सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारत को मुसलमानों का महान स्थायी योगदान

भारत को मुसलमानों का एक महान स्थायी योगदान भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी मिला। इसी योगदान ने उर्दू भाषा को जन्म दिया और हिन्दी भाषा तथा साहित्य को विकसित और समृद्ध किया। हिन्दी खड़ी बोली का गद्य अधिकांशत: और पद्य प्राय: पूरी तरह मुस्लिम सृजन है। 13वीं सदी से पहले या अमीर खुसरो से पहले कोई हिन्दू या हिन्दी कवि नहीं हुआ। मैं यहाँ बृज–भाषा, अवधि और भोजपुरी जैसी बोलियों की बात नहीं कर रहा हूँ।

मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि उर्दू भाषा शास्त्रीय दृष्टि से कोई नितान्त स्वाधीन भाषा नहीं है। वह खड़ी बोली से बँधी हुई है जिसकी यह पूर्ववर्ती भी है और जन्मदात्री भी। दोनों ही भाषाएँ या वस्तुत: शैलियाँ, एक भाषा बनाती हैं जिसे हम सुविधा के लिए हिन्दी कह सकते हैं और इसलिये भी कि हिन्दी की अवधारणा एक वृहत्तर सम्भावना तथा क्षेत्र का संकेत देती है जो भव्य तथा महा–काव्यीन स्तर पर विकसित होने में सक्षम है। उर्दू और हिन्दी दोनों ही मूलत: एक हैं क्योंकि दोनों में सामान क्रियाएँ प्रयुक्त होती हैं और उनका व्याकरणीय ढाँचा भी सामान है। जब दो प्रतीयमान भाषाओं की क्रियाएँ एक ही होती हैं तब वह भाषा भी एक होती है।

लेकिन यह कहना कि उर्दू सिर्फ हिन्दी की एक शाखा है, काल–दोष होगा। क्योंकि अव्वल तो उर्दू पहले आयी। दूसरे, यह कहना ईमानदारी भी नहीं होगी। कारण, अगर ऐसा होता तो हिन्दी और उर्दू के पाठ्यक्रम सभी विश्विद्यालयों में एक–से होते और हिन्दी विभाग यदि फारसी लिपि न भी पढ़ाते तो भी उर्दू के निर्माता मीर तकी मीर, सौदा, जौक और गालिब को तो जरूर ही पढ़ाते होते। हालाँकि प्रेमचन्द और प्रसाद सूर तथा तुलसी के निकट सांस्कृतिक रूप से भले ही हों, मगर भाषा–विज्ञान की दृष्टि से वे उनसे दूर हैं और उर्दू के लेखकों के निकट हैं, क्योंकि दोनों ने ही खड़ी बोली में लिखा है, जबकि सूर और तुलसी ने उप–भाषाओं या बोलियों में लिखा है। इसलिए सूर और तुलसी के लिए हिन्दी में जगह देने से पहले उनके लिए हिन्दी में जगह खोजी जानी चाहिए थी, प्रेमचन्द और प्रसाद के साथ–साथ। और यह अधिक तर्कसंगत भी होता। दूसरे, उर्दू कोरी शैली नहीं है। यह एक पूर्ण विकसित भाषा है जिसे इतने सारे भारतीय बोलते हैं और अपनी मातृ–भाषा घोषित करते हैं।

राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में संविधान में वर्णित अनेक अन्य भाषियों की तुलना में उर्दू भाषियों की संख्या अधिक है। उर्दू का अपना महत्त्व है और यह महत्त्व सिर्फ इसलिये नहीं है कि एक अन्य देश (पाकिस्तान) ने इसे अपनी राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया है, हालाँकि वहाँ इसे कोई  नहीं बोलता। पाकिस्तान में पश्तो और पंजाबी बोली जाती है। हमारे देश भारत में जब से साहित्य पर आर्य समाजी उपद्रव की धुन्ध छाई और शिक्षा के भगवाकरण की साजिश शुरू हुई तो कुछ शुद्धतावादियों ने अरबी, फारसी और तुर्की के महत्वपूर्ण और व्यंजक शब्दों को अलग करने और इस तरह तथाकथित विदेशी प्रभाव से भाषा (हिन्दी) को मुक्त करने का प्रयत्न किया है। यह भोंडेपन की हद है और जताती है कि भाषा के आकार–ग्रहण की प्रक्रिया से वे कितने अपरिचित हैं। हमारी सरकारी संस्थाओं में अधिकतर ऐसे ही कट्टर प्रतिक्रियावादी भरे है और प्रगतिशीलों को जानबूझ कर बाहर रखा गया है। इन्ही संस्थाओं ने पारिभाषिक शब्दावली देने की तथाकथित प्रक्रिया में इस ओर पहला कदम उठाया। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय शब्दों और सिद्धान्तों को लक्षित करने से इनकार किया, जिससे भाषा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में समझ में आने लायक हो सकती थी। उन्होंने अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों का बहिष्कार कर दिया जो सदियों से इस्तेमाल होते आ रहे हैं और जिन्होंने भाषा को समृद्ध बनाया हैय उनकी जगह उन्होंने अनुपयुक्त तथा अधिकतर गढ़े हुए संस्कृत शब्द रख दिये हैं जो संस्कृत भाषा में भी कभी प्रयुक्त नहीं हुए हैं।

प्रो– भगवतीशरण उपाध्याय

 
 

 

 

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