2 दिसंबर, 2023 (ब्लॉग पोस्ट)

परम पूँजीवाद

फ्रांसीसी कवि चार्ल्स बुडले ने 1864 में लिखा था कि ‘शैतान का सबसे चालाक प्रपंच होता है आपको यह समझाना कि उसका तो कोई अस्तित्व ही नहीं है।’(1) मैं यहाँ यह कहूँगा कि यह कथन आज के नवउदारवादियों पर बिलकुल फिट बैठता है जिनका शैतानी प्रपंच है यह जताना कि उनका तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। नवउदारवाद को इक्कीसवीं सदी के पूँजीवाद की केन्द्रीय राजनीतिक–विचारधारागत परियोजना माना जाता है। यह मान्यता बड़ी व्यापक है। लेकिन इस शब्द का इस्तेमाल सत्ताधीश शायद ही कभी करते हैं। अमरीकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने तो नवउदारवाद के नहीं होने को आधिकारिक आधार ही दे दिया था जब उसने 2005 में एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था–– ‘नियोलिबरलिज्म? इट डज नॉट एक्जीस्ट’(2) (नवउदारवाद? इसका तो कोई अस्तित्व ही नहीं है)।

इस शैतान के प्रपंच के पीछे है एक बड़ी ही व्यथित कर देने वाली और कह सकते हैं कि एक नारकीय सचाई। नवउदारवाद को शासक वर्ग की एक समेकित राजनीतिक विचारधारागत परियोजना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह परियोजना एकाधिकारी वित्तीय पूँजी के उभार से जुड़ी है। इसका मुख्य राजनीतिक लक्ष्य है पूँजीवादी बाजारू रिश्तों में राजसत्ता को भी लपेट लेना। राजसत्ता की परम्परागत भूमिका रही है सामाजिक पुनरुत्पादन की हिफाजत करना। नवउदारवाद में उसकी भूमिका पूँजीवादी पुनरुत्पादन को बढ़ावा देने तक सीमित कर दी जाती है। अपनी परम्परागत भूमिका भी राजसत्ता कुल मिलाकर पूँजीवादी वर्गीय स्वार्थों के अनुरूप ही निभाती थी। लेकिन अब उसकी सीमित कर दी गयी भूमिका का लक्ष्य हो जाता है सर्वसत्तावादी पूँजीवाद खड़ा करना। इससे कम कुछ भी नहीं। इन सबका नतीजा यह हुआ है कि वह घोर मानवीय और पारिस्थितिक तबाही बेहद बढ। गयी है जो हमारे समय का चरित्र है।

नवउदारवाद के स्रोत

नवउदारवाद की अवधारणा करीब एक सदी पुरानी है। वैसे इसने अपना राजनीतिक प्रभाव काफी बाद में जाकर हासिल किया। विचारधारा के रूप में नवउदारवाद पहले उभरा था 1920 के दशक में जब उदारवाद यूरोप में हर कहीं ध्वस्त हो रहा था। नवउदारवाद दरअसल जर्मनी और ऑस्ट्रिया में सामाजिक लोकतंत्र के उभार और खास तौर पर सुर्ख वियना(3) में चल रहे राजनीतिक विकासक्रम की विचारधारागत प्रतिक्रिया के रूप में उभरा था। यह पहली बार सामने आया ऑस्ट्रियाई अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री लुडविग वान मीजेज की तीन किताबों में। ये थीं–– नेशन, स्टेट, एण्ड इकॉनोमी (1919), सोशलिज्म (1922), और लिबरलिज्म (1927)(4)। मीजेज के विचारों को तुरंत ही शास्त्रीय उदारवाद से एक तीखा प्रस्थान मान लिया गया और ऑस्ट्रियाई मार्क्सवादी मैक्स एडलर ने 1921 में नवउदारवाद लफ्ज ही गढ़ डाला। बहरहाल मीजेज के सोशलिज्म की तीखी आलोचना पेश की एक अन्य प्रतिभाशाली ऑस्ट्रियाई हेलिएन बावे ने 1923 में। अगले साल 1924 में इसकी विस्तृत आलोचना पेश की जर्मन मार्क्सवादी अल्फ्रेड मोइजे ने। रुडोल्फ हिलर्फण्डिग की पत्रिका दी जेशेलश क्राफ्ट में प्रकाशित इस आलोचना का शीर्षक ही था ‘नवउदारवाद’(5)।

मोइजे और बावे के लिए मीजेज द्वारा पेश नवउदारवादी सिद्धान्त शास्त्रीय उदारवाद से काफी अलग था और यह ‘चंचल पूँजी’ या वित्तीय पूँजी के युग के लिए गढ़ा गया सिद्धान्त था जिसका ‘वफादार सेवक’ था मीजेज।(6) इस सिद्धान्त का सीधा सा मकसद था पूँजी के संकेद्रण, राजसत्ता पर बाजार के हावी होने और सामाजिक नियंत्रण की पूँजीवादी व्यवस्था को उचित ठहराना। मोइजे ने लिखा कि मीजेज के नवउदारवाद की चारित्रिक खासियत थी वह ‘निर्मम कट्टरता जिसके साथ वह तमाम सामाजिक घटनाओं की सम्पूर्णता को बस प्रतियोगिता के सिद्धान्त से उकेरने की कोशिश करता है’।

प्रतियोगिता के सिद्धान्त के प्रभुत्व के विरोध में उभरने वाले हर विचार और हर घटना को मीजेज ने ‘विध्वंसवाद’ करार दिया। उसने विध्वंसवाद को समाजवाद का पर्याय घोषित कर दिया। मीजेज के लिए चार्ल्स डिकेंस, विलियम मॉरिस, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, एच जी वेल्स, एमिल जोला, एंतोले फ्रांस और लियो तोल्स्तोय जैसे लोग ‘समाजवाद के समर्थक भर्ती करने वाले एजेंट थे और इस तरह वे विध्वंसवाद की राह तैयार करते थे’। दीगर बात है कि वे शायद यह जानते नहीं थे। और वास्तविक मार्क्सवादी तो मीजेज के मुताबिक खुद ही विध्वंसक थे, और कुछ नहीं।(7)

मीजेज ने लिबरलिज्म में ‘पुराने उदारवाद और नवउदारवाद’ में स्पष्ट रूप से फर्क किया। इस आधार पर कि पुराना उदारवाद किसी न किसी स्तर पर बराबरी को प्रतिबद्ध था जबकि नवउदारवाद बराबरी के मसले को पूरी तरह खारिज करता है (सिवाय अवसर की बराबरी के)(8)। लोकतंत्र के सवाल को मीजेज ने ‘उपभोक्ताओं के लोकतंत्र’ के पक्ष में निपटा दिया। उसने लिखा कि जहाँ तक लोकतंत्र का सवाल है तो ‘मुक्त प्रतियोगिता वह सब कुछ कर देती है जिसकी जरूरत है। उत्पादन का स्वामी है उपभोक्ता।’(9)

मीजेज का जबर्दस्त प्रभाव था उसके युवतर अनुयायी फ्रेडरिक वान हायेक पर। वह मीजेज की किताब सोशलिज्म पर मुग्ध था और वियना में मीजेज के निजी सेमिनारों में जाया करता था। ऑस्ट्रियाई मार्क्सवादियों और खास तौर पर 1920 के दशक के सुर्ख वियना से दोनों ही नफरत करते थे। हायेक ने 1930 के दशक के शुरू में वियना छोड। दिया और प्रारंभिक ब्रिटिश नवउदारवादी अर्थशास्त्री लियोनेल रॉबिन्स के न्यौते पर लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स चला गया।

उधर मीजेज खुद नाजी नियंत्रण के पहले ऑस्ट्रिया के फासीवादी चांसलर/तानाशाह एंगेलबर्ट डलफस का आर्थिक सलाहकार बन गया। अपनी किताब लिबरलिज्म में मीजेज ने ऐलान किया कि ‘इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि फासीवाद और ऐसे अन्य (दक्षिणपंथी) आन्दोलनों का लक्ष्य है तानाशाहियाँ कायम करना। उनके इरादे बेहतरीन हैं और उनके हस्तक्षेप ने फिलवक्त तो यूरोपीय सभ्यता को बचा ही लिया है।’(10) मीजेज बाद में स्विट्जरलैण्ड चला गया और वहाँ से फिर रॉकफेलर फाउण्डेशन की मदद से अमरीका पहुँच गया। वहाँ उसने न्यूयार्क विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू कर दिया।

महारूपांतरण उलट दिया गया

दूसरे महायुद्ध के बाद के शुरू के सालों में नवउदारवाद की सबसे महत्वपूर्ण आलोचना बना स्वनियामक बाजार के भ्रमजाल पर द ग्रेट ट्रांसफर्मेशन में कार्ल पोलान्यी का हमला। यह किताब 1944 में ऐसे वक्त प्रकाशित हुई जब मित्र शक्तियों की जीत पक्की हो चुकी थी और युद्ध के बाद पश्चिम में कायम होने वाली व्यवस्था की तसवीर साफ होती जा रही थी। पोलान्यी की यह आलोचना 1920 के दशक में सुर्ख वियना के उनके बचाव से उभरी थी। तब उन्होंने काफी हद तक खुद को एडलर और बावे जैसे मार्क्सवादियों के साथ पाया था और मीजेज, हायेक और दूसरे दक्षिणपंथियों के विचारों का जोरदार विरोध किया था। पोलान्यी ने द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन में बताया कि नवउदारवादी परियोजना का मकसद था समाजिक सम्बन्धों को अर्थव्यवस्था में जड़ देना जबकि पूँजीवाद के पहले यह अर्थव्यवस्था थी जो ‘सामाजिक सम्बन्धों में जड़ी हुई’ थी।(11) पोलान्यी की किताब लेकिन ऐसे परिवेश में आई थी जब यह मान लिया गया था कि नवउदारवादी नजरिये का कोई भविष्य नहीं है क्योंकि ‘महरूपांतरण’ ने अर्थव्यवस्था के राजकीय नियमन के सिद्धान्त को स्थापित कर दिया था। यह वह समय था जब जॉन मेनार्ड कीन्स को राजकीय आर्थिक नीति में सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व माना जा रहा था। इसे दरअसल कीन्स के युग के रूप में जाना गया।

बहरहाल, बाजारू उदारवाद को नवजीवन देने की कोशिशों को लेकर पोलान्यी र्की ंचताएँ ज्यादा गहरी थीं। आंशिक रूप से ये जायज भी थीं। दूसरा महायुद्ध छिड़ने के ठीक पहले 1938 में फ्रांस में ‘वाल्टर लिप्पमैन कोलोक्वियम’ हुआ था। इसमें मीजेज और हायेक मौजूद थे। यह प्रमुख बौद्धिक शख्सियतों के बीच एक पूँजीवादी इंटरनेशनल खड़ा करने का पहला कदम था। उसमें मौजूद कुछ भागीदारों ने नवउदारवाद लफ्ज को साफ तौर पर अपनाया था। लेकिन बाद में उन्होंने इसे त्याग दिया था। इसकी वजह बेशक थी इस लफ्ज की वह जबर्दस्त आलोचना जो 1920 के दशक में उभरी थी।(12)

युद्ध खत्म होने के बाद नवउदारवादी परियोजना का बीड़ा दोबारा हाथ में लिया गया। पोलान्यी के द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन के प्रकाशन के महज तीन साल बाद 1947 में मोंट पेलेरिन सोसायटी स्थापित की गयी। यही सोसायटी आगे चल कर शिकागो विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के साथ मिलकर नवउदारवादी विचारों के दोबारा उभार का सांस्थानिक आधार बनी। इस सोसायटी के उद्धाटन सम्मेलन में मीजेज, हायेक, रॉबिन्स, मिल्टन फ्रीडमेन और जार्ज स्टिगलर के अलावा एक मुख्य भागीदार था माइकेल पोलान्यी जो कार्ल पोलान्यी का छोटा भाई था। माइकेल जाना माना रसायनविद और विज्ञान दार्शनिक था। वह शीत युद्ध का प्रचण्ड हिमायती भी था।(13)

दूसरे महायुद्ध के बाद के ढाई दशक को कई बार पूँजीवाद का सुनहरा युग कहा जाता है। उस पूरे दौर में कीन्सवाद हावी था। लेकिन 1970 के दशक के मध्य में एक बड़ा आर्थिक संकट उभरा और आर्थिक जड़ता की शुरुआत हुई। यह पहली बार ‘स्टैगफ्लेशन’ यानी ‘स्फीति सम्बद्ध आर्थिक गतिरोध’ के रूप में सामने आई जब ऊँची मुद्रास्फीति के साथ साथ बेरोजगारी भी ऊँचे स्तर पर बनी रही जबकि उत्पादन में कमी आई। ऐसे में आर्थिक रूढ़िवाद इस कदर हावी हुआ कि कीन्सवाद उसमें गुम ही हो गया। आगे चलकर इसकी जगह ले ली नवउदारवाद ने। यह पहले हुआ मौद्रिकवाद और आपूर्तिपक्षी अर्थशास्त्र के आवरण में और उसके बाद दुनिया भर में पूँजीवाद के पुनर्गठन और बाजार निर्धारित राजसत्ता और समाज तैयार करने के रूप में।(14)

नवउदारवाद का प्रभुत्व कायम होते ही उसके सारतत्व को सबसे अच्छी तरह समझने वाले आलोचक रहे मिशेल फूको। ‘कॉलेज दे फ्रांस’ में 1979 में द बर्थ ऑफ बायोपॉलिटिक्स पर अपने व्याख्यानों में उन्होंने विस्तार से इसका विश्लेषण किया।(15) फूको ने बड़े अद्भुत ढंग से समझाया कि राजसत्ता की भूमिका अब सम्पत्ति की सुरक्षा करना नहीं रह गयी है जैसा कि एडम स्मिथ ने सोचा था। उसकी भूमिका अब साझे हितों की देखरेख करना भी नहीं रह गयी है जैसाकि मार्क्स ने कहा था। नवउदारवाद में राजसत्ता की भूमिका अब हो गयी है बाजारू सिद्धातों का या पूँजीवादी प्रतियोगिता की तार्किकी का विस्तार जीवन के तमाम पहलुओं तक करना और इस क्रम में राजसत्ता को भी उस तार्किकी में सराबोर कर देना। जैसाकि फूको ने लिखा––

राजसत्ता द्वारा परिभाषित और राजकीय देखरेख में रखे गये मुक्त बाजार को स्वीकार करना एक तरह से उदारवाद का शुरुआती फार्मूला था। लेकिन नवउदारवाद ने फार्मूले को ही उलट दिया और मुक्त बाजार को ही राजसत्ता का सांगठनिक और नियामक सिद्धान्त बना दिया। दूसरे शब्दों में कहें तो राजसत्ता की देखरेख में बाजार के बजाय अब राजसत्ता ही बाजार की देखरेख में आ गयी–––

और मुझे लगता है कि मौजूदा नवउदारवाद में जो कुछ भी महत्वपूर्ण और निर्णायक है उसे यहीं देखा जा सकता है। इसलिए कि हमें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि आज का नवउदारवाद उदारवादी अर्थशास्त्र के पुराने रूपों का पुनरुत्थान या उनकी पुनरावृत्ति है जैसाकि अक्सर कहा जाता है और जिन्हें अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में गढ़ा गया था और पूँजीवाद द्वारा जिन्हें फिर से सक्रिय किया जा रहा है। इसकी कई वजहें हैं। ये वजहें पूँजीवाद के बेजान पड। जाने और उभर रहे संकटों के साथ साथ कुछ स्थानीय और नियत राजनीतिक उद्देश्यों से जुड़ी हैं। वास्तविक सचाई तो यह है कि आधुनिक नवउदारवाद में जो दांव पर लगा है वो इससे भी काफी ज्यादा कुछ है। –––मसला यह है कि कोई बाजारू अर्थव्यवस्था वास्तव में क्या किसी ऐसी राजसत्ता के सिद्धान्त, स्वरूप और मॉडल का काम कर सकती है जिस पर उसकी खामियों की वजह से किसी का भी भरोसा नहीं रह गया है? न किसी दक्षिणपंथी का और न ही किसी वामपंथी का। वजह चाहे जो भी हो।(16)

संक्षेप में फूको ने कहा कि ‘नवउदारवाद की समस्या यह है कि –––राजनीतिक सत्ता के कुल इस्तेमाल को किस तरह बाजारू अर्थव्यवस्था के सिद्धान्तों के मुताबिक ढाला जा सकता है।’ इसका एक और एकमात्र लक्ष्य है ‘सामाजिक नीति का मुकम्मल निजीकरण’।(17)

नवउदारवाद के युग में राजसत्ता को व्यवस्था के कुप्रभावों का प्रतिकार करने के लिए हस्तक्षेप नहीं करना था। उसे बस अपने हस्तक्षेपों के जरिये बाजार की नियम आधारित व्यवस्था को इस कदर बढ़ावा देना था कि वह समाज के रग रग पर हावी हो जाये। इस तरह वह अब गारंटीकार बन गया था स्वनियामक और विस्तारकारी बाजार का जिससे न तो समाज को कोई सुरक्षा हासिल थी और न खुद राजसत्ता को।(18) एकाधिकार और अल्पाधिकार को अब प्रतियोगिता के सिद्धान्त का हनन नहीं बल्कि प्रतियोगिता की ही अभिव्यक्तियाँ माना जाता था।(19) फूको के मुताबिक शास्त्रीय उदारवाद और नवउदारवाद में सबसे अहम फर्क यह था कि शास्त्रीय उदारवाद बराबरी के विनिमय या जैसे को तैसा पर जोर देता था। बराबरी का विनिमय एक कपोल कल्पना ही था। लेकिन इसके उलटा नवउदारवाद के लिए तो व्यवस्था को संचालित करने वाला सिद्धान्त था मुक्त प्रतियोगिता का। इसकी व्याख्या अब इस तरह कर दी गयी थी कि उसमें एकाधिकारी शक्ति और विस्तृत विषमताओं को भरपूर जगह दे दी गयी थी।(20)

फूको का कहना था कि सामाजिक पुनरुत्पादन को बनाये रखने की राजसत्ता की भूमिका को नवउदारवादी वित्तीयकरण में बदलना सबसे साफ नजर आता है सामाजिक कल्याण के साथ साथ सामाजिक सुरक्षा के भी अवसान में। नवउदारवादी व्यवस्था में ‘यह व्यक्ति पर है कि वह अपने ही तमाम संचित धन सम्पत्ति के जरिये ‘जोखिमों से खुद को बचाए।’ इस तरह नवउदारवाद ने व्यक्ति को बड़े व्यवसाय का शिकार बना डाला है और उसे राजसत्ता की तरफ से कोई भी सुरक्षा मयस्सर नहीं है। राजसत्ता की भूमिका में इस बदलाव का नतीजा हुआ कि निजी वित्तीय सम्पत्तियाँ बेतहाशा बढ़ती गयीं जो कुछ ही हाथों में सिमटी थीं।(21)

इस तरह नवउदारवाद की विचारधारा आधार–अधिरचना के मसले को सुलझाने की एक व्यवस्थित कोशिश है। इस मसले को पूँजी की राह में एक बाधा माना जाता है। इस बाधा से निपटने की कोशिश नवउदारवाद करता है ‘समाज को पूरी तरह बाजार के द्वारा विनियमित करके।’ इस विनियमन को लागू किया जाता है राजसत्ता द्वारा जिसे खुद भी बाजारू सिद्धान्त का सेवक बना दिया जाता है। इस नये पूँजीवादी ‘एकलतावाद’ का विस्तार समाज के हर पहलू तक कर दिया जाता है। इस तरह यह एक सर्वसमावेशी सिद्धान्त बन जाता है जिससे बाहर निकलना मुमकिन ही नहीं है।(22) आर्थिक संकटों को भी इस बात का ही संकेतक माना जाता है कि बाजार की तार्किकी का और विस्तार करना जरूरी है।

जैसा कि पॉल ए बरान और पॉल एम स्विजी की मोनोपोली कैपिटल पर आधारित फ्री कैश–– कैपिटल एक्युम्युलेशन एण्ड इनयीक्वलिटी में क्रेग एलेन मेडलन ने बताया है, आज की नवउदारवादी व्यवस्था में राजकीय आर्थिक गतिविधियों और निजी क्षेत्र के बीच की ‘सीमा रेखा’ को व्यवस्थित रूप से राजसत्ता से दूर खिसका दिया जाता है। यह सीमा रेखा अब निर्णायक रूप से राजसत्ता के खिलाफ ले जाई जा चुकी है। खुद उपभोग और निवेश के लिए राजसत्ता के पास सैन्य क्षेत्र के बाहर अब बहुत कम गुंजाइश बची है और वह अपनी राजकोषीय और मौद्रिक गतिविधियों के जरिये बाजार और पूँजी को राजकीय इमदाद बढ़ाता ही जा रहा है।(23)

इस तरह नवउदारवाद जब 1970 के दशक के अंतिम सालों में दोबारा उभरा तो वह आर्थिक रुग्णता के दौर में एक अवसरवादी वायरस की तरह था।(24) कीन्सवाद गहरे संकट में पहुँच चुका था। यह संकट तब विकसित हो रही एकाधिकारी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अधिशेष मूल्य को सोखने या अतिसंचय की समस्या से जुड़ा था। ऐसे हालात में नवउदारवाद पहले उभरा मौद्रिकवाद और आपूर्तिपक्षी अर्थशास्त्र के रूप में। फिर व्यवस्था के वित्तीयकरण के साथ उसने अपना मौजूदा स्वरूप ग्रहण कर लिया। यह वित्तीयकरण उभरा ही था आर्थिक जड़ता के जवाब में। अर्थव्यवस्था में अतिशय उत्पादक क्षमता बढ़ती जा रही थी जबकि निवेश जड़वत बना हुआ था। ऐसे में मौद्रिक पूँजी का बहाव वित्तीय क्षेत्र की ओर बढ़ता गया। इसे सोखने के लिए वित्तीय क्षेत्र ने नये वित्तीय औजार इजाद किये।(25) इस क्रम में उठे वित्तीय बुलबुलों ने अर्थव्यवस्था को गति दी। लेकिन इन सबसे जड़ता की वह प्रवृत्ति दूर नहीं हुई जो अर्थव्यवस्था की सतह में थी। दूसरे महायुद्ध के बाद के तमाम दशकों से ‘द ग्रेट रिसेशन’ यानी महाअवमन्दन से अब तक का दशक इस मायने में बिल्कुल भिन्न रहा है कि अमरीका के वस्तुनिर्माण उद्योगों में उत्पादक क्षमता के इस्तेमाल की दर कभी भी 80 फीसद के पार नहीं गयी है। यह निवल निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए निहायत नाकाफी है।(26)

यह पूरा विकासक्रम बीसवीं सदी की एकाधिकारी पूँजी से इक्कीसवीं सदी की एकाधिकारी वित्तीय पूँजी में संक्रमण को दिखलाता है।(27) यह स्पष्ट दिखता है उधार और कर्ज के विस्फोट में जो समय समय पर उभरने वाले वित्तीय संकटों के बावजूद व्यवस्था में संस्थाबद्ध हो चुका है। इस क्रम में दौलत का अम्बार खड़ा करने का एक नया वित्तीय शिल्प ही उभर आया है। श्रम के अन्तर्पणन की भूमण्डलीय व्यवस्था के नये साम्राज्यवाद के जरिये विश्व स्तर पर अतिशय मुनाफा बटोरा जा रहा है। यह सम्भव हुआ है वित्तीय और तकनीकी नियंत्रण की डिजिटल व्यवस्थाओं से और 1989 के बाद दुनिया भर के बाजारों के खुल जाने से। इन सबका नतीजा सामने आया वित्तीयकरण और मूल्य कब्जा करने की भूमण्डलीय प्रक्रिया के रूप में। यह प्रक्रिया निर्देशित की जा रही है पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के शिखर के बहुराष्ट्रीय निगमों के वित्तीय मुख्यालयों से।(28)

इस क्रम में राजसत्ता की भूमिका कम होती गयी। सम्प्रभुता के औजार के रूप में भी और सामाजिक सुरक्षा के उपकरण के बतौर भी। इस वजह से उदारवादी लोकतंत्र भी संकट में पड। गया है। इतिहास में अब तक की भीषणतम विषमता और आबादी के विशाल बहुमत के आर्थिक और सामाजिक हालात कमजोर किये जाने से जबर्दस्त असंतोष पैदा हुआ है। यह बात और है कि यह असंतोष अभी तक बहुत ज्यादा मुखर नहीं हुआ है।(29) लेकिन इससे अस्थिरता के हालात तो पैदा हो ही गये हैं। इससे निपटने के लिए पूँजी ने ऊपरी मध्य वर्ग और मेहनतकश वर्ग के खिलाफ निम्न मध्य वर्गों को हुलकारने का काम किया है (खास तौर पर आप्रवासियों के खिलाफ नस्लवादी हमलों के जरिये)। निम्न मध्य वर्गों का बड़ा हिस्सा होता ही प्रतिक्रियावादी है। साथ ही पूँजी ने बाजार से बाहर की राजसत्ता को दुश्मन बनाने का काम भी किया है। पूँजी की इस रणनीति को डेविड हार्वे ने हाल ही में नवउदारवाद और नवफासीवाद के बीच विकसित हो रहा ‘गठबंधन’ कहा है।(30)

सामाजिक व्यवस्था की नाकामी

फूको की व्याख्या के मुताबिक नवउदारवाद स्वछन्द पूँजीवाद से भी उतना ही दूर है जितना कीन्सवाद से। जैसाकि हायेक ने द कांस्टीच्यूशन ऑफ लिबर्टी में कहा है, नवउदारवादी राजसत्ता हस्तक्षेपवादी राजसत्ता है न कि स्वछन्दतावादी। ठीक इसीलिए कि यह विश्व संचालित और बाजार निर्धारित आर्थिक व्यवस्था का समाविष्ट बन जाती है। उसका सरोकार बन जाता है उस व्यवस्था को बनाये रखना और उसका विस्तार पूरे समाज तक करना। नवउदारवादी राजसत्ता अगर आर्थिक दायरे में हस्तक्षेप नहीं भी करे तो माल सिद्धान्त को जीवन के अन्य तमाम पहलुओं पर लागू करने में भरपूर हस्तक्षेप बेशक करती है। मसलन शिक्षा, बीमा, संचार, सेहत और पारिस्थिकी जैसे क्षेत्रों में।(31)

इस आदर्श और पुनर्संगठित नवउदारवादी व्यवस्था में राजसत्ता दरअसल बाजार का ही समाविष्ट है। इस व्यवस्था में राजसत्ता बस इसी मायने में सर्वाेच्च है कि वह मूल्य के नियम का प्रतिनिधित्व करती है जो हायेक के शब्दों में वस्तुत–– ‘कानून के राज’ का पर्याय है।(32) वर्चस्वकारी वर्गीय–सम्पत्ति सम्बन्ध न्यायिक व्यवस्था में भी संहिताबद्ध कर दिये जाते हैं और राजसत्ता खुद भी इन अनौपचारिक आर्थिक संहिताओं तक सिमटा दी जाती है। लेकिन इन अनौपचारिक संहिताओं को भी कानूनी व्यवस्था का हिस्सा बना दिया जाता है।(33) फूको के मुताबिक ‘कानून के राज’ से हायेक का मतलब है ‘अनौपचारिक आर्थिक विधान’ को थोपना। ऐसा विधान ‘आर्थिक योजनाबद्धता’ के ठीक विपरीत है। इसका लक्ष्य है खेल के नियम’ स्थापित करना जो माल विनिमय या पूँजीवादी प्रतियोगिता की तार्किकी से किसी भी भटकाव को रोकें जब इन सम्बन्धों का समाज में और ज्यादा विस्तार किया जा रहा हो। इस क्रम में राजसत्ता की भूमिका बाजार के परमाधिकार के आखिरी गारंटीकार की होगी।(34) फूको का कहना है कि इस सिद्धान्त को सबसे स्पष्ट रूप में पेश किया माइकेल पोलान्यी ने जिसने द लॉजिक ऑफ लिबर्टी में लिखारू ‘मौजूदा स्वतरूप्रेरित न्यायिक प्रणाली का मुख्य काम है आर्थिक जीवन की स्वतरूप्रेरित व्यवस्था को संचालित करना––– कानून की व्यवस्था विकसित होकर उन नियमों को लागू करती है जिनके तहत उत्पादन और वितरण की प्रतियोगी व्यवस्था काम करती है’।(35)

इस तरह उत्पादन के जिन सामाजिक सम्बन्धों का दबदबा रहता है या वर्गीय–सम्पत्ति के जिन स्वरूपों का वर्चस्व रहता है वे माल व्यवस्था के मुताबिक ढाल दी गयी सामाजिक संरचना में ही संहिताबद्ध होते हैं। इस नये ढांचे ने तमाम प्राक् पूँजीवादी बंधनों को उतार फेंका है। अब वह माल विनिमय के दायरे के ऊपर या उससे बाहर की शक्ति, यानी अधिरचना नहीं रह गया है। अब वह बाजार की तार्किकी के अधीन आ गया है। इस तार्किकी को लागू करना ही उसका काम बन गया है।(36) यही फूको के मुताबिक मैक्स वेबर की विवेकशील कानूनी व्यवस्था है। इस व्यवस्था का मतलब औपचारिक आर्थिक रिश्तों को थोपना भर है। ये रिश्ते राजसत्ता की भूमिका की सीमा तय कर देते हैं। साथ ही इस राजसत्ता को ताकत के जायज इस्तेमाल के अपने एकाधिकार के जरिये उस निजीकृत व्यवस्था को लागू करने का काम भी दे दिया जाता है।(37)

थॉमस हॉब्स के लेवियथन के लिए अब्राहम बॉसे के प्रसिद्ध आवरण चित्र में विशालकाय सम्प्रभुसत्ता को लोगों से बना दिखाया गया है जिन्होंने अपनी सम्प्रभुता सम्राट को सौंप दी है। आज यह आवरण चित्र जनसमूहों को हटाकर एक विशालकाय विवेकशील–कानूनी शख्सियत का रूप ले लेगा जिसने पैंट कोट सूट पहन रखा होगा और जिसके अन्तस में होंगे कॉरपोरेट।(38) ताजविहीन सम्प्रभुसत्ता अब एक हाथ में राजदण्ड और दूसरे में तलवार लिए नहीं दिखलाई जायेगी। अब उसके एक हाथ में होगा अमरीकी संविधान का चैदहवाँ संशोधन (जिसका मूल मकसद था गुलाम रह चुके लोगों के अधिकार सुनिश्चित करना लेकिन जिसे कॉरपोरेट शख्सियत के आधार में बदल दिया गया) और दूसरे में होगी क्रूज मिसाइल। नवउदारवादी विशालकाय ढाँचा ऐसी राजसत्ता होगा जिसका बस एक काम बनता जा रहा है और जो एक और सिर्फ एक बाजारू तार्किकी का अनुयायी है। इन्हीं मायनों में यह परम है और परम पूँजीवाद का प्रतिनिधित्व करता है।

स्वाभाविक ही है कि यह परम पूँजीवाद भी अन्तरविरोधों से अछूता नहीं है। इनमें से पाँच तो बड़े साफ नजर आते हैं–– आर्थिक, साम्राज्यवादी, राजनीतिक, पारिस्थितिक और सामाजिक पुनरुत्पादन से जुड़े। ये सभी मिलकर एक व्यवस्थागत विफलता की ओर इशारा करते हैं। आर्थिक संकट की प्रवृत्तियों पर गौर करने का सबसे अच्छा तरीका है पूँजी के गतिकी के नियमों की मार्क्स द्वारा पेश आलोचना का सहारा लेना। आर्थिक तौर पर नवउदारवाद चंचल एकाधिकारी वित्तीय पूँजी के युग की पैदाइश है जो आज पूरी दुनिया के पैमाने पर माल उत्पादन श्रृंखला (कमोडिटी चेंस) के जरिये काम करता है। इस पर नियंत्रण है विश्व अर्थव्यवस्था के गढ़ के बहुराष्ट्रीय निगमों के वित्तीय मुख्यालयों का जिनका प्रभुत्व अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रवाहों पर चलता है।(39) नये परम पूँजीवाद की अंर्तिनहित अस्थिरता को 2007–09 के महावित्तीय संकट ने बखूबी उजागर किया था।(40) अतिसंचय और जड़ता पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के केन्द्रीय आर्थिक अन्तरविरोध बने हुए हैं। इन्हें निपटाने के लिए बड़े बड़े निगमों का विलय और वित्तीयकरण होता जा रहा है (मतलब सट्टेबाजी के माध्यमों से वित्तीय सम्पत्तियों का अम्बार खड़ा किया जा रहा है)। लेकिन इन सबसे इक्कीसवीं सदी के पूँजीवाद का ‘शिखर भारी’ (टॉप हेवी’) चरित्र और भी मजबूत ही होता जा रहा है। नतीजा है कि असंतुलन और संकट की इसकी दीर्घकालिक प्रवृत्तियाँ और भी गहन होती जा रही हैं।(41)

नवउदारवादी भूमण्डलीकरण का खास तौर पर मतलब रहा है श्रम के अन्तर्पणन और माल उत्पादन की अन्तर्राष्ट्रीय श्रृंखलाओं की व्यवस्था और साथ ही विश्वव्यापी एकाधिकारों का विकास। साम्राज्यवाद के इस रूप का अवलम्ब है इस तथ्य का व्यवस्थित तौर पर इस्तेमाल करना कि दुनिया के उत्तरी और दक्षिणी हिस्से के बीच मेहनताने में फर्क उनकी उत्पादकता में फर्क से बड़ा है। इसी हकीकत की वजह से वह परिस्थिति पैदा हुई है जिसमें दक्षिण की उभरती अर्थव्यवस्थाओं में श्रम की इकाई लागत का काफी कम रहना ही आज उत्पादन आपूर्ति की अन्तर्राष्ट्रीय श्रृंखला और मूल्य हड़पने की नयी व्यवस्था का आधार बन गया है।(42) इन अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक हालात ने ही नये साम्राज्यवाद का अवतरण सम्भव किया है जो दुनिया भर में असमानताएँ, अस्थिरता और विश्व संघर्ष को जन्म दे रहा है। इन हालात को बदतर किया है अमरीकी वर्चस्व में हमारे युग में आ रही कमी ने जो व्यापक और असीमित होते जा रहे युद्ध के आसार का संकेत दे रहा है।

ऊपर कहा ही जा चुका है कि नवउदारवादी व्यवस्था प्रतिनिधित्व करती है राजसत्ता और बाजार के बीच एक नये साहचर्य का और इसमें सामाजिक पुनरुत्पादन को जारी रखने की राजसत्ता की गतिविधियाँ पूँजीवादी पुनरुत्पादन के अधीन होती जा रही हैं। राजसत्ता के कई सारे हिस्से प्रभावी सरकारी नियंत्रण के बाहर और वित्तीय पूँजी के प्रभुत्व के अधीन आते जा रहे हैं। मसलन, केन्द्रीय बैंकिंग और मौद्रिक नीति की मुख्य प्रक्रियाएँ। ऐसे हालात में लोग अब राजसत्ता को किसी दूसरी दुनिया की शय मानने लगे हैं। इससे बेहद अमीर और अमीर वर्गों के नीचे के मुख्य सामाजिक वर्गों (ऊपरी मध्य वर्ग, निम्न मध्य वर्ग और मेहनतकश वर्ग) के सन्दर्भ में कई सारे अन्तरविरोध पैदा हो रहे हैं।

उन्नत पूँजीवादी समाज के सन्दर्भ में मोटे तौर पर कहें तो ऊपरी मध्य वर्ग को मुख्य रूप से पेशेवर तकनीकी तबके से बना हुआ मान सकते हैं। यह तबका सरकार पर किसी भी हमले के प्रति गहरे सन्देह का भाव रखता है। इसलिए कि उसकी हैसियत न सिर्फ अपने आर्थिक वर्ग पर निर्भर करती है बल्कि राजनीतिक अधिकारों की पूरी व्यवस्था पर भी। इसलिए वह उदारवादी लोकतांत्रिक राजसत्ता को बनाये रखना चाहता है। इसके उलटा निम्न मध्यम वर्ग आम तौर पर राजसत्ता विरोधी, पूँजी समर्थक और उन्मादी राष्ट्रवादी होता है। इस वर्ग में मुख्य रूप से आते हैं छोटे कारोबारी, मध्यम स्तर के प्रबंधक और कॉरपोरेट क्षेत्र के सफेदपोश वेतनभोगी और बिक्री कामगार (खास तौर पर श्वेत, कम पढ़े लिखे, ग्रामीण और र्धािमक कठमुल्लावादी तबके)। इस वर्ग को लगता है कि राजसत्ता का लाभ तो उसके दो मुख्य दुश्मन ही भोग रहे हैं। मतलब ऊपरी मध्यम वर्ग और मेहनतकश वर्ग पहले के बारे में माना जाता है कि वह राजसत्ता से प्रत्यक्ष रूप से लाभ उठा रहा है जबकि दूसरे को नस्लवादी निगाह से देखा जाने लगता है।(43) निम्न मध्य वर्ग में वे आते हैं जिन्हें सी राइट मिल्स ने पूँजीवादी व्यवस्था के ‘रियरगार्ड्स’ यानी पृष्ठरक्षक कहा था। इस वर्ग को संकट के समय में अमीर वर्ग हुलकार लेता है जब पूँजीवादी स्वार्थों का बचाव जरूरी हो जाता है। लेकिन यह वर्ग समाज का एक बेहद अस्थिर तत्व होता है।(44) अमरीका में मेहनतकश वर्ग में नीचे के 60 फीसद आमदनी उपार्जक आते हैं। यह आबादी का सबसे उत्पीड़ित और सबसे विविध (और इसलिए सबसे विभाजित) तबका है। बहरहाल है वह पूँजी का दुश्मन।(45)

पूँजी के लिए सबसे बड़ा खतरा आज भी मेहनतकश वर्ग ही है जैसा कि वह अतीत में भी था। यह बात उन्नत पूँजीवादी देशों के बारे में भी सही है और परिधि के देशों के बारे में तो और ज्यादा सही है जहाँ बेदखल विस्थापित किसान भी मेहनतकश वर्ग में ही आते हैं। मेहनतकश वर्ग तब सबसे ज्यादा खतरनाक हो जाता है जब वह अन्य निम्न वर्गों के साथ मिलकर कामगारों की अगुवाई में एक बड़ा ताकतवर समूह बना लेता है (यही असली मतलब है ‘कब्जा करो वॉल स्ट्रीट’ मुहिम के नारे हम 99 फीसद हैं का)।

इस तरह बाकी के 1 फीसद का कोई राजनीतिक आधार नहीं रह जाता जो नवउदारवादी, परम पूँजीवादी परियोजना को जारी रखने के लिए जरूरी है। इस तरह अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से लेकर ब्राजीलियाई राष्ट्रपति जेयर बोलसोनारो तक हम देखते हैं कि नवउदारवाद और नवफासीवाद के बीच एक महीन सा कामकाजी रिश्ता उभर रहा है। इसका मकसद है व्यवस्था के पृष्ठरक्षकों को मैदान में उतारना। यहाँ लक्ष्य होता है श्वेत, ग्रामीण, र्धािमक, उन्मादी राष्ट्रवादी निम्न मध्य वर्ग को पूँजी की तरफ से राजनीतिक विचारधारागत सेना के तौर पर उतारना। लेकिन इसमें दक्षिणपंथी उन्माद भड़काने से जुड़े खतरे उभरने की आशंका भी रहती है।ये खतरे आखिरकार उदारवादी लोकतांत्रिक राजसत्ता के अवसान का जोखिम पैदा कर देते हैं।(46)

पूँजीवादी समाज के मुख्य लैंगिक, नस्लीय, सामुदायिक और वर्गीय अन्तरविरोध दिखला रहे हैं कि उन संकटों का विस्तार आज कार्यस्थल पर शोषण के संकीर्ण दायरों से उन व्यापकतर संरचनाओं तक हो रहा है जिनमें मेहनतकश आबादी र्की ंजदगी जड़ी हुई है। इनमें सामाजिक संतति को चलाने के मुख्य फलक शामिल हैं–– परिवार, समुदाय, शिक्षा और सेहत की सुविधाएँ, संचार, परिवहन और पर्यावरण। सामाजिक संतति को चलाने वाले इन फलकों की बर्बादी और कामकाज के बिगड़ते हालात वह सब वापस ले आये हैं जिसे फ्रेडरिक एंगेल्स ने ‘सोशल मर्डर’ यानी ‘सामाजिक हत्या’ कहा था। यह दिख रहा है परिपक्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में भी आबादी की जीवन प्रत्याशा में हाल के सालों में आई गिरावट में।(47) इन्हीं व्यापकतर सामाजिक दायरों में गरीबी का स्रीकरण, नस्लीय पूँजीवाद, बेघरबारी, शहरी समुदाय का पराभव, वित्तीय हरण और आबोहवा की तबाही देखी जा रही है। इस क्रम में वर्गीय, नस्लीय, सामाजिक संतति और अबोहवा की हिफाजत के संघर्ष के व्यापकतर क्षेत्र तैयार हो रहे हैं। नवउदारवादी परम पूँजीवाद के जवाब में ये संघर्ष काफी हद तक एकजुट हो रहे हैं।(48)

परम पूँजीवाद और पर्यावरण के बीच का टकराव इस दौर में व्यवस्था का सबसे गम्भीर अन्तरविरोध है। इससे मौजूदा सदी में धरती के साथ मनुष्य के रिश्ते में ‘मृत्यु चक्र’ (‘डेथ स्पाइरल’) का सवाल खड़ा हो गया है।(49) 1970 का दशक पारिस्थिकी में सुधार का युग था। इसकी जगह जल्दी ही पारिस्थिक ज्यादती (‘इकोलजिकल एक्सेस’) ने ले ली है। सर्वसत्तावादी पूँजीवाद में परम, निराकार मूल्य का प्रभुत्व रहता है। यह ऐसी व्यवस्था है जिसका ध्यान सबसे पहले वित्तीय सम्पत्ति पर रहता है। इसमें विनिमय मूल्य का उपयोग मूल्य से कोई भी प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं रह जाता। इसका अपरिहार्य नतीजा होता है कि पूँजीवाद माल उत्पादक समाज और कायनात के बीच की दरार चैड़ी ही होती जाती है।

सर्वनाश या क्रान्ति

हम देख ही चुके हैं कि मीजेज ने समाजवाद की भूमिका का चित्रण करने के लिए विध्वंसवाद की अवधारणा का इस्तेमाल किया था। उसके सोच विचार में यह इतना अहम था कि अपनी किताब सोशलिज्म के 50 पेज लम्बे भाग 5 में उसने इसी विषय पर चर्चा की। उसने लिखा कि ‘समाजवाद कोई निर्माण नहीं करता। वह ध्वंस करता है। इसलिए कि उसका सारतत्व ही है ध्वंस’। वह बस ‘पूँजी का उपभोग’ करता जाता है जबकि न तो वह उसकी भरपाई करता है और न ही उसमें कोई इजाफा करता है। मीजेज के मुताबिक विध्वंसवाद को सबसे अच्छी तरह परिभाषित किया जा सकता है उस समाज की तरह जिसने उतना उपभोग कर लिया है जितना वह कर सकता था और जिसे भविष्य की कोई परवाह नहीं है। यह भविष्य मीजेज को पूँजी के संचय में ही नजर आता था।(50) विडम्बना यह है कि आज की एकाधिकारी वित्तीय पूँजी तो उसी किस्म के परम विध्वंसवाद का पर्याय है जिसकी मीजेज ने इतनी लानत मलामत की थी।

पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के गढ़ में आज नये नये तकनीकी बदलाव होते जा रहे हैं। खास कर फौज के माध्यम से। फिर भी पूँजी संचय (निवेश) जड़वत बना हुआ है। उसमें तेजी वहीं और तभी आ रही है जब कॉरपोरेट करों में कटौती और राजकीय गतिविधियों के निजीकरण से उसे मिलने वाली खुराक बिलकुल ही बन्द हो जाती है। इस बीच आमदनी और सम्पत्ति की विषमताएँ इतने ऊँचे स्तर पर पहुँच चुकी हैं जहाँ उनमें कोई कमी नहीं आती। दुनिया भर में मेहनतकशों के जीवन के भौतिक हालात बिगड़ते जा रहे हैं। आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थिक हालात। मानवीय रिहाइश के बतौर पूरी धरती पर ही खतरा छाया हुआ है। यह सब उस व्यवस्था का नतीजा है जो पूरी दुनिया के पैमाने पर शोषण, हरण, बर्बादी और लूट खसोट के ऐसे स्वरूप खड़े करती जा रही है जो पहले नहीं देखे गये थे। विज्ञान कहता है कि अगर यही सब चलता रहा तो पूँजीवादी अश्वमेध का दौड़ता रथ बड़ी जल्दी ही पूरी उद्योगिक सभ्यता को तबाह कर डालेगा और मानवीय संतति को ही खतरे में डाल देगा। इसके बदतरीन प्रभाव आज की नौजवान पीढ़ी के जीवन में ही सामने आ जाएँगे।

धरती पर फिलवक्त छाए इस आपातकाल के बारे में ऐतिहासिक और सैद्धांतिक समझ हासिल करने के लिए एक उपयोगी सन्दर्र्भ बिन्दु है। उपनिवेशित आयरलैण्ड में 1850 से 1870 के दशक तक के काल का मार्क्स और एंगेल्स द्वारा किया गया विश्लेषण।(51) दोनों ही ने सर्वनाश शब्द का इस्तेमाल किया। जैसाकि मार्क्स ने 1859 में लिखा, इंग्लिश (और आंग्ल आयरिश) पूँजीवादी तबके 1846 में आये महाअकाल और काले कानूनों को रद्द किये जाने के बाद ‘कार्टर्स के खिलाफ सर्वनाश के एक पैशाचिक युद्ध’ में लगे थे। यानी आयरिश गरीब किसानों के खिलाफ जो ‘धूल धूसरित किये जा चुके थे’ और आलू की खेती पर गुजारा कर रहे थे। आयरिश मिट्टी के पोषक तत्व इंग्लिश उद्योगों के लिए चारे के बतौर आयरिश अनाज के साथ निर्यात किये जा रहे थे और बदले में आयरलैण्ड को कुछ भी नहीं मिल रहा था।(52) इसी तरह एंगेल्स ने महाअकाल के ठीक बाद के दशक को ‘सर्वनाश का काल’ (‘पीरियड ऑफ एक्सर्टिमनेशन’) कहा।(53) ‘सर्वनाश’ शब्द का इस्तेमाल मार्क्स और एंगेल्स ही नहीं उनके कई समकालीन भी कर रहे थे। तब उसके दो परस्पर जुड़े अर्थ थे–– निष्कासन और संहार।(54) इस तरह सर्वनाश शब्द तब उन भयानक हालात को बखूबी व्यक्त करता था जिनका सामना आयरिश आवाम कर रहा था।

उन्नीसवीं सदी के मध्य में आयरिश समस्या की जड। में थी उपनिवेशी व्यवस्था से जुड़ी ‘मेटाबोलिक रिफ्ट’ (‘चयापचयी दरार’) का एक ज्यादा सख्त रूप।(55) ये आयरिश गरीब किसान थे जो अपनी खेती इस तरह करते थे कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति महफूज रहती थी। इन गरीब किसानों को 1846 के बाद खेतों से निष्कासित कर उनका सफाया किया जाने लगा। इस तरह फसलों की खेती और पोषक तत्वों की भरपाई का नाजुक पारिस्थिक संतुलन पूरी तरह बिगड। गया। इससे खेतों को खाली कराने, किसानों के निष्कासन, खेतों की चकबन्दी और अनाजों की खेती को छोड। चारागाह बनाने के सिलसिले को और बढ़ावा मिला। इन चारागाहों की जरूरत थी इंग्लैण्ड में माँस की जरूरत को पूरा करने के लिए। इस तरह आयरिश किसानों के सामने चुनने को अब रह गया था ‘विनाश या क्रान्ति’, जैसा कि मार्क्स ने 1867 में लिखा था।

आज वैसे ही हालात पूरी दुनिया में उभर रहे हैं। गुजारे की खेती करने वाले किसानों की हालत भूमण्डलीय साम्राज्यवाद के हमलों से हर कहीं कमजोर होती जा रही है और पारिस्थिकी की तबाही अब खेतों तक ही सीमित नहीं रह गयी है। इस तबाही का विस्तार अब मौसम सहित पूरी कायनात तक हो गया है। पहले ही बहुत बिगड। चुके हालात में रह रहे लोग तो पूरी तरह तबाह होते जा रहे हैं। मार्क्सवादी इतिहासकार ई पी थाम्पसन की नोट्स ऑन एक्सर्टिमनेशन, द लास्ट स्टेज ऑफ सिविलाइजेशन (सर्वनाश, सभ्यता की अंतिम अवस्था पर टिप्पणियां) बड़ी मशहूर हुई थी। इसमें उन्होंने परमाणविक और पर्यावरणीय खतरों का विश्लेषण किया था।(57) यह कोई छिपी बात नहीं है कि करोड़ों करोड। बल्कि शायद अरबों इनसार्नी ंजदगियों पर खतरा मण्डरा रहा है इस सदी में हो रही भौतिक तबाही से। मतलब पारिस्थितिक, आर्थिक और सैन्य/सामराजी तबाही से। अनगिनत प्रजातियाँ अब लुप्त होने के कगार पर हैं। उद्योगिक सभ्यता खुद भी ध्वस्त होने के खतरे से रूबरू है। वर्ल्ड बैंक तक को कहना पड़ा है कि अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो दुनिया का औसत तापमान 4 डिग्री सेल्सियस बढ। जायेगा।(58) इसलिए रोजा लक्जमबर्ग का पुराना समाजवादी नारा समाजवाद या बर्बरता! अब नाकाफी हो चुका है। अब इसे बदलकर कहना होगा समाजवाद या सर्वनाश या मार्क्स के शब्दों में ‘विनाश या क्रान्ति!’

परम पूँजीवाद की ओर नवउदारवादी सफर दुनिया को पूरे भूमण्डल के पैमाने पर सर्वनाश या विध्वंस की ओर ले जा रहा है। इसे आगे बढ़ाने में पूँजी और राजसत्ता दोनों एक साथ हैं। ये दोनों दूसरे महायुद्ध के बाद से कभी इस कदर साथ नहीं थे। लेकिन मानवता के सामने एक विकल्प अभी भी है। वह है नीचे से उठती एक लम्बी पारिस्थिक क्रान्ति का जिसका लक्ष्य हो धरती की हिफाजत करना और असली बराबरी, टिकाऊ पारिस्थितिकी और सामुदायिक जरूरतों को पूरा करने वाली दुनिया का निर्माण। यानी इक्कीसवीं सदी के लिए पारिस्थिक समाजवाद का।

टिप्पणियाँ

1– चार्ल्स बुडले, ‘द जेनेरस प्लेयर’, बुडले : हिज प्रोज एण्ड पोएट्री, सम्पादित, थॉमस आर स्मिथ (न्यूयार्क : मॉडर्न लाइब्रेरी, 1919), 82 में।

2– डेनियल अल्टमैन, ‘निओलिबरलिज्म? डज इट एक्जिस्ट’, न्यूयार्क टाइम्स, 16 जुलाई, 2005– अल्टमैन का लेख शुरू ही होता है मंथली रिव्यू के नियमित लेखक पेैट्रिक बॉण्ड का मजाक उड़ा कर कि वे मानते हैं कि नवउदारवाद का अस्तित्व है और वह जुड़ा है समकालीन साम्राज्यवाद और पानी को भी मुनाफे का कारोबार बनाने जैसे मसलों से (शायद दोनों किसी हवाई सफर में अगल बगल बैठे थे)। अल्टमैन लिखते हैं कि ‘समस्या यह है कि असली नवउदारवादी लगता नहीं कि हैं भी।’ साफ है कि अल्टमैन खुद एक नवउदारवादी हैं।

3– 1920 के दशक में उदारवाद के पतन पर देखें, एरिक हॉब्सबाम, द एज ऑफ एक्स्ट्रीम्स (न्यूयार्क, पैंथिओन, 1994), 109–41।

4– लुडविग वोन मीजेज, नेशन, स्टेट, एण्ड इकॉनोमी (इडियनपोलिस: लिबर्टी फण्ड, 1983)।

5– फिलिप डब्ल्यू मैग्नस, ‘द पेजोरेटिव ओरिजिन ऑफ द टर्म निओलिबरलिज्म‘, अमरीकन इंस्टीट्यूट फॉर इकॉनोमिक रिसर्च, 10 दिसम्बर, 2018। इर्स बिन्दु पर जर्मन स्रोतों के लिए देखें जॉन बेलामी फोस्टर, ‘एब्सोल्यूट कैपिटलिज्म’, मंथली रिव्यू, मई 2019 का फुटनोट नम्बर 4। नवउदारवाद के प्रारंभिक स्रोतों के ज्यादा विस्तृत सन्दर्भ सूत्रों के लिए देखें जॉन बेलामी फोस्टर, कैपिटलिज्म हैज फेल्ड–व्हाट नेक्स्ट? मंथली रिव्यू 70, अंक 9 (फरवरी 2019) : 1–24।

6– मोइजे, ‘द न्यू लिबरलिज्म्स’, 383। मार्क्सवादी साहित्य में मोबाइल कैपिटल यानी चलंत पूँजी का प्रचलन रुडोल्फ हिलर्फण्डिग की फिनांस कैपिटल के जरिये बढ़ा। देखें, रुडोल्फ हिलर्फण्डिग, फिनांस कैपिटल (लन्दन : रौटलेज, 1981), 325–30, 342।

7– मोइजे, वही, पेज 372–73, मीजेज, सोशलिज्म, 413, 422। मैं जर्मन से अनुवाद के लिए जोसेफ फ्रैक्शया का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा।

8– मीजेज, लिबरलिज्म, 9।

9– मीजेज, सोशलिज्म, 400–01।

10– मीजेज, लिबरलिज्म, 30 : हर्बर्ट मार्कीज, निगेशंस (बस्टन, बीकन, 1968), 10।

11– कार्ल पोलान्यी, द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन (बोस्टन, बीकन, 1944), 57। एमबेडेडनेस यानी जड़ाई या अन्तस्थापन का पोलान्यी का विश्लेषण नवउदारवाद की उनकी आलोचना के केन्द्र में है। यह विश्लेषण मूलतरू आधारित था उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य के बीच के भेद को पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर पाने में अरस्तू की नाकामी की मार्क्स की विवेचना पर। तब अर्थव्यवस्था अभी भी पूँजीवाद के गढ़ में ही जड़ी हुई थी। वहाँ से उसका अलगाव अभी नहीं हुआ था। पोलान्यी के विश्लेषण का सबसे विकसित रूप है ‘अरस्तू डिस्कवर्स द इकॉनोमी’, ट्रेड एण्ड मार्केट इन द अर्ली एम्पायर्स, कार्ल पोलान्यी, कौनराड एम अरेंसबर्ग और हैरी डब्ल्यू पियरसन (ग्लेंको, इलियोनिस : द फ्री प्रेस, 1957), 64–94।

12– फिलिप मिरोव्स्की, नेवर लेट ए सीरियस क्राइसिस गो टू वेस्ट (लन्दन : वर्साे, 2013), 24, 37–50।

13– एमोन बटलर, ‘ए शार्ट हिस्ट्री ऑफ द मोंट पेलेरिन सोसायटी’, द ग्रेट ऑफशोर, ‘मोंट पेलेरिन सोसायटी’ (एनसाइक्लोपीडिया एंट्री)। यह वेबसाइट पर उपलब्ध है।

14– यह संक्रमण जब हो रहा था तब इसमें अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक अभिजनों की भूमिका पर केंद्रित इसका ब्योरा पेश करने वाली एक महत्वपूर्ण रचना के लिए देखें जॉयस कोलको, रिस्ट्रर्क्चंरग द वर्ल्ड इकॉनोमी (न्यूयार्क : पैनथिओन, 1988)।

15– माइकेल फूको, द बर्थ ऑफ बायोपॉलिटिक्स (न्यूयार्क : पालग्रेव मैकमिलन, 2008)।

16– फूको, वही, 116–17।

17– फूको, वही, 131, 145।

18– फूको, वही, 145।

19– फूको, वही, 133–38, 176–78य जोसेफ शुमपीटर, कैपिटलिज्म, सोशलिज्म, एण्ड डेमोक्रेसी (न्यूयार्करू हार्पर एण्ड रो, 1942), 81–86य मिरोव्स्की, नेवर लेट ए सीरियस क्राइसिस गो टू वेस्ट, 64य मीजेज, सोशलिज्म, 344–51य जॉर्ज स्टिगलर, मेमॉयर्स ऑफ एन अनरेगुलेटेड इकोनोमिस्ट (न्यूयार्क : बेसिक, 1988), 92, 162–63।

20– फूको, द बर्थ ऑफ बायोपॉलिटिक्स, 118। फूको की टिप्पणियाँ बढ़ते एकाधिकार के साथ पूँजीवाद द्वारा जैसे को तैसा के उसके शास्त्रीय सिद्धान्त को त्यागने पर बरान और स्वीजी की टिप्पणी से सम्बन्धित हैं। पॉल ए बरान और पॉल एम स्वीजी, मोनोपोली कैपिटल (न्यूयार्करू मंथली रिव्यू प्रेस, 1966), 336–41।

21– फूको, द बर्थ ऑफ बायोपॉलिटिक्स, 145– उद्धरण में चैड़े कोष्ठक फूको के व्याख्यानों के सम्पादक द्वारा जोड़े गये थे।

22– फूको, द बर्थ ऑफ बायोपॉलिटिक्स, 145, 165।

23– क्रेग एलन मेडलन, फ्री कैश, कैपिटल एक्यूमुलेशन एण्ड इनयीक्वलिटी (लन्दन, रौटलेज, 2019), 149–69य बरान और स्वीजी, मोनोपोली कैपिटल 142–77।

24– समीर अमीन, द लिबरल वायरस (न्यूयार्करू मंथली रिव्यू प्रेस, 2004)।

25– देखें हैरी मैगडोफ और पॉल एम स्वीजी, स्टैगनेशन एण्ड द फिनांशिअल एक्सप्लोजन (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 1987)य जॉन बेलामी फोस्टर और फ्रेड मैगडोफ, द ग्रेट फिनांशिअल क्राइसिस (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2009)य जॉन बेलामी फोस्टर और रोबर्ट डब्ल्यू मेकचेशने, द एण्डलेस क्राइसिस (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2012)य कोस्टास लैपवित्सस, प्रोर्फिंटग विदाउट प्रोर्ड्यूंसग (लन्दन : वर्साे, 2014)–– और मेडलन, फ्री कैश, कैपिटल एक्यूमुलेशन एण्ड इनयीक्वलिटी।

26– फेडेरल रिजर्व बोर्ड ऑफ सेंट लुइस इकॉनोमिक रिसर्च, फ्रेड, ‘कैपेसिटी यूटिलाइजेशनरू मैन्युफैर्क्चंरग’, फरवरी 2019 (27 मार्च 2019 को अपडेटेड)। वेबसाइट पर उपलब्ध।

27– फोस्टर और मैगडोफ, द ग्रेट फिनांशिअल क्राइसिस, 63–76।

28– इसके साम्राज्यवादी पहलुओं पर देखें, जॉन स्मिथ, इम्पीरियलिज्म इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2016)य इंटन सुवन्दी, आर जमील जोना और जॉन बेलामी फोस्टर, ‘ग्लोबल कोमोडिटी चेन्स एण्ड द न्यू इम्पीरियलिज्म’, मंथली रिव्यू 70, अंक 10 (मार्च 2019) : 1–24। वित्तीयकरण और हरण के बीच के जुड़ाव के लिए देखें लैपवितस्स, प्रोर्फिंटग विदाउट प्रोर्ड्यूंसग, 141–47, 166–68।

29– डेविड हार्वे, ‘द नियोलिबरल प्रोजेक्ट इज अलाइव बट हैज लॉस्ट इट्स लेजिटिमेसी’, वायर, 9 फरवरी, 2019। जॉन बेलामी फोस्टर,ट्रम्प इन व्हाइट हाउस (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2017)।

31– एफ ए हायेक, द कांस्टीच्यूशन ऑफ लिबर्टी (शिकागो : हेनरी रेगनेरी, 1960), 221।

32– हायेक, वही, 232–33।

33– माइकेल टिगर, माईथोलॉजिज ऑफ स्टेट एण्ड मोनोपोली पावर (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2018)।

34– फूको, द बर्थ ऑफ बायोपॉलिटिक्स 171–73य हायेक, द कांस्टीच्यूशन ऑफ लिबर्टी, 220–33।

35– माइकेल पोलान्यी, द लॉजिक ऑफ लिबर्टी (शिकागो : शिकागो यूनिर्विसटी प्रेस, 1951), 185य फूको, द बर्थ ऑफ बायोपॉलिटिक्स, 174य हायेक, द कन्स्टीच्यूशन ऑफ लिबर्टी, 220–33। टीगर, माइथोलॉजिज ऑफ स्टेट एण्ड मोनोपोली पावर।

36– ‘विशालकाय क्यों? जवाब बड़ा सरल सा है। लेकिन बड़ा तकलीफदेह और मुश्किल भी। बड़ा सरल इस मायने में कि अपनी संरचनागत शक्ति को समाज की कुल निर्णयकारी प्रक्रिया पर थोपने में राजसत्ता और कुछ नहीं विशालकाय ही हो सकती थी। यह बात इतिहास में उसके तमाम तरह के रूपों पर लागू होती है। तथाकथित प्राच्य निरंकुशता और प्रारंभिक साम्राज्यों से लेकर आधुनिक उदारवादी राजसत्ता तक (इस्तवान मेसजारोस, ‘प्रिफेस टु बियोण्ड लेवियथन’, मंथली रिव्यू 69, अंक 9 (फरवरी 2018)–– 47)। ऐसा अभी भी है। लेकिन नवउदारवाद में पूँजी से रिश्ते के लिहाज से राजसत्ता का चुनिन्दा रूप से विलोप होता है। अपने ही द्वारा निर्धारित विवेकशील–कानूनी चरित्र से घिरी राजसत्ता को पूँजीवादी व्यवस्था के औपचारिक आर्थिक कानूनों के अनुरूप काम करना होता है जिसे वैधता प्रदान करने वाली वह मुख्य शक्ति और उसकी आधिकारिक गारंटीकार भी है जो कि एक विरोधाभासी बात है। इन सीमाओं की हद तब स्पष्ट हो जाती है जब कोई सामाजिक जनवादी सरकार यह सोचकर सत्ता में लाई जाती है कि वह सुधार कर सकती है। लेकिन उसे जल्दी ही पता चल जाता है कि नवउदारवादी नीतियों को लागू करने को वह विवश है।

37– फूको, द बर्थ ऑफ बायोपॉलिटिक्स, 105, 172।

38– ‘लेवियथन फ्रोन्टीसपीस’, विलियमेटे। एडु

39– देखें, समीर अमीन, मॉडर्न इम्पीरियलिज्म, मोनोपोली फिनांस कैपिटल एण्ड मार्क्स’स लॉ ऑफ वैल्यू (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2018)। वित्त के प्रति नवउदारवाद की भूमिका पर देखें, गेरार्ड ड्यूमेनिल और डोमिनिक लेवी, कैपिटल रिसर्जेंट (कैम्ब्रिज, मैसाच्युसेट्स : हार्वर्ड यूनिर्विसटी प्रेस, 2004), 110–18य डेविड हार्वे, द एनिगमा ऑफ कैपिटल (ऑक्सफोर्ड: ऑक्सफोर्ड यूनिर्विसटी प्रेस, 2010), 11।

40– इंटरनेट ने हमारे जमाने में सूचना का अति मौद्रीकरण सम्भव किया है। इससे निगरानी पूँजीवाद का दौर चल पड़ा है। देखें, जॉन बेलामी फोस्टर और रॉबर्ट डब्ल्यू मैकचेशनी, ‘र्सिवलेंस कैपिटलिज्म’, मंथली रिव्यू 66, अंक 3 (जुलाई–अगस्त 2014)य शोशाना जुबोफ, द एज ऑफ र्सिवलेंस कैपिटलिज्म (न्यूयार्क: पब्लिक अफेयर्स, 2019)।

41– जॉन बेलामी फोस्टर और माइकेल डी येट्स, ‘पिकेटी एण्ड द क्राइसिस ऑफ नियोक्लासिकल इकोनमिक्स’, मंथली रिव्यू 66, अंक 6 (नवम्बर 2014) : 1–24।

42– सुवन्दी, जोनना, और फोस्टर, ‘ग्लोबल कोमोडिटी चेन्स एण्ड द न्यू इम्पीरियलिज्म’ : 15।

43– यहाँ पेश वर्गीय विश्लेषण और नवउदारवाद और नवफासीवाद से इसके रिश्ते के लिए देखें, फोस्टर, ट्रम्प इन द व्हाइट हाउस।

44– सी राइट मिल्स, व्हाइट कलर (अक्सफोर्ड : ऑक्सफोर्ड यूनिर्विसटी प्रेस, 1951), 353–54।

45– आर जमील जोनना और जॉन बेलामी फोस्टर, ‘बियोण्ड द डिग्रेडेशन ऑफ लेबर’, मंथली रिव्यू 66, अंक 5 (अक्टूबर 2014) : 7। अमरीका में मुख्य वर्गों के विभाजन के मोटे तौर पर सीमांकन के लिए देखें, डेनिस गिल्बर्ट, द अमरीकन क्लास स्ट्रक्चर इन एन एज ऑफ ग्रोइंग इनिक्वलिटी (लास एंजेल्स : सेज, 2011), 14, 243–47। मेहनतकश वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के बीच के विभाजन का सटीक निर्धारण बेशक नहीं किया जा सकता। कार्ल मार्क्स ने लिखा ही था कि ‘मध्य और संक्रमणकारी स्तर हमेशा सरहदों को छिपाए रहते हैं’। कार्ल मार्क्स, कैपिटल, खण्ड 3 (लन्दन : पेंग्विन, 1981), 1025।

46– देखें, हेनरी ए गिरौक्स, ‘द नाइटमेयर ऑफ नियोलिबरल फसिज्म’, ट्रुथआउट, जून 10, 2018।

47– कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 4 (न्यूयार्क : इंटरनेशनल, 1975)।

48– हाल फिलहाल में पारिस्थिक संकट, सामाजिक पुनरुत्पादन, और नस्लीय पूँजीवाद के मार्क्सवादी विश्लेषण एक र्ही बिन्दु पर पहुँचते रहे हैं। ये सभी शोषण और हरण की द्वंद्विकता पर जोर देते हैं। देखें, नैंसी फ्रेजर, ‘बिहाइण्ड द हिडेन अबोड’, न्यू लेफ्ट रिव्यू 86 (2014) : 60–61य माइकेल डी येट्स, कैन द वर्किंग क्लास चेंज द वर्ल्ड? (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2018), 52–56य माइकेल सी डसन, ‘हिडेन इन प्लेन साइट’, क्रिटिकल हिस्टोरिकल स्टडीज 3, अंक 1 (2016): 143–61य जॉन बेलामी फोस्टर और ब्रेट क्लार्क, ‘द एक्सप्रोप्रियशन ऑफ नेचर’, मंथली रिव्यू 69, अंक 10 (मार्च 2018) : 1–27।

49– जॉर्ज मोम्बीओत, ‘द अर्थ इज इन डेथ स्पाइरल। इट विल टेक रैडिकल एक्शन टू सेव अस’, गर्डियन, नवम्बर 14, 2018।

50– मीजेज, सोशलिज्म, 413–14, 452।

51– आयरलैण्ड पर मार्क्स और एंगेल्स के लेखन पर यहाँ पेश संक्षिप्त टिप्पणियाँ मेरे और ब्रेट क्लार्क द्वारा किये गये शोध से प्रेरित हैं। यह शोध अगले साल प्रकाशित होने वाली हमारी किताब द रॉबरी ऑफ नेचर (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2020) में शामिल किया जायेगा।

52– कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, आयरलैण्ड एण्ड द आयरिश क्वेश्चन (मस्को : प्रोग्रेस, 1971), 90, 124य कार्ल मार्क्स, कैपिटल, खण्ड 1 (लन्दन : पेंग्विन, 1976), 860।

53– मार्क्स और एंगेल्स, आयरलैण्ड एण्ड द आयरिश क्वेश्चन, 210।

54– ‘एक्सटरमिनेशन’, द कम्पैक्ट एडिशन ऑफ द ऑक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी (ऑक्सफोर्ड : ऑक्सफोर्ड यूनिर्विसटी प्रेस, 1971), 938।

55– एमोन्न स्लेटर, ‘मार्क्स ऑन द कलोनाइजेशन ऑफ द आयरिश सइल’ (मैनूठ यूनिर्विसटी सोशल साइंस इंस्टिट्यूट वर्किंग पेपर सीरीज नम्बर 3, जनवरी 2018), 40।

56– मार्क्स और एंगेल्स, आयरलैण्ड एण्ड द आयरिश क्वेश्चन, 142।

57– ई पी थॉम्पसन, बियोण्ड द कोल्ड वार (न्यूयार्क : पंथीयोन, 1982), 41–79। थॉम्पसन ने कई बार यह स्पष्ट किया कि सर्वनाश से उनका मतलब था पूरी कायनात का ही सर्वनाश। अन्य लोगों ने इस अवधारणा का विकास पारिस्थिक संकट के सन्दर्भ में किया। खास तौर पर देखें, रुडोल्फ बाहरो, एवार्यंडग सोशल एण्ड इकोलॉजिकल डिजास्टर (बाथ : गेटवे, 1994), 19–25य जॉन बेलामी फोस्टर, द इकोलॉजिकल रिवोल्यूशन (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2009), 22–28य और इयान एंगस, फेसिंग द एंथ्रोपोसीन (न्यूयार्क : मंथली रिव्यू प्रेस, 2016), 179–80।

58– डेविड रॉबर्ट्स, ‘द ब्रूटल लॉजिक ऑफ क्लाइमेट चेंज’, ग्रिस्ट, दिसम्बर 6, 2011य वर्ल्ड बैंक, टर्न डाउन द हीट : व्हाई अ 4 सेल्सियस वार्मर वर्ल्ड मस्ट बी अवायडेड (वाशिंगटन, डी सी: वर्ल्ड बैंक, 2012)। वर्ल्ड बैंक की यह रिपोर्ट वेबसाइट पर उपलब्ध है।

पारिभाषिक शब्दावली

आपूर्तिपक्षी अर्थशास्त्र (सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स)–– यह विचार कि आपूर्ति बढ़ जाये तो माँग खुद पैदा हो जाती है और इस तरह अर्थव्यवस्था का विस्तार होता जाता है। इस विचार के मुताबिक अर्थव्यवस्था में वास्तविक बढ़त अल्पकाल में काफी हद तक और दीर्घकाल में लगभग पूरी तरह निर्भर करता है आपूर्ति को प्रभावित करने वाले कारकों पर न कि प्रभावी माँग पर। आर्थिक बढ़त को बढ़ाने के लिए अर्पूितपक्षी कदम हो सकते हैं निवेश और नवाचार बढ़ाने के लिए कर प्रणाली में सुधार के उपाय, प्रतिबंधक व्यवहारों में सुधार, परिवहन और संचार सुविधाओं में सुधार, बेरोजगार कामगारों को प्रशिक्षण और रोजगार बदलने में सुविधा, श्रम की आपूर्ति बढ़ाने को सामाजिक सुरक्षा व्यवस्थाओं में सुधार। आपूर्तिपक्षी अर्थशास्त्र इस तरह कीन्सवादी अर्थशास्त्र के ठीक उल्टी मान्यता पर चलता है कि जिसका मानना है आर्थिक बढ़त को प्रभावित करने वाला मुख्य कारक है प्रभावी माँग।

गरीबी का स्त्रीकरण (फेमिनाईजेशन ऑफ पोवर्टी)–– मर्दों की तुलना में औरतों के बीच गरीबी का ज्यादा बढ़ना या गरीबी में मर्दों के बीच ज्यादा कमी आना और औरतों के बीच कम कमी आना।

जड़ता (स्टैगनेशन)–– ऐसी दशा जिसमें उत्पादन, रोजगार, तकनीक या आमदनी के स्तर में कोई बदलाव नहीं होता है।

माल उत्पादन श्रृंखला (कमोडिटी चेन्स)–– बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा किसी माल के उत्पादन और वितरण की प्रक्रिया के अलग अलग हिस्से अलग अलग देशों में करना जिसके जरिये तैयार माल दुनिया भर के बाजारों में बेचा जाता है।

मौद्रिकवाद (मोनेट्रीज्म)–– अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के मुख्य औजार के बतौर मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करने का सिद्धान्त और आचार।

मित्र शक्तियाँ (एलायड पावर्स)–– दूसरे महायुद्ध (1939–45) के दौरान ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस (1940–44 को छोड। जब उस पर जर्मनी का कब्जा था), सोवियत संघ (जून 1941 के बाद), अमरीका (8 दिसम्बर 1941 के बाद) और चीन।

श्रम का अन्तर्पणन (लेबर आर्बिट्रेज)–– अन्तर्पणन का मतलब है किसी एक बाजार में कम कीमतों पर खरीदने और दूसरे बाजार में अधिक कीमतों पर बेचने की प्रक्रिया। श्रम के अन्तर्पणन से मतलब है बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अपना माल उत्पादन उन देशों में करना जहाँ श्रम सस्ती कीमत पर उपलब्ध है और फिर माल को ऊँचे दाम पर दूसरे देशों में बेचना।

सुर्ख वियना (रेड वियना)–– आस्ट्रिया की राजधानी वियना को 1918 से 1934 के बीच रेड वियना कहा जाता था जब शहर में सामाजिक लोकतंत्रवादियों का बहुमत था और शहर का शासन पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चलाया गया था।

सामाजिक पुनरुत्पादन–– वह प्रक्रिया जिसके जरिये सामाजिक संरचना खुद को समयकाल में बरकरार रखती है। सामाजिक पुनरुत्पादन की अवधारणा कार्ल मार्क्स ने पूँजी के पहले खण्ड में पूँजीवादी समाज के विश्लेषण में पेश की थी। मार्क्स के मुताबिक उत्पादन की हर सामाजिक प्रक्रिया पुनरुत्पादन की प्रक्रिया भी है। मार्क्स ने इस अवधारणा का जिक्र व्यापक सामाजिक सन्दर्भ में किया है। खास तौर पर इन प्रक्रियाओं का इस्तेमाल पूँजीवाद के सामाजिक सम्बन्धों के पुनरुत्पादन में होने के सन्दर्भ में।

निवल पूँजीनिवेश (नेट इन्वेस्टमेंट)–– सकल निवेश में से पूँजीगत वस्तुओं की टूट फूट को घटा कर बची राशि को निवल निवेश कहते हैं। अर्थव्यवस्था में अगर किसी साल 1000 करोड। रुपये का पूँजीनिवेश हुआ और उसी साल पूँजीगत वस्तुओं के इस्तेमाल से उनके मूल्य में 100 करोड़ रुपये की कमी आई तो उस साल अर्थव्यवस्था में निवल निवेश 1000–100 यानी 900 करोड़ रुपये माना जायेगा। पूँजीगत वस्तुएं कहते हैं मशीन, भवन वगैरह को।

स्फीति सम्बद्ध गतिरोध (स्टैगफ्लेशन)–– अर्थव्यवस्था में ऊँची बेरोजगारी और उत्पादन में कमी के साथ अधिक मुद्रास्फीति की दशा। 1970 में कच्चे तेल की कीमतें अत्यधिक बढ़ने के कारण उन्नत पूँजीवादी देशों में ऐसी दशा देखी गयी थी।

(साभार : https://monthlyreview.org/2019/05/01/absolute-capitalism/)
(हिन्दी अनुवाद -- फिलहाल पत्रिका से साभार)

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