्रमन्द हैं, तो उनकी यह चिन्ता मोदी सरकार के पुराने फैसलों को देखते हुए बिल्कुल सही जान पड़ती है।

इससे अधिक अब यह पता लगाना कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि क्यों रिलायंस के पास ही सबसे अधिक बाजार की पूँजी है और अम्बानी की सम्पदा इतनी अधिक क्यों बढ़ चुकी है। क्योंकि यदि सरकार हर क्षेत्र में कार्य करने का सबसे बुनियादी नियम ही बदल देती है और संचालन करने वाले नियमों की योग्यता पर एक गम्भीर प्रश्नचिन्ह लगा देती है, तब हारने और जीतने वालों में फर्क करना बहुत मुश्किल नहीं होता।

कोई भी व्यक्ति कुछ चुनिन्दा विजेताओं का अनुमान आसानी से लगा सकता है। लेकिन असली हार निश्चित रूप से भारतीय जनता और एक बड़े स्तर पर भारतीय अर्थव्यवस्था की है, जिसका भाग्य कुछ मुट्ठीभर अरबपतियों द्वारा तय होता है।

(रविकान्त अर्थशास्त्र और तकनीक में गहरी दिलचस्पी रखनेवाले अर्थ–सम्बन्धी मामलों के लेखक हैं और साथ ही अन्तरराष्ट्रीय राजनीति और साइबर सुरक्षा के मामलों पर भी लिखते हैं। इनको आर्थिक दुनिया का व्यापक अनुभव है और इनकी कुछ समीक्षाएँ प्रमुख पत्रिकाओं जैसे– मोगुल न्यूज और द इण्डियन इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित हो चुकी हैं।)

(साभार–– एशिया टाइम्स डॉट कॉम,

12 अक्टूबर, 2020, अनुवाद–– रुचि मित्तल)

 
 

 

 

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