18 अप्रैल, 2024 (ब्लॉग पोस्ट)

सृजनशीलता हमेशा सामजिक होती है।

शीर्षक 'सृजनशीलता हमेशा सामजिक होती है' से लिखा गया यह लेख एजाज अहमद की महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है। उन्होंने सृजनशीलता जैसे गूढ़ विषय को अपने अनुभव और सरल अंदाज से किसी भी आम पाठक के लिए बेहद रोचक और जिज्ञासा पैदा करने वाला बना दिया है। दार्शनिक शब्दाडम्बरों या अमूर्त उदाहरण के बजाय उन्होंने सृजनशीलता को रोजमर्रा की जिदगी से जोड़कर बताया है। उन्होंने बताया कि भाषा मनुष्य की पहली सृजनता है, बच्चा पैदा होने के बाद दो-तीन साल में अपने आसपास के लोगों की भाषा सीख लेता है। इस भाषा के जरिए वह संवाद करता है और सामाजिक रिश्ते बनाता है। इन रिश्तों में दोस्ती, प्रेम, नफ़रत सभी शामिल हैं। और यह सब सृजनशीलता ही है। उन्हीं के शब्दों में- "इसका अर्थ यह है कि सृजनशीलता केवल कवियों, गायकों, चित्राकारों या किसी और तरह के कलाकारों में ही नहीं, बल्कि सभी मनुष्यों में होती है और वह कोई व्यक्तिगत गुण नहीं, मनुष्य मात्र का गुण है। आप गोरे हैं या काले, हिन्दू हैं या मुसलमान, ऊँची जाति के हैं या नीची जाति के, एक भाषा बोलते हैं या दूसरी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप भाषा को समाज से लेते हैं और उसे अपने तौर पर इस्तेमाल करते हैं, लेकिन उसका इस्तेमालआप दूसरों से बात करने या सम्प्रेषण के लिए करते हैं। यह एक सामाजिक क्रिया है और बड़ी सर्जनात्मक क्रिया है। अतः सृजनशीलता के बारे में पहली और बुनियादी बात यह है कि वह हमेशा सामाजिक होती है।"

            मनुष्य अपनी जरूरतें पूरी करने की प्रक्रिया में तमाम तरह से सृजनशील होता है। खेत में फसल उगाना हो या रसोई में खाना तैयार करना। छात्रों को पढ़ाना हो या फिल्म में एक्टिंग करना। बच्चे की परिवरिश करनी हो या बूढों की देखभाल। जिंदगी के हर पहलू में सृजनशीलता का स्कोप है। पर पूँजीवाद ने इन सभी कामों को बाजार में खरीदने-बेचने की वस्तु बना दिया है। मसलन किसान बाजार में बेचने के लिए फसल उगाता है, उसकी सृजनशीलता बाजार के भेंट चढ़ गई। पश्चिमी उत्तरप्रदेश का किसान जो अभी दो दशक पहले तीस से पैंतीस तरह की विभिन्न फसलें उगता था आज वह बाजार के हिसाब से महज एक या दो फसल पैदा कर रहा है। पूंजीवाद में जिदगी के विभिन्न आयाम बाजार के इर्द-गिर्द आकर सिमट जाते हैं। साड़ी सृजनशीलता बाजार में खुद को बनाए रखने में खर्च हो जाती है. बाजार के लिए लोग अपनी जिंदगियां दांव पर लगा देते हैं। जैसे लोन पर एक घर खरीदने के लिए लोग अपने आने वाले बीस-तीस साल तक क़िस्त चुकाने को तैयार हो जाते हैं फिर ताउम्र दवाब और जलालत के साथ नौकरी करते रहते हैं। ऐसे लोग न तो अपनी जिंदगी में न नौकरी में सृजनशील रह पाते। जिंदगी की गाडी को किसी तरह खींचना या ढोना सृजनशीलता में शामिल नहीं है। गरीब लोगों पर समाज का जुल्म और भी ज्यादा  है। उन्हें सुन्दर ढंग से अपनी जरूरत पूरी करने का मौका ही नहीं मिलता। न अच्छा वेतन, न अच्छा खाना, न अच्छा स्वास्थ, न अच्छी किताबें, न संगीत न आरामदायक यात्राएं, न हवादार घर न बच्चों के लिए खिलौने। हर सौन्दर्य और अच्छी चीज को जैसे समाज ने उनसे छीन लिया हो। फिर भी इंसान होने के नाते वे अपनी सृजनशीलता नहीं छोड़ते। एजाज अहमद ने इसका उदाहरण फिलिपीन्स के एक कबीले का दिया है। "मैं  फिलीपींस गया था, तो वहाँ ‘बचाओ’ नामक एक कबीले का जीवन मैंने देखा। इन लोगों को धरती पर घरबनाने की इजाजत नहीं है, इसलिए वे समुद्र के किनारे पर पानी के अन्दर लम्बे-लम्बे बाँसखड़े करके उनके ऊपर अपना घर बनाकर रहते हैं। उनके घरों के नीचे का पानी इतना गन्दाहोता है, इतनी गलाजत उसमें होती है कि मैं बयान नहीं कर सकता। हम-आप जैसे लोग उस पानी में से किश्ती में बैठकर गुजरें, तो आँखें बन्द करके गुजरें। उन लोगों को पीने का पानी लाने के लिए दो-दो मील जाना होता है और वे उस गलाजत से भरे पानी में बने हुए घरों में रहते हैं। लेकिन मैंने देखा कि उन्होंने अपने घरों में छोटे-छोटे कनस्तरों में मिट्टी डालकर फूल उगाये हुए हैं। इस तरह वे अपनी सौन्दर्यात्मक आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। यह भी सृजनशीलता का एक रूप है।"

            अभाव में भी सृजनशील बने रहना इंसानियत की जीत है। पर यह अभाव क्यों है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है? इस सवाल को एजाज अहमद ने प्रमुखता से रखा है। "जब सृजनशीलता हर इंसान में होती है तो इसका अभाव क्यों है? इंसान, जो बुनियादी तौर पर सृजनशील है, सृजनशील क्यों नहीं रह पा रहा है?  उसे कौन सृजनशील होने से रोक रहा है? या वे कौन सी चीज हैं जो उसकी सृजनशीलता में बाधक हैं? और इंसान को सृजनशील कैसे बनाया जा सकता है? "  इन सवालों का एक लाइन में जवाब है वर्गीय समाज। वर्गीय समाज सभी इंसानों को सृजनशील बने रहने के अवसर नहीं देता। इस पूंजीवादी व्यवस्था में काम बोझिल होता है। कर्मचारी तनख्वाह कटने के डर से बेमन काम में लगे रहते हैं।   पूंजीवाद तर्क देता है कि आप अपनी सृजनशीलता सिर्फ अपने फुर्सत के घंटों में दिखाएं, काम के वक्त में नहीं। यानि पूँजीवाद जीवन और कला को अलग-अलग रखता है। इससे काम करने वाला व्यक्ति अपने उत्पाद से ही अलगावग्रस्त होजाता है। जैसे अध्यापक का छात्र के भविष्य से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, घर बनाने वाले मिस्त्री का अपने बनाए गए घर से अलगाव, दूसरों के घरों में आकर खाना बनाने वाली मेड का खाने से अलगाव। यह अलगाव सृजनशीलता का दम घोंट देता है।

            आजकल इतिहास को लेकर भी विभिन्न विचारधाराओं में युद्ध छिड़ा हुआ है। कोई इसे दोहराना चाहता है। कोई अतीत में जाकर विलेन को नायक और नायकों को विलेन बनाना चाहता है। इस पर एजाज अहमद की टिपण्णी गौर करने लायक है। " इतिहास सिर्फ आगे जाता है, पीछे की तरफ जाता ही नहीं। लोग उसे पीछे की तरफ ले जाना भी चाहें, तो वह नहीं होगा, जो आप चाहते हैं। मसलन आप इतिहास को पीछे ले जाकर रामराज्य लाना चाहें, तो वह रामराज्य नहीं होगा, आर.एस.एस. राज्य होगा। इतिहास को या तो पिटे हुए लोग दोहराते हैं या फासिस्ट लोग। उसे या तो वे दोहराते हैं, जो मजबूर होते हैं, या फिर वे जो दूसरों को मजबूर रखना चाहते हैं। लेकिन जो प्रगतिशील लोग यह सोचते हैं कि उनका रुख अतीत की तरफ है और हमारा भविष्य की तरफ, उनसे मैं सहमत नहीं क्योंकि जिसे अतीत याद न रहे, वह भविष्य नहीं बना सकता। जिसे अतीत के जख्म याद नहीं, वह भविष्य की सेहतमंद जिन्दगी के ख्वाब नहीं देख सकता। इतिहास भविष्य की सुन्दर कल्पनाओं से नहीं बनता, वह इनसानी गुस्से से बनता है और उस गुस्से का सम्बन्ध अतीत से होता है।"

            आजकल फासिस्ट इतिहास को लेकर भी भ्रम फैला रहे हैं। वे इतिहास के उन पहलुओं के साथ जानबूझकर छेड़छाड़ कर रहे हैं जो लोगों की स्मृति में धुंधले पड़ गए थे। वे इतिहास के किसी गड़े मुर्दे को उठाकर लाते हैं और चालाकी से नई स्मृतियाँ बनाने की कोशिश करते हैं। फासिस्ट कवि, इतिहासकार, साहित्यकार और फिल्म निर्माता इन काल्पनिक स्मृतियों को जीवंत करने के लिए अपनी सृजनशीलता न्यौछावर कर रहे हैं। 'कश्मीर फाइल्स' के निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने यही किया, 'रिपब्लिक ऑफ़ हिंदुत्व' लिखने वाला बद्री नारायण फासिस्टों का चहेता बन गया और एक मामूली सी कविता 'तुमड़ी के शब्द' के लिए हिन्दी साहित्य अकादमी पुरुष्कार भी मिल गया। यह फासिस्ट गिरोह उत्पीड़ित जनता को खाई में कूदने के लिए, अंधेरों का साथ देने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रहा है। एजाज अहमद ने ने बड़े सपाट शब्दों में इस तरह के अतार्किक, अवैज्ञानिक और साम्प्रदायिक द्रष्टि से व्याय्ख्यायित सृजनशीलता से सचेत रहने को कहा। उनका कहना था कि "सारी स्मृतियाँ चयनात्मक होती हैं और उसके चयन के पीछे वर्गीय दृष्टियाँ होती हैं, आर्थिक हित होते हैं, राजनीतिक उद्देश्य होते हैं। इसलिए सृजनशीलता के सन्दर्भ में जब अतीत, इतिहास, स्मृति या अनुभव की चर्चा हो, तो बहुतसजग रहा जाये और सावधानी बरती जाये।"

            एजाज अहमद जी ने सृजनशीलता के एक नकारात्मक पक्ष को भी इस पुस्तिका में दिखाया है। वह मानते हैं कि फासिस्ट आतंक भी सृजनशील हो सकता है। बड़े रंज और तकलीफ के साथ वह इसे स्वीकार करते हैं कि समाज में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए जिन उत्पीड़ित वर्गों को प्रगतिशील लोगों द्वारा एकजुट किया जाना चाहिए था उन दलित और आदिवासियों को आज फासिस्ट अपने 'स्टॉर्म ट्रपर्स' की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत में जिस बुर्जुआ डेमोक्रेटिक सिस्टम को कोई न उखाड़ पाया उसे आरएसएस जैसे फासिस्ट संगठन ने कब्ज़ा लिया। यह सब उसी रणनीति से हुआ जो रणनीति वाम पार्टियों की थी- "कि एक वैनगार्ड (हरावल) पार्टी होनी चाहिए, एक मास पार्लियामेंटरी पार्टी (आम जनता का संसदीय दल) होनी चाहिए, जो आपका राजनीतिक उपकरण हो, और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए फ्रंट्स (मोर्चे) होने चाहिए। संगठन के ये तीन रूप हैं।" उत्पीड़ित जनता के साथ खड़े वे इस बात को लेकर बेहद चिंतित थे कि "भारतीय वाम ने भी इन तीनों रूपों में अपना संगठन किया, लेकिन वह उतना प्रभावशाली नहीं रहा, जितना दक्षिणपंथियों और फासिस्टों ने कर दिखाया। आर.एस.एस उनकी वैनगार्ड पार्टी है, भाजपा आम जनता के संसदीय दल के रूप में उनका राजनीतिक उपकरण है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए उनके हर तरह के फ्रंट्स हैं-औरतों के, मर्दों के, अनपढ़ों के, पढे़-लिखों के, मजदूरों के, सफेद-पोशों के, सब तरह के और सब जगह आप इसे ‘क्रिएटिव’ (सृजनशील) कह लें या डायबॉलिकल (शैतानी या राक्षसी) कह लें, पर यह हुआ है और उन्होंने किया है। गुजरात में एक तरह से किया है, कर्नाटक में दूसरी तरह से किया है, उत्तर प्रदेश में तीसरी तरह से किया है, बंगाल में चौथी तरह से किया है, लेकिन किया है। और इसी का नतीजा है कि गुजरात से उत्तर-पूर्व तक - मध्यप्रदेश से होती हुई- एक लहर खिंच गयी है आदिवासी आर.एस.एस. की। जो लोग वाम के सहज-स्वाभाविक सहयोगी होने चाहिए थे, वे दक्षिण के समर्थक और सहयोगी बन गये हैं।"

            आज जब दुनियाभर में अँधेरा और बढ़ गया है, फासीवादी ताकतें एक बार फिर से इंसानियत को कुचलने पर आमादा हैं, प्रगतिशील आन्दोलन घुप अँधेरी गलियों में किसी दीये की तरह टिमटिमा रहे हैं, सृजनशीलता कहीं धूलभरी राहों में ठोकर खा रही है, पूरी धरती को अपने श्रम से सुन्दर और मनुष्य के रहने लायक बनाने वाले मजदूर बेरोजगारी और भुखमरी के अंतहीन संकट में फंस गए हैं, तब एजाज अहमद का यह लेख एक उम्मीद की रोशनी के सामान है। एजाज अहमद की प्रखर अन्तःद्रष्टि और वर्गीय समाज का सटीक विश्लेषण इस पुस्तिका के महत्व को और भी बढ़ा देता है। इसीलिए कई दशक पहले लिखा यह लेख आज भी प्रासंगिक है। समाज को बदलने के काम में लगे लोगों के लिए शिक्षाप्रद है। मात्र सोलह पेज में छपा यह लेख गागर में सागर से कम नहीं।

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