सामाजिक न्याय की अवधारणा
एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है। इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वे ‘उत्तम जीवन’ की अपनी संकल्पना को धरती पर उतार पाएँ। विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में नीतिगत रूप में राजनीतिक सिद्धान्त के दायरे में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा और उससे जुड़ी अभिव्यक्तियों का समावेश किया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उसका अर्थ हमेशा सुस्पष्ट ही होता है। सिद्धान्तकारों ने इस विचार का अपने–अपने तरीके से इस्तेमाल किया है। व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में भी, भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय का नारा वंचित समूहों की राजनीतिक गोलबन्दी का एक प्रमुख आधार रहा है। उदारतावादी मानकीय राजनीतिक सिद्धान्त में उदारतावादी–समतावाद से आगे बढ़ते हुए सामाजिक न्याय के सिद्धान्तीकरण में कई आयाम जुड़ते गये हैं। मसलन, अल्पसंख्यक अधिकार, बहुसंस्कृतिवाद, मूल निवासियों के अधिकार आदि। इसी तरह, नारीवाद के दायरे में स्त्रियों के अधिकारों को लेकर भी विभिन्न स्तरों पर सिद्धान्तीकरण हुआ है और स्त्री–सशक्तिकरण के मुद्दों को उनके सामाजिक न्याय से जोड़ कर देखा जाने लगा है।
हालाँकि एक विचार के रूप में विभिन्न धर्मों की बुनियादी शिक्षाओं में सामाजिक न्याय के विचार को देखा जा सकता है, लेकिन अधिकांश धर्म या सम्प्रदाय जिस व्यावहारिक रूप में सामने आये या बाद में जिस तरह उनका विकास हुआ, उनमें कई तरह के ऊँच–नीच और भेदभाव जुड़ते गये। समाज–विज्ञान में सामाजिक न्याय का विचार उत्तर–ज्ञानोदय काल में सामने आया और समय के साथ अधिकाधिक परिष्कृत होता गया। क्लासिकीय उदारतावाद ने मनुष्यों पर से हर तरह की पुरानी रूढ़ियों और परम्पराओं की जकड़न को खत्म किया और उसे अपने मर्जी के हिसाब से जीवन जीने के लिए आजाद किया। इसके तहत हर मनुष्य को स्वतंत्रता देने और उसके साथ समानता का व्यवहार करने पर जोर जरूर था, लेकिन ये सारी बातें औपचारिक स्वतंत्रता या समानता तक ही सिमटी हुई थीं। बाद में उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में कई उदारतावादियों ने राज्य के हस्तक्षेप द्वारा व्यक्तियों की आर्थिक भलाई करने और उन्हें अपनी स्वतंत्रता को उपभोग करने में समर्थ बनाने की वकालत की। समाजवादियों ने भी एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक आधार पर लोगों के साथ भेदभाव न होता हो। स्पष्टत: इन सभी विचारों में सामाजिक न्याय के प्रति गहरा सरोकार था। इसके बावजूद मार्क्स ने इन सभी विचारों की आलोचना की और जोर दिया कि न्याय जैसी अवधारणा की आवश्यकता पूँजीवाद के भीतर ही होती है क्योंकि इस तरह की व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर कब्जा जमाये कुछ लोग बहुसंख्यक सर्वहारा का शोषण करते हैं। उन्होंने क्रान्ति के माध्यम से एक ऐसी व्यवस्था कायम करने का लक्ष्य रखा जहाँ हर किसी को अपनी क्षमता के अनुसार काम करने और अपनी आवश्यकता के अनुसार चीजें हासिल करने की परिस्थितियाँ प्राप्त हों।
वहीं उदारतावाद और पूँजीवाद ने आन्तरिक जटिलताओं के कारण दुनिया को दो विश्व–युद्धों, महामन्दी, फासीवाद और नाजीवाद जैसी विभीषिकाओं में धकेल दिया। पूँजीवाद को संकट से उबारने के लिए पूँजीवादी देशों में क्लासिकीय उदारतावादी सूत्र से लेकर कींसवादी नीतियों तक हर सम्भव उपाय अपनाने की कोशिश की गयी। इस पूरे सन्दर्भ में सामाजिक न्याय की बातें नेपथ्य में चली गयीं या सिर्फ इनका दिखावे के तौर पर प्रयोग किया गया। इसी दौर में उपनिवेशवाद के खिलाफ चलने वाले संघर्षों में मानव–मुक्ति और समाज के कमजोर तबकों के हकों आदि की बातें जोरदार तरीके से उठायी गयीं। खास तौर पर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सभी तबकों के लिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर गम्भीर बहस चली। इस बहस से ही समाज के वंचित तबकों के लिए संसद–वि/ाान सभाओं और नौकरियों में आरक्षण, अल्पसंख्यकों को अपनी आस्था के अनुसार अधिकार देने और अपनी भाषा का संरक्षण करने जैसे प्रावधानों पर सहमति बनी। बाद में ये सहमतियाँ भारतीय संविधान का भाग बनीं।
इसी के साथ–साथ मानकीय उदारतावादी सिद्धान्त में राज्य द्वारा समाज के कुछ तबकों की भलाई या कल्याण के लिए ज्यादा आय वाले लोगों पर टैक्स लगाने का मसला विवादास्पद बना रहा। कींस ने पूँजीवाद को मन्दी से उबारने के लिए राज्य के हस्तक्षेप के जरिये रोजगार पैदा करने के प्रावधानों का सुझाव दिया, लेकिन फ्रेड्रिख वान हायक, मिल्टन फ्रीडमैन और बाद में रॉबर्ट नॉजिक जैसे विद्वानों ने आर्थिक गतिविधियों में राज्य के हस्तक्षेप की आलोचना की। इन लोगों का मानना था कि इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता और आर्थिक आजादी को चोट पहुँचती है। जॉन रॉल्स ने 1971 में अपनी किताब अ थियरी ऑफ जस्टिस में ताकतवर दलीलें दीं, आखिर क्यों समाज के कमजोर तबकों की भलाई के लिए राज्य को सक्रिय हस्तक्षेप करना चाहिए। अपनी थियरी में रॉल्स शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए वितरणमूलक न्याय के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश करते हुए दिखायी देते हैं। अपने न्याय के सिद्धान्त में उन्होंने हर किसी को समान स्वतंत्रता के अधिकार की तरफदारी की। इसके साथ ही भेदमूलक सिद्धान्त के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि सामाजिक और आर्थिक अन्तरों को इस तरह समायोजित किया जाना चाहिए कि इससे सबसे वंचित तबके को सबसे ज्यादा फायदा हो।
बाद के वर्षों में रॉल्स के सिद्धान्त की कई आलोचनाएँ भी सामने आयीं, जो दरअसल सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में कई नये आयामों का प्रतिनिधित्व करती थीं। इस सन्दर्भ में समुदायवादियों और नारीवादियों द्वारा की गयी आलोचनाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। समुदायवादियों ने सामान्य तौर पर उदारतावाद और विशेष रूप से रॉल्स के सिद्धान्त की इसलिए आलोचना की कि इसमें व्यक्ति की अणुवादी संकल्पना पेश की गयी है। रॉल्स जिस व्यक्ति की संकल्पना करते हैं वह अपने सन्दर्भ और समुदाय से पूरी तरह कटा हुआ है। बाद में, 1980 के दशक के आखिरी वर्षों में, उदारतावादियों ने समुदायवादियों की आलोचनाओं को उदारवादी के भीतर समायोजित करने की कोशिश की जिसके परिणामस्वरूप बहुसंस्कृतिवाद की संकल्पना सामने आयी। इसमें यह माना गया कि अल्पसंख्यक समूहों के साथ वास्तविक रूप से तभी न्याय हो सकता है, जब उन्हें अपनी संस्कृति से जुड़े विविध पहलुओं की हिफाजत करने और उन्हें सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने की आजादी मिले। इसके लिए यह जरूरी है कि इनके सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाये। इस तरह सैद्धान्तिक विमर्श के स्तर पर बहुसंस्कृतिवाद ने सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा।
यहाँ उल्लेखनीय है कि साठ के दशक से ही पश्चिम में नारीवादी आन्दोलन, नागरिक अधिकार आन्दोलन, गे, लेस्बियन और ट्रांस–जेण्डर आन्दोलन और पर्यावरण आन्दोलन आदि उभरने लगे थे। बाद के दशकों में इनका प्रसार ज्यादा बढ़ा और इन्होंने सैद्धान्तिक विमर्श को भी गहराई प्रदान की। मसलन, नारीवादियों ने उदारतावाद और रॉल्सवादी रूपरेखा की आलोचना की। अपने विश्लेषण द्वारा उन्होंने पितृसत्ता को नारीवादियों के समान हक के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट के रूप में रेखांकित किया। इसी तरह, गे, लेस्बियन और ट्रांस–जेण्डर लोगों ने समाज में ‘सामान्य’ या ‘नार्मल’ की वर्चस्वी रूपरेखा पर सवाल उठाया और अपने लिए समान स्थिति की माँग की। नागरिक अधिकार आन्दोलनों द्वारा पश्चिम में, खास तौर पर अमरीकी समाज में काले लोगों ने अपने लिए बराबरी की माँग की। मूल निवासियों ने भी अपने सांस्कृतिक अधिकारों की माँग करते हुए बहुत सारे आन्दोलन किये हैं। बहुसंस्कृतिवादियों ने अपनी सैद्धान्तिक रूपरेखा में इन सभी पहलुओं को समेटने की कोशिश की है। इन सभी पहलुओं ने सामाजिक न्याय के अर्थ में कई नये आयाम जोड़े हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विविध समूहों के लिए सामाजिक न्याय का अलग–अलग अर्थ रहा है।
असल में विकासशील समाजों में पश्चिमी समाजों की तुलना में सामाजिक न्याय ज्यादा रैडिकल रूप में सामने आया है। मसलन, दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत लोगों ने रंगभेद के खिलाफ और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के लिए जोरदार संघर्ष किया। इस संघर्ष की प्रकृति अमरीका में काले लोगों द्वारा चलाये गये संघर्ष से इस अर्थ में अलग थी कि दक्षिण अफ्रीका में काले लोगों को ज्यादा दमनकारी स्थिति का सामना करना पड़ रहा था। इस सन्दर्भ में भारत का उदाहरण भी उल्लेखनीय है। बहुसंस्कृतिवाद ने जिन सामुदायिक अधिकारों पर जोर दिया उनमें से कई अधिकार भारतीय संविधान में पहले से ही दर्ज हैं। लेकिन यहाँ सामाजिक न्याय वास्तविक राजनीति में संघर्ष का नारा बन कर उभरा। मसलन, भीमराव आम्बेडकर और उत्पीड़ित जातियों और समुदायों के कई नेता समाज के हाशिये पर पड़ी जातियों को शिक्षित और संगठित होकर संघर्ष करते हुए अपने न्यायपूर्ण हक को हासिल करने की विरासत रच चुके थे। इसी तरह पचास और साठ के दशक में राममनोहर लोहिया ने इस बात पर जोर दिया कि पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को एकजुट होकर सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करना चाहिए। लोहिया चाहते थे कि ये समूह एकजुट होकर सत्ता और नौकरियों में ऊँची जातियों के वर्चस्व को चुनौती दें। इस पृष्ठभूमि के साथ नब्बे के दशक के बाद सामाजिक न्याय भारतीय राजनीति का एक प्रमुख नारा बनता चला गया। इसके कारण अभी तक सत्ता से दूर रहे समूहों को सत्ता की राजनीति के केन्द्र में आने का मौका मिला। गौरतलब है कि भारत में भी पर्यावरण के आन्दोलन चल रहे हैं। लेकिन ये लड़ाइयाँ स्थानीय समुदायों के अपने ‘जल, जंगल और जमीन’ के संघर्ष से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह विकासशील समाजों में अल्पसंख्यक समूह भी अपने खिलाफ पूर्वग्रहों से लड़ते हुए अपने लिए ज्यादा बेहतर सुविधाओं की माँग कर रहे हैं। इस अर्थ में सामाजिक न्याय का संघर्ष लोगों के अस्मिता से जुड़ा हुआ संघर्ष है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक न्याय के नारे ने विभिन्न समाजों में विभिन्न तबकों को अपने लिए गरिमामय जिन्दगी की माँग करने और उसके लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया है। सैद्धान्तिक विमर्श में भी यूटोपियाई समाजवाद से लेकर वर्तमान समय तक सामाजिक न्याय में बहुत सारे आयाम जुड़ते गये हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि विकसित समाजों की तुलना में विकासशील समाजों में सामाजिक न्याय का संघर्ष बहुत जटिलताओं से घिरा रहा है। अधिकांश मौकों पर इन समाजों में लोगों को सामाजिक न्याय के संघर्ष में बहुत ज्यादा संरचात्मक हिंसा और कई मौकों पर राज्य की हिंसा का भी सामना करना पड़ा है। लेकिन सामाजिक न्याय के लिए चलने वाले संघर्षों के कारण इन समाजों में बुनियादी बदलाव हुए हैं। कुल मिला कर समय के साथ सामाजिक न्याय के सिद्धान्तीकरण में कई नये आयाम जुड़े हैं और एक संकल्पना या नारे के रूप में इसने लम्बे समय तक खामोश या नेपथ्य में रहने वाले समूहों को भी अपने के लिए जागृत किया है।
गौरतलब है कि सामाजिक न्याय का प्रश्न वर्ग संघर्ष के व्यापक, सर्वसमावेशी और निर्णायक संघर्ष के अंग के रूप में ही सार्थक हो सकता है। वर्ग संघर्ष अस्मिता के साथ–साथ अस्तित्व के प्रश्न को कहीं ज्यादा महत्व देता है, जबकि अस्मिता के दायरे में सामाजिक न्याय की बात करने वाले समूह अमूमन अस्तित्व के लिए संघर्ष के प्रश्नों पर चुप्पी सा/ा लेते हैं। यहाँ तक कि उनके कई पैरोकार /ाुर दक्षिणपंथ के साझेदार हो जाते हैं। निश्चय ही सामाजिक न्याय का प्रश्न इतिहास का बैकलॉग है जिसके लिए संघर्ष जरूरी है, लेकिन अस्मिता और अस्तित्व के संयुक्त प्रश्न उठाकर ही असानता का स्थायी निदान प्रस्तुत करना सम्भव है।
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