सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

अमरीका बनाम चीन : क्या यह एक नये शीत युद्ध की शुरुआत है

–– पैट्रिक विण्टौर

शीत युद्ध के बौद्धिक लेखक के रूप में विख्यात जॉर्ज केनन ने याद किया कि सोवियत खतरे की प्रकृति पर अगर उसने अपना तार छह महीने पहले भेजा होता तो उसके सन्देश पर “शायद विदेश मंत्रालय में होंठ भींच लिए जाते और भवें चढ़ जाती। छह महीने बाद, यह शायद एक निरर्थक और बेमतलब का उपदेश लगा होता।”

अब, कोरोनोवायरस महामारी को लेकर जब अमरीका चीन को घेर रहा है तो ऐसा लगता है जैसे दुनिया के बहुत से लोकतांत्रिक देश 1946 जैसी तेजी से ही विश्व व्यवस्था की एक नयी धारणा तक पहुँच रहे हैं। अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने घोषणा की है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद से भी बड़ा खतरा है, और इस बात से सहमत देशों की संख्या बढ़ रही है।

जिन लोगों ने तर्क दिया कि आर्थिक रूप से उदार चीन एक राजनीतिक रूप से ज्यादा उदार चीन को जन्म देगा, उन्हें अब डर है कि उन्होंने खुद को इतिहास के गलत पक्ष में पाया है। ताइवान के हवाई क्षेत्र से लेकर हाँगकांग की गगनचुम्बी इमारतों तक, भारत के साथ लगती सीमा पर बर्फ से ढका हिमालय और दक्षिण चीन सागर में शीशा/पारसल द्वीपों के आसपास की चट्टानें चीनी दृढ़ता का एक पुनर्मूल्यांकन पेश कर रही हैं। ऑस्ट्रेलियाई सरकार के शुक्रवार के फैसले में देश पर हुए साइबर हमले को एक राज्य संचालित हमला कहना लेकिन चीन का नाम न लेना एक नयी मानसिकता का नवीनतम सबूत था।

अमरीका की माँग है कि इसके सहयोगी न केवल पिछली अनुभवहीनता को स्वीकार करें बल्कि इसके चीन विरोधी गठबन्धन में भी शामिल हों। चीन, शायद कम खुलेपन से देशों को अपने खेमे में शामिल होने के लिए तैयार कर रहा है।

कई देश बचने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन तटस्थता या गुटनिरपेक्षता की गुंजाइश कम होती जा रही है। उदाहरण के लिए भारत, जिसे अपने पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन के अनुसार लम्बे समय से अपनी सामरिक स्वायत्तता पर गर्व है। यह गलवान घाटी में अपने सैनिकों के साथ चीनी सैनिकों द्वारा की गयी क्रूर हाथापाई के निहितार्थों से चकरा गया है। इस घटना को मेनन अपने दायरे और निहितार्थों के लिहाज से दो पड़ोसियों के बीच सम्बन्धों के लिए एक अभूतपूर्व कार्रवाई मानते हैं।

मेनन लम्बे समय से तर्क देते रहे हैं कि भारत को स्थायी गठजोड़ से बचना चाहिए। वे कहते हैं “निश्चित रूप से, भारत के लिए आदर्श स्थिति यह है कि चीन और अमरीका दोनों एक दूसरे के जितना करीब हैं, भारत को दोनों के उससे ज्यादा करीब रहना है।” लेकिन जैसे–जैसे बयानबाजी और खतरे बढ़ रहे हैं, इस तरह से चीन और अमरीका के बीच चलना किसी भी समय से ज्यादा कठिन होता जा रहा है। इसके बजाय ऐसा लगता है जैसे कि एक नये शीत युद्ध की आहट सुनायी दे रही है जो पारम्परिक हथियारों के बजाय प्रौद्योगिकी और तटकर के रूप में ज्यादा लड़ा जायेगा।

वास्तव में, अगले छह महीनों के लिए बड़ा सवाल यह है कि जो देश दुनिया को फिर से दो खेमों में बाँटने के विरोधी हैं उन्होंने किस हद तक इसका विरोध किया है, इस पर कितना कायम रहते हैं और जब दुनिया भर में आर्थिक सम्बन्ध इतने सघन हो गये हैं कि किसी देश से नाता तोड़ लेने की कीमत बहुत अधिक है तो क्या अमरीका की इच्छा के अनुसार नाता तोड़ा जा सकता है।

कुछ साल पहले बहुत से लोगों ने सोचा था कि ये अगले दशक के सवाल हो सकते हैं। बराक ओबामा के नेतृत्व में महाशक्तियों के बीच की प्रतिद्वंद्विता की आहट धीरे–धीरे सुनायी दे रही थी। लेकिन ट्रम्प प्रशासन के आगमन के साथ ही इसने एक नयी तात्कालिकता ग्रहण कर ली। डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा त्याग दिये गये सलाहकारों में से एक, स्टीव बैनन के शब्दों में–– “ये दो व्यवस्थाएँ हैं जो असंगत हैं। एक पक्ष को जीतना है। दूसरे पक्ष को हारना है।” कोरोनोवायरस, एक महाउत्तेजक इस मुद्दे को उम्मीद से पहले सतह पर ले आया है।

एशिया रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक शोधार्थी, किशोर महबूबानी के अनुसार ट्रम्प ने इस युद्ध की तैयारी हड़बड़ी में की है। “मूलभूत समस्या यह है कि अमरीका ने दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता चीन के खिलाफ एक भूराजनीतिक टकराव शुरू करने का फैसला इस टकराव को चलाने की एक व्यापक रणनीति पर काम किये बिना ही लिया है। यह काफी चैंकाने वाला है। कोरिया और जापान के लिए यह सारभूत मुद्दे नहीं हैं। अमरीका चाहता है कि वे दोनों चीन से अलग हो जायें, लेकिन उनके लिए यह आर्थिक आत्महत्या है।”

महबूबानी संयुक्त राष्ट्र में सिंगापुर के प्रमुख राजनयिक थे और देश के वर्तमान प्रधानमंत्री ली ह्विसयन लूंग भी उतनी ही मुखरता से कहते हैं कि एशिया बैनन की पसन्द के प्रति उत्साही नहीं है। उनका कहना है–– “एशियाई देश अमरीका को एक बाहरी शक्ति के रूप में देखते हैं, जिसका इस क्षेत्र से गहरा स्वार्थ जुड़़ा हुआ हैं। जबकि, चीन दहलीज पर मौजूद एक वास्तविकता है। एशियाई देश दोनों के बीच चुनाव के लिए मजबूर नहीं होना चाहते हैं। और अगर इस तरह के चुनाव को थोपने की कोशिश की जाती है, अगर वाशिंगटन चीन के उभार को रोकने की कोशिश करता है या बीजिंग एशिया में अपने प्रभाव वाला एक विशेष क्षेत्र बनाना चाहता है, तो वे टकराव का एक क्रम शुरू कर देंगे जो लम्बे समय तक चलेगा और लम्बे समय से चली आ रही एशियाई सदी को संकट में डाल देगा।”

लूंग ने अमरीका से इसे 1946 के दोहराव के रूप में नहीं देखने का भी आग्रह किया। “चीन कोई पोटेमकिन गाँव ( ऐसा देश जिसकी आर्थिक हालत खराब हो लेकिन वह दुनिया को दिखाता हो कि उसकी हालत बहुत अच्छी है–– अनु–) या पूरी तरह नियंत्रित अर्थव्यवस्था होने से बहुत दूर है, जैसा सोवियत संघ अपने अन्तिम दिनों में था। इन दो महाशक्तियों के बीच टकराव का अन्त पहले शीत युद्ध जैसा नहीं होगा जिसमे एक देश का शान्तिपूर्ण पतन हो गया था।”

तटस्थ रहने की ऐसी ही कोशिश यूरोप भी कर रहा है। हाँ, यूरोप ने एक साल पहले चीन को “एक व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्वी” घोषित किया था और यूरोपीय संघ के अधिकांश देश अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता लाने, विदेशी सब्सिडी को सीमित करने के बारे में सोच रहे हैं, यानी वे संवेदनशील अन्दरूनी चीनी निवेशों को विनियमित करने की समीक्षा करना चाहते हैं। लेकिन यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख जोसेफ बोरेल, नहीं चाहते कि उन्हें ट्रम्प के पूर्ण–युद्ध में घसीटा जाये। इस महीने की शुरुआत में चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ एक वीडियो वार्ता के बाद उन्होंने सिनात्रा सिद्धान्त पेश किया–– यूरोप अपने खुद के रास्ते पर चलेगा।

बोरेल ने जोर देकर कहा कि चीन कोई सैन्य खतरा नहीं है और बताया कि वांग ने कहा है चीन को “व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्वी” कहा जाना पसन्द नहीं है। बोरेल ने भाषाई गाँठों में खुद को बाँधने से पहले कहा कि “शब्द का महत्त्व है”, “प्रतिद्वंद्वी का क्या अर्थ है? प्रतिद्वंद्वी किस बारे में? क्या व्यवस्थागत का मतलब दो व्यवस्थाओं के बीच प्रतिद्वंद्विता है? या यह एक व्यवस्थित प्रतिद्वंद्विता है? इसकी दो व्याख्याएँ हैं।”

जर्मनी जैसे देशों के लिए यह शब्दों का खेल नहीं है। 2019 में जर्मनी ने चीन को 96 अरब यूरो का निर्यात किया जो यूरोपीय संघ का लगभग आधा है। वोक्सवैगन ने 2017 के वित्तीय वर्ष में वहाँ 42 लाख कारें बेची। अगर डॉयचे टेलीकॉम को अपने नेटवर्क से चीनी उपकरण आपूर्तिकर्ताओं को हटाने के लिए मजबूर किया गया–– एक परिदृश्य जिसे आर्मगेडन कहा जाता है–– तो इसमें 5 साल लगेंगे और अरबों यूरो खर्च होंगे। एक व्यवस्थित प्रतिद्वंद्विता बर्लिन के हितों में नहीं है, या वास्तव में, यही इसके लोग चाहते हैं। हर सर्वेक्षण में उन्होंने शी जिनपिंग की तुलना में ट्रम्प को विश्व शान्ति के लिए ज्यादा बड़ा खतरा बताया है।

इसी तरह, लातिन अमरीका में कुछ देश चीन केन्द्रित साबित हो रहे हैं। चिली जो शायद इस महाद्वीप पर सबसे मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था है, आयात और निर्यात दोनों के मामले में चीन को अपना मुख्य व्यापारिक भागीदार मानता है।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी स्वनिर्मित विदेश नीति, बेल्ट एण्ड रोड इनिशिएटिव को पूरे लातिन अमरीका में विस्तारित कर दिया है, जिस पर क्षेत्र के 20 में से 14 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं। अर्जेंटीना के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार के रूप में चीन ने ब्राजील को पीछे छोड़ दिया है। अर्जेंटीना के राष्ट्रपति अल्बर्टाे फर्नांडीज ने सलाह दी है कि “व्यापार सम्बन्धों को विचारधारा से मुक्त होना चाहिए”।

ब्राजील में, जहाँ जैर बोल्सोनारो की आमद ने “विश्व वर्चस्व” के लिए बीजिंग की योजनाओं पर नस्लभेदी सन्देश भेजे थे, वहाँ 2019 में साल के पहले पाँच महीनों में समान अवधि की तुलना में चीन को होने वाला निर्यात 13.1 प्रतिशत बढ़ा है। इक्वाडोर के ऋण का एक तिहाइ हिस्सा 18–4 अरब डॉलर चीनी पॉलिसी बैंकों से आया है। मेक्सिको, वेनेजुएला और बोलीविया के चीन के साथ मजबूत व्यापारिक सम्बन्ध भी हैं।

कभी अमरीका के पिछवाड़े का आँगन कहा जाने वाला लातिन अमरीका तेजी से चीन का चबूतरा बन रहा है। करीबी आर्थिक रिश्तों के साथ राजनीतिक खामोशी भी आती है। 2017 के बाद से ताइवान के मुद्दे पर, पनामा, डोमिनिकन गणराज्य और अल सल्वाडोर पाला बदलकर ताइवान से चीन की ओर गये हैं। बदले में उन्होंने बुनियादी ढाँचे का वित्तपोषण और निवेश हासिल किया है।

लम्बे समय से चीन को अफ्रीका का सबसे बड़ा सहूकार माना जाता है। इतिहासकार नील फर्ग्यूसन कहते हैं “जब वित्तपोषण की बात आती है तो अफ्रीका के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है।” “हम (पश्चिम वाले) प्रभावी तरीके से प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे हैं।” जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के अनुसार अफ्रीकी देशों ने अपने बाहरी कर्ज का लगभग 20 प्रतिशत यानी 150 अरब डॉलर चीन से लिया है।

कील इंस्टिट्यूट फॉर वर्ल्ड इकोनोमी के अनुसार हाल के वर्षों में चीन द्वारा दिया कर्ज आईएमएफ, विश्व बैंक और पेरिस क्लब के संयुक्त ऋण से अधिक हो गया है। यह तब है जबकि चीन द्वारा विकासशील और उभरते देशों को दिये गये अन्तरराष्ट्रीय कर्ज का लगभग 50 प्रतिशत आधिकारिक आँकड़ों में शामिल नहीं है। चीन का कहना है कि जी–20 का हिस्सा होने के नाते वह कम से कम आठ महीनों के लिए भुगतानों को स्थगित करते हुए अफ्रीका के कर्ज के बोझ को कम करने में मदद करेगा। लेकिन इसने विवरणों की घोषणा नहीं की है, और इसके कई ऋणों की शर्तें सन्देहास्पद हैं।

शोध फर्म कैपिटल इकोनॉमिक्स में उभरते बाजारों पर काम करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्री विलियम जैक्सन का कहना है, “इन ऋणों की शर्तें बहुत ही अपारदर्शी हैं और इनके पुनर्गठन में बहुत समय लगेगा। अफ्रीकी देशों में मोलभाव की ताकत बहुत कम है। चीन ज्यादा मजबूत स्थिति में है।”

दुनिया भर में फैले इस नेटवर्क का उपयोग चीन ने संयुक्त राष्ट्र के संस्थानों तक पहुँच बनाने के अपने लम्बे अभियान के लिए किया है, जिन मंचों तक अमरीका अपने छोटे अभियानों द्वारा पहुँचने में सक्षम है। पश्चिम को एक शुरुआती चेतावनी 2017 में ही मिल गयी थी, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन के संचालन के लिए ब्रिटेन के उम्मीदवार को चीन समर्थित इथियोपियाई उम्मीदवार डॉ टेड्रोस एडनॉम घेबायियस द्वारा पटखनी दी गयी थी। चीन अब संयुक्त राष्ट्र की 15 विशेषज्ञ एजेंसियों में से चार का प्रमुख है। 2019 में खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के महानिदेशक के चुनाव से पहले चीन ने कैमरून सरकार का 7–8 करोड़ डालर का कर्ज माफ कर दिया जिसके बाद, संयोग से इस देश के नामांकित उम्मीदवार ने अपना नाम वापस ले लिया। चीन ने 191 में से 108 मत हासिल करके फ्रांसीसी उम्मीदवार को हराया।

सालों तक सामाजिक संगठनो में अलग–थलग रहने के बाद अब चीन संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भी सक्रिय हो गया है और उसकी गतिविधियों को प्रायोजित कर रहा है। जुलाई 2019 में 10 लाख उइघुर मुसलमानों के साथ चीन के बर्ताव के बारे में पश्चिमी आलोचना को दबा दिया गया। जुलाई के उस मतदान को चीनी प्रभाव के अम्ल परीक्षण के रूप में देखा गया था। चीन की आलोचना करनेवाले प्रस्ताव का समर्थन दो पश्चिमी देशों ने किया, लेकिन 50 से अधिक देशों ने “मानव अधिकारों का राजनीतिकरण” करने और मानवाधिकारों में चीन की “उल्लेखनीय उपलब्धियों” की सराहना करते हुए इस प्रस्ताव का विरोध करने वाले पत्र पर हस्ताक्षर किये। एक भी मुस्लिम देश ने पश्चिम का समर्थन नहीं किया। तथाकथित “विकासशील देशों के एक जैसी सोच वाले समूह” के सभी देशों ने चीन का समर्थन किया या उसे बरी कर दिया। इसी तरह, पूर्वी यूरोपीय देशों के एक समूह ने बीजिंग को खारिज करने से इनकार कर दिया।

इस वृतान्त ने दिखाया है कि कोई भी ऐसी धारणा जो मानती है कि चीनी अधिनायकवाद को उस रास्ते पर ले जाने वाला, जो अमरीका चाहता है एक गढ़ा गया बहुमत है, यह एक कपोल–कल्पना है। महबूबानी तर्क देते हैं कि जिन देशों में दुनिया की केवल 20 प्रतिशत आबादी बसती है वे चीन–विरोधी गठबन्धन में शामिल होने के इच्छुक हैं, लेकिन बाकी देश ऐसा नहीं करेंगे। लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ केयू जिन का कहना है कि एक वैश्विक विभाजन है–– “चीन के प्रति कई उभरते बाजारों का दृष्टिकोण समृद्ध औद्योगिक राष्ट्रों से बेहद अलग है। वे चीन मॉडल से सीखना और प्ररेणा लेना चाहते हैं। वे चीन को प्रौद्योगिकी में नवाचार के साथ जोड़ते हैं। दस साल पहले, वित्तीय संकट के दौरान चीन वित्तीय अन्तराल को भरने वाला एकमात्र देश था जब अमरीकी फेडरल रिजर्व के पास केवल छह प्रमुख उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के साथ स्वैप लाइनें बची थीं।”

अपने दुश्मन के मामले में चीन भाग्यशाली रहा है। जिस तरह चीन ने अपने सहयोगियों का साथ दिया है, उससे उलट ट्रम्प ने उन्हें अपमानित किया है। मीरा रैप–हूपर ने अपनी नयी पुस्तक शील्ड्स ऑफ द रिपब्लिक में दोनों तरह के तथ्य दिये हैं कि गठबन्धनों के विनाश के लिए किस तरह से ट्रम्प को महिमामंडित किया गया, और अमरीका उसकी कितनी कीमत चुका रहा है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला है–– “ट्रम्प को गठबन्धनों को कानूनी रूप से तोड़ने की जरूरत नहीं है–– वह उनके साथ संरक्षण का अवैध धन्धा करता है जिसके लिए संरक्षित पक्ष कभी पर्याप्त भुगतान नहीं कर सकते और वह उनका निराकरण कर देता है। विरोधियों को गले लगाकर वह इस इच्छा का दावा ठोकता है कि उसके सहयोगी खतरों को साझा करें।” इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ चीनी राजनयिक ट्रम्प के फिर से चुने जाने का और जो विनाशकारी गेंद उसने पश्चिमी गठबन्धन के पाले में डाली है उसकी एक और स्विंग का स्वागत करेंगे।

फिर भी एन वक्त पर पासा पलट सकता है, जिसका मुख्य कारण चीन द्वारा ट्रम्प जितना ही मूर्खतापूर्ण व्यवहार करना होगा। नेशनल ब्यूरो ऑफ एशियन रिसर्च के काउंसलर हारून फ्रीडबर्ग का मानना है कि कोरोनो वायरस के जवाब में चीन का व्यवहार एक किस्म के निर्णायक क्षण का प्रतिनिधित्व कर सकता है। “यह ऐसा है जैसे कि हर स्तर पर संकट के विस्तार ने एक और पर्दा खींच दिया है, जिससे शासन के चरित्र के और अधिक बदसूरत पहलू उजागर हुए हैं और ऐसे विविधतापूर्ण खतरे उभरकर सामने आये हैं जो यह दूसरों के लिए पैदा कर सकता है।”

हाँगकांग के लिए खतरा, और भारत के साथ सीमा पर टकराव केवल उन चीनी कदमों की एक श्रृंखला के लक्षण हैं जिन्होंने गुट–निरपेक्ष जीवन को कठिन बना दिया है, और इसने लॅनक्सिआंग जियांग धूमन जैसे अधिक पारंपरिक चीनी राजनीतिक विज्ञानियों को त्याग दिया है। उनका तर्क है कि चीन “आत्म–गौरव की कल्पनाओं” में लिप्त होकर खुद को और पश्चिम के साथ अपने सम्बन्धों को अकथनीय नुकसान पहुँचा रहा है।

अगर चीन को नेतृत्व करने के अपने अवसर गवाँ देने का खतरा है तो दूसरों ने भी अन्दाजा लगा लिया है कि मध्यम शक्ति वाले लोकतंत्रों के लिए एक क्षणिक अवसर मौजूद है, जिनमे से कुछ परमाणु शक्ति–समपन्न भी हैं जिसका अधिक बोलबाला है। लोकतंत्रों के एक डी 10 दस देशों के समूह की चर्चा है–– सारत:, जी 7 के साथ ऑस्ट्रेलिया, भारत और कोरिया को मिलकर। यह एक विचार है जो बिडेन के अमरीकी राष्ट्रपति चुने जाने पर रफ्तार पकड़ सकता है। लेकिन यह इस पर निर्भर करता है कि चीन से टकराव को टालने के लिए वाशिंगटन कितना अधिक संयम दिखायेगा।

हालाँकि, वह कभी भी एक अन्तरराष्ट्रीय विचारधारा नहीं बन पाया, लेकिन इतालवी कम्युनिस्ट एण्टोनियो ग्राम्शी ने दो युगों के बीच के अन्तराल पर विचार करते हुए सही कहा था–– “पुरानी दुनिया मर रही है, और एक नयी दुनिया जन्म लेने के लिए संघर्ष कर रही है। अभी दैत्यों का समय है।”

(‘द गार्डियन’ से साभार, अनुवाद–– प्रवीण कुमार)

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