5 सितम्बर, 2024 (ब्लॉग पोस्ट)

‘ट्रेजेडी ऑफ कॉमन्स’ का मिथक

क्या साझा संसाधनों का हमेशा दुरुपयोग और अत्यधिक उपयोग किया जाएगा ? क्या जमीन, वन और मत्स्य पालन पर सामुदायिक मालिकाना पारिस्थितिक आपदा का निश्चित राह है ? क्या निजीकरण पर्यावरण की रक्षा और तीसरी दुनिया की गरीबी को खत्म करने का एकमात्र तरीका है ? अधिकांश अर्थशास्त्री और विकास योजनाकार इसके जवाब में “हाँ” कहेंगे और इसके प्रमाण के लिए वे उन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर लिखे गये अब तक के सबसे प्रभावशाली लेख की ओर इशारा करेंगे ।

दिसम्बर 1968 में साइंसजर्नल में प्रकाशित होने के बाद से, “द ट्रेजेडी ऑफ द कॉमन्स” को कम से कम 111 पुस्तकों में संकलित किया गया है, जिससे यह किसी भी वैज्ञानिक पत्रिका में प्रकाशित होने वाले सबसे अधिक पुनर्मुद्रित लेखों में से एक बन गया है । यह सबसे अधिक उद्धृत लेखों में से एक है । हाल ही में गूगल–खोज में “ट्रेजेडी ऑफ द कॉमन्स” वाक्यांश के लिए “लगभग 3,02,000” परिणाम मिले ।

विश्व बैंक के एक चर्चा पत्र के शब्दों में, 40 वर्षों से यह “यह प्रमुख प्रतिमान रहा है जिसके दायरे समाज वैज्ञानिक प्राकृतिक संसाधनों के मुद्दों का आकलन करते हैं ।”(ब्रोमली और सेर्निया 1989: 6) इसका इस्तेमाल बार–बार मूलनिवासी लोगों की जमीनों को चुराने, स्वास्थ्य सेवा और अन्य सामाजिक सेवाओं का निजीकरण करने, कॉर्पाेरेट गिरोहों को हवा और पानी को प्रदूषित करने के लिए ‘व्यापारिक अनुमति’ देने और बहुत कुछ को सही ठहराने के लिए किया गया है ।

प्रख्यात मानवविज्ञानी डॉ– जी एन एपेल (1995) लिखते हैं कि इस लेख को “दूसरों के लिए भविष्य की रूपरेखा तैयार करने तथा ऐसी सामाजिक प्रणालियों जिनके बारे में उन्हें अधूरी समझ और ज्ञान है, उन पर अपनी आर्थिक और पर्यावरणीय तर्कसंगतता थोपने के पेशे में लगे विद्वानों और पेशेवरों द्वारा इसे एक पवित्र ग्रन्थ की तरह अपनाया गया है ।”

अधिकांश पवित्र ग्रन्थों की तरह, “ट्रेजेडी ऑफ कॉमन्स” को पढ़ने के बजाय इसका हवाला ज्यादा दिया जाता है । जैसा कि हम देखेंगे, इसका शीर्षक प्रमाणिक और वैज्ञानिक लगने के बावजूद यह विज्ञान से मिलों दूर है ।

गैरेट हार्डिन ने एक मिथक गढ़ा

“द ट्रेजडी ऑफ द कॉमन्स” के लेखक थे गैरेट हार्डिन, जो कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर थे, जो तब तक केवल जीव विज्ञान की एक पाठ्य–पुस्तक के लेखक के रूप में जाने जाते थे, जिसमें “आनुवंशिक रूप से त्रुटिपूर्ण” लोगों के “प्रजनन पर नियंत्रण” की पैरवी की गयी थी । (हार्डिन 1966: 707) 1968 मे प्रकाशित निबन्ध में उन्होंने तर्क दिया कि संसाधनों को साझा करने वाले समुदाय अनिवार्य रूप से अपने विनाश का मार्ग प्रशस्त करते हैं । इसमें सभी के लिए सम्पदा की बात होती है, लेकिन इसके बजाय इसमें किसी के लिए भी सम्पदा नहीं होती है ।

उन्होंने ग्रामीण इंग्लैण्ड में साझे संसाधनों के बारे में एक कहानी के आधार पर अपना तर्क गढ़ा ।

(इंग्लैण्ड में “कॉमन्स” शब्द का इस्तेमाल साझा चरागाहों, खेतों, जंगलों, सिंचाई प्रणालियों और अन्य संसाधनों को सन्दर्भित करने के लिए किया जाता था जो 19वीं सदी के पूर्वार्ध तक कई ग्रामीण क्षेत्रों में पाये जाते थे । यूरोप के अधिकांश हिस्सों में इसी तरह की सामुदायिक खेती व्यवस्था मौजूद थी और वे आज भी दुनिया भर में विभिन्न रूपों में मौजूद हैं, खासकर आदिवासी समुदायों में ।)

हार्डिन ने लिखा, “एक चरागाह की कल्पना करें जो सभी के लिए खुला हो । एक चरवाहा जो अपने मवेशियों की संख्या बढ़ाना चाहता है, वह हिसाब लगाएगा कि अतिरिक्त चराई की कीमत (सभी जानवरों के लिए भोजन की कमी, तेजी से मिट्टी का क्षरण) सब मे बँट जाएगा, लेकिन उसे अकेले ही ज्यादा मवेशी बेचने का फायदा मिलेगा ।”

अनिवार्य रूप से, “तर्कसंगत चरवाहा यह निष्कर्ष निकालता है कि उसके लिए एकमात्र समझदारी भरा रास्ता यही है कि वह अपने झुण्ड में एक और जानवर जोड़ ले ।” लेकिन हर “तर्कसंगत चरवाहा” यही काम करेगा, इसलिए जल्द ही साझा चरागाह पर पशुओं की संख्या बहुत बढ़ जायेगी और उस पर इतना अधिक चराई होगी कि उसमें किसी जानवर का गुजारा नहीं होगा ।

हार्डिन ने अरस्तू की तरह ही “त्रासदी” शब्द का इस्तेमाल किया, जिसका मतलब है एक नाटकीय परिणाम जो किसी पात्र की कार्रवाइयों का अनिवार्य लेकिन अनियोजित परिणाम होता है । उन्होंने अत्यधिक उपयोग के कारण साझे संसाधनों के विनाश को त्रासदी इसलिए नहीं कहा चूँकि यह दुखद है, बल्कि इसलिए कि यह चरागाह के साझा उपयोग का अनिवार्य परिणाम है । “साझे संसाधनों को इस्तेमाल करने की आजादी सभी के लिए विनाश लाती है ।”

सबूत कहाँ है ?

हार्डिन के निबन्ध के बाद के प्रभाव को देखते हुए, यह जानकर हैरानी होती है कि उन्होंने अपने व्यापक निष्कर्षों का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं दिया । उन्होंने दावा किया कि “त्रासदी” अपरिहार्य थी–– लेकिन उन्होंने इसका एक भी उदाहरण नहीं दिया कि ऐसा कभी हुआ था ।

हार्डिन ने इस बात को अनदेखा कर दिया कि साझे संसाधनों में दरअसल होता क्या है । वह है इसमें शामिल समुदायों द्वारा स्व–नियमन । ऐसी ही एक प्रक्रिया का वर्णन सालों पहले फ्रेडरिक एंगेल्स के “मार्क” (साझी जमीन जिसका मालिकाना पूरे गाँव का है ) के विवरण में किया गया था, जो प्राक–पूँजीवादी जर्मनी के कुछ हिस्सों में साझे संसाधन–आधारित समुदायों द्वारा अपनाया गया रूप था––

“कृषि योग्य भूमि और चरागाहों का उपयोग समुदाय की देखरेख और निर्देशन में होता था ।

“मार्क में समुदाय के प्रत्येक सदस्य का हिस्सा निश्चित होने के साथ–साथ बराबर भी था और उसी तरह ‘साझा मार्क’ के उपयोग में भी उनका हिस्सा बराबर था । उपयोग का यह तरीका पूर्णत% समुदाय के सदस्यों द्वारा निर्धारित किया जाता था ।–––

“निश्चित समय पर और, यदि आवश्यक हो, तो अधिक बार, वे मार्क के मामलों पर चर्चा करने और उससे सम्बन्धित नियमों के उल्लंघन और विवादों पर निर्णय लेने के लिए किसी खुली जगह पर मिलते थे ।” (एंगेल्स 1892)

इतिहासकारों और अन्य विद्वानों ने साझे संसाधनों के सामुदायिक प्रबन्धन के बारे में एंगेल्स के वर्णन की व्यापक रूप से पुष्टि की है । हाल ही में किये गये शोध का सारांश यह निष्कर्ष निकालता है––

“वास्तव में जो अस्तित्व में था वह ‘साझी सम्पत्ति की त्रासदी’ नहीं थी, बल्कि एक जीत थी । सैकड़ों वर्षों तक और शायद हजारों वर्षों तक, हालाँकि उससे भी लम्बे युग में इसके अस्तित्व को साबित करने के लिए लिखित रिकॉर्ड मौजूद नहीं हैं–– भूमि का प्रबन्धन समुदायों द्वारा सफलतापूर्वक किया जाता था ।” (कॉक्स 1985% 60)

उस स्व–नियमन प्रक्रिया का एक हिस्सा इंग्लैण्ड में “स्टिनटिंग” के रूप में जाना जाता था । इसका मतलब था आम चरागाह पर चराने के लिए समुदाय के हर सदस्य के गाय, सूअर, भेड़ और अन्य पशुओं की संख्या की सीमा निर्धारित करना । इस तरह के “रोकथाम” ने जमीन को अत्यधिक उपयोग से बचाया (एक अवधारणा जिसे अनुभवी किसानों ने हार्डिन के प्रकट होने से बहुत पहले ही समझ लिया था) और समुदाय को निष्पक्षता की अपनी अवधारणाओं के अनुसार संसाधनों का आवण्टन करने की अनुमति दी ।

अंग्रेजी कॉमन्स के बारे में अग्रणी आधुनिक विशेषज्ञ द्वारा पाया गया कि अधिक पशुओं के पालन के चुनिन्दा महत्वपूर्ण मामले में धनी भूस्वामी शामिल थे, जिन्होंने जानबूझकर बहुत अधिक पशुओं को चरागाह में छोड़ दिया था, ताकि सार्वजनिक भूमि के घेराबन्दी (निजीकरण) के विवादों में बहुत गरीब पड़ोसियों की स्थिति को कमजोर कर सके । (नीसन 1993: 156)

हार्डिन ने पहले ही मान लिया कि किसान किसी आपदा के सामने अपना तौर–तरीका बदलने में अक्षम हैं । लेकिन वास्तविक दुनिया में, छोटे किसानों, मछुआरों और अन्य लोगों ने अपने कायदे–कानून का ईजाद किया है ताकि संसाधनों को संरक्षित कर सकें और यह सुनिश्चित कर सकें कि साझे संसाधनों पर निर्भर समुदाय अच्छे और बुरे समय को गुजार सके ।

चरवाहा ज्यादा क्यों चाहता है ?

हार्डिन का तर्क इस अप्रमाणित कथन से शुरू हुआ कि चरवाहे हमेशा अपने मवेशियों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं, “यह अपेक्षित है कि हर एक चरवाहा सार्वजनिक भूमि पर यथासम्भव अधिक से अधिक मवेशियों को रखने की कोशिश करेगा ।––– एक तर्कसंगत व्यक्ति होने के नाते हर चरवाहा ज्यादा से ज्यादा फायदा कमाने की कोशिश करता है ।”

संक्षेप में, हार्डिन का निष्कर्ष उनकी मान्यताओं से पूर्वनिर्धारित था । “यह अपेक्षित है” कि हर चरवाहा अपने मवेशियों की संख्या जितना सम्भव बढ़ाने की कोशिश करेगा और हर व्यक्ति ठीक वैसा ही करता है । यह एक घुमावदार तर्क है जिससे कुछ भी साबित नहीं होता ।

हार्डिन ने पहले ही मान लिया कि मानव स्वभाव स्वार्थी और अपरिवर्तनीय है और समाज केवल स्वार्थी व्यक्तियों का एक समूह है जो समुदाय पर अपने कार्यों के प्रभाव की परवाह नहीं करते हैं । ठीक यही विचार, स्पष्ट या निहित रूप से, मुख्यधारा (यानी, पूँजीवाद समर्थक) आर्थिक सिद्धान्त का एक मूलभूत घटक है ।

सभी सबूत (सामान्य ज्ञान का क्या ही कहना) दिखाते हैं कि यह बेतुका है । इन्सान सामाजिक प्राणी है और समाज अपने सदस्यों के अंकगणितीय योग से कहीं ज्यादा होता है । यहाँ तक कि पूँजीवादी समाज, जो सबसे असामाजिक व्यवहार को पुरस्कृत करता है, इसने भी मानवीय सहयोग और एकजुटता को कुचला नहीं है । यह तथ्य कि सदियों से “तर्कसंगत चरवाहों” ने साझी जमीन पर पशुओं को जरूरत से ज्यादा नहीं चराया, हार्डिन की सबसे बुनियादी मान्यताओं को गलत साबित करता है, लेकिन इसने उन्हें या उनके अनुयायियों को रेत की नींव पर नीतियों का किला खड़ी करने से नहीं रोका है ।

अगर चरवाहा हार्डिन के कथनानुसार बर्ताव करना चाहता भी तो वह ऐसा नहीं कर सकता था, जब तक कि कुछ विशेष परिस्थितियाँ न हों ।

मवेशियों के लिए एक बाजार होना चाहिए और उसे स्थानीय खपत के लिए नहीं, बल्कि उस बाजार के लिए उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करना होगा । उसके पास अतिरिक्त मवेशियों और सर्दियों में उनके लिए आवश्यक चारा खरीदने के लिए पर्याप्त पूँजी होनी चाहिए । उसे बड़े झुण्ड की देखभाल करने, बड़े खलिहान बनाने आदि के लिए मजदूर रखने की हैसियत रखना चाहिए और उसकी मुनाफे की चाहत उसके समुदाय के दीर्घकालिक अस्तित्व पर भारी पड़ना चाहिए ।

संक्षेप में, हार्डिन ने प्राक–पूँजीवादी कृषि समुदायों में चरवाहों के व्यवहार का वर्णन नहीं किया–– उन्होंने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में काम करने वाले पूँजीपतियों के व्यवहार का वर्णन किया । सार्वभौमिक मानव स्वभाव जिसके बारे में उन्होंने दावा किया था कि वह हमेशा साझे संसाधनों का विनाश करेगा, वास्तव में निगमों का मुनाफे से संचालित “बढ़ो या मरो” वाला व्यवहार है ।

क्या निजी मालिकाना इससे बेहतर होता ?

इससे हमें हार्डिन के तर्क में एक और घातक दोष का पता चलता है । यह तर्क देने के साथ ही कि साझे संसाधनों को बरकरार रखने से पर्यावरण अवश्यम्भावी रूप से नष्ट हो जाएगा, उन्होंने अपनी इस राय के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया कि निजीकरण पर्यावरण को बचा लेगा । एक बार फिर उन्होंने अपने पूर्वाग्रहों को तथ्य के रूप में प्रस्तुत किया––

“हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि निजी सम्पत्ति के साथ उत्तराधिकार मिली सम्पत्ति की हमारी कानूनी व्यवस्था अन्यायपूर्ण है । लेकिन हम इसे सहन करते हैं क्योंकि अब तक हम इस बात के कायल नहीं हैं कि किसी ने इससे बेहतर व्यवस्था का आविष्कार किया है । साझे संसाधन का विकल्प इतना भयावह है कि इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता । पूरी तरह बर्बादी से अन्याय बेहतर है ।”

इसका तात्पर्य यह है कि निजी मालिक पर्यावरण की देखभाल का बेहतर काम करेंगे क्योंकि वे अपनी सम्पत्तियों के मूल्य को बनाये रखना चाहते हैं । वास्तव में, विद्वानों और कार्यकर्ताओं ने ऐसे बहुत मामलों का दस्तावेजीकरण किया है जिनमें सामुदायिक रूप से प्रबन्धित भूमि के विभाजन और निजीकरण के विनाशकारी परिणाम सामने आये हैं । साझे संसाधनों के निजीकरण से बार–बार वनों की कटाई, मिट्टी का क्षरण और दोहन, उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग और पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश हुआ है ।

जैसा कि कार्ल मार्क्स ने लिखा है, प्रकृति को जन्म, विकास और सम्पोषण के लिए लम्बे चक्रों की आवश्यकता होती है, लेकिन पूँजीवाद को कम समय मे लाभ बटोरने की आवश्यकता होती है ।

“पूँजीवादी उत्पादन की पूरी भावना, जो तुरन्त ज्यादा पैसे–मुनाफे कमाने से मतलब रखती है सीधे कृषि के आड़े आती है, जिसका सरोकार इनसानी पीढ़ियों की निरन्तरता के लिए जरूरी जीवन की स्थायी स्थितियों के विस्तार से जुड़ा है । इसका एक शानदार उदाहरण जंगलों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, जिन्हें शायद ही कभी पूरे समाज के हितों से तालमेल करके प्रबन्धित किया जाता है–––”

हार्डिन के दावों के विपरीत, खेतों और जंगलों को साझा करने वाले समुदाय के पास अपनी क्षमता के अनुसार उन्हें बचाने का एक मजबूत प्रोत्साहन है, भले ही इसका मतलब वर्तमान उत्पादन को अधिकतम न करना हो, क्योंकि वे संसाधन आने वाली सदियों तक समुदाय के अस्तित्व के लिए आवश्यक होंगे । पूँजीवादी मालिकों के पास विपरीत प्रोत्साहन है, क्योंकि अगर वे अल्पकालिक मुनाफे को अधिकतम नहीं करते हैं तो वे व्यवसाय में टिक नहीं पाएँगे । अगर एथेनॉल सदियों पुराने वर्षा वनों की तुलना में ज्यादा और तेज मुनाफा देने का वादा करता है, तो पेड़ों का गिरना तय है ।

हाल ही में ब्योर्न लोम्बर्ग, विलियम नॉर्डहॉस और अन्य लोगों की सबसे ज्यादा बिकनेवाली किताबों में अल्पकालिक फायदे पर यह ध्यान भयावह बेतुकेपन की हद तक पहुँच गया है, जो तर्क देते हैं कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को रोकने के लिए आज पैसा खर्च करना तर्कहीन है, क्योंकि इसका लाभ बहुत दूर भविष्य में निहित है । वे कहते हैं कि अन्य निवेश, अधिक तेजी से बेहतर लाभ देंगे ।

सामुदायिक प्रबन्धन साझे संसाधनों की सुरक्षा का एक अचूक तरीका नहीं है । कुछ समुदायों ने साझे संसाधनों का गलत प्रबन्धन किया है और कुछ ने साझे संसाधनों का अत्यधिक उपयोग किया है । लेकिन किसी भी साझा संसाधन–निर्भर समुदाय में भविष्य की पीढ़ियों की भलाई के बजाय वर्तमान मुनाफे को प्राथमिकता देने की जन्मजात पूँजीवादी प्रवृत्ति नहीं होती है ।

राजनीतिक रूप से उपयोगी एक मिथक

“साझे संसाधनों की त्रासदी” के बारे में सबसे भयावह बात इसके पक्ष में सबूत या तर्क की कमी नहीं है क्योंकि अकादमिक पत्रिकाओं में खराब शोध और तर्क वाले लेख छपना कोई बड़ी बात नहीं है । चैंकाने वाली बात यह है कि प्रतिक्रियावादी बकवास के इस कबाड़ को मानवीय पीड़ा और पर्यावरण विनाश के कारणों का एक शानदार विश्लेषण बताया गया है और अर्थशास्त्रियों तथा पर्यावरणविदों से लेकर सरकारों और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों तक के कथित विशेषज्ञों द्वारा सामाजिक नीति के आधार के रूप में अपनाया गया है ।

बार–बार खण्डन किये जाने के बावजूद, आज भी आर्थिक विकास के रामबाण इलाज के रूप में निजी मालिकाना और बेलगाम बाजारों के समर्थन में इसका उपयोग किया जाता है ।

हार्डिन के तर्क की सफलता वैश्विक गरीबी और असमानता की छद्म–वैज्ञानिक व्याख्या के रूप में इसकी उपयोगिता को दर्शाती है, एक ऐसी व्याख्या जो प्रमुख सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाती । यह सत्ता में बैठे लोगों के पूर्वाग्रहों को पुष्ट करती है । (अमीरों के लिए) बहुत ही आकर्षक उस दावे की तुलना में तार्किक और तथ्यात्मक त्रुटियाँ कुछ भी नहीं हैं कि गरीब अपनी गरीबी के लिए खुद जिम्मेदार हैं । हार्डिन का तर्क भी पारिस्थितिकी विनाश के लिए गरीबों को दोषी ठहराता है, यह तर्क उनके लिए एक बोनस है ।

हार्डिन के निबन्ध का व्यापक रूप से तीसरी दुनिया में साम्राज्यवाद–विरोधी आन्दोलनों और दुनिया भर में मूलनिवासी और अन्य उत्पीड़ित लोगों के बीच असन्तोष के प्रति वैचारिक प्रतिक्रिया के रूप में उपयोग किया गया है ।

“हार्डिन की नीतिकथा को 1970 के दशक में नव–उदारवादी प्रतिक्रिया की बढ़ती ताकतों ने अपनाया और उनका निबन्ध विश्व बैंक और आईएमएफ की नीतियों का ‘वैज्ञानिक’ आधार बन गया, जैसे कि साझे संसाधनों की घेराबन्दी और सार्वजनिक सम्पत्ति का निजीकरण । ––– सन्देश स्पष्ट है–– हमें धरती को कभी भी ‘साझा खजाने’ के रूप में नहीं देखना चाहिए । हमें निर्दयी और लालची होना चाहिए अन्यथा हम बर्बाद हो जाएँगे ।” (बोल 2007)

कनाडा में, रूढ़िवादी लॉबिस्ट (कॉर्पाेरेट के पैरोकार) हार्डिन के राजनीतिक तर्कों का उपयोग गरीबी के लिए साम्राज्यवादी देशों की जिम्मेदारी को नकारने और मूलनिवासी समुदायों को और ज्यादा तबाह करने के लिए करते हैं । प्रभावशाली फ्रेजर इंस्टीट्यूट द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन आरक्षित भूमि के निजीकरण का अपील करता है––

“ये विशाल भूमि क्षेत्र, अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ, कनाडा के मूलनिवासियों को कभी भी अधिकतम लाभ नहीं पहुँचाएँगे, जब तक कि उन्हें राजनीतिक प्रबन्धन के अधीन सामूहिक सम्पत्ति के रूप में रखा जाएगा––– सामूहिक सम्पत्ति गरीबी का मार्ग है और निजी सम्पत्ति समृद्धि का मार्ग है ।”

यह सिर्फ दक्षिणपंथी दिखावा नहीं है । कनाडा की संघीय सरकार ने, जिसने मूलनिवासी लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया है, 2007 में घोषणा की थी कि वह “आरक्षित संसाधनों पर व्यक्तिगत सम्पत्ति के स्वामित्व के विकास का समर्थन करने के लिए दृष्टिकोण विकसित करेगी,” और ऐसा करने के लिए उसने 30 करोड़ डॉलर का कोष बनाया ।

हार्डिन की दुनिया में, सदियों से चले आ रहे नस्लवाद, उपनिवेशवाद और शोषण से गरीबी का कोई लेना–देना नहीं है–– गरीबी हर समय और हर जगह अनिवार्य और स्वाभाविक है, यह अपरिवर्तनीय मानव स्वभाव का उत्पाद है । गरीब लोग बहुत ज्यादा बच्चे पैदा करके और आत्म–विनाशकारी सामूहिकता से चिपके रहकर खुद पर गरीबी लाते हैं ।

साझे संसाधनों की त्रासदी एक उपयोगी राजनीतिक मिथक है–– वैज्ञानिक लफ्फाजी से यह कहने का एक तरीका है कि प्रमुख विश्व व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है ।

अतिरिक्त शब्दाडम्बर को निकाल दिया जाये तो हार्डिन के निबन्ध में बिना किसी सबूत के यह दावा किया गया कि इन्सान जीवविज्ञान और बाजार के असहाय कैदी हैं । खुद पर लगाम लगाये बिना, हम कुछ ज्यादा पैसे और मुनाफे के लिए अपने समुदाय और पर्यावरण को नष्ट कर देंगे । दुनिया को बेहतर या अधिक न्यायपूर्ण बनाने के लिए हम कुछ नहीं कर सकते ।

इसी तरह के तर्क को 1844 में फ्रेडरिक एंगेल्स ने “मनुष्य और प्रकृति के खिलाफ घृणित ईशनिन्दा” बताया था । ये शब्द साझे संसाधनों की त्रासदी के मिथक पर पुरजोर लागू होते हैं ।

(क्लाइमेट एण्ड कैपिटलिजम डॉट कॉम से साभार)

अनुवाद –– अमित इकबाल

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