16 मई, 2020 (ब्लॉग पोस्ट)

पूँजीपति मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भी खत्म कर देना चाहते हैं

आईआईटी दिल्ली के ऐकोनोमिक्स के प्रोफ़ेसर जयन जोस थॉमस का ‘द हिन्दू’ में सम्पादकीय छपा. पढ़ने लायक और जानकारी बढ़ाने वाला. यहां उसके कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा की जा रही है.

थॉमस लिखते हैं,  "भारत में मजदूरों की तनख्वाह बढ़ानी चाहिए, इससे उपभोग बढ़ेगा. ज्यादा उत्पादन करने के लिए ज्यादा मजदूरों को काम पर रखना होगा. इससे हर हाथ को काम मिल जाएगा. बेरोजगारी ख़त्म हो जायेगी और आर्थिक वृद्धि भी हासिल होगी." उन्होंने अपनी बात के पक्ष में तर्क देते हुए लिखा कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप ने भी यही मॉडल अपनाया था. युद्ध और मंदी से पीड़ित लोगों को अच्छी तनख्वाहें दी गयीं और एक बार फिर पूंजीवाद का सुनहरा दौर शुरू हो गया.

थॉमस ने भारत के शहरी उपभोक्ता वर्ग की हालत का जिक्र करते हुए लिखा, 64.4 प्रतिशत टिकाऊ सामान का उपभोग सिर्फ 5 फीसदी अमीरों द्वारा किया जाता है. निचली 50 फीसदी सबसे गरीब आबादी सिर्फ 13.4 फीसदी सामान का उपभोग करती है.

थॉमस ने एक और आँख खोल देने वाला तथ्य दिया है कि 2018 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल 47.15 करोड़ मजदूर वर्ग में से सिर्फ 12.3 प्रतिशत को ही नियमित तनख्वाह और सामाजिक सुरक्षा मिलती है.

थॉमस ने काफी मेहनत से आँकड़े जुटाए और बड़ी नेकदिली से इच्छा जताई कि पूंजीवाद अगर तनख्वाह बढ़ा दे तो समस्या का समाधान हो जायेगा. पर यह पूंजीवाद ही है, जिसने एक बार फिर अपने एक नेकदिल प्रोफेसर को निराश किया. हम जानते हैं कि पूंजीवाद अपनी पैदाइश से ही सस्ते श्रम की ख्वाहिश करता आया है. सस्ता श्रम और कच्चे माल की तलाश में समुद्र में खतरनाक यात्राएं की गयीं. दो-दो विश्व युद्ध लड़े गये. समय के साथ अर्थव्यवस्था के उत्पादन-उपभोग के आदर्श सम्बन्ध की कलई खुल गयी और उससे निकलकर अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा शेयर बाजार आज परजीवी जोंक की तरह लोगों का खून पी रहा है. पिछले सौ साल में तकनीक की उन्नति की बदौलत मजदूरों की उत्पादकता हजारों गुना बढ़ गयी, पर इसका फायदा सिर्फ पूंजी के मालिकों ने उठाया. उन्होंने इसके बदले मजदूरों को गरीबी के दलदल में धकेल दिया.

आज दुनियाभर में करोड़ों मजदूरों के हाथ खाली हैं. पूंजीपति काम देने के बजाय उनके संवैधानिक अधिकारों को भी एक-एक कर छीन रहा है. वह श्रमशक्ति के ऊपर न्यूनतम खर्च कर रहा है. दुनियाभर की सरकारों ने पूँजीपतियो के हित में कर्मचारियों की पेंशन, स्वास्थ और अन्य सुविधाएं ख़त्म कर दी है या निकट भविष्य में जल्द ख़त्म करने की योजना है. श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं.

आज एकाधिकार पूँजीवाद का दौर है. दुनिया के सभी बड़े बुर्जुआ आपस में गहरे रिश्ते कायम किये हुए हैं. ऊपरी तौर पर उनमें कभी-कभी आपसी प्रतियोगिता के लक्षण दिखाई देते हैं, पर उनके बीच की मुख्य चालक शक्ति उनकी आपसी एकता और मजदूर वर्ग का शोषण-दमन है. वे मजदूर का श्रम शोषण करते हैं, तमाम तरह के टैक्स लगाकर जनता को लूटते हैं और प्राकृतिक संसाधनों से जनता को बेदखल करके अकूत मुनाफ़ा कमाते हैं. यानी शोषण, लूट और बेदखली तीन ऐसे तरीके हैं, जिससे पूँजीपति वर्ग और उनकी रहनुमा सरकार अपनी तिजोरी भरती है. जैसे-जैसे उत्पादक अर्थव्यस्था ठहरावग्रस्त होती चली जाती है, उसी अनुपात में पूंजीपति मजदूरों के शोषण की दर बढ़ाता जाता है, लेकिन वह धीरे-धीरे अधिक संख्या में मजदूरों को काम देने में खुद को अक्षम पाता है. इससे शोषण से की गयी कमाई की कुल मात्रा कम हो जाती है और पूँजीपति तिजोरी भरने के लिए लूट और बेदखली पर अधिक आश्रित होता चला जाता है.

पूँजीपति उत्पादन को सीमित करते चले जाते हैं. यानी एकाधिकार पूंजीवाद ने उत्पादन व्यवस्था पर कब्जा कर रखा है. अधिक मजदूरों की छंटनी और शोषण की दर बढ़ने से मजदूरी लगातार गिरती जाती है. मजदूरों की तनख्वाह बढ़ाने की उम्मीद करना चील के घोंसले से मांस उठाकर लाने जैसा है.

दुनिया की पूर अर्थव्यवस्था बुरी तरह संकट में फंस गयी है. मंदी, बिक्री में कमी, बाजार का सिकुड़ना, तरलता संकट, वित्तीय और बैंकिंग संकट ने पूँजीपतियों की नींद उड़ा दी है. यानी पूंजीवाद के सामने एक भयावह संकट खड़ा है. आज नए उत्पादन क्षेत्र विकसित नहीं हो पा रहे हैं, जिससे पूँजीवाद को कुछ राहत मिले.

भारत का उदाहरण लेते हैं. यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश के अप्रवासी मजदूर सिर्फ कुछ गिने चुने चार-छह शहरों में केंद्रित हैं-- जैसे दिल्ली, गुड़गांव, नोएडा, बैंगलोर, चेन्नई या गुजरात के कुछ शहर सूरत और अहमदाबाद. पिछले दशक में सोचिए ऐसे कितने और नए शहर भारत में बने? एक भी नहीं. विकास ठहर गया है? हाँ. यह रोजगारविहीन विकास है. यह नये लोगों को काम देना पसन्द नहीं करता.

रिपोर्टों के अनुसार देश के कुल अप्रवासी मजदूरों के आधे मजदूर यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश से आते हैं. खेती की हालत इतनी पस्त है कि पिछले दशक में करीब दो करोड़ लोग खेती छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं. आज कोरोना संकट में फिर से उजड़कर गिरते-पड़ते, मरते-पिसते वापस गाँव लौट रहे हैं.

शहरों में खेती से उजड़कर आये मजदूरों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत क्या है? ये शहरी आबादी के सबसे निचले पायदान पर हैं. जिनकी सामजिक जिंदगी नहीं होती. सिर्फ घुटन भरी झुग्गियों में या किराए के छोटे-छोटे कमरों में इन्हें शरण मिली हुई है. बदले में बीबी और बच्चों का पेट किसी तरह भरने के लिए ही उन्हें मजदूरी दी जाती है. दूसरी ओर, इन्हीं शहरों में अपना कारोबार चलाने वाली कंपनियां अरबों रुपये कमा ले गयीं. यह सब सरकार की मर्जी और क़ानून के हिसाब से होता आया है और आज भी हो रहा है.

आज पूंजीवाद ने नए आद्यौगिक क्षेत्र विकसित करना बंद कर दिया है. यहाँ तक कि पुराने औद्योगिक क्षेत्र भी ठप होते जा रहे हैं. नोएडा से 30 किलोमीटर दूर सिकंदराबाद आद्यौगिक क्षेत्र में चील-कौए उड़ते रहते हैं. खँडहर में बदलती दीवार और प्रतीक के रूप में खड़ी चिमनियां किसी पुराने जमाने की याद दिलाती हैं.

आज पूंजीवाद के कामों की लिस्ट में ही नहीं है कि वह उद्योग के जरिये विस्तार करे. आज एक-एक कंपनी के पास इतनी पूंजी है कि वह कई-कई देश खरीदने की हैसियत में है. पर फिर भी वह अपनी पूंजी ऐसी जगह लगाएगी जहां उसे तुरंत मुनाफ़ा हो. अगर उसे हथियार बेचकर मुनाफा मिल रहा है तो वह युद्ध में दुनिया को झोंक देगा और हथियार बनाएगा.

पूंजीवाद से यह उम्मीद करना बहुत ही भोलापन होगा कि वह गरीब और कंगाल जनता की शिक्षा, स्वास्थ और रोजगार की व्यवस्था करेगा. शिक्षा, स्वास्थ और रोजगार में कटौती करने की यह नीति के जरिये ही तिजोरी भरी जा रही है. ऐसी स्थिति से उसे मौजूदा व्यवस्था से फायदा है. उसे सस्ता श्रम मिलता है. सस्ते श्रम से उत्पादन पर खर्चा कम मुनाफ़ा ज्यादा होता है. सस्ते श्रम की आज हर गली में बाढ़ आयी हुई है. सस्ते श्रम की नुमाइश करके प्रधानपन्त विदेशी आकाओं को निवेश के लिए बुला रहे हैं. ऐसे में सस्ते श्रम का असली मतलब समझने की कौन जहमत उठाये? कौन यह सोचे कि सस्ता श्रम मतलब— मजदूर के खून की आखिरी बूँद तक निचोड़कर मुनाफे में तब्दील करना है.

तो मामला यह है प्रोफ़ेसर साहब कि पूंजीवाद ने औद्योगिक क्रांति के समय उत्पादन और उपभोग का जो आदर्श अपनाया था, आज वह इस पर कायम नहीं है. आज मजदूर वर्ग इतना संगठित भी नहीं है कि उसके डर से पूँजीपति उसकी सुविधा बढ़ा दें. जैसा कि आपने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का हवाला दिया है. उस समय के वर्ग शक्ति संतुलन का हवाला देना आप भूल गए. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप और अमेरिका में पूंजीपति खैरात यूँ हीं नहीं लुटा रहा था. उसे डर था कि हमने अपने-अपने देशों में मजदूर वर्ग की हालत ठीक न की तो मजदूर वर्ग को सोवियत संघ की ओर आकर्षित होने से कोई ताकत नहीं रोक सकती.

आज पूंजीवाद के सामने न तो सोवियत संघ का डर है और न ही वैश्विक शक्ति संतुलन मजदूर वर्ग के पक्ष में है. इसलिए आज वह कीन्स के सुधारवादी मॉडल को लागू करके तनख्वाह नहीं बढ़ाएगा. ऐसा उसने अपने हर कदम से बार-बार सिद्ध किया है. अब सोचना हमें है कि हम अगर वाकई देश के 47 करोड़ मजदूर वर्ग के लिए चिंतित हैं तो कुछ और योजना बनाएं.

 

 
 

 

 

Leave a Comment

हाल ही में

सोशल मीडिया पर जुड़ें