नये श्रम कानून मजदूरों को ज्यादा अनिश्चित भविष्य में धकेल देंगे
असल मायनों में, नये श्रम कानूनों का लाजमी जोर श्रम–पूँजी के रिश्तों की एक मिसाल को आम बना देने पर है, जो राज्य की कम दखलंदाजी या कानूनों में ढील और दोतरफा औद्योगिक रिश्तों पर इसके स्वाभाविक प्रभाव पर आधारित है।
संसद में तीन नये श्रम कानून पारित किये गये हैं जो मौजूदा 25 श्रम कानूनों की जगह लेंगे। इन तीनों कानूनों का मेल उन श्रम कानूनों के आधिकारिक तौर पर अन्त का प्रतीक है जो हमने बीसवीं सदी के ज्यादातर हिस्से में देखे हैं।
ये कानून पहले से मौजूद उन चैखटों को पूरी तरह बदल देते हैं जिनका इस्तेमाल श्रम कानूनों के अमल के दायरे को तय करने के लिए किया गया था, जैसे किसी प्रतिष्ठान में काम करने वाले लोगों की संख्या। उदाहरण के लिए नया औद्योगिक सम्बन्ध कानून 300 मजदूरों तक के प्रतिष्ठान को सरकार की पूर्व अनुमति के बिना मजदूरों को बर्खास्त करने और छँटनी करने या प्रतिष्ठान को बन्द करने का अधिकार देता है। पहले यह सीमा 100 मजदूरों की थी। इस बदलाव ने मध्यम आकार के अधिकतर उद्यमों में काम करने वाले मजदूरों की भारी संख्या को औद्योगिक विवाद कानून के दायरे से ही बाहर कर दिया है।
इसी तरह ये कानून साफ तौर पर फैक्ट्री अधिनियम, 1948 को लागू करने के चैखटे को बढ़ाकर दोगुना कर देते हैं, जैसे बिजली से चलने वाले प्रतिष्ठानों के मामले में मजदूरों की संख्या 10 से बढ़ाकर 20 और बिना बिजली के चलनेवाली इकाइयों के मामले में मजदूरों की संख्या 20 से बढ़ाकर 40 मजदूरों तक कर दी गयी है।
औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946 के अनुसार कम से कम 100 मजदूरों वाले किसी प्रतिष्ठान के लिए रोजगार की परिस्थितियाँ औपचारिक रूप से स्पष्ट करना लाजमी था, यहाँ तक कि इस तय सीमा को भी 300 मजदूरों तक बढ़ा दिया गया है। पेशेगत सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य की परिस्थिति कानून में बदलाव करते हुए ठेके पर रखे गये मजदूरों की सीमा को 20 से बढ़ाकर 50 कर दिया गया है और कोर क्षेत्रों समेत उत्पादन के सभी क्षेत्रों में ठेका मजदूरों को काम पर रखने की अनुमति दे दी गयी है।
वास्तव में नये श्रम कानून उन टुकड़े–टुकड़े कोशिशों को कानूनी रूप से एक में समेट देते हैं जिनके जरिये राज्य सरकारें श्रम सम्बन्धी समवर्र्ती सूची में उन्हें दिये गये अधिकारों के तहत प्रमुख श्रम कानूनों में कटौती करती रही हैं। कई राज्यों द्वारा औद्योगिक विवाद अधिनियम, कारखाना अधिनियम, औद्योगिक रोजगार अधिनियम आदि में समय–समय पर संशोधन किये गये। इसके साथ ही विदेशी और घरेलू निवेश को लुभानेे के लिए राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर बहुत से कार्यकारी आदेश परित किये गये। संशोधनों और आदेशों की इस दलदल से सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं।
बेशक, ज्यादातर संशोधन दो खास चीजों पर केन्द्रित रहे हैं, जिनमें से एक है कि लघु और अतिलघु औद्योगिक प्रतिष्ठानों में नियोक्ताओं को यह छूट मिल जाये कि वे अपने प्रतिष्ठानों में श्रम कानून लागू करने को खुद ही प्रमाणित कर सकें और दूसरी यह है कि इन प्रतिष्ठानों को महत्वपूर्ण श्रम कानूनों के दायरे में आने से ही छूट मिल जाये। 2014 में, श्रम कानून (अनिवार्य प्रतिष्ठानों को आय का ब्यौरा देने और लिखित जानकारी रखने से छूट) अधिनियम में ‘‘छोटे’’ प्रतिष्ठानों की परिभाषा को बदलने के लिए संशोधन किया गया था, ताकि कानून में दी गयी मूल परिभाषा से ज्यादा मजदूरों को रोजगार देने वाली इकाइयों को भी इस दायरे में लाया जा सके। अब, नये श्रम कानूनों के साथ केन्द्रीय अधिनियमों में ही संशोधन करके बड़े प्रतिष्ठानों के मजदूरों को कानून द्वारा दी गयी सुरक्षा वापस ले ली गयी है।
असल मायनों में, नये श्रम कानूनों का लाजमी जोर श्रम–पूँजी के रिश्तों की एक मिसाल को आम बना देने पर है, जो राज्य की कम दखलंदाजी या कानूनों में ढील और दोतरफा औद्योगिक रिश्तों पर इसके स्वाभाविक प्रभाव पर आधारित है।
महत्वपूर्ण रूप से, कानूनों में ढील देने की इस मिसाल को ठोस आकार दे देना श्रम की उन शुरुआती औपनिवेशिक अनिश्चित स्थितियों जैसी, कहीं अधिक क्रूर स्थितियों की ओर ले जाने वाले एक कानूनी बदलाव पर मुहर लगा देता है, जिनमें राज्य यह तर्क देते हुए कि मालिक और मजदूर के बीच का सम्बन्ध निजी मामला है, कार्य सम्बन्धों (मालिक और मजदूर के बीच के सम्बन्धों –– अनु–) के बारे में कानून बनाने से बचते हैं। पूरी दूनिया के साथ–साथ भारत में भी सामूहिक श्रम के तेजी से बढ़ते ऐतिहासिक संघर्षों के चलते श्रम और पूँजी के रिश्तों में राज्य का शामिल होना 1920 के दशक से ही एक कायदा बन गया था। जिसके नतीजे के तौर पर एक तीनतरफा (मालिक, मजदूर और राज्य–– अनु–) औद्योगिक तंत्र बना जो 1990 के दशक की शुरुआत में आये उदारीकरण के युग तक कायम रहा।
हालाँकि, एक के बाद एक आने वाली सरकारें तत्कालीन औद्योगिक सम्बन्धों के नियमन से तेजी से पीछे हटती गयीं। इसके साथ ही कार्यस्थल के मामले को एक निजी मामले तक गिरा देने की माँग की जाने लगी, जिसमें नियोक्ता एकतरफा ढंग से मजदूरी तय करने, ओवरटाइम करवाने, मनमर्जी से छुट्टियाँ देने, मुआवजा तय करने, जब चाहे भर्ती करने और जब चाहे निकाल देने जैसे फैसलों के लिए ज्यादा ताकत हासिल कर सके। कार्यस्थल पर आते ही मजदूर पूरी तरह नियोक्ता की मुट्ठी में होना चाहिए। यह देखते हुए कि श्रम के निरीक्षण का काम नियोक्ता द्वारा खुद ही अपने काम को सही ठहरा लेने की व्यवस्था के तहत आ गया है और नियोक्ता ही जाँच करने वाला तीसरा पक्ष बन गया है तो अधिकतम सम्भावना यही है कि नियोक्ताओं की निजी ताकत श्रम कानूनों को लागू करने के साथ–साथ बढ़ेगी। इसके अलावा, मजदूरों के गुस्से को शान्त करने के लिए आपराधिक कानून ढाँचे का इस्तेमाल करने के जरिये होने वाली राज्य की दखलंदाजी पर रोक लग जायेगी। यह प्रवृत्ति पहले ही बढ़ती जा रही है।
कानून कमजोर कर देने का फौरी नतीजा होगा कि असंगठित क्षेत्र के खास कार्य सम्बन्धों की बेहद दमनकारी मिसालें सभी जगह लागू हो जायेंगी। असंगठित क्षेत्र में जहाँ मजदूर वर्ग के ज्यादातर पुरुष और महिलाएँ सघन श्रम के निचले पायदान के कामों को कर रहे हैं वहाँ राज्य की गैरमौजूदगी ने काम के अनुबंध के मामले में नियोक्ताओं के हाथ में जजों की सी फैसलाकुन ताकत दे रखी है। अब, लाजमी तौर पर अनुबंध के सम्बन्ध में नियोक्ताओं की ऐसी बढ़ी हुई निजी ताकत संगठित क्षेत्र के बड़े हिस्से में भी नियम बन जायेगी।
श्रम बाजार के ऊपरी पायदानों पर हुए इस ठोस हमले का निचले पायदानों पर भी एक सीधे दिखायी ना देने वाला प्रभाव पड़ेगा जहाँ असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को हद से ज्यादा ऊँचे पैमाने के शोषण का सामना करना पडे़गा। इसमें कोई शक नहीं कि ज्यादा कुशल मजदूरों की समय–समय पर होने वाली छँटनी से असंगठित क्षेत्र के कम कुशल कामों में भीड़ बढ़ेगी। इसके बाद, मौजूदा असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए दिहाड़ी कम करने, लम्बे समय तक काम करने, काम की मात्रा बढ़ाने आदि के लिए मजबूर किया जायेगा।
श्रम कानूनों को तेजी से कमजोर किये जाने की जड़ में मजदूर आन्दोलन को लगातार गैरकानूनी ठहराया जाना है। इसने श्रम की सामूहिक ताकत को इतना कमजोर कर दिया हैं कि वह कल्याणकारी कानून लागू करवाने में असमर्थ है। इस प्रकार इसने सामाजिक सुरक्षा के कथित विस्तार को ऐसी चीज बना दिया है जिसे मजदूरों का बड़ा हिस्सा कभी हासिल नहीं कर सकता।
अनुवाद –– प्रवीण कुमार
(साभार, इण्डियन एक्सप्रेस, 15 अक्टूबर 2020। इसकी लेखक ‘‘माया जॉन’’ दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर है और एक मजदूर इतिहासकार भी है।)