अप्रवासी कामगार और उनके बच्चों का असुरक्षित भविष्य
एक ओर तो अप्रवासी मजदूरी का काम उनके परिवार के लिए जीवन निर्वाह के साधन मुहैया करता है, वहीं उनके लिए भारी जोखिम भी पैदा कर देता है। इस जोखिम का सबसे अधिक असर अप्रवासी मजदूरों के बच्चों को ही झेलना पड़ता है। ये बच्चे अक्सर अपने माँ–बाप के साथ उनकी मजदूरी के ठिकानों पर जाने के लिए विवश होते हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में अपने परिवारों पर आश्रित लगभग साठ लाख अप्रवासी मजदूरों के बच्चे हर साल अपने माँ–बाप के साथ भटकते रहते हैं। कई लाख बच्चों पर इसका परोक्ष रूप में असर पड़ता है और इनमें से अधिकांश बच्चे माँ–बाप की अनुपस्थिति में कोई न कोई घरेलू जिम्मेदारी उठाने के लिए विवश होते हैं। दुर्भाग्यवश केन्द्र और राज्य दोनों ही स्तरों पर भारतीय प्रशासन ने अप्रवासी मजदूरों के बच्चों के कल्याण को प्राथमिकता नहीं दी है और ये बच्चे उपेक्षित होते रहे हैं। और इन बच्चों की इस समस्या को हल करने के लिए कोई भी आगे नहीं आया है।
राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य के उत्तर और पूर्व में रहने वाले अनुसूचित जनजाति के गरीब अप्रवासी मजदूरों के लिए मध्य गुजरात के शहरी इलाके लोकप्रिय ठिकाने रहे हैं। गुजरात के र्इंट भट्टों, सूत की कताई, निर्माण कार्य, और कृषि उद्योगों के लिए अधिकांश मौसमी मजदूर इन्हीं इलाकों से आते हैं। दक्षिणी गुजरात में अनुसूचित जनजाति के अनेक परिवार (अधिकांशत: भील और गरसिया जनजाति के लोग) दो–जून रोटी के लिए अप्रवासन पर ही निर्भर रहते हैं।
भारी गरीबी के कारण अप्रवासी मजदूरों में महिला अप्रवासियों की संख्या बहुत ज्यादा है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड मोसे के नेतृत्व में सन् 1997 में इस इलाके के अप्रवासन पर किये गये अध्ययन के अनुसार अप्रवासी मजदूरों में महिलाओं की संख्या 42 प्रतिशत है। दक्षिणी राजस्थान में गाँवों में किये गये एक सर्वेक्षण से यह पता चलता है कि गुजरात में अप्रवासन के लिए आने वाले 75 प्रतिशत महिला अप्रवासी मजदूर और 82 प्रतिशत पुरुष अप्रवासी मजदूर अपने पूरे जीवन में कम से कम एक बार तो गुजरात में अवश्य रहे हैं। एक ओर जहाँ इस इलाके के अनुसूचित जनजाति के लगभग सभी परिवारों के पास कुछ न कुछ जमीनें हैं, वहीं उनकी जोत छोटी हैं और अनुत्पादक भी। और सिंचाई की सुविधा तो और भी कम लोगों के पास है। एक समय था, जब ये लोग अपनी आजीविका के लिए जंगल पर निर्भर रहते थे, लेकिन इस इलाके में जंगल के भारी विनाश के कारण इन समुदायों के पास अब आजीविका के और भी कम अवसर बचे हैं। इनमें से कुछ लोग तो अनियमित मजदूरी से अपना भरण–पोषण कर लेते हैं, लेकिन अधिकांश लोग स्थानीय साहूकारों के कर्ज और आर्थिक असुरक्षा के कारण आर्थिक बोझ से दबे रहते हैं। चूँकि इनकी अधिकतर आमदनी का स्रोत अप्रवासी मजदूरी ही है, इसलिए दक्षिणी राजस्थान में मनरेगा के कार्यक्रम का इनके परिवारों के अप्रवासी पैटर्न पर बहुत कम असर हुआ है। सर्वेक्षण के अनुसार 79 प्रतिशत प्रौढ़ मजदूरों ने इस कार्यक्रम में कम से कम एक बार भाग तो लिया ही है, लेकिन उन्होंने एक साल के अन्दर अप्रवासन करके मजदूरी भी की है।
आजीविका के लिए अप्रवासी मजदूरी पर निर्भर रहने से परिवार पर भारी बोझ भी पड़ता है। अप्रवासन करने वाले अधिकांश सीमान्त समुदायों के लिए जरूरी हो जाता है कि सारा परिवार ही कार्यस्थल पर उनके साथ रहे, क्योंकि अपने ही गाँव में बच्चों को छोड़ने के लिए उनके पास कोई ठौर–ठिकाना नहीं होता। श्रमिक अनुसन्धान व कार्य प्रयास केन्द्र के एक अनुमान के अनुसार केवल र्इंट के भट्टों पर ही स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या 8,40,000 है। बाँसवाड़ा में यह देखा गया कि 34 अप्रवासी मजदूर परिवारों के पास कम से कम एक साल में एक बच्चा तो उनके साथ अवश्य ही रहता है। बारह साल की उम्र के बाद बच्चे भी निर्माण स्थलों पर अपने माँ–बाप की मदद करने लगते हैं, लेकिन र्इंट के भट्टों पर तो ये बच्चे पाँच साल की उम्र से ही काम करना शुरू कर देते हैं। पीस–मील मजदूरी प्रणाली में तो बाल श्रमिकों को प्रोत्साहन मिलता है।
कार्यस्थलों पर बच्चों को चोट लगने और बीमार पड़ने की आशंका के साथ–साथ वे शोषण के भी शिकार होते हैं। साथ ही वे शैक्षणिक अवसरों से भी वंचित हो जाते हैं। अगर वे शिक्षित हो जाते तो शायद गरीबी के दुश्चक्र से भी छुटकारा पाने की गुंजाइश हो सकती थी। हालाँकि इस क्षेत्र में अमरीकन इण्डिया फाउण्डेशन (एआईएफ) के वित्तपोषण से चलने वाले अनेक गैर–सरकारी संगठन (एनजीओ) कार्यस्थलों पर ही बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं फिर भी कार्यस्थलों के परिवेश को शिक्षा के अनुकूल बनाना आसान नहीं है। और इस प्रकार के प्रयासों से बहुत मामूली लाभ ही हो पाता है। तदनुसार तीन राज्यों के बहुत अधिक अप्रवासन वाले इलाकों में अप्रवासी छात्रावास कार्यक्रम चलाने वाले एआईएफ ने, अपने शिक्षण व अप्रवासन सम्बन्धी कार्यक्रम ‘लिटरेसी एग्रीकल्चर एण्ड मेडिकल प्रोजेक्ट फोर रूरल डेवलपमेन्ट’ (लैम्प) को स्रोत व गन्तव्य, दोनों ही क्षेत्रों पर दोहरा ध्यान देने के बजाय पूरी तरह से स्रोत–गाँव (रिसोर्स विलेज) केंद्रित प्रयास शुरू कर दिये हैं।
जिन बच्चों के माँ और बाप दोनों ही अप्रवासी मजदूरी के लिए गाँव से बाहर चले जाते हैं, उनके कन्धों पर अधिकांश या फिर सारी की सारी घरेलू जिम्मेदारी आ जाती है। इसके कारण दक्षिणी राजस्थान में ऐसे घरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जिनका संचालन बच्चे ही करते हैं। हाल ही में ‘सेव द चिल्ड्रन’ (‘बच्चों को बचाओ’) संगठन ने इस विषय पर एक दस्तावेज तैयार किया है। माँ–बाप की अनुपस्थिति में बारह साल की उम्र के जो बच्चे घर की पूरी जिम्मेदारी सँभालते हैं और छोटे भाई–बहनों की देखभाल करते हैं, उनके पास स्कूल जाने का समय ही नहीं बचता। बाँसवाड़ा के अधिकांश प्राथमिक स्कूलों में खास तौर पर दिवाली के बाद अप्रवासन के मौसम के बाद जैसे–जैसे शैक्षणिक सत्र आगे बढ़ता है, छात्रों की उपस्थिति कम होती जाती है।
छात्रों को स्कूल प्रणाली के अन्तर्गत दुबारा लाना सचमुच एक चुनौती है। खास तौर पर अनुसूचित जनजाति वाले इलाकों में स्कूल न जाने वाले छात्रों की संख्या वहाँ अधिक है जहाँ अप्रवासन के कारण बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। इसलिए ड्रॉप आउट को रोकने के लिए किये जाने वाले प्रयासों पर निवेश करने में ही समझदारी है। अप्रवासी छात्रावास और कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय ( जो आवासीय प्राथमिक बालिका विद्यालयों का एक कार्यक्रम है) दो ऐसी संस्थाएँ हैं जो अप्रवासन के कारण होने वाले ड्रॉप आउट को कम करने में कुछ हद तक कारगर सिद्ध हुई हैं। इन दोनों कार्यक्रमों को मान्यता देकर बाल मजदूरी और ड्रॉप आउट को रोकने की सरकारी रणनीति को सफल बनाया जा सकता है। लेकिन इस समस्या पर सिर्फ गैर सरकारी संगठनों के ऊपर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता। लेकिन नवउदारवादी दौर में सामाजिक सुरक्षा पर भारी बजट कटौती को देखते हुए इस दिशा में किसी सरकारी प्रयास की उम्मीद नहीं दिखती। देश की भावी पीढ़ी के प्रति यह लापरवाही अत्यन्त क्षोभजनक है।
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