कोरोना का जवाब विज्ञान है नौटंकी नहीं
09 मई 2020 को विद्या कृष्णन ने ‘कारवाँ’ पत्रिका में छपे अपने लेख “कोरोना का जवाब विज्ञान है नौटंकी नहीं, महामारी पर गलत साबित हुई केंद्र सरकार” में सरकार के कामकाजों का वैज्ञानिक लेखा-जोखा लिया है. वे लिखती हैं कि “कई वैज्ञानिकों ने, जिनसे मैंने लॉकडाउन बढ़ाए जाने के बाद बातचीत की, इस सार्वजनिक-स्वास्थ्य संकट के दौरान विज्ञान को राजनीति और नौटंकी के नीचे रखे जाने पर अपनी निराशा और बेचैनी व्यक्त की. नौटंकीबाजी से आशय भारतीय वायुसेना और भारतीय नौसेना द्वारा 3 मई को किए गए फ्लाइ-पास्ट्स था, जिसमें हेलीकॉप्टरों से भारत के अस्पतालों पर फूल बरसाए गए. इससे पहले थाली और ताली बजाई गई थी और दिये जलाए गए थे.
“महामारी के दौरान सरकार के लिए अपने सार्वजनिक-स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सलाह पर ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है. ऐसा करने में विफलता वेंटीलेटर, बेड, परीक्षण किट और अन्य सुविधाओं को तैयार रखने के मामले में भारत की तैयारी पर गंभीर प्रभाव डाल सकती है. सरकार के लिए महामारी की प्रकृति के बारे में पारदर्शिता बनाए रखना महत्वपूर्ण है, ताकि उसके अनुसार निर्णय लिया जा सके. लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस बात से लगातार इनकार किया है कि भारत वायरस का किसी भी तरह समुदाय संक्रमण हुआ है - भले ही राष्ट्रीय सीमाएं लगभग पांच सप्ताह तक बंद रही हैं.
“4 मई की प्रेस वार्ता में स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने कहा कि भारत का महामारी वक्र "अपेक्षाकृत सपाट" है और यह इस बात पर निर्भर करता है कि जनता कैसे वायरस के प्रति प्रतिक्रिया करती है, महामारी अपने शीर्ष पर "शायद कभी नहीं आए." यह दावा करना स्पष्ट रूप से सही नहीं है कि महामारी वक्र किसी भी मीट्रिक-सापेक्ष या अन्य वजहों से-तीव्र वृद्धि की अवधि के दौरान समतल है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि शीर्ष पर शायद कभी नहीं आने का दावा करने से अग्रवाल का मतलब क्या था. अब तक भारत नए मामलों के संबंध में अपने चरम पर है और ऐसा लगता है कि यह अभी और ऊपर उठेगा. लेकिन 5 मई कोस्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा की कि वह वायरस के पैमाने के लिए दिन में केवल एक बार संख्या जारी करेगा. पहले दो बार संख्या जारी होती थी. मंत्रालय ने निर्णय के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया.”
05 मई 2020 को विद्या कृष्णन अपने लेख “कोरोना के लिए अल्पसंख्यक समाज को निशाना बना कर एड्स महामारी वाली गलती दोहरा रही सरकार” में सरकार द्वारा मुसलमानों को दोषी ठहराए जाने पर सवाल उठाया है. वे लिखती हैं कि “यह कोई अभूतपूर्व घटना नहीं थी- पिछली महामारियों में भी अप्रत्याशित सार्वजनिक-स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए लगातार अपने अल्पसंख्यकों को दोषी ठहराया जाता रहा है. आज भारत में मुसलमानों को उसी तरह दोषी ठहराया जाता है जैसे एचआईवी महामारी के शुरुआती वर्षों में, वायरस फैलाने के लिए दुनिया भर में समलैंगिकों को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया था. एचआईवी तब इसलिए पूरी दुनिया में फैल पाया और लोगों की जान इसलिए गई क्योंकि बेशकीमती वक्त अल्पसंख्यकों को गुनाहगार साबित करने में खर्च कर दिया गया. मुस्लिम अल्पसंख्यक पर केंद्रित इसी तरह की कार्रवाई के साथ, मोदी प्रशासन ने कोविड-19 महामारी को भारत में फैलने दिया है.
“पूरे इतिहास में हम पाते हैं कि महामारियों ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ नस्लवाद और कट्टरता को भड़काया है. अपने शोध में मैंने बार-बार पाया है कि महामारी को लेकर शुरुआती प्रतिक्रिया यह रही है कि महामारी के होने से ही इनकार किया जाता है. स्थानीय अधिकारी कार्रवाई करने में देर करते रहे हैं और सरकारें महामारी के प्रकोप की व्यापकता से इनकार करने के लिए महामारी से प्रभावित व्यक्तियों की संख्या के आंकड़ों की जोड़-तोड़ में लगी रहती है. उदाहरण के लिए, स्पैनिश फ्लू स्पेन में नहीं पैदा हुआ था. इसने यह नाम प्राप्त किया क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्लू फैल गया था, एक बिंदु पर जब जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस सभी में ऐसी मीडिया और सरकारें थीं जो मौतों की संख्या का खुलासा नहीं करना चाहती थीं. इसके चलते जबकि इन देशों में समाचार पत्रों को नियंत्रित करने के लिए सेंसर किया गया था, स्पेन, जो युद्ध के दौरान एक तटस्थ देश था, वायरस के प्रसार पर रिपोर्ट करता था. इसलिए इसे "स्पैनिश" फ्लू कहते हैं. लेकिन महामारी में मारे गए लाखों लोगों में से 260000 से कम स्पेन में मरे थे. 1918 के फ्लू और वर्तमान कोरोनावायरस में जो बात समान है वह यह कि वायरस के लिए बाहरी कारण पर दोष मढ़ना.
“भारत के मुस्लिम समुदाय को लेकर गलत जानकारी देने के बारे में कई अंतर्राष्ट्रीय समाचार संस्थानों की रिपोर्टिंग के साथ महामारी को लेकर मोदी प्रशासन की इस्लामोफोबिक प्रतिक्रिया की दुनिया भर में निंदा हुई है. इनमें द गार्जियन, टाइम, द इंटरसेप्ट, फॉरेन पॉलिसी, बीबीसी, सीएनएन और न्यूयॉर्क टाइम्स शामिल हैं. 25 अप्रैल को प्रतिष्ठित चिकित्सा पत्रिका द लैंसेट ने एक संपादकीय प्रकाशित की जिसका शीर्षक था, "लॉकडाउन में भारत," जिसमें यह चिन्हित किया गया था, "भारत में कोविड-19 की प्रतिक्रिया के लिए एक खतरा, भय, अपमान और दोषारोपण से प्रेरित गलत सूचना का प्रसार है.... तबलिगी जमात से जुड़ी एक सभा के बाद से उनकी पहचान कई मामलों के लिए जिम्मेदार के तौर पर की गई और मुस्लिम विरोधी भावना और हिंसा को फैलाने के लिए महामारी का इस्तेमाल किया गया है." मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय को बदनाम करने वाली गलत सूचनाओं की धीमी गति अचानक सूनामी में बदल गई जिसके चलते संयुक्त अरब अमीरात के शाही परिवार के एक सदस्य के साथ एक शर्मनाक कूटनीतिक घटना हुई, जो भारतीयों द्वारा ''नस्लवादी और भेदभावपूर्ण" टिप्पणियों की आलोचना कर रहे थे.
“सरकार ने अपने लोगों को राहत पहुंचाने में हुई अपनी विफलता को छिपाने की अपनी अनंत क्षमता का प्रदर्शन किया है. लॉकडाउन को खराब ढंग से लागू करने से उपजी भोजन की कमी ने सैकड़ों-हजारों प्रवासियों को भुखमरी की दहलीज पर खड़ा कर दिया है. इतिहास याद रखेगा कि भारत के खाद्यान्न भंडार अटे पड़े थे लेकिन फिर भी भारत के लोग भुखमरी से मर रहे थे.
“औपचारिक रूप से मोदी ने अब तक संकट की किसी भी जिम्मेदारी को रत्ती भर भी स्वीकार नहीं किया है. एक या दो साल में जब तक यह धूल नहीं छंटती तब तक हम खुद को एक ऐसे निर्दयी समाज के रूप में जाहिर करते रहेंगे जो निर्दयता से शासित था.”
28 अप्रैल 2020 को विद्या कृष्णन अपने लेख “कोरोना जांच किट में मुनाफाखोरी, दिल्ली हाई कोर्ट की सुनवाई में हुआ खुलासा” में जाँच-किट में हुई धांधली का खुलासा करती हैं. वे लिखती हैं, “26 अप्रैल को तीन निजी कंपनियों के बीच के विवाद से हमें पता चला कि केंद्र सरकार ने कोविड एंटीबॉडी जांच किट की खरीद 145 प्रतिशत महंगी दर में होने दी है. कोर्ट के फैसले से भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है. अदालत के फैसले से खुलासा हुआ कि आईसीएमआर ने पांच लाख किटों के लिए 30 करोड़ रुपए का भुगतान मंजूर किया था. इस भुगतान में बिचौलिया कंपनियों का मुनाफा 18.75 करोड रुपए होता. अगले दिन जब यह समाचार प्रकाशित हुआ तो केंद्र सरकार ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर खरीद को रद्द करने की घोषणा कर दी.
“रद्द समझौते में महामारी से निपटने में भारत की कमजोरी भी दिखाई देती है. भारत खतरनाक हद तक कम टेस्ट कर रहा है. आउर वर्ल्ड इन डेटा के अनुसार भारत ने 26 अप्रैल तक 625309 टेस्ट किए हैं जो प्रति हजार 0.45 मात्र है. यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति के हिसाब से दुनिया में सबसे कम है. भारत ने कम टेस्ट करने के अपने निर्णय का लगातार बचाव किया है और यह महामारी से लड़ने के लिए लॉकडाउन और सोशल डिसटेंसिंग पर मुख्य रूप से निर्भर है. सरकार ने भारत में सामुदायिक संक्रमण की बात से इनकार किया है और बार-बार दावा किया है कि भारत में महामारी “रेखीय गति से बढ़ रही है.”
साभार कारवाँ