16 फरवरी, 2021 (ब्लॉग पोस्ट)

आंदोलनरत किसान अतीत से सीख रहे हैं और राष्ट्रवाद की सच्ची परिभाषा के साथ इतिहास रच रहे हैं

निम्नलिखित अंश भगत सिंह के "युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र" (द भगत सिंह, पेज 224-245) से लिया गया है, जो दो फरवरी, 1931 को लिखा गया था।

(मूल अंग्रेजी में पढने के लिए क्लिक करें.)

"असली क्रांतिकारी सेनाएँ गाँवों और कारखानों में हैं जो किसान और मजदूर हैं। लेकिन हमारे बुर्जुआ नेता चाहकर भी उनका नेतृत्व करने की हिम्मत नहीं कर सकते। सोता हुआ शेर एक बार अपनी नींद से जाग गया तो बेचैन हो जायेगा फिर हमारे नेताओं का लक्ष्य क्या रहेगा। 1920 में अहमदाबाद के मजदूरों के साथ अपने पहले अनुभव के बाद महात्मा गांधी ने घोषणा की थी कि “हमें मजदूरों के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। फैक्ट्री के सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक उपयोग करना खतरनाक है ”(द टाइम्स, मई 1921)। उसके बाद उन्होंने कभी भी मजदूरों से संपर्क करने की हिम्मत नहीं की। किसानों के मामले में भी ऐसा ही हुआ। 1922 का बारदोली सत्याग्रह साफतौर पर नेताओं के डर को दिखाता है। इस आंदोलन से पहले नेता महसूस कर रहे थे कि उन्होंने विशाल किसान वर्ग को जमींदारों के उत्पीड़न और विदेशी राष्ट्र की गुलामी सहने के लिए छोड़ दिया है और इसी वजह से उन्हें किसानों का मजबूत विरोध झेलना पड़ा है।

वैसे भी, हम उन ताकतों के बारे में चर्चा कर रहे थे जिन पर आप क्रांति के लिए भरोसा कर सकते हैं। लेकिन अगर आप कहते हैं कि आप समर्थन हासिल करने के लिए किसानों और मजदूरों से रिश्ता बनायेंगे तो आपको बता दूं कि वे किसी भावुक बात से मूर्ख नहीं बनने वाले हैं। वे आपसे बहुत स्पष्ट रूप से पूछेंगे कि उस क्रांति से उन्हें क्या मिलेगा, जिसके लिए आप उनके बलिदान की मांग कर रहे हैं। इससे उन्हें क्या फर्क पड़ता है कि लॉर्ड रीडिंग भारत सरकार के प्रमुख हैं या सर पुरषोत्तमदास ठाकुरदास (एक बॉम्बे उद्योगपति और कांग्रेस नेता)? एक किसान के लिए क्या फर्क पड़ता है अगर सर तेज बहादुर सप्रू (एक प्रमुख एडवोकेट और अमीर कांग्रेसी नेता) लॉर्ड इरविन की जगह लेते हैं! ऐसे में उससे राष्ट्रीय भावना की अपील करना व्यर्थ है। आप उसे अपने उद्देश्य के लिए "इस्तेमाल" नहीं कर सकते हैं। आपको गंभीरता से समझाना होगा कि क्रांति उसके और उसकी भलाई के लिए होने वाली है।

 10 साल में क्रांति कर देने और 1 साल में ग़ांधी के स्वराज को पा लेने के बचकाना सपने को अभी छोड़ देते हैं। इसके लिए केवल भावना और मृत्यु की ही आवश्यकता नहीं होती, बल्कि निरंतर संघर्ष, पीड़ा और बलिदान का जीवन जरूरी है। पहले अपने निजी अस्तित्व को खत्म कर, व्यक्तिगत आराम के सपनों को एक तरफ छोड़, अपना काम करना शुरू करें। आपको एक -एक इंच आगे बढ़ना होगा। इसके लिए साहस, दृढ़ता और बहुत दृढ़ निश्चय की जरूरत है। जिससे कोई कठिनाई आपको हतोत्साहित नहीं कर पाएगी। कोई विफलता और विश्वासघात आपको निराश नहीं करेगा। आप पर आया हुआ कोई भी संकट आप के अंदर क्रांतिकारी इच्छाशक्ति को खत्म नहीं कर पायेगा। कष्टों और बलिदान की परीक्षा में आप विजयी होंगे। और यह व्यक्तिगत जीत क्रांति की मूल्यवान सम्पत्ति होगी।  

एक अर्थ में क्रांति-विरोधी शांतिवाद के मत को मनाने वाले गांधीवाद का क्रांतिकारी विचारों के साथ करीबी रिश्ता बनता है। इसके लिए बड़े पैमाने पर जन आंदोलन की जरूरत पड़ती है, हालांकि केवल जनता के लिए नहीं। उन्होंने जनता को संगठित करने की कोशिश करके सर्वहारा क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया है, लेकिन ऐसा उन्होंने बेमन से और अपने राजनीतिक कार्यक्रम के स्वार्थ के चलते किया। क्रांतिकारियों को अहिंसा के मुद्दे को भी निश्चय ही एक दिशा देनी चाहिए।

 क्या क्रांतिकारियों को लक्ष्यहीन विद्रोहों और व्यक्तिगत आत्म-विद्रोह के दुष्चक्र पर बार-बार चोट नहीं करनी चाहिये। सभी के लिये और अलग-अलग क्षेत्रों के कामगारों के लिए प्रेरणादायक आदर्श यह नहीं होना चाहिए कि वह कारण के लिए मर रहा है बल्कि यह होना चाहिए कि वह कारण के लिए जीवित है तथा उपयोगी और सम्म्मनित रूप से जीवित है।

अगर राष्ट्रवादियों को प्रभावशाली होना है तो उन्हें राष्ट्र को कार्रवाई के लिए यानी विद्रोह के लिए तैयार करना चाहिए। राष्ट्र कांग्रेस का भोंपू नहीं हैं - राष्ट्र किसान और मजदूर है जिनसे मिलकर 95 प्रतिशत से अधिक भारत बना है। राष्ट्रीयकरण के आश्वासन पर ही देश कार्रवाई के लिए आंदोलन करेगा और ये तब होगा जब साम्राज्यवादी-पूंजीपतियों की गुलामी से जनता को मुक्ति मिलेगी।"

भगत सिंह के यह लंबे उद्धरण किसानों के मौजूदा संघर्ष को समझने के लिए आवश्यक हैं, जो पाँच महीने पहले पंजाब में शुरू हुआ था और जो जून 2020 में पारित किए गए तीन प्रमुख कृषि अध्यादेशों के खिलाफ है जिन्हें हम "काले कानूनों" के रूप में भी जानते हैं। काले कानूनों का उद्देश्य राज्य द्वारा फसलों के मूल्य नियंत्रण की प्रक्रिया को कमजोर करके भारत में कृषि को और अधिक कमजोर करना है। सितंबर में संसद द्वारा संदिग्ध तरीके से इन अध्यादेशों को कानून में तब्दील कर दिए जाने के बाद, दिल्ली की सीमाओं पर 40 दिनों से अधिक समय से विरोध प्रदर्शन जारी है। राष्ट्रीय स्तर पर एक मंच गठित किया गया है जिसमें चार सौ से अधिक किसान संगठन शामिल हैं, पंजाब से 30 से ज्यादा संगठन हैं जो आंदोलन को सक्रिय रूप से संचालित कर रहे हैं। जहाँ से किसानों को इस तरह की दृढ़ इच्छाशक्ति मिलती है कि जीत तक संघर्ष जारी रखने के लिए कुछ हद तक भगत सिंह के विचारों को भी शामिल किया जा सकता है। ज्यादा बड़े पैमाने पर इसमें पंजाब समेत भारत के दूसरे हिस्सों के किसान उत्पीड़न विरोधी और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों की दूसरी परंपराओं के विचार शामिल हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि कई किसान, युवा और बुजुर्ग, महिलाएं और पुरुष न केवल भगत सिंह की तस्वीरें पकड़े हुए दिखाई दे रहे हैं, बल्कि भगत सिंह की किताबों को भी पढ़ रहे हैं। भारतीय क्रांतिकारी आंदोलनों पर किताबों के साथ-साथ इतिहास और साहित्य पर भी किताबें हैं और भगत सिंह पर कई किताबें विरोध प्रदर्शन स्थल पर स्थापित पुस्तकालयों और पुस्तक प्रदर्शनियों में लगायी गई हैं। इनमें से अधिकतर पंजाबी और हिंदी में हैं, लेकिन कुछ अंग्रेजी में भी हैं। जैसे गुरुद्वारों में सिखों की मुफ्त भोजन की प्रथा पर आधारित लंगर हैं, वैसे ही मुफ्त में अन्य जरूरी चीजों की तरह किताबें भी उपलब्ध हैं ताकि प्रदर्शनकारियों को पढ़ने की आदत लग जाए। आंदोलन में असंख्य गाने और वीडियो बने हैं जिनमें 5 साल के बच्चों से लेकर 90 साल के बुज़ुर्ग शामिल हैं और ये सभी कलाकार पूरी तरह से अनजान लोग हैं, सभी गानेआम लोगों द्वारा गाए और सुनाए गए हैं , जो सभी किसानों की इस दृढ़ इच्छाशक्ति को दर्शाते हैं कि वे तीन कृषि कानूनों को समाप्त करने के लिए लड़ रहे हैं । वे ऐसे काले कानून को मानने से इनकार करते हैं जो कॉर्पोरेट को उनकी जमीन छीनने का अधिकार दे देंगे।  

अपने मौजूदा स्वरूप में, किसान आंदोलन का रूप भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पैदा हुए राष्ट्रवाद को एक नए या ज्यादा वास्तविक रूप में दर्शाता है। जिसे उस वक़्त की मुख्यधारा की पार्टी कांग्रेस द्वारा समझौता करके हासिल की गयी आधी-अधूरी स्वतंत्रता के माध्यम से पूरी तरह से महसूस नहीं किया गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि लगभग दस लाख लोगों की भयानक नरसंहारों में हत्या की गयी और लगभग एक करोड़ लोगों को उजड़ना पड़ा। देश के 1947 के विभाजन से पहले प्रचलित राष्ट्रवाद की तीन धाराओं में से पाकिस्तान के संस्थापक माने जाने वाले मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग के नेतृत्व में दक्षिणपंथी धर्म-उन्मुख राष्ट्रवाद ने पाकिस्तान को पा लिया। एक दूसरी धारा उदार राष्ट्रवाद ने कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में विभाजित भारत पाया जिसमें आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, 1925 में स्थापित) का दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवाद शामिल था जो चुपचाप सत्ता पर कब्जा करने की प्रतीक्षा में था और चाहता था कि पाकिस्तान की तरह हिंदू राष्ट्र (हिंदू प्रभुत्व का समाज) का निर्माण करे। एक तीसरी धारा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की थी जो भगत सिंह जैसे समाजवादी क्रांतिकारियों द्वारा प्रस्तावित था लेकिन यह सफल नहीं हुआ, फिर भी यह कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियों को प्रभावित करता रहा- हालाँकि उतनी स्पष्टता से नहीं जितने स्पष्ट अपने समय में भगत सिंह और उनके साथी थे। अब, मौजूदा किसान आंदोलन के माध्यम से भगत सिंह और उनके साथियों की क्रांतिकारी राष्ट्रवादी धारा ने फिर से और पूर्ण रूप में जोर पकड़ा है। भगत सिंह के लेख अब कई भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं। इससे भगत सिंह खुश हुए होंगे लेकिन अचम्भित नहीं और ऐसा क्यों यह हम इस उद्धरण से समझ सकते हैं "यह किसान और मजदूर हैं जिन्होंने भारत का 95 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बनाया है।" राष्ट्रीयकरण के आश्वासन पर ही देश कार्रवाई के लिए आंदोलन करेगा यानी उस आश्वासन पर जिससे साम्राज्यवादी-पूंजीपतियों की गुलामी से मुक्ति मिले।

क्रांतिकारी राष्ट्रवादी धारा का ध्यान हमेशा किसानों, औद्योगिक मजदूरों, खेतीहर मजदूरों पर रहा था। क्रांतिकारी धारा के सदस्यों ने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के चश्मे से भारत में किसान आंदोलनों के इतिहास को देखा था। मौजूदा किसान आंदोलन के पोस्टर, कार्टून और भाषण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को अम्बानी-अडानी-मोदी कम्पनी का आधुनिक नाम देते हैं (मोदी, निश्चित रूप से भारत के प्रधानमंत्री हैं जबकि मुकेश अम्बानी और गौतम अडानी दोनों भारतीय अरबपति कारोबारी हैं)। 1757 में भारतीयों से प्लासी ( कलकत्ता से लगभग 93 मील उत्तर में निर्णायक युद्धस्थल था) का युद्ध जीतने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत के अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर लिया। इसने 1857 के एक असफल स्वतंत्रता संग्राम तक शासन किया। उसके बाद ब्रिटेन ने भारत पर 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक सीधे शासन किया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के दौरान अप्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के दौर और प्रत्यक्ष ब्रिटिश औपनिवेशिक वर्चस्व के दौर, इन दोनों दौर में किसान संघर्ष की एक मजबूत धारा मौजूद रही जो किसानों के भूमि अधिकारों की रक्षा करने के लिए लगातार संघर्षरत थी।

1783 के रंगपुर ढींगरा किसान विद्रोह से शुरू होकर ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में निरन्तर किसान विद्रोह हुए, विशेष रूप से 1832 का कोल विद्रोह, 1855 का सिद्धो-कान्हू के नेतृत्व वाला संथाल आदिवासी विद्रोह (वर्तमान झारखंड में), जो 1899-1900 में मुंडा उलगुलान नाम से बिरसा मुंडा द्वारा दोहराया गया। 1782 से 1831 का टीटू मीर के नेतृत्व वाला नलकेरबेरीया विद्रोह, 1859-60 का नील विद्रोह (नील विद्रोह के रूप में जाना जाता है), जिससे प्रभावित होकर दीनानाथ मित्रा ने बंगाली में अपना "नील दर्पण" क्लासिक नाटक लिखा। 1840 से 1920 तक मालाबार में मोपला विद्रोह। (सिद्धो, कान्हू, और बिरसा मुंडा तो आदिवासी कार्यकर्ता नेता थे, और टीटू मीर प्रसिद्ध भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे।)  

बीसवीं शताब्दी में फिर से कई किसान प्रतिरोध आंदोलन हुए जिनमें से कुछ का विशेष उल्लेख किये जाने की जरूरत है। इनमें से एक का नेतृत्व 1907 में भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने किया था। यह अंग्रेजों द्वारा लगाये गए जमीन की लूट के कानूनों के विरोध में "पगड़ी संभल जट्टा" आंदोलन था। इसके अलावा पूर्वोत्तर भारत में दमनकारी जमींदारों के खिलाफ 1920 का अवध के किसानों का आंदोलन था। और आजादी से ठीक पहले बंगाल में तेभागा आंदोलन और तेलंगाना का सशस्त्र किसान प्रतिरोध थे। वहीं 1948 में, आजादी के तुरंत बाद मुजारा आंदोलन पेप्सू क्षेत्र में रेड पार्टी (पंजाब की एक कम्युनिस्ट पार्टी) के नेतृत्व में तेजा सिंह सुथांतर, धर्म सिंह फक्कड़ और जगीर सिंह जोगा जैसे नेताओं ने किया था।

किसान आंदोलन और कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम ज्यादातर आपस में जुड़े थे। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में किसानों के आंदोलन या तो किसान विरोधी ब्रिटिश कानूनों के खिलाफ थे या जमींदार / सामंती उत्पीड़न के खिलाफ, उन जमींदारों के खिलाफ जिन्हें ब्रिटिश आकाओं द्वारा संरक्षण दिया गया था। कांग्रेस पार्टी किसानों/जोतदारों के प्रतिरोध को समर्थन देने में हमेशा दुविधा में रही, इसमें कोई शक नहीं, क्योंकि पार्टी के कई बड़े नेता सामंत जमींदार थे। महात्मा गांधी ने 1917 में बिहार के किसानों के चम्पारण सत्याग्रह (सत्याग्रह मूल रूप से अहिंसक प्रतिरोध) का नेतृत्व किया, दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद भारतीय परिदृश्य पर उनकी यह पहली प्रमुख राजनीतिक गतिविधि थी। 1920 में, गुजरात के खेड़ा में सत्याग्रह हुआ और 1926-27 में, सरदार पटेल ने बारदोली सत्याग्रह का नेतृत्व किया, जिसे भगत सिंह ने अपने लेखन में भी संदर्भ के रूप में पेश किया था। सामंती शासकों और ब्रिटिश शासकों के खिलाफ अवध का किसान आंदोलन उत्तर प्रदेश के फैजाबाद / अयोध्या, रायबरेली और प्रतापगढ़ / सुल्तानपुर जिलों में फैल गया। इसका नेतृत्व बाबा रामचंद और कुछ जिलों में मदारी पासी द्वारा एका (एकता) आंदोलन के रूप में किया गया था। अवध किसान आंदोलन 1921 के गांधी-प्रेरित असहयोग आंदोलन में विलीन हो गया, जिसे 5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा शहर के एक थाने को जलाने के बाद अचानक वापस ले लिया गया था।

1906-07 में, भारत माता सोसाइटी और मोहेब्बने वतन के नेतृत्व में हुआ 'पगड़ी संभल जट्टा' आंदोलन अजीत सिंह, घसीटा राम, लाल चंद फलक, किशन सिंह (भगत सिंह के पिता) दूसरे लोगों द्वारा खड़ा किया गया था। यह लायलपुर क्षेत्र में फैला, जहाँ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने किसानों पर भारी कर लगाया था। किसानों द्वारा अपनी मेहनत से उस क्षेत्र को विकसित करने के बाद उनकी ज़मीन को हड़प लेने का खतरा सामने आ खड़ा हुआ था। बांके दयाल ने अपना प्रसिद्ध गीत, पगड़ी संभल जट्टा ("अपनी पगड़ी की रक्षा करें," अपनी गरिमा बनाए रखें) हुए लिखा, जो आंदोलन के प्रतीक और रैली में गाये जाने वाले आह्वान गीत के रूप में अच्छी तरह प्रचलित हो गया था। लाल चंद फलक इस आंदोलन के एक और कवि थे। मौजूदा आंदोलन में किसान अजीत सिंह और पगड़ी सम्भाल जट्टा के प्रतीक चिन्ह और झंडे लिए हुए है क्योंकि अजीत सिंह की 140वीं जयंती 23 फरवरी 2021 को पड़ेगी। संयोग से भगत सिंह का 90वां शहादत दिवस भी इसी वर्ष 23 मार्च को है। आखिरकार - ब्रिटिश शासकों को उन काले कानूनों को वापस लेना पड़ा था।  

1919 का रोलेट एक्ट सबसे खराब तरह के काले कानून का एक और उदाहरण था जो अनिश्चित काल के लिए और साथ ही बिना किसी मुकदमे या न्यायिक समीक्षा के कारावास की अनुमति देता था। बड़े पैमाने पर हुए विरोध ने ब्रिटिश शासकों को इस कानून को वापस लेने के लिए मजबूर किया लेकिन बड़े पैमाने पर हुए दमन के बाद, जिसमें जलियांवाला बाग नरसंहार भी शामिल है। जिसमें माइकल ओ'डायर (पंजाब के उपराज्यपाल) और सैन्य अधिकारी रेजिनाल्ड डिएन दुनिया की आंखों में खलनायक बन गए थे।  

ब्रिटिश काल में और आज़ादी के बाद हुए किसानों के कुछ आंदोलन हिंसक प्रकृति के थे, जैसे तेलंगाना और बाद में नक्सलबाड़ी ( पश्चिमी बंगाल का एक गांव ,1967 के विद्रोह का स्थल, जिसने नक्सली-माओवादी किसान विद्रोह को जन्म दिया) लेकिन इनमें से अधिकांश अहिंसक थे, फिर भी इन्हें राज्य के हिंसक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। कई बार किसानों द्वारा की गई हिंसा राज्य की हिंसा की प्रतिक्रिया थी। महात्मा गांधी के पुत्र देवदास गांधी ने किसानों द्वारा चौरी-चौरा हिंसा पर अपनी तथ्यात्मक रिपोर्ट दी। जिसमें उन्होंने बताया कि गोरखपुर क्षेत्र की पुलिस शांतिपूर्ण सत्याग्रही किसानों पर अत्याचार और दमन करने की पुरजोर कोशिश कर रही थी।

 कांग्रेस पार्टी ने आज़ादी की लड़ाई के दौरान लोगों के हितों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन क्रांतिकारी समूहों खासकर ग़दर पार्टी,भगत सिंह के नेतृत्व में एचएसआरए (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) और बाद में चटगाँव विद्रोह, भारत छोड़ो जैसे क्रांतिकारी आंदोलन और 1946 के नौसेना विद्रोह ने राष्ट्रवादी भावनाओं के साथ जनहितों को अपने दिलों के करीब रखा। मोदी शासन के दौरान भारतीय संघ भी खतरे में आ गया है। 1913 में गदर पार्टी ने संयुक्त राज्य अमरीका की संघीय प्रणाली के आधार पर भारत के लिए एक मुक्त भारत की योजना यूनाइटेड स्टेट ऑफ इण्डिया तैयार की थी। अगर इसका पालन किया गया होता, तो शायद 1947 में भारत का विभाजन नहीं होता।

जहां तक ​​मौजूदा वर्तमान किसान आंदोलन का सम्बन्ध है, यह ब्रिटिश काल और उसके बाद के किसान आंदोलनों के अनुभवों से परिपक्व हुआ है। दिल्ली की सीमाओं पर दो लाख (200,000) से अधिक लोगों का विशाल जमावड़ा कई मायनों में अद्वितीय है, हालांकि किसान नेता महिंदर सिंह टिकैत ने 1988 में दिल्ली में शायद इससे ज्यादा लोगों को इकट्ठा किया था और अपनी कुछ मांगों को भी मनवाने में भी सफल रहे थे। लेकिन इस आंदोलन के अर्थ बहुत व्यापक हैं। वास्तव में यह आंदोलन कई मायनों में इतिहास रच रहा है।  

संघर्षों का एक होना

 ब्रिटिश काल में भारतीय सामंती जमींदारों के साथ औपनिवेशिक शासकों की कपटपूर्ण सांठगांठ थी और स्वतंत्रता संग्राम का उद्देश्य भारतीय जनता को औपनिवेशिक और सामंती दोनों जुए से मुक्त करना था, जिसे भगत सिंह की अगुवाई वाले क्रांतिकारियों ने आकार दिया। लेकिन सामंती भूस्वामी और बड़े उद्योगपति कांग्रेस पार्टी का हिस्सा थे, इसलिए उसके नेताओं ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा बनायी गयी प्रणाली में कोई भी महत्वपूर्ण बदलाव किए बिना केवल सत्ता के हस्तांतरण तक ही अपने लक्ष्य को सीमित कर दिया। इसी कारण नेताजी सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण (जेपी) और राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं को किनारे कर दिया गया, जिन्होंने कांग्रेस पार्टी के भीतर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) का गठन किया और इसमें ईएमएस नंबूदरीपाद जैसे कम्युनिस्ट नेता को भी शामिल किया। जवाहरलाल नेहरू ने 1920 के अवध के किसानों के संघर्ष से सहानुभूति दिखायी और यहां तक ​​कि हिंसा के स्थल पर जाकर अपने जीवन का जोखिम भी उठाया था। विडंबना यह है कि दिसंबर 1920 में, बाबा राम चंद्र ने अयोध्या में किसानों का एक बड़ा जुटान किया था, लेकिन 2020 में सौ साल होने पर भी इसका कोई समारोह नहीं हुआ। जबकि राम मंदिर के मुद्दे ने किसानों के संघर्ष से ज्यादा लोकप्रियता हासिल की। लेकिन नेताजी सुभाषचंद्र बोस के विपरीत जवाहरलाल नेहरू कभी भी महात्मा गांधी की छाया से बाहर निकलने और अपने समाजवादी विचारों पर काम करने के लिए आगे नहीं आए।

स्वतंत्रता के बाद आधे-अधूरे भूमि सुधारों के बावजूद भी, जमींदार / सामंती वर्ग का अस्तित्व समाप्त हो गया (लेकिन सामंती मानसिकता नहीं , जो एक सामाजिक आदर्श की तरह राजनीतिक वर्ग का हिस्सा बन गयी)। वर्तमान में सबसे बड़ी जोत का आकार शायद 10 हेक्टेयर तक सीमित है, लेकिन 86 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम की सीमांत और छोटी जोत है। इसी वजह से किसान कारपोरेट, पूंजीपति वर्ग के शिकार बन गए। यही कारण है कि किसान इतनी बड़ी संख्या में आंदोलन कर रहे हैं और इसी वजह से थोड़ी संख्या वाले अमीर किसान भी आम गरीब किसानों का साथ दे रहे हैं। भूमिहीन खेत मजदूर, ज्यादातर दलित भी किसानों के साथ साझा हित रखते हैं। हालाँकि वे सामंती व्यवस्था में सामंतों के गुलाम नहीं थे, फिर भी वे मज़दूरी करने वाले मज़दूर बन गए और उनकी मज़दूरी किसानों के रहम पर निर्भर हो गयी। ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च जाति वाले समुदायों के साथ अभी भी जातिगत भेदभाव जैसे सामाजिक तनावों का सामना करने के बावजूद दलित खेत मजदूर इस ऐतिहासिक आंदोलन में क्रोनी पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में शामिल हुए है, जो उन्हें लंबे समय तक और अधिक प्रभावित करता रहेगा।

तेलंगाना और नक्सलबाड़ी सशस्त्र संघर्ष से किसानों ने शायद शांतिपूर्ण प्रतिरोध का सबक सीखा है, क्योंकि वे राज्य की हिंसा की मशीनरी से बराबरी नहीं कर सकते। मौजूदा आंदोलन के सबसे बड़े किसान संगठन भारतीय किसान यूनियन (उग्राहन) इसका एक उदाहरण है जिसने लगातार शांतिपूर्ण प्रतिरोध किया है। लेकिन 1980 के दशक में इसके पहले के अवतार वाहीकारा संघ ने अपनी आक्रामक कारवाइयों के चलते, राज्य के दमन को काफी हद तक झेला। इस बार महिलाओं की समान भागीदारी के साथ जमीनी स्तर पर संगठन का निर्माण करके और अपने सहयोगी पंजाब खेत मजदूर यूनियन में खेतिहर मजदूरों को बड़े पैमाने पर संगठित करके, यह किसानों को उनके अधिकार और सम्मान दिलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। क्रान्तिकारी नाम वाले दूसरे किसान संगठनों की भागीदारी भी उसी तरह से शांतिपूर्ण और अहिंसक हैं।

वास्तव में, किसानों का मौजूदा जन आंदोलन 1921 के महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन जैसा है, जिसमें अवध के किसानों का आंदोलन, महात्मा गांधी का 1930 का डांडी नमक मार्च (जिसमें नमक बनाने के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी गई थी), और 1942 का भारत छोड़ो जन आंदोलन भी शामिल थे। मौजूदा आंदोलन ने खुद को अधिक समावेशी और वर्ग उन्मुक्त बनाकर पिछले सभी राष्ट्रवादी जन आंदोलनों के अनुभवों को अपनाया और परिपक्व किया है।

राजनीतिक टक्क

मौजूदा किसान आंदोलन की राजनीतिक टक्कर शानदार है, भुलानी मुश्किल है। मोदी के निरंकुश शासन के लगभग सात वर्षों में पहली बार सरकार को किसानों की शर्तों पर बातचीत के लिए भीख माँगनी पड़ी। किसानों ने अधिकारियों के साथ बातचीत को नकार दिया और इसे राष्ट्रीय स्तर के मंत्रियों और राजनीतिज्ञों के स्तर तक ऊंचा उठाया। मोदी सरकार ने पिछले सात वर्षों में संसदीय राजनीतिक दलों तक से बात नहीं की है। ऐसे ही अहंकार के कारण मोदी / शाह (अमित शाह गृह मंत्री हैं) अपनी संसदीय राजनीति की शाख कम कर बैठे हैं। शाहीन बाग के सीएए- विरोधी (मुस्लिम-विरोधी नागरिकता कानून) महिला कार्यकर्ताओं के शांतिपूर्ण आंदोलन को इस सत्ता की भूखी सरकार द्वारा कभी नहीं सुना गया। लेकिन किसानों के विरोध प्रदर्शन ने इसी सरकार को मांगने के लिए घुटनों पर ला दिया। हालांकि, फिर भी किसानों की मांगें माने बिना ही आंदोलन को खत्म करवा देने के लिए कपटपूर्ण राजनीतिक खेल खेले जा रहे हैं। फिर भी पंजाब में और कुछ हद तक हरियाणा में एक और राजनीतिक टक्कर सामने है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ/भाजपा (1925 में बने दक्षिणपंथी, हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन का लघु रूप और अब सत्ताधारी राजनीतिक दल) अब सिर्फ किसानों का नहीं आम जन का भी दुश्मन बन गया है।  

वास्तव में, आरएसएस/बीजेपी को अब अम्बानी और अडानी जैसे क्रोनी कॉर्पोरेट पूंजीपतियों से जुड़े आंतरिक औपनिवेशिक शासन के रूप में देखा जाता है, जिनके साथ प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तिगत सम्बन्ध हैं। बीजेपी द्वारा लागू किए गये हालिया कानूनों को अब क्रोनी कॉरपोरेट पूंजीपतियों के साम्राज्य विस्तार के लिए गरीब किसानों की भूमि छीनने के लाइसेंस के रूप में देखा जा रहा है।

किसान मुख्य राजनीतिक दलों जैसे कांग्रेस, अकाली दल और आम आदमी पार्टी (आप) पर भरोसा नहीं करते हैं। इन्हें कम से कम कागजों पर किसानों के साथ अपनी एकजुटता दिखानी होगी लेकिन किसानों ने राजनीतिक दलों को अपने मंच पर आने से मना कर दिया और उन्हें इस आंदोलन में बिना अपने झंडे के केवल आम लोगों के रूप में शामिल होने की ही इजाज़त दी। इसके विपरीत पूरे पंजाब और हरियाणा के लोग- हिंदू, सिख, मुस्लिम, व्यापारी, कर्मचारी, पेशेवर / लेखक / बुद्धिजीवी / कलाकार - किसानों के साथ एकजुट हैं। यह आरएसएस/बीजेपी के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक झटका है और आने वाले समय में अन्य राज्यों के लिए एक प्रवृत्ति बन सकती है। भगत सिंह और ग़दर पार्टी की भावना के साथ पंजाब फिर से देश को आंतरिक औपनिवेशिक / क्रोनी कॉरपोरेट शक्तियों से मुक्ति दिला सकता है और इस तरह हाल के अपने संप्रदायवादी खालिस्तानी (सिख अलगाववादी आंदोलन) काले धब्बों को धो सकता है और उसका युवा मादक पदार्थों की लत से अपनी बुद्धिमत्ता को मुक्त करा सकता है। किसानों का आंदोलन न केवल स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा हुआ है बल्कि सूफी संतों, बाबा बन्दा बहादुर, भगत सिंह, अशफाक उल्ला, बीबी गुलाब कौर (अतीत के क्रान्तिकारी नायक) आदि के नाम पर उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतीकों के सांस्कृतिक अतीत से भी जुड़ा है। 23 जनवरी को ब्रिटिश शासन विरोधी राष्ट्रवादी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सम्मान में किसान आज़ाद दिवस (राष्ट्रीय किसान दिवस) मनाया गया, और इससे यह संकेत मिलता है कि वास्तविक राष्ट्रवाद की सकारात्मक और प्रगतिशील भावना काठी में वापस आ रही है और यह आरएसएस / भाजपा द्वारा फैलाये गये नकली और फासीवादी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का मुकाबला करेगी।

ऐतिहासिक गूँज

इस आंदोलन के कुछ नारे पुराने ऐतिहासिक आंदोलनों से जुड़े हैं। 1932 के चटगाँव क्रांतिकारी आंदोलन का नारा "करो और मरो" था, जबकि महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए 1942 के आंदोलन का नारा भी "करो या मरो" था। मौजूदा किसान आंदोलन में नारा है " जीतेंगे या मरेंगे (विजय या मृत्यु)"। दिल्ली की सीमा पर और प्रकृति के प्रकोप के साथ-साथ सरकारी अत्याचारों और पत्थरबाजी झेलते हुए डेढ़ महीने से विरोध में डटे हुए किसानों ने फिर से किसी भी ऐतिहासिक आंदोलन के लिए आवश्यक दुख और बलिदान की भावना को पुनर्जीवित कर दिया है, जो आरामतलबी के चलते कम्युनिस्ट कैडरों के बीच भी गायब हो गई थी। किसान आंदोलन में फिर से भगत सिंह को सही साबित करने की सम्भावना है। जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है, उन्होंने कहा, "कष्टों और बलिदान के परिणाम के माध्यम से आप विजयी होंगे"। वास्तव में, दुनिया में कहीं भी निस्वार्थ पीड़ा और बलिदान लोगों को आगे बढ़ाते हैं और यह अभी भारत में हो रहा है। किसान आंदोलन से कुछ धार्मिक समूह, सामाजिक समूह नाराज हो सकते हैं लेकिन अब उनकी पीड़ा को देखते हुए, किसान संघर्ष में मदद करने के लिए दूर - दराज से और यहां तक कि से भी बड़ी संख्या में लोग आ रहे हैं।

आश्चर्य नहीं कि किसानों का समर्थन पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब से भी हुआ है, और उनकी एकजुटता के गीत सोशल मीडिया पर चल रहे हैं, जिससे यह भी पता चलता है कि पंजाब या भारत का विभाजन नकली धर्मांध राष्ट्रवाद पर आधारित था।

नयी सीख

आंदोलन ने भाजपा और उसकी ट्रोल सेना से उपजी नकली समाचार फैलाने की प्रचार मशीन से लड़ने के नए तरीके सीखे हैं। युवा पीढ़ी के किसान इंटरनेट के इस्तेमाल और सोशल मीडिया के काफी अच्छे जानकार हैं और अमित मालवीय (बीजेपी आईटी हेड) द्वारा ट्वीटर और दूसरी सोशल मीडिया साइटों पर नकली न्यूज फैक्ट्री के समानांतर ट्विटर अकाउंट और दूसरे मीडिया प्लेटफॉर्म तैयार कर रहे हैं और स्थानीय पत्रिकाएं जैसे पंजाबी और अंग्रेजी में ट्रॉली टाइम्स निकाल रहे हैं। जैसा कि किसान लंबे समय की तैयारी करके आये हैं, यहां तक ​​कि महीनों की। विरोध के नये-नये रूप बनते रहते हैं, कुछ अनायास और कुछ सचेत रूप से। गाने, वीडियो, फिल्म शो, नाटक, भाषण, बच्चों के कार्यक्रम, सामाजिक जीवन के सभी रूप धरना स्थल पर आम हो गए हैं (धरना न्याय और सटीक मांग मनवाने के लिए दोषी के दरवाजे पर मौत या मांग पूरी होने तक बैठे रहने या उपवास करने की प्रथा है)। पूरा परिवार विरोध में शामिल है, बच्चे अपने स्कूल के पाठ्यक्रमों के लिए ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं, साथ ही खेल रहे हैं और गा रहे हैं, इतना ही नहीं पांच और सात साल के लड़के और लड़कियां चरणबद्ध भाषण दे रहे हैं। डॉक्टरों ने अपने दम पर, सर्द मौसम में किसानों की स्वास्थ्य सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक स्वैच्छिक परिसर बनाया है। अप्रवासी भारतीय विदेशों से बादाम जैसे खाद्य पदार्थ भेजते हैं, जो शानदार दिखता है और इसी के साथ भोजन, कपड़े, सफाई किट जैसे सभी आवश्यक सामानों का मुफ्त वितरण हो रहा है जिसने इस विरोध को पूरी दुनिया में फैला दिया है और यहां तक ​​कि अद्वितीय बना दिया है। यह आंदोलन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भविष्य के संघर्ष के लिए रोल मॉडल बन गया है। मुक्ति आंदोलनों की प्रतिरोध की संस्कृति इसी तरह रची जानी है जैसे दिल्ली की सीमाओं पर रची जा रही है।

 संयोग से, सरकार और गोदी मीडिया (हाल ही में बनाया गया हिंदी शब्द, जिसका शाब्दिक अर्थ है लैपडॉग मीडिया, यानी वे जो सरकार की बोली बोलते हैं) मीडिया किसानों को खालिस्तानी, माओवादी या टुकड़े-टुकड़े गैंग ( एक ऐसा अपमानजनक शब्द जो आतंकवादियों, देशद्रोहियों और इसी तरह के लोगों को दर्शाने वाला शब्द ) कहकर बदनाम करने की कोशिश की। टुकड़े - टुकड़े गैंग शब्द का इस्तेमाल जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र प्रतिरोध को इंगित करने के लिए 2016 से किया जा रहा है। इसका शाब्दिक अर्थ है " देश को तोड़ने वाले लोग"। लेकिन क्या यह इंगित किया जाना चाहिए कि 1947 से लेकर 2020 तक कि सभी सरकारें सशस्त्र राजनीतिक आंदोलनों के कार्यकर्ताओं को आत्मसमर्पण करने और मुख्यधारा में शामिल होने की शांतिपूर्ण आंदोलनों में, यहां तक कि शांतिपूर्ण क्रान्तिकारी आंदोलनों में भी हिस्सेदारी करने की छूट देती रही हैं कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि कुछ किसान संगठन माओवादी या खालिस्तानवादी हैं तो भी शांतिपूर्ण प्रतिरोध में उनकी हिस्सेदारी पर सवाल या उनकी बदनामी किस आधार पर और क्यों की जाए? जबकि सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि कोई भी विचार तब तक राज्य की कार्रवाई का आधार नहीं बन सकता जब तक कि इस पर अमल करने के लिए कोई कार्रवाई ना की जाए, इसका अर्थ है कि जब तक कोई सामाजिक समूह लोगों को हिंसा करने के लिए नहीं उकसाता या खुद हिंसा की शुरुआत नहीं करता तब तक कानूनी तौर पर राज्य उनके खिलाफ बल प्रयोग नहीं कर सकता है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य के भयानक दमन से किसानों की रक्षा करने में कोई रुचि नहीं ली। इसी तरह का रुख तब भी था जब कोविड -19 के चलते विस्थापित हुए लाखों मजदूर कष्ट भोग रहे थे, फिर भी मौजूदा किसान आन्दोलन के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने विशेषतौर पर ध्यान दिया है कि सरकार को शांतिपूर्ण किसानों के खिलाफ बलप्रयोग नहीं करना चाहिए और अगर मानवाधिकार दिवस पर कोई किसान संगठन आनन्द तेलतुम्बड़े (जेल में बन्द भारतीय विद्वान और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता) और सुधा भारद्वाज (जेल में बन्द ट्रेड यूनियनवादी, वकील और कार्यकर्ता) जैसे मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं को याद करता है और उनकी रिहाई की मांग करता है तो इस पर कैसे ऐतराज किया जा सकता है या इसे बदनाम कैसे किया जा सकता है? यहां तक कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने भी उन दिनों भगत सिंह की रिहाई की मांग कर रहे लोगों पर कोई ऐतराज नहीं उठाया था। क्या मौजूदा देशी ( मूल स्थानीय लोगों के लिए इस्तेमाल होने वाला हिंदी भाषा का शब्द इसी तरह इसका उलटा शब्द है विदेशी) सरकार ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार से भी ज्यादा दमनकारी है? इसकी सोच और इसकी हरकतों से तो ऐसा ही लगता है।

एकजुटता

पहली बार इतने ज्यादा किसान संगठन समानहित के मुद्दों पर जनता के बीच एकता कायम करने में सफल हुए हैं। यह 1920 के एक( एकता) किसान आंदोलन जैसा है। यहइस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत है। एकता का यह एहसास पारदर्शिता और नेतृत्व पर आम जनता/किसानों के नियंत्रण के चलते पैदा हुआ है लेकिन जागरूक और सचेत जनता/किसानों को नेताओं को सारे फैसले लोकतांत्रिक ढंग से लेने और लोगों के सर पर सवार न होने के लिए बाध्य करता है। शायद यह एक कारक ही इस आन्दोलन की जीत की अगुआई कर सकता है। वास्तव में इस एकता से किसान इस एकता से किसान संगठनों ने ना केवल खुद को मजबूत किया है बल्कि उन्होंने कई सांप्रदायिक आंदोलनों और रुझानों को हराने में भी मदद की है। पंजाब और हरियाणा के किसानों के बीच एक खुशनुमा रिश्ता कायम हुआ है जिनके बीच पानी को लेकर टकराव था। उम्मीद है कि इससे भविष्य में विवाद को सुलझाने में मदद मिलेगी।इसी तरह इस एकता ने खालिस्तान या हिंदुत्व के सांप्रदायिक रुझान को कूड़ेदान में फेंक दिया है। जमीनी स्तर पर यह भारत और दूसरी जगहों पर भी वाम आंदोलनों के लिए एक आईना और रचनात्मक सलाह है कि सामूहिक एकता का निर्माण कैसे किया जाए क्योंकि कई किसान संगठनों ने कट्टरपंथी/गैर संसदीय और साथ ही संसदीय वाम को भी छोड़ दिया है। इन अर्थों में यह सबसे प्रगतिशील आंदोलन है। तथाकथित ऊंची जाति के जाटों और दलितों के बीच एक एकता कायम हुई है।

 ब्राह्मणवादी मनुवादी (मनु एक हिंदू विधि निर्माता था जिसने हिंदू धर्म में जातीय बंटवारा पैदा किया था जिसे हिंदुत्व अभी भी मानता है। डॉक्टर अंबेडकर ने 1927 में मनुस्मृति मनु के नियमों की प्रति जलाई थी जो ब्राह्मणों को प्रभुत्वकारी और सर्वोच्च जाति बताती थी) कुटिलताओं और मोदी सरकार द्वारा बढ़ाए गए बंटवारे को हराकर सभी जातियों और धर्मों के लोग एक साथ मिलकर खाना पका रहे हैं और खा रहे हैं पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता भी इस आंदोलन का चमकदार हिस्सा रही है। पुरुष खाना पकाने, कपड़े धोने जैसी सेवाएं कर रहे हैं जबकि महिलाएं मंच से भाषण दे रही हैं। पुरुष और महिलाएं घरों में होने वाले लैंगिक भेदभाव के बिना साथ मिलकर सारा काम कर रहे हैं।

इतिहास की मौजूदगी

अगर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक और सामंती शासक जनता के शोषण में सहयोगी थे तो मौजूदा परिस्थितियों में क्रोनी कॉरपोरेट पूजीपतियों का आरएसएस संरक्षित मोदी शाह की सरकार के साथ गठजोड़ है। भगत सिंह और दूसरे क्रांतिकारियों ने महसूस किया था कि आंतरिक उपनिवेशवाद से लड़ना बाहरी उपनिवेशवाद के साथ लड़ने से ज्यादा कठिन है। वास्तव में ब्रिटिश काल में राष्ट्रवाद की धारणा की कार्यदिशा तमाम तरह के दोषों से भरी थी। उदाहरण के लिए दलित उस समय के तथाकथित राष्ट्रवादी आंदोलन में शामिल नहीं थे किसानों और मजदूरों के हित उस राष्ट्रवादी आंदोलन के एजेंडे में नहीं थी सभी प्रतीक जैसे बी.आर. अंबेडकर (प्रसिद्ध न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक और दलित भी), पेरियार (सामाजिक कार्यकर्ता और स्वसम्मान आंदोलन के संस्थापक), ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले (यह दोनों पति-पत्नी जातिविरोधी कार्यकर्ता थे जिनमें से सावित्री भारतीय महिलावाद और महिलाओं की शिक्षा की ' मां ' बनी) राष्ट्रवादी आन्दोलन में शामिल भी नहीं किए जाते थे। जबकि मौजूदा दौर के सामाजिक- राजनीतिक - आर्थिक- सांस्कृतिक आन्दोलनों में ये और बाबा बन्दा बहादुर तथा भगतसिंह जैसे प्रतीक राष्ट्रवाद के सच्चे प्रतीकों के रूप में शामिल हैं। इसलिए अब राष्ट्रवाद अपनी सच्ची धारणा के रूप में राष्ट्रवाद का अर्थ है किसानों, खेत मजदूरों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों (मूल निवासी) और अल्पसंख्यकों को मोदी शाह के नेतृत्व वाले आर एस एस/बीजेपी के सांप्रदायिक फांसीवाद से मुक्त कराना।

 इसलिए मौजूदा किसान आन्दोलन भारतीय राष्ट्रवाद की भावना को भारतीय राष्ट्र का केंद्रबिंदु बनाकर इतिहास रच रहा है।

अंतरराष्ट्रीय प्रभाव

आने वाले वर्षों में भारत के किसान आन्दोलन का एक अन्तरराष्ट्रीय प्रभाव पड़ने वाला है। क्योंकि यह एशिया, अफ्रीका, लातिन अमरीका और यहां तक कि यूरोप और अमरीका के विकसित पूंजीवादी देशों के नवउदारवादी क्रोनी कॉरपोरेट नियंत्रित शासनों के खिलाफ संघर्ष का पाठ प्रदर्शक बनेगा। छात्रों ट्रेड यूनियनों और यहां तक कि किसानों के ऐसे बहुत से आंदोलन पहले ही उभर रहे हैं और लातिन अमरीका के बहुत से देशों में जारी है। लेकिन भारतीय किसान आंदोलन का विस्तार दृढ़ता और लंबाई के साथ-साथ इसकी लक्ष्य की स्पष्टता मजबूत साम्राज्यवाद विरोधी कॉर्पोरेट विरोधी आंदोलनों को उधार सकती है जिसमें रोजा लक्जमबर्ग की उक्ति समाजवाद या बर्बरता केंद्रीय बिंदु होगी। चूंकि उदारवादी आर्थिक क्रम केवल बर्बरता को ही आगे बढ़ा सकता है जो कोविड-19 के दौरान और ज्यादा स्पष्ट हो गया और इसका निषेध केवल समाजवाद है यह दुनिया भर में समाजवादी आंदोलनों के बाहर को नया संवेग प्रदान कर सकता है।

निष्कर्ष

क्या यह आन्दोलन सफल होगा? यह अभी तय नहीं है। शायद कोई नया जनरल डायर इस सच्चे राष्ट्रवाद को कुचलने के लिए घात लगाए बैठा है शायद गांधी और सिख गुरु की शांतिपूर्ण प्रतिरोध की रणनीति जैसा कि भगत सिंह ने सुझाया था मौजूदा आंतरिक उपनिवेशवादी सरकार को राजी कर लेने की अगुवाई कर सकती है जिस तरह बाहरी ब्रिटिश उपनिवेशवादी सरकार अपने कार्यकाल के दौरान कई बार राजी कर ली गई थी पंजाब में शांतिपूर्ण प्रतिरोध गांधीवादी अहिंसा से कहीं ज्यादा पुराना है सिख गुरुओं (सिख धर्म के स्वामी जो 1469 से 1708 तक रहे जब गुरु प्रथा को पवित्र सिख धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब तक लाकर हमेशा के लिए खत्म कर दिया गया) ने अपनी जिंदगियों को बलिदान किया था जैसे पांचवें गुरु अर्जुन देव मुगल बादशाह जहांगीर के समय में लोहे की गर्म चादर पर जलाकर मारे गए और नौवें गुरु तेग बहादुर ने 17वीं और 18वीं शताब्दी के शुरू के काल के मुगल बादशाह औरंगजेब के अत्याचारों से जनता की रक्षा करते हुए अपना जीवन बलिदान कर दिया इसके बाद 20वीं शताब्दी में गुरुद्वारों को मुक्त करवाने के लिए सिखों को तीन मोर्चे (सरकार विरोधी प्रदर्शन) हुए- जैतू मोर्चा, जिसमें जवाहरलाल ने भी हिस्सा लिया और नाभा में अपने जीवन की सबसे बुरी कैद झेली और गुरु का वाण मोर्चा तथा ननकाना साहिब मोर्चा। ये सभी 1920 से 1925 के बीच हुए। उपनिवेशिक पुलिस के हाथों हुए बर्बर अत्याचारों के खिलाफ सिखों के अनुकरणीय शांतीपूर्ण उदाहरण महात्मा गांधी की भी प्रशंसा करनी पड़ी। इन बर्बर अत्याचारों में बहुत से लोग मारे गए जैसा आजकल दिल्ली की सीमाओं पर हो रहा है। हालांकि, आंतरिक उपनिवेशवाद विशेष तौर पर साम्प्रदायिक फांसीवाद की शक्ल में निश्चय ही इतना खतरनाक हो सकता है। खतरनाक वह फांसीवाद था जिसे अतीत में जर्मनी और इटली में हिटलर और मुसोलिनी ने राष्ट्रवाद की पोशाक में लपेटकर लागू किया था।

2014 से ही जिस तरह दलितों, अल्पसंख्यकों, शैक्षिक संस्थानों और असहमति जताने वाले लेखकों/बुद्धिजीवियों पर हमले हो रहे हैं वह दिखाता है कि मौजूदा आंतरिक औपनिवेशिक सरकार विदेशी औपनिवेशिक सरकार से भी ज्यादा निर्दयी हो सकती है और इस कारक को भूला नहीं जा सकता क्योंकि यह अभी भी काम कर रहा है और भविष्य में भी करेगा। नोटबंदी के दौरान इस सरकार का निर्दयी चेहरा सामने आया था विशेष तौर पर कोविड -19 के दौरान जिस तरीके का बर्ताव विस्थापित मजदूरों के साथ किया गया, संसद का महत्त्व खत्म हो गया है और जिस तरह का व्यवहार पिछले कुछ महीनों से किसानों के साथ किया जा रहा है वह हमें उस चीज कि याद दिलाता है कि कैसे जब रोम जल रहा था नीरों बंसी बजा रहा था। ट्वीटर पर यह कहते हुए हैशटैग चल रहे हैं कि #किसान मर रहे हैं मोदी मौज उड़ा रहा है, ऐसे हजारों ट्वीट हैं। ठंड और बारिश की मार झेलते किसानों, जिनमें 90 साल के बूढ़े से लेकर कुछ महीनों के बच्चे तक हैं पुरुष और महिलाएं मर रही हैं यहां तक कि कुछ आत्महत्याएं भी कर रहे हैं इनके प्रति सरकार ने चरम असंवेदनशील और निर्दयता दिखाई। 40 दिनों से दिल्ली की सीमाओं पर हो रहे प्रदर्शनों में 40 से ज्यादा लोग मर चुके हैं और इससे पहले के पांच महीनों में पंजाब में हुए आंदोलन में 200 से ज्यादा लोग मर गए थे।

इस महान ऐतिहासिक आन्दोलन का नतीजा चाहे जो हो इसके बाद भारतीय समाज वैसा नहीं रहेगा।

(एम आर ऑनलाइन से साभार, अनुवाद-- रन्नी)   

 

Leave a Comment

हाल ही में

सोशल मीडिया पर जुड़ें