19 अप्रैल, 2024 (ब्लॉग पोस्ट)

फासीवाद का भविष्य: कार्लो गिन्ज़बर्ग से जोसेफ कन्फावरेक्स की बातचीत

(यह बातचीत ‘मीडियापार्ट’ में सबसे पहले 20 सितम्बर, 2022 में फ्रेंच में- ‘Le fascisme a un futur’ शीर्षक से प्रकाशित हुई, जिसका अनुवाद ‘वर्सोबुक्स’ के लिए डेविडफर्नबाख ने अंग्रेजी में किया और जिसे 4 नवम्बर, 2022 को प्रकाशित किया गया। यहीं से इसका अनुवाद हिंदी में समालोचन के लिए सौरव कुमार राय ने किया है। अपनी ओर से इसे बोधगम्य बनाने के लिए उन्होंने कुछ पाद टिप्पणियाँ भी जोड़ी हैं। यह इटली के चुनाव में दक्षिणपंथी ‘जियोर्जिया मेलोनी’ की बढ़त और जीत की पृष्ठभूमि में लिया गया है। इसमें इतिहास उसके लेखन और लोकप्रिय-इतिहास जैसे मुद्दों पर गम्भीरता से विचार हुआ है।)

कार्लो गिन्ज़बर्ग हमारे दौर के ‘लिविंग लीजेंड’ हैं। अपने अध्ययनों के माध्यम से उन्होंने इतिहास विषय की समकालीन महत्ता को लगातार स्थापित किया है। उनकी किताब ‘द चीज़ एंड द वर्म्स’ को ऐतिहासिक अध्ययन की दुनिया में ‘कल्ट’ का दर्जा प्राप्त है। ‘सूक्ष्म इतिहास’ अथवा ‘माइक्रोहिस्ट्री’ का शानदार नमूना पेश करती इस किताब में गिन्ज़बर्ग ने यह दर्शाया है कि किस प्रकार हमारी पूर्व-निर्धारित वृहद् ज्ञानमीमांसीय अवधारणायें परिधीय तबके के व्यक्तियों अथवा समुदायों की सूक्ष्म समझ को आत्मसात करने में पूरी तरह असफल हो जाती हैं। ऐसे में हम ठोक-पीट कर अपनी पूर्वाग्रह-युक्त समझ के हिसाब से इन तबकों के बारे में एक राय बना लेते हैं। गिन्ज़बर्ग यह बात इटली में पादरियों और किसानों के बीच के ज्ञानमीमांसीय अंतर का हवाला देते हुए समझाते हैं। 83 साल के हो चले कार्लो गिन्ज़बर्ग नियमित रूप से इतिहासकार के पेशे तथा इतिहासलेखन को पुनः-पुनः परिभाषित करते रहे हैं। ऐसे में जोसेफ कन्फावरेक्स द्वारा लिया गया उनका यह साक्षात्कार कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह साक्षात्कार हम जिस दौर में जी रहे हैं वहाँ इतिहास की समझ कितनी आवश्यक हो चली है, इस पर एक गहन दृष्टि प्रस्तुत करता है।

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 क्या आप इटली में होने वाले आगामी चुनावों में फ्रेटेली डी’ इटालिया (Fratelli d’Italia) पार्टी की जीत को लेकर आशंकित हैं? और आप इस पार्टी को, जिसे कभी-कभी नव-फासीवादी पार्टी के तौर पर भी देखा जाता है, इतालवी फासीवाद के इतिहास में कहाँ रखेंगे?

कार्लो गिन्ज़बर्ग : हाँ, मैं चिंतित और भयभीत हूँ। यह पार्टी अभी भी फासीवादी विरासत का स्तुतिपूर्ण उल्लेख करती है। भले ही यह एक अलग चेहरा पेश करने की कोशिश में लगी हुई हो, जैसा कि इसकी नेता जियोर्जिया मेलोनी[1] ‘अटलांटिकवाद’[2] से उनके लगाव के संदर्भ में करती हैं। इसलिए हम सीधे तौर पर तो फासीवादी संरचना में नहीं हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि फ्रेटेली डी’इटालिया पार्टी को वोट देने वालों में से कई फासीवाद के मुरीद हैं। मैंने हमेशा ‘फासीवाद’ शब्द को उसके ऐतिहासिक संदर्भ से इतर इस्तेमाल करने से परहेज किया है। लेकिन मुझे याद है, 2016 में, मैं शिकागो में कुछ शोध कर रहा था, और उस दौरान ट्रम्प[3] के भाषण को देखते हुए, मुझे यह शब्द अपरिहार्य लगा।

शाब्दिक एवं ऐतिहासिक अर्थों में फासीवाद न होते हुए भी, इसमें निर्विवाद रूप से फासीवादी तत्व हैं। चाहे वो ट्रम्प हों या मेलोनी, भले ही ट्रम्प फासीवादी विरासत का उतने स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं करते जितना कि मेलोनी करती हैं, दोनों के ही विचारों में फासीवाद का भविष्य निहित है। समूची दुनिया में वामपंथ की ऐतिहासिक हार के बाद ऐसी (नव-फासीवादी) शक्तियों के खिलाफ लड़ना बहुत कठिन हो गया है।

इटली के संदर्भ में तो आप कह सकते हैं कि वामपंथ अब सिर्फ अवशेष स्वरूप ही बचा रह गया है। इसलिए मैं इन चुनावों के बारे में बहुत निराशावादी हूँ, भले ही चुनाव के परिणाम अप्रत्याशित ही क्यों न हों।

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करीब-करीब आधी सदी से भी अधिक के अभ्यास के बाद, आप एक इतिहासकार के पेशे में आये हालिया बदलावों को कैसे देखते हैं?

कार्लो गिन्ज़बर्ग : जिस एक घटना का इतिहासलेखन एवं इस पेशे पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है, और जो निरंतर जारी है एवं भविष्य में इस पेशे को अप्रत्याशित दिशाओं में ले जाने का माद्दा रखती है, वह निश्चित रूप से इंटरनेट की नई तकनीक से जुड़ी हुई है। इस तकनीक ने उपलब्ध ग्रंथों, कैटलॉग, आदि तक हमारी पहुँच, एवं संचार की संभावनाओं को कई गुणा बढ़ा दिया है जिसका असर इस पेशे पर निस्संदेह पड़ा है। हालाँकि, मुझे लगता है कि सवालों के जवाब ढूंढने के लिए एक युक्ति अथवा माध्यम के रूप में इंटरनेट का अधिक परिष्कृत तरीके से उपयोग करने की संभावना पर जोर देना महत्वपूर्ण है। साथ ही इसे एक ऐसी जगह के रूप में माना जाना चाहिए जहाँ हमें न सिर्फ अप्रत्याशित जवाब बल्कि अप्रत्याशित प्रश्न भी मिल सकते हैं।

ऐसे प्रश्न भी जो हम अमूमन अपने शोधकार्य अथवा चिंतन प्रक्रिया की शुरुआत में नहीं पूछते। यह एक ऐसी जिज्ञासा को जन्म दे सकता है जो इतिहासकार के पेशे की पहचान है और जिसे केवल गहन समाजशास्त्रीय शिक्षण ही प्रदान कर सकता है।

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मुझे ध्यान है एक समय आपने पत्रकार एड्रियानो सोफ़री, जो कि क्रांतिकारी समूह लोट्टा कॉन्टिनुआ के सदस्य थे, का बचाव किया जिन पर एक आतंकवादी हमले में भाग लेने का आरोप लगाया गया था। उन्हें 1972 में पुलिस आयुक्त लुइगी कैलाब्रेसी की हत्या का दोषी ठहराया गया था। उस दौरान आपने इस मुक़दमे में मौजूद पेचीदगियों को उजागर करने तथा इसे सार्वजनिक एवं राजनीतिक बहसों का हिस्सा बनाने हेतु इतिहास के शोध विधियों का उपयोग किया था। इस संदर्भ में आप सार्वजनिक क्षेत्र में इतिहासकारों की संभावित भूमिका को कैसे देखते हैं? खास तौर पर तब जब उनका सामना मिथ्या प्रचारकों, नीतिशास्त्रियों और पक्षपातपूर्ण संपादकीय लेख लिखने वाले लेखकों के साथ है।

कार्लो गिन्ज़बर्ग : मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मेरी किताब, ‘द जज एंड द हिस्टोरियन: मार्जिनल नोट्स ऑन ए लेट ट्वेंटीथ-सेंचुरी मिसकैरिज ऑफ जस्टिस’, की उत्पत्ति का आधार एक व्यक्तिगत आवेग था। मैं एड्रियानो सोफ़री[4] के काफी करीब था और उनकी बेगुनाही को लेकर आश्वस्त था। हालाँकि, बाद में इस पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद भी किया गया क्योंकि इसमें इस विशेष मामले को संज्ञान में रखते हुए कुछ सामान्य प्रश्न उठाए गए थे। मुझे लगता है कि सार्वजनिक बहस में इतिहासकार का आवश्यक योगदान साक्ष्य की खोज और सत्य की स्थापना है।

इस संदर्भ में एक उदाहरण मैं हमेशा देता हूँ। हम सभी ‘कॉन्स्टेंटाइन का दान’ नामक ऐतिहासिक दस्तावेज से परिचित हैं जिसके जरिये रोमन सम्राट कॉन्स्टेंटाइन ने अपने साम्राज्य का एक-तिहाई भाग चर्च और पोप को सौंप दिया। इसने मध्यकालीन यूरोप में चर्च और पोप की लौकिक सत्ता की नींव रखी।

पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दार्शनिक लोरेंजो वल्ला[5] ने अपने अध्ययन के माध्यम से यह सिद्ध किया कि यह दस्तावेज जिसके नींव पर मध्यकालीन पोपतंत्र टिका हुआ था एक जाली दस्तावेज है। लोरेंजो वल्ला द्वारा इस जालसाजी के पर्दाफाश ने पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। झूठे समाचारों के इस वर्तमान युग में, हमें इलेक्ट्रॉनिक युग के अनुकूल एक भाषाशास्त्र की आवश्यकता है। हालाँकि, आज जिस गति से जालसाजी फैलती है, उसका मुकाबला करना मुश्किल है क्योंकि साक्ष्यों को इकट्ठा करने और उनके विश्लेषण में समय लगता है।

लेकिन यह हमें एक और अधिक संवेदनशील राजनीतिक संदर्भ में, उत्तर-आधुनिकतावादी तर्कों [6] के विरुद्ध साक्ष्य के महत्व पर मेरे आग्रह पर वापस लाता है। यह गौरतलब है कि उत्तर-आधुनिकतावादी विचारक काल्पनिक कथा और ऐतिहासिक वृत्तांत के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं देखते हैं। मेरे हिसाब से आधुनिक अकादमिक परिसरों, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, में व्याप्त साक्ष्यों के प्रति इस उत्तर-आधुनिकतावादी सोच ने झूठे समाचारों के प्रसार, जिसे हम आज देख रहे हैं, की पृष्ठभूमि तैयार करने में कहीं-न-कहीं मदद की।

उत्तर-आधुनिकतावादी अमेरिकी इतिहासकार हेडेन व्हाइट के लिए, जिन्होंने इस सापेक्षवाद को मूर्त रूप दिया, और जिनके साथ मैंने कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय (लॉस एंजिल्स) में शाऊल फ्रीडलैंडर द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक चर्चा में बहस की, यद्यपि होलोकॉस्ट[7] से इनकार करना नैतिक और राजनीतिक रूप से अस्वीकार्य था, परन्तु यह साबित करना की ऐसी कोई व्यापक नरसंहार की घटना हुई असंभव था क्योंकि इसके लिए पर्याप्त ‘वस्तुनिष्ठ’ साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं।[8]

मेरे दृष्टिकोण से साक्ष्यों की महत्ता की रक्षा संभव एवं अनिवार्य है। इसे हम दो तरीकों से हासिल कर सकते हैं: पहला, इतिहासकारों द्वारा परंपरागत तौर से किये जाने वाले साक्ष्यों के जाँच के तौर-तरीकों एवं उनके विधिवत प्रयोगों की वैधता पर बल देकर। दूसरे, उन्नीसवीं शताब्दी में शुरू हुई व्यंग्यात्मक परंपरा को फिर से सक्रिय करके जहाँ एक पैरोडी के साथ पूछा गया कि क्या नेपोलियन वास्तव में अस्तित्व में था या वह सिर्फ एक मिथक मात्र था। बेशक, सभी प्रश्न पूछे जाने के लिए वैध हैं, लेकिन क्या साक्ष्यों का भार सबसे पहले उन लोगों पर पड़ना चाहिए जो कहते हैं कि नेपोलियन मौजूद था या जो कहते हैं कि वह एक मिथक था?

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क्या आप अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘नेवरदिलेस: मैकियावेली, पास्कल’ के शीर्षक की व्याख्या कर सकते हैं? साथ ही वर्तमान राजनीतिक संदर्भों में आप मैकियावेली के सिद्धांतों की उपादेयता को किस प्रकार से देखते हैं? यह ध्यातव्य है कि वर्तमान में ‘मैकियावेलीवाद’ पद से अनेकों नकारात्मक विचारों को जोड़ा जाता है जिनमें से एक एंग्लो-सैक्सन देशों में काफी प्रचलित है जिसके अनुसार मैकियावेली का आदर्श एक ऐसा नागरिक है जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता एवं सामुदायिक हितों के लिए स्वयं को बलिदान करने हेतु सदैव तत्पर रहता है?

कार्लो गिन्ज़बर्ग : सन 2001 में मैं लॉस एंजिल्स में पढ़ा रहा था। 9/11 की घटना[9] के बाद, मैंने अपने छात्रों को मैकियावेली के ‘द प्रिंस’[10] के विस्तृत पठन की पेशकश करने का फैसला किया, जो धर्मनिरपेक्षता को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ है। धार्मिक कट्टरवाद के इस खूनी और भयानक प्रकरण के समय, जब ‘धर्म की वापसी’ का भ्रामक विचार फैल रहा था, मुझे इसे फिर से पढ़ना महत्वपूर्ण लगा। यदि हम ‘द प्रिंस’ का पाठ करें तो इसमें दिए गए तमाम तर्कों के केंद्र में ‘नेवरदिलेस’/’फिर भी’ शब्द है। मैंने वहाँ से शुरुआत की, और मैं समझ गया कि यह मध्ययुगीन ‘कैसुइस्ट्री’[11] का एक अभिन्न अंग था जिसके माध्यम से मैकियावेली ने आदर्श और अपवाद पर प्रतिबिंबित करना सीखा। इस मध्ययुगीन ‘कैसुइस्ट्री’ का ज्ञान मैकियावेली को अपने पिता द्वारा दिए गए ग्रंथों के माध्यम से हुआ था। मुझे यह मामूली नहीं लगा कि पुनर्जागरण का एक नायक, जो अपने समय के राजनीतिक विचारों के लिए निर्णायक था, इस मध्ययुगीन ‘कैसुइस्ट्री’ से प्रेरित था।

फिर मैंने इसका पास्कल[12] के साथ एक अप्रत्याशित संबंध बनाया। ऐसा इसलिए क्योंकि मुझे इस मध्ययुगीन ‘कैसुइस्ट्री’ के खिलाफ पास्कल द्वारा किए गए हमलों पर लौटने की आवश्यकता महसूस हुई, जो उनके लिए जेसुइट्स द्वारा बनाई गई थी। भले ही यह हमारे संदर्भ से काफी अलग था, मैकियावेली ने उन समस्याओं को उठाया जो अभी भी हमें चिंतित करती हैं, जैसे कि: राजनीति और धर्म के बीच संबंध, आदर्श और अपवाद के बीच का संबंध, सत्ता और नागरिकों की आम सहमति के बीच संबंध, इत्यादि।

मुझे लगता है कि प्रश्नों के कालभ्रम दोष[13] और उत्तरों के कालभ्रम दोष के मध्य अंतर करना आवश्यक है। इतिहास का अध्ययन निस्संदेह उन सवालों से शुरू होता है जो वर्तमान से संबंधित हैं, लेकिन अतीत के दस्तावेजों और समाज के साथ संवाद हमें उन सवालों में सुधार करने की अनुमति देता है। यह विचार कि इतिहास हमें जीना सिखाता है, को शाब्दिक रूप से नहीं लिया जा सकता। बल्कि, इतिहास की समझ हमारे वर्तमान दौर के जहर के लिए प्रतिकारक के रूप में कार्य करता है।

इस क्रम में मैंने अपनी उपरोक्त पुस्तक के एक अध्याय में मैकियावेली द्वारा प्रस्तावित उस सादृश्य की विवेचना की है जहाँ वे माइकल एंजेलो की कृति ‘डेविड’[14] के हवाले से गणतंत्र की स्थापना और किसी मूर्ति के निर्माण के बीच की समानताओं को दर्शाते हैं।

मैकियावेली ने अपनी किताब ‘द आर्ट ऑफ वॉर’ में राज्य द्वारा जनता के भीतर एक खास तरह के विचार-व्यवहार के निरूपण की तुलना खुरदुरे संगमरमर के एक ब्लॉक से सुंदर मूर्ति बनाने के कार्य से की है। मेरे हिसाब से इसका समकालीन महत्व है क्योंकि यह जनता का राज्य द्वारा चालाकी से ह्रदय परिवर्तन किये जाने की तरफ इशारा करता है।

मुसोलिनी[15] का शासन भले ही अतीत की बात हो चुकी है, लेकिन यह एक विरासत छोड़ गया है जिसे विभिन्न तकनीकों द्वारा फिर से इस्तेमाल में लाया जा सकता है।

(5)

वैसे तो आप नास्तिक हैं, फिर भी धर्म एवं इससे जुड़े बहसों के प्रति आप काफी सजग रहे हैं। आप अपनी नवीनतम पुस्तक में पोप फ्रांसिस के एक बयान ‘कोई कैथोलिक ईश्वर नहीं है। सिर्फ एक ईश्वर है जो सबका है’ में रूचि दिखाते हैं। आप इस बयान को किस प्रकार देखते हैं?

कार्लो गिन्ज़बर्ग : ‘बेशक, मैं नास्तिक हूँ, और मेरी कोई धार्मिक शिक्षा नहीं हुई है। मैं पैदाइशी एक यहूदी परिवार से ताल्लुक रखता हूँ और विश्व युद्ध के दौरान ज़ारी उत्पीड़न ने मुझ पर एक ‘यहूदी बच्चे’ की पहचान चस्पा कर दी। लेकिन जैसा कि मैं अपनी किताब में कहता हूँ, मैं धार्मिक घटनाओं के प्रति संवेदनशील हूँ, और इन घटनाओं ने एक इतिहासकार के रूप में मेरे काम के एक बड़े हिस्से पर प्रभाव डाला है। मेरा मानना है कि धर्म, विशेष रूप से कैथोलिक धर्म, में रुचि रखे बिना किसी को यूरोप के इतिहास में दिलचस्पी नहीं हो सकती है। धर्म एवं इसके इतिहास को समझे बिना दुनिया को समझना असंभव है।

धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया पारम्परिक समाजों के लिए निस्संदेह एक चुनौती रही है, लेकिन यह अभी भी अस्पष्ट है। यह गौरतलब है कि धर्मनिरपेक्ष शक्तियों ने पूरी दुनिया में धार्मिक प्रतीकों और उपकरणों को कहीं-न-कहीं विनियोजित किया है।

मेरे लिए पोप फ्रांसिस[16] का उपरोक्त बयान धर्मनिरपेक्षता की लंबी प्रक्रिया और धर्मों के साथ इसकी द्वंद्वात्मकता संबंध का हिस्सा है। लेकिन इसने मुझे चौंका दिया क्योंकि मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि एक पोप खुद को एक ऐसे ईश्वर का अनुयायी घोषित कर सकता है जो दुनिया के अन्य सभी लोगों के लिए समान है।

मैंने तब इस विचारधारा के तह में जाना शुरू किया और पाया कि एक ऐसा ही मिलता-जुलता विचार इतालवी कार्डिनल मार्टिनी[17] द्वारा तैयार किया गया था, जो फ्रांसिस की तरह ही एक जेसुइट पादरी था। दो जेसुइट पादरियों का इस चौंका देने वाले कथन पर सहमत होना कि ‘कोई विशिष्ट कैथोलिक ईश्वर नहीं है’ ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि इस विचार की जड़ें उस धार्मिक व्यवस्था के इतिहास में निहित हो सकती हैं जिसके वे सदस्य रहे हैं।

(6)

आपके मित्र और सहयोगी ज्यां-लुई कोमोली[18] का इस साल मई में निधन हो गया। आपके लिए उनकी क्या विरासत रही है?

कार्लो गिन्ज़बर्ग : छवियों पर उनकी सैद्धांतिकी, जो सिद्धांत और व्यावहारिक ज्ञान को इस तरह से जोड़ता है जो शायद ही किसी और व्यक्ति में पाया जाता है। वह मुझे बोलोग्ना में मेरे द्वारा दांते[19] पर किये जा रहे एक शोध परियोजना के दौरान फिल्माने आये थे। उन्होंने 25 मिनट का एक सीक्वेंस फिल्माया, जिसमें मैं दांते और जियोटो[20] के बीच एक मुलाकात के बारे में बात करता हूं, जो शायद काल्पनिक है। इस सीक्वेंस के फिल्मांकन के दौरान मुझे एहसास हुआ कि किसी खास फ्रेम में कैद शरीर होना कैसा होता है।

(7)

आपको समर्पित ‘सेरीजी वार्तालाप’ का समापन आपने ‘टेक्स्ट्स, इमेजेज, रीप्रोडक्शंस ऑन द शोल्डर्स ऑफ़ वाल्टर बेंजामिन’ नामक एक व्याख्यान के साथ किया। इस व्याख्यान में आपने तकनीकी विकास के कारण छवियों के निर्माण पर पड़ने वाले लोकतान्त्रिक प्रभाव और उनमें आने वाली गिरावट के बीच के द्वंद्व का उल्लेख किया है। इस दृष्टिकोण से हम इतिहास के किस बिंदु पर खड़े हैं? विशेष तौर पर तब जब इंटरनेट के आगमन ने छवियों की दुनिया को पूरी तरह से बदल के रख दिया है।

कार्लो गिन्ज़बर्ग : हम एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़े हैं, जिसके परिणाम अभी अस्पष्ट हैं। हमारे दौर की छवियों में एक गहरा तनाव और अस्पष्टता देखी जा सकती है जिसे हम अक्सर अत्यधिक सरल तरीके से पढ़ते हैं। मुझे लगता है कि क्यों कुछ छवियाँ या फिर चित्र अद्वितीय हैं, इस बात का पैमाना निर्धारित करने में हम असफल रहे हैं। मैं सिर्फ इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध छवियों के संदर्भ में यह बात नहीं कर रहा हूँ। उदाहरण के लिए, फ्लोरेंस के उफीज़ी संग्रहालय ने विक्रय के उद्देश्य से परिष्कृत इलेक्ट्रॉनिक साधनों का इस्तेमाल कर माइकल एंजेलो[21] की प्रसिद्द पेंटिंग ‘द डोनी टोंडो’ की कुछ प्रतियाँ बनायीं जो मूल के काफी करीब हैं। हमारी संस्कृति में यह माना जाता है कि ग्रंथों को कागज के रंग की परवाह किए बिना पुन: प्रस्तुत किया जा सकता है।

इसके उलट राफेल[22] की किसी पेंटिंग का चाहे कितनी भी तसल्ली और उत्कृष्टता से प्रतिलिपिकरण किया जाये, वह मूल पेंटिंग की जगह नहीं ले सकती है। अर्थात, कुछ छवियों या चित्रों की प्रतिलिपि प्रस्तुत नहीं की जा सकती है। अतः, प्रतिलिपिकरण के इस दौर में मूल छवियों के प्रति उदासीनता मेरे लिए एक दर्दनाक ऐतिहासिक क्षति होगी।

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(मीडियापार्ट और वर्सोबुक्स से आभार के साथ अनुवाद)

संदर्भ

[1] जियोर्जिया मेलोनी ने 22 अक्टूबर 2022 को इटली के प्रथम महिला प्रधानमन्त्री के तौर पर पदभार संभाला है। उनके नेतृत्व में दक्षिणपंथी पार्टी फ्रेटेली डी’ इटालिया ने हाल ही में संपन्न इटली के आम चुनावों में जीत हासिल की है। मेलोनी ने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत एम।एस।आई। (इटालियन सोशल मूवमेंट) के युवा फ्रंट के कार्यकर्ता के रूप में की थी। यह गौरतलब है कि एम।एस।आई। की स्थापना 1946 में इतालवी फासीवादी तानाशाह मुसोलिनी के समर्थकों ने की थी। मेलोनी की जीत गिन्ज़बर्ग की भविष्यवाणी को सही साबित करती है।

[2] ‘अटलांटिकवाद’ की विचारधारा पश्चिमी यूरोप और अमेरिका, विशेष रूप से नाटो के बीच घनिष्ठ संबंधों में विश्वास एवं उसका समर्थन करती है।

[3] डॉनल्ड ट्रम्प, संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति (2017-21) एवं रिपब्लिकन दल के नेता।

[4] एड्रियानो सोफरी एक इतालवी बुद्धिजीवी, पत्रकार और लेखक हैं। 1960 एवं 70 के दशक में उन्होंने स्वायत्तवादी आंदोलन लोट्टा कॉन्टिनुआ (“सतत संघर्ष”) का नेतृत्व किया। उन्हें 1988 में गिरफ्तार किया गया था। उनपर पुलिस अधिकारी लुइगी कैलाब्रेसी की हत्या के लिए उकसाने का आरोप था जिसके लिए उन्हें 22 साल के कारावास की सजा भी सुनाई गई। इस मुक़दमे को आधार बनाकर उनके मित्र गिन्ज़बर्ग ने एक न्यायाधीश और एक इतिहासकार के कार्यों के बीच संबंधों और मतभेदों के बारे में ‘द जज एंड द हिस्टोरियन: मार्जिनल नोट्स ऑन ए लेट ट्वेंटीथ-सेंचुरी मिसकैरिज ऑफ जस्टिस’ नामक एक पुस्तक लिखी है।

[5] लोरेंजो वल्ला, पुनर्जागरणकालीन इतालवी विद्वान, मानवतावादी, शिक्षक एवं कैथोलिक पादरी।

[6] उत्तर-आधुनिकतावादी परिप्रेक्ष्य में ‘इतिहास’ और ‘साहित्य’ के बीच का अंतर भंग हो जाता है। यहाँ पर उत्तर-आधुनिकतावादी विद्वान हेडेन व्हाइट का बहुप्रचारित कथन ध्यातव्य है। हेडेन व्हाइट के अनुसार अतीत के निशान (साक्ष्य) हमारे लिए केवल असंबद्ध एवं प्रासंगिक तरीके से उपलब्ध हैं। यह इतिहासकार ही है जो इन असंबद्ध एवं प्रासंगिक निशानों को जोड़कर एक ‘सार्थक कहानी’ रचता है। इसलिए, व्हाइट के अनुसार, यह पूरी तरह से इतिहासकार पर निर्भर करता है कि वह अपने पाठकों को कैसी कहानी सुनाना चाहता है। वह चाहे तो जिन निशानों का इस्तेमाल कर अतीत की एक दुखद कहानी सुना रहा है, उन्हीं निशानों को आधार बनाकर वह पाठकों के समक्ष एक विडम्बनापूर्ण या फिर एक अतिरंजित हास्यपूर्ण कहानी भी पेश कर सकता है। देखें हेडेन व्हाइट (1973), ‘मेटाहिस्ट्री: दि हिस्टोरिकल इमेजिनेशन इन नाइनटीन्थ सेंचुरी यूरोप’, जॉन हॉप्किंस युनिवर्सिटी प्रेस, बाल्टिमोर।

[7] होलोकॉस्ट: जर्मनी में 1930 एवं 40 के दशक में नाजियों द्वारा यहूदियों का सामुदायिक नरसंहार।

[8] क्या होलोकॉस्ट का कोई ठोस इतिहास लिखना या उसका चित्रण संभव है? क्या यहूदियों के नरसंहार की व्यापकता में ऐसा कुछ निहित है जो चित्रण, सिद्धांत, एवं व्याख्या की हमारी परंपरागत समझ एवं सलीके से परे है? इन सवालों के इर्द-गिर्द कार्लो गिन्ज़बर्ग एवं हेडेन व्हाइट के मध्य 1980 के दशक के अंत में काफी विस्तृत बहस हुई जिसे शाऊल फ्रीडलैंडर द्वारा संपादित किताब ‘प्रोबिंग द लिमिट्स ऑफ़ रिप्रेजेंटेशन’ में पढ़ा जा सकता है।

[9] 11 सितम्बर 2001 को संयुक्त राज्य अमेरिका पर आतंकवादी संगठन अल-क़ायदा द्वारा समन्वित आत्मघाती हमलों की एक श्रृंखला।

[10] ‘द प्रिंस’ सोलहवीं सदी का एक राजनीतिक ग्रंथ है जिसे इतालवी राजनयिक और राजनीतिक सिद्धांतकार निकोलो मैकियावेली ने नए राजकुमारों और राजपरिवार के सदस्यों के लिए एक मार्गदर्शिका के रूप में लिखा है।

[11] ‘कैसुइस्ट्री’ तर्क की एक प्रक्रिया है जो किसी विशेष मामले के अध्ययन के आधार पर सैद्धांतिक नियमों को प्रतिपादित या विस्तारित करके तथा उन नियमों को नए उदाहरणों पर पुन: लागू करके नैतिक समस्याओं को हल करने का प्रयास करती है।

[12] ब्लेज़ पास्कल, पूर्व-आधुनिक कालीन फ्रांसीसी गणितज्ञ, भौतिकशास्त्री और धार्मिक दार्शनिक। पास्कल ने अपनी कृति ‘द प्रोविंशियल लेटर्स’ में नैतिक शिथिलता और सभी प्रकार के पापों को सही ठहराने के लिए जटिल तर्क के उपयोग के रूप में मध्ययुगीन ‘कैसुइस्ट्री’ की घोर निंदा की है।

[13] ‘कालभ्रम दोष’ (anachronism) इतिहास संबंधी लेखन की प्रमुख समस्याओं में से एक है। कई बार लेखक वर्तमान प्रश्नों अथवा व्याख्याओं के जरिये अतीत की घटनाओं, रीति-रिवाजों अथवा व्यक्तियों के बारे में समझ बनाने की कोशिश करने लगता है। यह अतीत के बारे में गलत धारणा अथवा मूल्यांकन को जन्म देती है। इतिहासकार के लिए यह समझना आवश्यक है कि समय के साथ मान्यतायें, मूल्य एवं मानक बदलते रहते हैं। जो इतिहासकार इन बदलते मान्यताओं, मूल्यों एवं मानकों के प्रति सचेत नहीं होता, वह अक्सर अतीत के अध्ययन में कालभ्रम दोष का शिकार हो जाता है।

[14] ‘डेविड’ पुनर्जागरण मूर्तिकला की एक उत्कृष्ट कृति है, जिसे इतालवी कलाकार माइकल एंजेलो द्वारा 1501 और 1504 के बीच संगमरमर से बनाया गया है।

[15] बेनितो मुसोलिनी, इतालवी तानाशाह और फासीवाद के आरम्भिक प्रणेताओं में से एक। 1922 से 1943 तक इटली की सत्ता पर काबिज।

[16] पोप फ्रांसिस, कैथोलिक समुदाय के 266वें पोप एवं वेटिकन सिटी राज्य के संप्रभु। वर्ष 2013 में एक साक्षात्कार के दौरान दिया गया उनका बयान ‘कोई कैथोलिक ईश्वर नहीं है। सिर्फ एक ईश्वर है जो सबका है’ काफी चर्चित हुआ।

[17] कार्डिनल मार्टिनी, विख्यात इतालवी जेसुइट पादरी एवं रोमन कैथोलिक चर्च से जुड़े बुद्धिजीवी।

[18] ज्यां-लुई कोमोली, प्रसिद्द फ्रांसीसी लेखक, संपादक और फिल्म निर्देशक जिनकी हाल ही में 19 मई 2022 को मृत्यु हो गयी।

[19] दांते एलीगियरी, मध्यकालीन इतालवी कवि जिन्हें इटली का राष्ट्रकवि भी माना जाता है। उनका सुप्रसिद्ध महाकाव्य ‘डिवाइन कॉमेडी’ अपने ढंग का अनुपम महाकाव्य है।

[20] जियोटो डि बॉन्डोन, सुप्रसिद्ध मध्यकालीन इतालवी चित्रकार एवं वास्तुकार। एक किंवदंती के अनुसार जब जियोटो स्क्रोवेग्नी चैपल की दीवारों को अपने चित्रों से सजा रहे थे तो दांते उनसे मिलने पहुंचे। उस समय जियोटो के बच्चे वहीं पर खेल रहे थे। उन बच्चों को देखकर दांते ने चुटकी लेते हुए कहा कि इस तरह के सुंदर चित्रों को चित्रित करने वाले व्यक्ति के बच्चे इतने अतिसाधारण भाव-भंगिमा वाले कैसे हो सकते हैं! इस पर जियोटो ने हाज़िरजवाब अंदाज में कहा, “मैं अपने चित्र दिन में बनाता हूं, और बच्चे रात में।”

[21] माइकल एंजेलो, पुनर्जागरण काल के महान इतालवी मूर्तिकार, चित्रकार एवं वास्तुकार। माइकल एंजेलो की चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला के क्षेत्रों मे कई कृतियां विश्व की प्रसिद्धतम रचनाओं मे गिनी जाती है। ‘द डोनी टोंडो’ उनकी अद्भुत पेंटिंग है जो उफीज़ी संग्रहालय में संरक्षित है।

[22] राफेल, इटली में पुनर्जागरण काल के महान चित्रकार एवं वास्तुशिल्पी।

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