अक्टूबर 2019, अंक 33 में प्रकाशित

साम्राज्यवादी संस्कृति

भारत में 1991 से वैश्वीकरण की जो आँधी चलायी गयी, इसने देश की अर्थव्यवस्था के साथ–साथ सांस्कृतिक जीवन पर भी गहरा असर डाला। यहाँ के खान–पान, रहन–सहन, आदतों और पहनावों में व्यापक बदलाव आया। यहाँ तक कि भाषा भी अछूती नहीं रही। पहली बार लोगों को पता चला कि ब्रिटिश अंग्रेजी और अमरीकी अंग्रेजी का हिज्जे अलग–अलग होता है। यानी अमरीकी अंग्रेजी में फरमान आने लगे। अमरीकी जीवन शैली, कोक–पेप्सी, मैकडोनल पिज्जा, हिंसक और अश्लील फैंटेसी फिल्में, इन्टरनेट, आदि का चलन बढ़ गया। इनसान के मनोविज्ञान में भी बड़ा बदलाव आया–– तनाव, अवसाद, अलगाव और आत्महत्या की प्रवृत्तियों में वृद्धि हुई।

भारत पर अमरीका का सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करने की दिशा में “अमरीकन वे ऑफ लाइफ” यानी अमरीकी जीवन शैली को बढ़ावा दिया गया। इसके लिए न केवल कोको–कोला, मैकडोनाल्ड, डोमिनोज, पिज्जा हट, केएफसी आदि जंक फूड्स को बाजार में उतारा गया बल्कि इसके जरिये स्थानीय खान–पान की आदतों में भी बदलाव करने की कोशिश की गयी। जंक फूड्स ऐसे खाद्य पदार्थ होते हैं जिसे तेजी से पकाया और खाया जा सकता है। इसलिए वे व्यापार की दृष्टि से लाभदायक होते हैं और भरपूर मुनाफा देते हैं, जबकि यह मानी हुई बात है कि जंक फूड्स स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक होते हैं।

दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होते–होते “कोकाकोलोनाजेशन” (कोका–उपनिवेशीकरण) शब्द बहुत प्र्रचलित हुआ था, जिसे अब लगभग भुला दिया गया है। इसका शाब्दिक अर्थ है–– कोकाकोला कोल्डड्रिंक के जरिये किसी देश को गुलाम बनाना। उस महायुद्ध के दौरान हिटलर ने जर्मनी में कोक कम्पनी के व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। लेकिन अमरीका की इस कम्पनी ने अपनी बोतल पर स्वास्तिक के निशान को छापने से परहेज नहीं किया, जो हिटलर की पार्टी का निशान था। सभी जानते हैं कि हिटलर इनसानियत का कितना बड़ा दुश्मन था, जबकि अमरीका खुद को लोकतंत्र के रखवाले के रूप में पेश करता था और आज भी करता है। इसके बावजूद कोक कम्पनी ने स्वास्तिक के निशान को छापने का कदम उठाया, जिसके बाद हिटलर ने इस कम्पनी के व्यापार से प्रतिबन्ध हटा दिया। दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर का फासीवाद पराजित हुआ और सोवियत संघ के युद्ध के हीरो रहे मार्शल झुकोव ने कोकाकोला का स्वागत किया। लेकिन रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति स्तालिन ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया और इसे “साम्राज्यवादी प्रतीक” बताया था। इन ऐतिहासिक तथ्यों से साफ पता चलता है कि कोक के लिए उसका व्यापार पहले स्थान पर है, उसे किसी भी देश या व्यवस्था से कोई परहेज नहीं।

1994 में रेनोल्ड वैगनलेटनर ने अपनी किताब ‘कोका–कोलोनाइजेशन एण्ड कोल्ड वार : द कल्चरल मिशन ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स इन ऑस्ट्रिया ऑफ्टर सेकण्ड वर्ल्ड वार’ में लिखा कि अमरीका यूरोप में अपनी अमरीकी जीवन शैली का निर्यात करके वहाँ सांस्कृतिक साम्राज्यवाद स्थापित कर रहा है। इसके तहत वह कोका–कोला, लेवी जींस, रॉक एण्ड रोल और मार्लों बाण्डों की ब्लैक लेदर जैकेट के व्यापार को इस बहाने यूरोप में बढ़ावा दे रहा है कि वह वहाँ “लोकतंत्र” लाना चाहता है।––– शीत युद्ध के अन्त में कोका–कोला कम्पनी ने कम्युनिज्म से लड़ने के लिए अमरीकी जीवन शैली को खूब प्रचारित–प्रसारित किया। बर्लिन की दीवार ढहने पर पूर्वी जर्मनी के लोगों को कोका–कोला ने अपना कोल्डड्रिंक भेंट करके “लोकतंत्र” का उपहार दिया था। इस तरह अमरीका कोका–कोला के माध्यम से दुनिया में “लोकतंत्र” का निर्यात कर रहा है।

दूसरी ओर, अमरीकी सैनिक अपने हथियारों के दम पर तमाम देशों की जनता का खून बहाकर उसे लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहे हैं। दुनिया भर में वे जहाँ–कहीं भी हमला करने गये, कोक को साथ लेकर गये। विरोधियों के खेमें में फूट डालने और उनमें से कुछ को अपनी ओर मिलाने में कोका कोल्डड्रिंक का इस्तेमाल मछली के चारे की तरह किया गया। आज दुनिया भर में कोक के रूप में अमरीका हर जगह मौजूद है। कोक कम्पनी जिस देश में गयी, वहाँ के स्थानीय पेय को बाजार से बाहर ढकेल दिया और पूरे बाजार पर कब्जा कर लिया। आज कोक 200 देशों में कोल्डड्रिंक, नमकीन, चिप्स जैसे कई अन्य तरह के उत्पाद बेच रही है।

दुनिया के बाजार पर राज करने की कोक की राह इतनी आसान नहीं रही है। इटली, फ्रांस, आस्ट्रिया और कई अन्य देशों की जनता कोक द्वारा बाजार पर कब्जा करने और सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने के खिलाफ शानदार संघर्ष कर चुकी है। 1950 में कोक कम्पनी भारत में पहली बार आयी। लेकिन 1977 में जब विदेशी पूँजी पर शिकंजा कसा गया, तो यह भारत छोड़कर चली गयी। 1990–91 में जब विदेशी पूँजी के लिए देश का दरवाजा खोल दिया गया, तो उसका फायदा उठाते हुए 1992 में वह फिर से भारत में आ धमकी। 2004–05 के दौरान केरल के प्लाचीमाडा गाँव के लोगों ने कोका–कोला द्वारा प्रदूषण फैलाने और भूजल का नाश करने के खिलाफ बेहतरीन संघर्ष किया और इलाके से इस कम्पनी को भगाया।

अमरीकी जीवन शैली को बढ़ावा देने वाली दूसरी बहुराष्ट्रीय कम्पनी है–– वाल्ट डिजनी। यह मास मीडिया और मनोरंजन परोसने वाली अमरीका की ऐसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी है जो बच्चों के कपड़े, बैग, खिलौने, आर्टिफिसियल गहने, कॉस्मेटिक सामग्री और जूते–चप्पलों जैसे कई तरह के अन्य उत्पाद भी पेश करती है। इसलिए इसे कांग्लोमरेट कम्पनी की श्रेणी में रखा जाता है। इसे 16 अक्टूबर 1923 में एक कार्टून स्टूडियों के रूप में स्थापित किया गया था। 1928 में इसने ‘मिक्की माउस’ कार्टून चरित्र का निर्माण किया, जो आज इसकी पहचान बन गया है।

अक्टूबर 2012 में वाल्ट डिजनी ने अपने समय की बहुचर्चित फिल्म ‘स्टार वार’ की निर्माता कम्पनी ‘लूकास फिल्म’ को खरीद लिया। 20 मार्च 2019 को डिजनी ने ‘ट्वेन्टीफर्स्ट सेंचुरी फॉक्स’ का अधिग्रहण भी कर लिया, जिसके फलस्वरूप इसे ‘ट्वेन्टी सेंचुरी फॉक्स’ और इसकी अन्य सहायक कम्पनियों का मालिकाना भी मिल गया। विलय और अधिग्रहण के इन सौदों के जरिये आज यह एक विशालकाय कम्पनी बन गयी है, जिसके अन्दर एफ एक्स, नेशनल जियोग्राफिक, ईएसपीएन, एबीसी ब्रोडकास्टर नेटवर्क, जैसी मशहूर कम्पनियाँ भी शामिल हैं। 1991 में द वाल्ट डिजनी कम्पनी की कुल आय मात्र 611 करोड़ डॉलर थी, जो 2018 में बढ़कर 5,943 करोड़ डॉलर हो गयी। 2018 में अमरीका–कनाडा के कुल फिल्म–उत्पादन व्यवसाय के 36–3 प्रतिशत हिस्से पर डिजनी का कब्जा रहा। इस तरह यह फिल्म और मीडिया व्यवसाय पर एकाधिकार जमाने वाली बहुत बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी बन गयी है।

डिजनी कम्पनी अपने ग्राहकों को एक तरह के मानसिक मायालोक में कैद कर लेती है। यह अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए कई तरह की रणनीति का इस्तेमाल करती है। एलन ब्राइमैन ने अपनी किताब ‘डिजनीआईजेशन ऑफ सोसाइटी’ में इसके चार बिन्दु बताये हैं––

पहली रणनीति ‘थीमिंग’ है। इसके जरिये कम्पनी अपने उत्पाद को लुभावने पैकेट में परोसती है, जिससे ग्राहक इसकी ओर खिंचा चला जाता है। इसे डिजनी के थीम पार्क में आसानी से देखा जा सकता है। थीम पार्क मनोरंजन और विलासिता के अड्डे के रूप में विकसित किये गये हैं। यह ऐसी जगह है जो चकाचैंध से भरी हर तरह के उपभोक्ता मालों से पटी होती है। यह मध्यम वर्ग के लिए स्वर्ग जैसी है जो तनाव भरी जिन्दगी में शुकून के चन्द लम्हें उपलब्ध कराती है। यह ग्राहकों को चन्द लम्हों के लिए एक ऐसी स्वर्गिक आनन्द की भुल–भुलैया में ले जाती है, जहाँ पहुँकर वह अपने शोषण, उत्पीड़न और अपमान को भूल जाता है। वह भूल जाता है कि बाहर की दुनिया कितनी नारकीय और बेरहम होती जा रही है। हालाँकि दुनिया को बेहतर बनाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए डिजनी के इस नकली स्वर्ग को ठुकराना होगा। इसलिए नरक जैसी इस व्यवस्था में चन्द पल की खुशी देकर जनता को उसकी खराब होती जिन्दगी के एहसास को धूमिल करने वाली हर चीज उसे संघर्षों से दूर ले जाने के लिए काफी है।

दूसरी रणनीति ‘उपभोग की विविधता’ (डिफरेन्सिएशन ऑफ कंजम्पशन) है। थीम पार्क में विविध उपभोक्ता मालों की दुकानों की कतारें, ठहरने की उम्दा व्यवस्था, फिल्म शो, सजीले रेस्टोरेंट आदि की सुविधा दी जाती है। आज इसी तर्ज पर हवाई अड्डे, रेलवे और मेट्रो स्टेशन तथा बस अड्डे के आस–पास शापिंग मॉल खोले जा रहे हैं।

तीसरी रणनीति ‘व्यवसायधर्मिता’ (मर्केंडाइजिंग) है। कम्पनी अपने व्यापार को बढ़ावा देने और बाजार पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए कॉपीराइट चित्रों और लोगों का इस्तेमाल करती है। 1995 में काफी सोच–समझकर कम्पनी ने अपना लोगों पेश किया, जिसमें सिण्डरेला के किले के ऊपर एक बक्राकार रेखा दिखायी गयी है। सिण्डरेला के किले का अर्थ है–– उत्साह और रोमांस, जो इसकी फिल्मों से साफ झलकता है। डिजनी की फिल्में रोमांस और कल्पना की एक ऐसी दुनिया की सैर कराती हैं, जिसमें सबकुछ नकली होता है। उसका जिन्दगी की सच्चाई से कुछ भी लेना–देना नहीं। डिजनी का मिक्की माउस भी बहुत प्रचारित किया जा रहा है। इसे बच्चों के टिफिन, टीशर्ट, टोपी, चम्मच आदि पर छाप कर पेश किया जा रहा है। इस तरह बचपन से ही हमें अपने लोक जीवन के पशु–पक्षी और किस्से–कहानियों से दूर करके हमारे सौन्दर्यबोध में बड़ा बदलाव किया जा रहा है।

चैथी रणनीति ‘भावनात्मक श्रम’ (इमोशनल लेबर) है। डिजनी में कार्यरत कर्मचारियों को एक खास तरह का व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए बाध्य किया जाता है। उनसे कहा जाता है कि वे उपभोक्ता से बात–व्यवहार करते समय प्रसन्नचित्त और विनोदप्रिय बने रहें। स्वच्छता पर खास ध्यान दें और ग्राहक को अपना मित्र मानें। यह सब कितना बनावटी और नकली होता है, इसका पता तब चलता है, जब ग्राहक किसी परेशानी के चलते बिल का भुगतान करने में अक्षम हो जाता है। तब अचानक सारी मधुरता कटुता में बदल जाती है।

वाल्ट डिजनी को अमरीका की ‘लोकप्रिय संस्कृति’ (पापुलर कल्चर) का जरूरी हिस्सा माना जाता है। डिजनी की दुनिया में दुख, परेशानी और तनाव जैसी कोई चीज नहीं है। वहाँ मनोरंजन, सुख और समृद्धि की शीतल छाँव होती है। यह नरक जैसी दुनिया में सुख और समृद्धि से भरपूर स्वर्ग के कुछ द्वीप बसाने जैसा है। डिजनी का सांस्कृतिक महत्त्व भी है। इसकी दुनिया में कोई विवाद नहीं। इससे किसी का धर्म खराब नहीं होता, न किसी की भावनाएँ आहत होती हैं। यह कम्पनी एक ऐसी माया नगरी बना रही है जो स्थानीय संस्कृति को कुचलती चली जाती है। लेकिन इससे संस्कृति रक्षकों पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे पुरानी परम्परा के नष्ट हो जाने की दुहाई देने वाले लोगों पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता, जबकि उनकी आँखों के सामने डिजनी ने उनके बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है। अब नानी की कहानी और माँ की लोरी का कोई मतलब नहीं रह गया है। हम सभी धीरे–धीरे उसे भूलते जा रहे हैं। अब बच्चे मोबाइल में यू–ट्यूब पर वीडियो देखना अधिक पसन्द करते हैं, बजाय माँ–बाप या अन्य रिश्तेदारों के साथ खेलने और काम में हाथ बँटाने के। इससे न केवल इनसानी रिश्तों की भाव–भावना छिन्न–भिन्न होती जा रही है, बल्कि इसके आगे माँ की ममता भी इतनी असहाय कभी नजर नहीं आयी, जितनी आज वह हो गयी है।

डिजनी अपनी एनिमेटेड और नॉन–एनिमेटेड फिल्मों के जरिये बच्चों और किशारों के सामने विचित्र नजारे पेश करती है। द क्रोनिकल ऑफ नार्निया, पाइरेट्स ऑफ कैरेबिया आदि फिल्मों की कई शृंखला आ चुकी है। इन फिल्मों में इनसानों के साथ भुतहे चरित्र दिखाये जाते हैं, जिनमें से किसी की लम्बी नाक होती है, किसी के बालों में से साँप निकलते हैं, किसी का चेहरा सड़ा हुआ होता है––– कई फिल्में विज्ञान गल्प (साइंस फिक्शन) के नाम पर परोसी जा रही हैं, जिसमें विज्ञान का खुलकर मजाक बनाया जाता है। ये फिल्में नये तरह के अन्धविश्वास को जन्म दे रही हैं, जिसमें विज्ञान के अच्छे–खासे जानकार भी फँसते चले जा रहे हैं। पाइरेट्स ऑफ कैरेबिया की दूसरी फिल्म ‘डेड मैन चेस्ट’ 2006 की दुनिया की सबसे हिट फिल्म थी। इससे साफ पता चलता है कि दुनिया की एक बहुत बड़ी आबादी इसमें फँसी हुई है।

साम्राज्यवादी संस्कृति को आगे बढ़ने वाली हॉलीवुड की फिल्में बॉलीवुड की फिल्मों के लिए मॉडल का काम करती हैं। भारत में बनने वाली ज्यादातर फिल्में हॉलीवुड की नकल पर जिन्दा हैं। हॉलीवुड की फिल्मों में हिंसा और अश्लीलता को खुलकर परोसा जाता है। दुनिया भर में अमरीकी तकनीक का लोहा मनवाने के लिए तरह–तरह की फिल्में बनायी जा रही हैं, जिससे दुनिया भर की जनता अमरीकी सेना और तकनीक से खौफ खाये। जैसे–– अमरीकी हीरो किसी एलियन के हमले, डीएनए और कीटनाशक पर शोध के चलते विशालकाय जानवरों का बनना और उनके द्वारा इनसानी बस्तियों पर हमले या आतंकवादियों के हमले से दुनिया को तबाह होने से बचाता है। साउण्ड और विजुअल तकनीक से नकली पटकथा को भी पर्दे पर जीवित कर दिया जाता है। दर्शक पर्दे की इन घटनाओं को सच मान लेता है जो उसके जेहन की गहराई में उतर जाती हैं।

आज फैशन प्रतियोगिता का चलन तेजी से बढ़ रहा है लेकिन 1991 में वैश्वीकरण की आँधी आने से पहले यह एक दुर्लभ चीज थी। 1996 में पहली बार देश में विश्व सुन्दरी (मिस वर्ल्ड) प्रतियोगिता आयोजित की गयी थी। इसका प्रगतिशील ताकतों के साथ ही भाजपा जैसी दक्षिणपंथी पार्टी ने भी विरोध किया था। किसान संगठनों ने आरोप लगाया कि यह पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का षड़यंत्र है, जिसके जरिये भारत में वे अपने मालों का विज्ञापन करेंगी और उसके लिए बाजार तैयार करेंगी। महिलाओं के एक समूह ने इसे न रोके जाने की स्थिति में सामूहिक आत्महत्या की धमकी भी दी थी। पेशे से दर्जी सुरेश कुमार ने खुद को आग लगाकर आत्मदाह कर लिया था। कर्नाटक में भाजपा विधायक ने कहा था कि “यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ है, यह भारतीय परम्परा के खिलाफ है, यह जनता की नैतिकता, कानून और दुनिया के सभी धर्मों के खिलाफ है। इसकी अभिव्यक्ति अश्लील है और यह महिलाओं का वस्तुकरण है। किसी महिला की सुन्दरता खरीदने बेचने के लिए नहीं होती और वह उसे बेचने की कोशिश करती है, तो वह खुद को चल–सम्पत्ति के स्तर तक गिरा लेती है।” लेकिन आज 23 साल बाद भाजपा की यह नैतिकता कहीं नजर नहीं आती, जब वह सत्ता में पहुँच गयी है।

तब से अब तक एक लम्बा अरसा गुजर चुका है। ऐसा लगता है कि अब लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया है। सुन्दरी प्रतियोगिता अब नगरों और स्कूल–कॉलेजों में भी आयोजित हो रही है। अब दीवारों पर किसी महिला की विशालकाय अर्ध–नग्न तस्वीर लोगों को परेशान नहीं करती। लोगों ने इसके साथ जीना सीख लिया है। यह साम्राज्यवादी संस्कृति की ताकत है। वह खुद को हमारे लिए सहज और स्वीकार्य बनाती जा रही है। कल तक जो विरोधी थे, आज वे समर्थक हैं।

इस तरह हम देखते हैं कि 1990–91 के दौरान वैश्वीकरण की जिन नीतियों को लागू करके बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में बुलाया गया, उन्होंने देश के सांस्कृतिक माहौल में बहुत बड़ा बदलाव ला दिया है। इसके कुछ नमूनों का जिक्र यहाँ किया गया है, ऐसे ढेरों अन्य उदाहरण खोजे जा सकते हैं। कुल मिलाकर इसे ही अमरीकीकरण नाम दिया गया। दरअसल, साम्राज्यवादी संस्कृति औपनिवेशिक (गुलाम) देश की संस्कृति को अपने अधीन कर लेती है। उसके सकारात्मक पहलू का दमन कर देती है और उसके नकारात्मक पहलू को उभार देती है। जैसे–– साम्राज्यवादी संस्कृति ने भारतीय समाज की सामूहिकता और भाईचारे को नष्ट कर दिया है। दूसरी ओर, इसने सामन्ती संस्कृति के पितृसत्तात्मक, जातिवादी, साम्प्रदायिक और संकीर्णतावादी पहलुओं से साँठ–गाँठ कर ली है और उसे बढ़ावा दे रही है।

यह दावा झूठा है कि वैश्वीकरण सभी संस्कृतियों को आगे बढ़ने का बराबर मौका देता है। सच तो यह है कि मौजूदा वैश्वीकरण की प्रवृत्ति साम्राज्यवादी है जो बराबरी नहीं वर्चस्व चाहती है। यह स्थापित तथ्य है कि जिस वर्ग और देश का भौतिक साधनों पर कब्जा होता है, वही अपने विचार और संस्कृति को बाकी वर्गों और देशों पर प्रभावशाली ढंग से थोप सकता है। आज दुनिया भर में वायरलेस कम्युनिकेशन, इलेक्ट्रानिक संयन्त्र, इन्टरनेट और मास मीडिया पर अमरीका की साम्राज्यवादी पूँजी का नियन्त्रण है। इन्हीं माध्यमों के जरिये विचार और संस्कृति का एक देश से दूसरे देश में प्रभावी तरीके से प्रचार–प्रसार होता है। साम्राज्यवादी पूँजी का हित–चिन्तक अमरीका का शासक वर्ग सचेत तौर से अपनी साम्राज्यवादी संस्कृति को गुलाम देशों में प्रचारित करवाता है, ताकि वह इन देशों की जनता को अपनी संस्कृति के प्रभाव में ला सके। दूसरी ओर, गुलाम देशों के शासकों ने इसका प्रतिरोध छोड़कर अमरीका के आगे पूरी तरह आत्म–समर्पण कर दिया है। इससे अमरीका गुलाम देशों में सांस्कृतिक प्रभुत्व के जरिये व्यवस्था पोषक लोगों की एक ऐसी जमात खड़ी करने में सफल हुआ है, जो साम्राज्यवाद–पूँजीवाद के पैरोकार हैं, उसके शोषण–उत्पीड़न को न्यायोचित ठहराते हैं। इस तरह साम्राज्यवाद खुद को सहज ग्राह्य बनाता चला जा रहा है।

साम्राज्यवादी संस्कृति जिन देशों में पैदा हुई, उसने सबसे पहले अपने समाज की सांस्कृतिक विविधता को नष्ट कर दिया। अमरीका में अधिक उपभोग करना ही राष्ट्रवाद बना दिया गया। टामस पेन, जैफरसन जैसे अमरीकी क्रान्तिकारियों के आदर्शों को भुला दिया गया। मानवतावाद की जगह उपभोक्तावाद को स्थापित किया गया। माल अन्धभक्ति ने ईश्वर भक्ति की जगह ले ली। बचे–खुचे रेड इण्डियन और अन्य मूल निवासियों तथा अफ्रीकी–अमरीकी लोगों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया गया। यानी उपनिवेश में आने से पहले साम्राज्यवादी संस्कृति ने अपने मातृ देश में ही पूरी तरह जनविरोधी चरित्र ग्रहण कर लिया था। उपनिवेश में जरूरत इस मॉडल के विस्तार की थी, जिसे 90 के दशक में पूरा कर लिया गया।

भारत में जब साम्राज्यवादी संस्कृति आयी तो इसने समाज के ताने–बाने को छिन्न–भिन्न करना शुरू किया। रिश्ते–नाते, भाईचारा और यारी–दोस्ती जैसे सामाजिक सम्बन्धों की जगह रुपये–पैसे के जो सम्बन्ध पहले ही कायम होने लगे थे, उन्हें चरम परिणति तक पहुँचा दिया गया। माल बेचने की संस्कृति ने सामुदायिक भावनाओं की जगह ले ली। ‘अतिथि देवो’ की जगह ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ ने ले लिया। अतिथि से उम्मीद की जाने लगी कि वह बाहर से खाकर आये। जंक फूड, मॉल कल्चर, मल्टीप्लेक्स, फैशन शो, रीयलटी शो आदि का बोल–बाला बढ़ गया। पर्यावरण की तबाही साम्राज्यवादी संस्कृति की खास पहचान है। दुनिया भर के अलग–अलग इलाकों की स्थानीय संस्कृति पर्यावरण के संरक्षण को महत्त्व देती थी। आज भी भारत के आदिवासी इलाकों में पहाड़ और जंगल को देवी–देवता मानकर उनकी पूजा की जाती है और उनका संरक्षण अपना कर्त्तव्य माना जाता है। लेकिन पास्को और वेदान्ता जैसी कम्पनियों ने जब पहाड़ और जंगलों का विनाश करके आदिवसियों को उजाड़ दिया तो इसे विकास बताया गया। साम्राज्यवादी संस्कृति के पैरोकारों का नजरिया पूरी तरह पर्यावरण विरोधी होता है। प्रकृति प्रेम को भी माल में बदल दिया गया। माल बेचने में स्थानीय संस्कृति के प्रतीकों का भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। जैसे–– मा अन्नपूर्णा आटा, मा वैष्णो देवी आटा, हिमालयन वाटर, फेसवाश आदि।

मुख्यधारा का मीडिया साम्राज्यवाद का पैरोकार बन गया। वह साम्राज्यवादी संस्कृति का सबसे बड़ा वाहक है। उसके माध्यम से बिग बास, केबीसी, इण्डिया आइडोल, इण्डिया गॉट टैलेन्ट, स्टैण्ड अप कॉमेडी जैसे रीयलटी शो की बाढ़ आ गयी। इनमें से कई कार्यक्रमों में गाली–गलौज, कम कपड़े पहनना और ऐसे काम करना जो सामान्य नहीं हैं, का खुलकर प्रदर्शन किया जाता है। हास्य के नाम पर महिलाओं और गरीबों–वंचितों का मजाक उड़ाना तथा उनकी गैर–बराबरी को न्यायोचित ठहराना, सरकार का समर्थन, लोभ–लालच, अपना भला तो जगत भला, आदि को प्रचारित किया जाता है। इससे हर घर, स्कूल, कॉलेज और संस्था में गलाकाट प्रतियोगिता ने व्यक्तियों के बीच वैमनस्य को जन्म दे दिया है। यानी कुल मिलाकर इन कार्यक्रमों में पूँजीवादी मूल्य–मान्यताओं को बढ़ावा दिया गया।

पूँजीवादी संस्कृति ने समाज को परमाणुकृत कर दिया यानी टुकड़े–टुकड़े में बाँट दिया। व्यक्ति के स्वतंत्रता के नाम पर चरम व्यक्तिवाद को बढ़वा दिया गया। सामूहिकता नष्ट हो गयी। नतीजा यह हुआ कि लोगों में तनाव, अलगाव और अवसाद बढ़ गया। अलगाव के चलते विलासिता की प्रवृत्ति बढ़ती चली गयी। विलासितापूर्ण और महँगी चीजों के अकेले–अकेले उपभोग ने प्रधानता हासिल कर ली। बढ़ते अलगाव और अवसाद ने खुद को आत्महत्या के रूप में अभिव्यक्त किया। आत्महत्या महामारी की तरह फैलती चली गयी। सामूहिकता खत्म होने से संगठित विरोध और संघर्ष में कमी आयी। यानी प्रतिरोध की संस्कृति पर जबरदस्त आघात पहुँचा। सोशल मीडिया इन सब की भरपाई करने में अक्षम साबित हुआ है। उसने कई नयी समस्याओं को जन्म दिया है। सोशल मीडिया ने एक ऐसी वर्चुअल दुनिया बना रखी है, जहाँ नकली माल काफी प्रचलन में है। बिना एक दूसरे को जाने–पहचाने क्षणिक और बनावटी प्रेम का होना, बढ़ते अलगाव को ही दिखाता है।

साम्राज्यवादी संस्कृति का कोढ़ भयानक रूप लेता जा रहा है। कहने को यह ‘अवारा पूँजीवाद’ का दौर है लेकिन साम्राज्यवाद वास्तव में पूँजीवाद की एक योजनाबद्ध अवस्था है, जहाँ मुट्ठीभर इजारेदार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने दुनिया की अर्थव्यवस्था पर अपना कब्जा जमा लिया है। इनकी लोट–खसोट ने इतिहास के सभी रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया है। दुनिया भर की जनता इसके खिलाफ खड़ी न हो जाये, इसीलिए वह लोगों को मानसिक गुलाम बना रहा है। इसी उद्देश्य को हासिल करने के लिए साम्राज्यवादी संस्कृति को योजनाबद्ध तरीके से बढ़ावा दिया जा रहा है। क्रिकेट के खिलाड़ी, फिल्मी कलाकारों, फूहड़ अश्लीलता परोसने वाले स्टैण्डअप कामेडियन और दंगाई नेताओं, आदि को समाज के नायक के तौर पर पेश किया जा रहा है। पोर्न स्टार (अश्लील कलाकार) सनी लियोन को सेलिब्रेटीज बना दिया गया है। अखबार के कई पन्ने और न्यूज चैनलों का काफी समय इन्हीं से जुड़ी खबरों से भरा होता है। यू–ट्यूब पर परियों, जलपरियों, एलियन और विज्ञान को तोड़–मरोड़कर दिखाने वाले वीडियो भरे हुए हैं, जिसमें वैज्ञानिक सिद्धान्तों की जमकर धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं और अन्धविश्वास को खुलेआम परोसा जा रहा है। साम्राज्यवादी संस्कृति इनसान की पशुवत प्रवृत्तियों को जगाकर उसे आज्ञाकारी जानवर बनाने की कला है। ऐसे लोग ही उनके मशीन के पुर्जें हो सकते हैं, उनके मालों के अन्धभक्त हो सकते हैं।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण गैर–बराबरी और असमान विकास को बढ़ावा देता है। पूँजीवादी विकास के अन्दरूनी अन्तरविरोध के चलते आबादी का बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था के हाशिये पर फेक दिया गया है। वैश्वीकरण के चलते भारत में शोषण और बेदखली की प्रक्रिया तेज होती चली गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि बहुसंख्य आबादी का जीवन स्तर नीचे चला गया। कंगालीकरण की यह प्रक्रिया आज भी जारी है। दूसरी ओर, नवधनाढ्य लोगों का एक ऐसा वर्ग उभर कर आया जो इस नयी व्यवस्था से पैदा होने वाली सुख–सुविधाओें का भरपूर आनन्द लेता है। इस तरह आज देश में गरीबी और भुखमरी में सड़ता हुआ नरक और विलासिता में डूबा हुआ नरक साथ–साथ अस्तित्व में है। साम्राज्यवादी संस्कृति के चलते ही लोगों को इन दोनों के बीच कोई विरोधाभास नजर नहीं आता। ऐसी विदू्रप तस्वीर लोगों को बेचैन और विचलित नहीं करती। उन्हें व्यवस्था से नफरत करना नहीं सिखाती।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण से अमरीका को अपने व्यापार के दौरान कई लाभ मिलते हैं। गुलाम देशों में अमरीका की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और उनके मालों की स्वीकार्यता बढ़ जाती है। इन देशों में ऐसा जन–समुदाय तैयार होता है जो साम्राज्यवाद का समर्थक बन जाता है। वह इस ओर ध्यान ही नहीं देता कि साम्राज्यवादी पूँजी देश को कंगाल बना रही है। वह मजदूरों और किसानों की जिन्दगी तबाह करती जा रही है, जो आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। जैसे–– भारत की आबादी का एक हिस्सा अमरीका का चाटुकार बन गया है। वह मानता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देश के विकास में सहायक हैं। प्रत्यक्ष गुलामी के दौर (ब्रिटिश राज) में भारतीय जन–समुदाय के बीच अंग्रेजों का जनाधार बहुत सीमित था, जिसमें सामन्ती वर्ग, अंग्रेजी शिक्षा हासिल किया हुआ मध्यम वर्ग और उभरते पूँजीपतियों का एक हिस्सा शामिल था, जो कुल मिलाकर बमुश्किल कुछ लाख बैठते होंगे। लेकिन अप्रत्यक्ष गुलामी के मौजूदा (नवउदारवादी) दौर में भारत में साम्राज्यवाद का जनाधार पहले के मुकाबले बहुत बड़ा है। इसमें भारत के मध्यम वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा आर्थिक और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का पैरोकार है। एक अध्ययन दिखाता है कि भारत में करीब 5 करोड़ लोग खुद को अमरीकी मानते हैं जो देश के संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं और गुणगान अमरीका का गाते हैं।

दूसरी ओर, मजदूर वर्ग, गरीब और मध्यम किसानों को देशी और साम्राज्यवादी पूँजी की लूट ने तबाह कर डाला है। साम्राज्यवादी पूँजी से आर्थिक तौर पर नुकसान उठाने वाले ये वर्ग भी सांस्कृतिक तौर पर साम्राज्यवाद के प्रभाव में हैं और तब तक रहेंगे, जब तक एक मजबूत सांस्कृतिक आन्दोलन उनके दिमागों से सांस्कृतिक कूड़ा–करकट साफ न कर दे। हालाँकि मध्यम वर्ग की अपेक्षा इन वर्गों में सांस्कृतिक सफाई आसान है क्योंकि उनके आर्थिक हालात और वैचारिक–सांस्कृतिक माहौल बेमेल है और जल्दी ही इन वर्गों को अपने आर्थिक हालात के अनुरूप विचारधारा और संस्कृति की खोज कर लेनी पड़ेगी।

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