नवम्बर 2021, अंक 39 में प्रकाशित

पानीपत की चैथी लड़ाई

–– सुबोध घोष

हम लोगों की क्लास मानव विज्ञान की किसी प्रयोगशाला जैसी थी। मानवता का ऐसा विचित्र नमूना शायद ही किसी और स्कूल की क्लास में होगा। हमारी क्लास में तीन राजाओं के लड़के थे। उनमे से एक तो जंगली राजा का बेटा था, बिलकुल काले रंग का। बाकी दो लड़के असली क्षत्रिय के सपूत थे–– गोरा रंग, पगड़ी में मोती की झालर। इसके अलावा थे सिरिल टिग्गा, इमानुएल खाल्खो, जॉन बेसरा, रिचर्ड टुडू और स्टीफन होरो आदि। इतने सारे उरांव और मुण्डा बच्चों के बीच हम मध्यवर्ती परिवार के कुछ बंगाली और बिहारी लड़के भी थे, जो सिर्फ दिमाग के दम पर हर काम में मुखिया होने का गौरव प्राप्त करते थे। राजाओं के बेटों को हम कहते थे सुनहरे मेंढक और मुण्डा–उरांव को काले मेंढक। इनको हम लोग कभी पूछते भी नहीं थे। हालाँकि राजाओं के लड़के भी हमसे कभी बात तक नहीं करते थे। दूसरी तरफ टिग्गा, खाल्खो, बेसरा, टुडू हमसे दो बात करके ही धन्य हो जाते थे। हम टिफिन के वक्त एक आने का सिक्का देकर टुडू को बोलते थे–– टुडू जल्दी से एक आने की मसालेदार मूँगफली, गंगा साहू की दुकान से ले आओ।

स्कूल से गंगा साहू की दुकान की दूरी करीब डेढ़ मील होगी। खुद को धन्य मानते हुए सिक्का लेकर टुडू चिलचिलाती धूप में तपे हुए मैदान पर हिरण की रफ्तार से गंगा साहू की दुकान तक दौड़ता था। वापस आकर मूँगफली का पैकेट हमें देकर खुद किनारे हो जाता था। हम लोग कहते–– “गजब! इतनी दूर दौड़ने पर भी तुम्हारी साँस फूल नहीं रही है।”

इस खोखली बात की चालाकी को आन्तरिक बधाई मानकर टुडू दूर खड़ा होकर गर्व से हँसता था। हम लोग तिरछी नजर से देखते थे टुडू कैसे अपनी साँस को फूलने से रोकने की भरपूर कोशिश कर रहा है। उसको मूँगफली के कुछ दाने देना शायद हम जानबूझकर भूल जाते थे। अगर देते भी तो वह नहीं लेता।

हम लोग यह भी देखते थे, थोडी दूर खड़ा स्टीफन होरो अपनी धारदार आँखों से यह सब देख रहा है। हम लोग घबरा जाते थे। स्टीफन होरो जैसे नजरों से तीर चलाकर हमारे उस फेफड़े को चीरकर देख रहा है, जो बस धूर्त मजाकों से बना हुआ है। सिर्फ स्टीफन ही यह सब समझ रहा है, और कोई ये सब चालाकियाँ क्यों नहीं समझ रहा है?

टुडू, खाल्खो, टिग्गा, बेसरा सब इसी तरह के बेवकूफ, विश्वस्त और भोले थे। हम मन ही मन हँसते थे। हाय रे, राँची के जंगल के जितने कोल हैं, सभी काले मेंढ़क हैं!

उनमें से बस एक ही कोबरा था, स्टीफन होरो, उसके स्वभाव में बड़ा घमण्ड था। आज मानने में कोई शर्म नहीं होगी कि होरो के सामने हमारा अभिजात वर्ग का घमण्ड चुपचाप हार मान लेता था। उसके साथ बनाकर रखने के लिए कभी कभार हम जबरदस्ती उससे बात करते थे। उससे भी ज्यादा शर्म की बात यह है कि, कई बार वह हमारे सवाल का जवाब न देते हुए उदासीन होकर मुँह फेर लेता था। सर पर घने काले घुंघराले बाल, चपटी नाक, आबनूस की लकड़ी जैसा काला शरीर–– फिर भी इतना घमण्ड!

एक घटना के चलते पहली बार स्टीफन से थोड़ा डर और थोड़ी श्रद्धा हुई। उस दिन मैदान में देखा कि होरो अपनी हॉकी स्टिक नहीं लाया है, फिर भी खेलना चाहता है। लेकिन नियम है कि अपने–अपने हॉकी स्टिक से ही खेलना है। होरो ने बार–बार हम लोगों से गुजारिश की कि, थोडी देर के लिए कोई स्टिक उधार दे दे। वह खेलने के बाद वापस कर देगा।

लेकिन कोई भी अपनी स्टिक दूसरे के हाथ में देने को तैयार नहीं था। होरो ने कहा मैं बिना स्टिक के ही खेलूँगा।

जिद्दी होरो पूरा एक घण्टा हमारे हॉकी स्टिक की मार के साथ स्वच्छन्दता से खेलता रहा। होरो के दो मजबूत शीशम की लकड़ी जैसे पैरों पर बेपरवाह स्टिक मारते हुए कई बार हम इस डर से घबरा जाते कि, कहीं स्टिक ही न टूट जाए।

स्टीफन होरो लगातार हमें परेशानी में डालता रहा। सिर्फ डर और श्रद्धा के चलते ही नहीं बल्कि एक और कारण से हम लोग होरो से इर्ष्या करने लगे। पढ़ने–लिखने के मामले में होरो हमारी मानसिक शान्ति को खतरे में डाल रहा था। अंगेजी कविता हुबहू बोलने और व्याख्या करने में उसने हमारे इन्दु को भी पछाड़कर छब्बीस नम्बर ज्यादा हासिल कर लिये थे। यह बात हमें राष्ट्रीय अपमान की तरह महसूस हुई। बिहारी छात्रों ने कितना अपमानित महसूस किया था, यह बताया नहीं जा सकता, होरो की बदनामी के मामले में वे भी हमारे साथ एक संयुक्त मोर्चे में शामिल हो गये। चिल्ला–चिल्लाकर हमने सबको बताया–– यहाँ गैर–ईसाई छात्रों के साथ ना–इनसाफी की जा रही है। सभी मास्टर ईसाई हैं। ऐसे में होरो को सबसे ज्यादा नम्बर मिलना कौन सी बड़ी बात है? लेकिन यह भयानक अन्याय है!

हमारे आरोप को दिल से स्वीकार किया था, इकलौते गैर–ईसाई शिक्षक, संस्कृत पढ़ाने वाले वैजनाथ शर्मा– पण्डित जी ने।

पण्डित जी ने हमें तसल्ली दी–– “क्या करोगे बेटा? पादरियों के स्कूल में ऐसी नाइनसाफी होती ही रहती है। आगे की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी जाना है, वहीं पता चल जायेगा, किसकी क्या औकात है”।

प्रमोशन के बाद नये साल में होरो एक और जिद्दीपन का काम कर बैठा। खाली पैर हॉकी खेलने से भी भयानक। स्टीफन होरो ने अतिरिक्त विषय अंग्रेजी छोड़कर संस्कृत लिया। सभी ईसाई शिक्षक उसे धमकाने लगे। प्रिंसिपल फादर लिण्डन नाराज हो गये। पण्डितजी अद्भुत हँसी हँसने लगे। फिर भी अनार्य होरो अपनी संस्कृत पढ़ने की जिद्द से रत्तीभर नहीं डगमगाया।

पण्डितजी हम सबको किनारे बुलाकर एक असहज हँसी हँसते हुए बोले–– “स्टीफन होरो ने संस्कृत लिया है। अब क्या? क्या पता देवभाषा के नसीब में क्या है?”

पण्डितजी हँसने लगे। हमें कुछ–कुछ शक होने लगा। पण्डितजी की मुस्कान देखकर! चलो।

बहुत जल्द ही इसके बाद की कई घटनाओं में हमारे सभी संशय, आशंका, क्रोध और ज्यादा बढ़ते गये।

न्यू टेस्टामेण्ट से डेविड की कहानियाँ शुरू से आखिर तक सटीक बताने के लिए पहला इनाम स्टीफन होरो को मिला। दूसरे, तीसरे और चैथे इनाम की शर्म से चेहरा लटकाकर हम लोग बैठे रहे। फादर लिण्डन बहुत खुश होकर होरो की तारीफ करते हुए बोले–– “वादा करता हूँ, मेट्रिक पास करने के बाद होरो तुम्हें जरूर दरोगा बना दूँगा”।

फादर लिण्डन इतना काम आसानी से कर सकते हैं। इतनी सिफारिश करने की हैसियत तो उनकी है ही। लेकिन अगर होरो की जिन्दगी का मकसद इतना ही है, तो उसके लिए हम कतई नहीं जलते। उसके लिए मेहनत करके न्यू टेस्टामेण्ट रटने की जरूरत भी नहीं है।

हमने अगले ही दिन बाइबिल की क्लास में होरो को बिलकुल अलग रूप में देखा, जो हमें बिलकुल भी समझ में नहीं आया।

बाइबिल की क्लास में एकदम आखिरी बेंच पर होरो बैठा था। पढ़ाते हुए फादर लिण्डन बार–बार खुशी से होरो की तरफ सवाल फेंक रहे थे–– “स्टीफन तुम ही जवाब दो। सबसे बेहतर तुम ही बोलोगे”।

“मालूम नहीं सर!” स्टीफन की रूखी आवाज ने हम सबको चैंका दिया। नाराज और रूखा स्टीफन होरो का चेहरा डेस्क पर झुका हुआ है। जैसे वह फादर लिण्डन की तरफ देखना ही नहीं चाहता है। फादर लिण्डन के सुनहरी दाढ़ी के उ़पर गोरे चेहरे पर गुस्से से थोड़ी लाल आभा दिखायी दी। स्टीफन की तरफ देखते हुए गुस्से की आवाज में उन्होंने पूछा–– “स्टीफन, आज क्या अपने दिमाग को दरवाजे के बाहर छोड़ आये तुम? जवाब क्यों नहीं दे पा रहे हो?”

“मालूम नहीं सर।” फिर वही स्पष्ट, निर्भय और निश्छल जवाब सुनकर, धड़कने तेज होने लगी। अचानक समय से पहले फादर लिण्डन क्लास खत्म करके चले गये।

लेकिन स्टीफन होरो इतना गुस्सा क्यों है? इतना नाराज क्यों है? न्यू टेस्टामेण्ट का रट्टा मारकर उसने किस पर अहसान किया हैं? क्या चाहता है वो? हाउस ऑफ लॉर्ड्स की सदस्यता?

इसके बाद फँसे पण्डितजी। कुछ दिनों से पण्डितजी का चाल–ढाल भी कुछ सही नहीं लग रहा था। ऐसा लगता था हमसे पीछा छुड़ाकर कुछ बेहतर महसूस कर रहे हैं। सामने आते ही किसी न किसी बहाने से चले जाते हैं। लेकिन पण्डितजी से कितने कुछ सवाल करने हैं। फर्स्ट टर्मिनल इम्तेहान खत्म हो चुके हैं। अभी तो वक्त है प्रमोशन और पोजीशन के बारे में फालतू गप्प हाँकने का। पण्डितजी ने अपना हाथ खोल कर कई बार ईसाई शिक्षकों की साजिश से हमें बचाया है। इसलिए आज भी जानना चाहते हैं, उन्होंने किसके लिए क्या किया? एक बार अगर छाती ठोककर इन्दु को पिचासी दे दें, तो उसका फर्स्ट होना कोई नहीं रोक सकता। सभी ईसाई साजिशों के मुँह पर तमाचा लग जायेगा।

पण्डितजी के घर गये, लाइब्रेरी में अकेले मिले, सड़क पर रोका। लेकिन मिलते ही पण्डितजी कुछ इधर–उधर की बात करके जैसे कुछ छुपाना चाहते हैं। हम लोगों का शक और बढ़ता गया।

आखिरकार तुतलाकर, दो बार सर खुजलाते हुए पण्डितजी ने सच उगल ही दिया। संस्कृत में स्टीफन होरो को सबसे ज्यादा नम्बर मिले हैं–– सौ में से पिचहत्तर।

और इन्दू? हमारे सवाल से थोड़ा घबराकर पण्डितजी ने मुँह लटका कर कहा–– “बत्तीस”

सिर्फ बत्तीस! पण्डितजी जैसा विश्वासघाती दुनिया में कोई और नहीं है। हम गुस्से में खुद को सम्भाल नहीं पा रहे थे। पण्डितजी ने विनती के अन्दाज में कहा–– स्टीफन होरो ने इतनी शानदार संस्कृत लिखी है। यह तो तुम लोगों का गौरव है, आर्य भाषा का गौरव। तुम लोगों को इसमें खुश होना चाहिए। ये होरो की जीत नहीं है, संस्कृत भाषा की जीत है।

भाड़ में जाये संस्कृत भाषा की जीत। इन्दू फर्स्ट नहीं आयेगा–– ये आर्यत्व की कितनी बड़ी हार है, बंगालियों का कितना बड़ा अपमान है, पण्डितजी समझे नहीं। लेकिन हम लोग समझ गये–– पण्डितजी दरअसल बिहारी हैं, इसलिए।

लेकिन हवा में वो परम गुण है, जिसके चलते सौ अन्याय की दीवार के बावजूद धर्म अपना काम कर लेता है। लाइब्रेरी में जिस दिन जाकर हम लोगों ने बोर्ड में टँगी नम्बर लिस्ट देखी तब हमें यकीन हुआ कि, सच्चाई की जीत है और झूठ की हार तय है।

इन्दु ही पहला आया है। स्टीफन होरो उसके बहुत नीचे है। स्टीफन होरो को एकमात्र संस्कृत छोड़कर अंग्रेजी, इतिहास, भूगोल–– सभी विषयों में बहुत कम नम्बर मिले हैं। यह सोचकर हम लोग हैरान हो गये कि ईसाई शिक्षक होरो पर खफा क्यों हो गये?

कुछ और समय बाद स्टीफन होरो हमारी समझ से परे हो गया। सिर्फ हमारे लिए ही नहीं, खाल्खो, टिग्गा, बेसरा सभी कहते हैं–– पता नहीं होरो को क्या हो गया है!

बड़े दिन के त्यौहार पर हम सब भी शिलवारा के जंगल में पिकनिक मनाने गये थे। खाना बनाने की जलावन के लिए हम पूरे उत्साह में एक सूखे पेड़ को तोड़ने में लगे हुए थे कि, अचानक देखा पानी की धार के बराबर में हाथ में एक गुलेल लिए होरो चल रहा था। हमने चिल्लाकर होरो को बुला लिया। होरो जब ऐसे अचानक आ ही टपका है, तब वो भी पिकनिक का थोड़ा मजा साझा कर ही ले। पुलाव बनेगा, माँस है, दही है, वैकुण्ठ हलवाई का सन्देश भी है। खाकर होरो खुश होगा। एकदम सीधा–सादा मुण्डा है, शायद ही जिन्दगी में कभी ये सब खाया होगा।

होरो हमारी तरफ आया। नजदीक आकर एक साल के पेड़ को ध्यान लगाकर देखने लगा उसके बाद गुलेल से निशाना लगाया। एक हष्ट–पुष्ट गिलहरी जख्मी होकर मिट्टी पर आ गिरी। होरो ने कूदकर उसे अपनी जेब में डाल लिया।

त्रस्त होकर हमने पूछा–– उसका क्या करोगे स्टीफन?

“खाउ़ंगा”, बिना किसी संकोच के होरो ने कहा। फिर भी हमने अपनी नफरत को दबाकर होरो को खाने के लिए बुलाया और उसे कहा, “उसे फेंक दो स्टीफन। पागल कहीं का। पिकनिक में आओ साथ खायेंगे”।

“नहीं”। बिलकुल सफेद बत्तीसी दिखाकर होरो ने मना कर दिया।

स्टीफन ऐसे जंगली क्यों बनता जा रहा है? रिचर्ड टुडू ने एक दिन फुसफुसाकर हम लोगों से कहा–– होरो सच में ही जंगली हो गया। शायद जल्द ही पागल हो जायेगा। फादर लिण्डन ने चेतावनी दी है कि, कोई उसके साथ न मिले–जुले।

हमने पूछा–– “ऐसा क्यों टुडू?”

टुडू–– “एक बूढ़े सोका के साथ उसकी खूब जम गयी। होरो छूपकर हर मंगलवार को हाट जाकर उस सोका से मिलता है”।

“उससे ऐसा क्या हो गया?”

टुडू ने अपने चेहरे को टेढ़ा बनाकर कहा–– “कुछ नहीं? उसने बाइबिल का अपमान किया है। चर्च नहीं जाता है। किसी की बात नहीं सुनता है। तीन दिन हॉस्टल में भी नहीं था। उसे निकाल देंगे”।

“हॉस्टल में नहीं था? फिर कहाँ था?”

टुडू ने अपनी आवाज को कम करते हुए कहा–– “बुरू गया था। वहाँ खूब नाच–गाना करके आया है। जी भर के इली (स्थानीय शराब) पीकर नशा किया है। इसके अलावा–––”

अचानक रुक कर टुडू ने कहा–– “किसी को बोलना मत होरो को पता चलेगा, तो मुझे मार ही डालेगा”।

टुडू को आश्वासन देते हुए मैंने कहा “नहीं, किसी को नहीं पता चलेगा, तुम बताओ”।

टुडू–– “एक लड़की के साथ उसकी दोस्ती हुई है। उसका नाम है चिरकी, मोरंगी पहाड़ के मुर्मूओं की लड़की है”।

हम टुडू की बातें मानो मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। हमारा ही सहपाठी गरीब मुण्डा होरो, उम्र ही क्या है उसकी। फिर भी होरो एक ही पल में आज बाइबिल की क्लास, संस्कृत के नम्बर और हॉकी खेलने के सभी तरह के मजे को खराब करके, एक रोमांचक प्रेम के विद्यालय में अनजाने से ही नाम लिखवाकर आया है। ऐसा लगा उस लड़की को हम देख पा रहे थे, जिसका नाम चिरकी मुर्मू है। गले में साल के फूलों की माला, जूड़े पर जंगली गुड़हल लगाकर, पानी के धार जैसी खिलखिलाती हँसी के बन्धन में होरो के काले दिल की सभी चंचलता को बाँधकर किसी वीरान घाटी में ले गयी है। क्या मजाल है कि होरो वहाँ से वापस लौट आये। और आएगा भी तो किसलिए?

टुडू तब भी बूढ़े जैसी बातें कर रहा था–– “मुर्मू लोग बोंगा पूजते हैं। उनके साथ मेलमिलाप बढ़ाना सही है क्या? होरो बड़ी गलती कर रहा है।

स्टीफन होरो को हॉस्टल से निकाल दिया जायेगा, ये बस एक अफवाह बनकर रह गयी। हमने देखा, दरअसल होरो को निकाला नहीं गया। कभी अपनी मनमर्जी से क्लास में आता है और कभी नहीं आता। वफादार छात्र होरो से दूरी बनाकर चलते हैं। जैसे एक तरह से जात निकाला हो गया है।

रिचर्ड टुडू ने जो आशंका जतायी थी, वास्तव में उसका उल्टा ही हुआ है। होरो को हॉस्टल से नहीं निकाला गया। वहीं रहता है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसके उ़पर हर कायदे–कानून लागू करना मना कर दिया गया है।

बल्कि गजब तो ये था कि, कभी–कभार शाम को फादर लिण्डन और होरो को एक साथ टेनिस खेलते हुए देखकर हम लोग अवाक हर जाते थे। टुडू, बेसरा, टिग्गा ये सब होरो से ज्यादा काले और ज्यादा वफादार ईसाई हैं लेकिन आज तक उन्हें फादर लिण्डन के टेनिस खेलने के वक्त सिर्फ बॉल ला देने तक का ही सम्मान मिला है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। और स्टीफन एकदम वाकई गजब बात थी!

हॉस्टल के बगीचे में शाम को पानी डालने की जिम्मेदारी होरो की थी। इस काम के बदले होरो का हॉस्टल में रहना–खाना फ्री था। हमने देखा होरो बगीचे में नहीं जाता है और न ही पौधों में पानी डालता है। अब बगीचा सम्भालने की जिम्मेदारी टिग्गा के कन्धों पर लाद दी गयी है। सुबह रसोई के लिए लकड़ी फाड़ना भी उसी का काम है, उस पर फिर पौधों में पानी भी बेचारे को डालना पड़ता है। टुडू ने आते ही एक और खबर बतायी कि “स्टीफन को आजकल हाट से सौदा सामान लाने का काम नहीं मिलता है। वह हर मंगलवार को फादर लिण्डन के कमरे में बैठकर पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस (ईसाई धार्मिक ग्रन्थ) पढ़ता है। सुना है, पढ़ाई खत्म होने के बाद होरो चाय–बिस्कुट का मजा लेता है, ये सब फादर लिण्डन उसे खिलाते हैं।

हम लोगों की उत्सुकता, कौतुहल, चर्चा और शोध की कोई सीमा नहीं थी। सबकी नजरों से ओझल होते हुए, कितनी बड़ी एक लड़ाई का माहौल बन रहा है, यह अन्दाजा लगाने में हम लोग थोडा बहुत सक्षम थे ही। एक तरफ कैम्ब्रिज से एम–ए– पास शिक्षित, सभ्य और श्रद्धेय फादर लिण्डन थे, दूसरी तरफ जंगली मुण्डा डीही का बूढ़ा सोका, गरीब से भी गरीब नगण्य सा अधनंगा, बर्बर वेश वाला एक जादूगर। जैसे दो अलग जमाने की लड़ाईयाँ–– बीसवीं सदी बनाम प्राक–इतिहास, बूढ़ा सोका शायद यह भूल नहीं पाता है कि, अगवा करने वाले पादरी उसके लड़कों को अगवा कर चुके हैं, होरो को ईसाई बना दिया है। उसी का बदला लेगा बूढ़ा सोका। वह इन सुसभ्य राक्षसों के किलों से जंगल के लड़कों को फिर वापस ले जायेगा।

शायद इसीलिए फादर लिण्डन सचेत हो गये। स्टीफन होरो अगर फिर से जंगली हो जाए, उस हार का अपमान कुछ ज्यादा ही घातक होगा, सहना मुश्किल होगा। लिण्डन जानते हैं हर मंगलवार को बूढ़ा सोका हाट आता है। एक जंगली आत्मा बदला लेने के लिए आस–पास भटक रही है। चाय–बिस्कुट–टेनिस की सभ्यता का प्रसाद खिलाकर फादर लिण्डन जैसे होरो को अपने वश में रखता चाहते हैं।

हम लोग बोलते थे–– पानीपत की चैथी लड़ाई है, देखते हैं कौन जीतता है?

गुड फ्राइडे की छुट्टी में सभी को अपने घर जाने की छुट्टी मिली। टुडू, टिग्गा, बेसरा, खाल्खो सब घर निकल गये। उनके लिए जाने की कोई दिक्कत नहीं थी। एक लम्बे डण्डे में अपनी पोटली लटकाकर जंगल के रास्ते तीस–चालीस मील लगातार चलते हुए अपने–अपने डीही में पहुँच जायेंगे। राह–खर्च की कोई खास जरूरत नहीं होती है। इतने पैसे खर्च करने की हैसियत भी उनकी नहीं है।

लेकिन होरो को घर भेजते हुए फादर लिण्डन जैसे बेचैन हो गये। जिस दिन होरो गया, हॉस्टल के पास सर्विस बस आकर खड़ी हुई। तभी हम सबने देखा फादर लिण्डन अपने बटुए से पैसा निकालकर होरो के लिए बस का टिकट खरीद रहे हैं।

हम लोगों ने आपस मे बाजी लगायी। होरो वापस आएगा या नहीं! इन्दु ने कहा–– “जरूर वापस आयेगा। फादर लिण्डन ने उसका जंगलीपन दूर कर दिया है। दो वक्त चाय–बिस्कुट का सुख और स्वाद कैसे भूलेगा होरो”।

मैंने कहा–– “होरो वापस आएगा ही नहीं। यहाँ चाय–बिस्कुट है, लेकिन उधर”

इन्दु–– “उधर क्या?”

मैंने कहा–– “चिरकी मुर्मू भूल गये?”

इन्दु थोड़ा हताश हो गया–– “अरे हाँ”

छुट्टी खत्म होते ही हॉस्टल की जिन्दगी में वापस जान आ गयी। सभी हॉस्टल आ गये स्टीफन होरो भी वापस आया है। इन्दु जीत गया। हम सब हताश हो गये। होरो पर गुस्सा आया, होरो वाकई बड़ा मूर्ख और बेअक्ल है!

लेकिन टुडू की कहानी सुनकर हम लोगों का दुख तुरन्त दूर हो गया। हमने सुनी बूढ़े सोका की कहानी, होरो की कहानी, चिरकी मुर्मू की कहानी। पलक झपकते ही हमारी कल्पना में होरो के जंगल की तस्वीर ऐसे थी जैसे, कहीं दूर खिले पलाश के जंगल के किनारे समन्दर में लहरें उठने लगी। इन्दु ने कहा–– “पानीपत की चैथी लड़ाई में बूढ़े सोका की जीत पक्की है”।

होरो के पड़ोसी डीही का लड़का है टुडू। टुडू गैर–ईसाईयों से नहीं मिलते हैं। फिर भी टुडू ने जासूसी करते हुए होरो के कारनामे देखे हैं। अपने जीते जी वह, फादर लिण्डन को कुछ नहीं बतायेगा। टुडू के दिल में होरो के लिए एक अटूट श्रद्धा और प्रेम है। वह उसके पास यह सब नहीं कह सकता था, इसीलिए हमारे पास आकर कहता है और वह ऐसा करके शायद अपना मन हल्का भी कर लेता है।

टुडू ने देखा है–– एक दिन होरो ने तीर–धनुष से एक हिरण मारा था। होरो हाथ में धनुष लेकर पानी की धारा के पास खड़ा था। चिरकी मुर्मू उसके पैर धो रही थी।

टुडू ने देखा है–– एक दिन चिरकी अपने गाँव की गिति: ओर: से चाँदनी रात को छिपकर बाहर निकल आयी, तभी होरो ने अँधेरे से निकलकर उसका हाथ पकड़ा और कहीं ले गया।

टुडू ने देखा है–– होरो ईसाई होकर भी अखाडे़ में मादल बजाने गया था, जहाँ चिरकी भी नाचती है। बूढ़ा सोका होरो से प्यार करता है, इसीलिए कोई होरो से नफरत नहीं करता है।

टुडू ने कहा–– होरो ने जंगलियों के साथ मिलकर दो दिन तक सेन्देरा किया है। टाँगी त्यौहार में पागल जैसा नाचा। उसने सेमल के पेड़ में आग लागायी और फिर सबसे पहले आग में कूदकर उस पेड़ को काटा भी।

टुडू ने अपनी आवाज दबाते हुए डरे अन्दाज में कहा–– “मैंने देखा है, होरो उसके बाद अपने जले हुए बदन पर ठण्डी हवा लगाने के लिए सबसे किनारे होकर दूर खड़ा हो गया। चिरकी मुर्मू ने धीरे से आकर होरो को अपनी बाहों में भर लिया था।”

हम सब साँझ के अँधरे में हॉस्टल के पास ही छोटे से मैदान में बैठकर टुडू की कहानी सुन रहे थे। अचानक हॉस्टल की बालकनी से एक बाँसुरी की आवाज आने लगी। तभी टुडू उसके साथ ताल मिलाकर सर हिलाते हुए गाने लगा––

‘राता माता बिरको ताला

रे नालो होम निर जा

रांगा इंगा—

टुडू के मदमस्त अन्दाज को देखने से लगा कि, अभी वह नाचने लगेगा

कौन बाँसुरी बजा रहा है?

हमारे व्याकुल सवाल पर टुडू ने गाना रोककर कहा–– यह वही गाना है। होरो वही धुन बजा रहा है। कौन सा गाना?

“चिरकी मुर्मू का गाना।”

“इस गाने का मतलब क्या है टुडू?”

टुडू ने जवाब दिया–– गाने का मतलब, “सुनो मेरे जवान दोस्त, भागो मत, इस घने जंगल में मुझे अकेला छोड़कर भागो मत।”

अनजाने में ही एक खास किस्म का मजा हमारे दिल में छाने लगा। मैंने कहा–– “टुडू यह तो हमारे जैसा ही गाना है”

इन्दु ने दबी आवाज में गाना शुरू किया–– “सुनो–सुनो हे प्राण पिया–––”

थोड़ी देर तक हम सब मंत्रमुग्ध जैसे चुपचाप बैठे थे। शायद मन ही मन चिरकी मुर्मू नाम की जंगली बेल जैसी उस लड़की को तसल्ली दे रहे थे कि नहीं, नहीं! तुम्हारा दोस्त नहीं भागेगा। हम सब दुआ करते हैं, होरो तुम्हारे पास वापस आयेगा।

तभी हम सब फादर लिण्डन की धमकी सुनकर चैंक गये। हॉस्टल की बालकनी पर अँधरे में जैसे एक कुश्ती चल रही है। टुडू दौडकर देखने गया और परेशान आवाज में हाँफते हुए बोला–– “फादर लिण्डन ने होरो की बाँसुरी तोड़ दी है।”

हम सबसे दिल में एक साथ ही बदले की आग जल उठी। हमने गुस्से में कहा–– “होरो ने दो चार हाथ नहींं लगाये?”

टुडू ने बुझे अन्दाज में कहा–– “मुझे न जाने क्यों डर लग रहा है। होरो बहुत जिद्दी है। वह फादर को इसका मजा चखा देगा।”

लेकिन इसके बाद हमें होरो के जिद्दीपन का कोई सबूत नहीं मिला, बल्कि उससे उलट हमने देखा कि फादर लिण्डन ने जिद पकड़ी हुई है, उनका अभियान शुरू हो गया है। वह हर हफ्ते एक बार कभी भोजपुरी लठैत तो कभी आठ–दस कांस्टेबल साथ लेकर दौरे पर निकलते हैं। नजदीकी थाने में चिट्ठी लिखते ही कांस्टेबल आ जाते हैं। उसके बाद जैसे फादर एक लड़ाकू दस्ता लेकर दो–चार दिन के लिए जंगल में गायब हो जाते हैं। वाकई वह एक धर्मयोद्धा हैं। हम लोग बस मुँह लटकाकर यही सोचते थे कि कब फादर लिण्डन का यह रहस्यमय आना–जाना खत्म होगा? कब उनके लाल चेहरे का गुस्सा शान्त होगा?

टुडू से यह सब सुनते ही कहानी समझ में आ गयी। फादर लिण्डन का अभियान मोरंगी पहाड़ के मुर्मुओं की डीही में ही शुरू हुआ है। पहाड़ में एक मिट्टी का गिरजाघर भी बना चुके हैं। उन्होंने जंगल के अन्दर घुसकर जैसे लाखों साल पुराने बोंगाओं की पत्थर की बेदी की जड़ों को हिला दिया है।

बस कुछ ही दिन बाद सुना कि मोरंगी पहाड़ में कुछ हंगामा हुआ है। किसी ने मिट्टी का गिरजा तोड़कर धूल में मिला दिया है। किसने किया है?

जिसने यह किया है, हम लोगों ने उसे अपनी आँखों से देखा है। वह बूढ़ा सोका है। हमने भी सेशन जज की अदालत की भीड़ में घुसकर वह फैसला सुना–– उसे ताउम्र देश निकाला दे दिया गया था।

हॉस्टल के बगीचे के बूढ़े बरगद की झुर्री में लटककर झूलते हुए स्टीफन होरो को हम देखते थे। स्टीफन होरो जैसे एक असहनीय ज्वलन को ठण्डा करने की कोशिश करता रहता था।

देश भर में असहयोग आन्दोलन की आँधी चली, हमने स्कूल छोड़ने का फैसला किया। जलियाँवाला बाग का अपमान, हमें बेचैन कर चुका था।

हम बंगाली और बिहारी लड़कों ने स्कूल छोड़ दिया। राजाओं के बेटों में से किसी ने नहीं छोड़ा। इसाई लड़कों ने भी नहीं–– टुडू, बेसरा, टिग्गा, खाल्खो कोई नहीं। हम लोग धरना प्रदर्शन करके उन्हें रोकने लगे।

हमें उम्मीद थी कि होरो हमारे साथ आयेगा। फादर लिण्डन ने जिस तरह से उसे अपमानित किया है जिन्दगी में वह शायद किसी पादरी या सफेद चमडी के आदमी को नहीं सहेगा।

हम लोग स्कूल के फाटक पर धरना प्रदर्शन कर रहे थे। देखा, होरो आ रहा है। आजाद भारत की जय! जयकारा देते हुए हमने, होरो का स्वागत किया।

होरो ने आगे आकर इन्दु को धक्के से हठाकर, परेश के हाथ को ठेलकर जंगली सुअर जैसे रास्ता बनाकर, क्लास में घुस गया।

उसी दिन हमने होरो को सही तरह से पहचाना पादरियों का गुलाम, इनसानियत से बेखबर, स्वाभिमान से वंचित, मूर्ख जंगली होरो। आजाद भारत को पहचान नहीं पाया तू! थोडी भी इज्जत नहीं की। लेकिन तेरा जंगल तो भारतवर्ष के अन्दर ही है रे, जंगली साँड भारतवर्ष के बाहर तो नहीं!

आठ साल बाद की बात है, तब मैं लोपो थाने का दरोगा था। सुबह–सुबह हाजिरी लगाने कुछ बिरसाईट आये हैं, वो जेल से आज ही रिहा हुए हैं। यहाँ हाजिरी लगाकर अपने–अपने डीही चले जायेंगे। बिरसाईट लोग बहुत संदिग्ध जीव हैं। पुलिस को तंग करते हैं। जंगलात के कानून नहीं मानते, महाजनों को पीटकर भगा देते हैं, चैकीदार को टैक्स देना नहीं चाहते हैं। बाजार लगे तो चुंगी देने से मना करते हैं। जमीन कुर्क करने जाओ तो अदालत के प्यादे को कुल्हाड़ी लेकर काटने आते हैं। बिरसाईट लोगों ने दो साल पहले एक बार स्वराज घोषित किया था। पादरियों को मारा, पुलिस को मारा, कई पुल तोड़ दिये। उनके साथ ओरमांझी के जंगल में एक छोटी–मोटी लड़ाई भी हुई थी।

सबसे आखिर में हाजिरी लगवाने जो आया, उसका नाम है ऱन्नू होरो।

मैंने बही से आँख उठाकर देखा। उसके सर के घुँघराले बाल जटा जैसे हो गये हैं, गले में किसी जंगली फल की माला और नंगा बदन। हाथ में कड़ा और कमर पर बस कपड़े का छोटा टुकड़ा है। इस प्राक–ऐतिहासिक वेश–भूषा के बीच बस एक जोड़ी धारदार आधुनिक आँखे हैं।

अचरज छुपाते हुए उसके चेहरे की तरफ देखते हुए मैंने कहा “स्टीफन होरो!!”

मीठी सी मुस्कान के साथ उसने कहा “नहीं, नहीं। घोष मैं रून्नू होरो हूँ।”

तुम भी एक बिरसाईट हो?

“मैं बिरसा भगवान का शिष्य हूँ।”

“बिरसा भगवान? वो कौन है?”

“घोष, वो हमारे गाँधी थे। मैंने अपनी आँखों से उन्हें नहीं देखा है, पिताजी से उनके बारे में सुना है। हमारे बिरसा भगवान अंग्रेजों के कैद में एक कैदी की तरह मारे गये। घोष तुम्हें पता है वो दिखने में कैसे थे?”

“कैसे?”

“ईसा मसीह जैसे।”

थोड़ा चुप रहकर होरो ने कहा “हमारे जंगल के अन्दर बाहर से बहुत से पाप आकर घुस गये हैं। इसीलिए बिरसा भगवान ने हमें आगाह कर दिया है। उनका कहा कैसे भूल जाएँ।”

मंैने पुकारा “स्टीफन होरो।”

होरो ने विरोध जताया, “रून्नू होरो कहो।”

मैं चुप हो गया। होरो खुद ही खुश होकर बहुत सी खबरें पूछने लगा–– “इन्दु कहाँ है? परेश क्या कर रहा है?”

चारों तरफ नजर घुमाकर सावधानी से होरो से मैंने पूछा “इतने दुबले कैसे हो गये तुम?”

होरो, “मुझे टीबी हुआ है। अच्छा अब चलता हूँ।”

बस एक बात जानने के लिए बेचैनी हो रही थी। मैं फिर भी झिझक तोड़ नहीं पा रहा था। आखिरकार हिम्मत करके मैंने पूछ ही लिया–– “होरो, एक बात जानने का खूब मन कर रहा है।”

होरो–– “पूछो।”

मैंने पूछा–– “चिरकी मुर्मू कहाँ है?”

होरो का शान्त जवाब आया–– “ओह, तुम्हें नहीं पता है? वह फादर लिण्डन की मिशन में शामिल हो गयी है। वह आजकल हजारीबाग के कान्वेण्ट मेंं रहती है।”

स्टीफन की नजर तीर जैसी चमकने लगी, उन आँखों में बस नमी थी। मुझसे और कुछ पूछा नहीं गया। स्टीफन भी चुपचाप चला गया।

किसी को अपने मुँह से बोलते हुए शर्म आयेगी। एक गलती की याद थोड़ी देर तक काँटे की तरह चुभ रही थी। शायद हम लोगों ने ही निष्पक्ष रहकर पानीपत की चैथी लड़ाई में स्टीफन को हरा दिया था। स्टीफन भी बनवास को चला गया।

(बांग्ला से अनुवाद–– अमित इकबाल)

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