दिल्ली की सत्ता प्रायोजित हिंसा : नये तथ्यों की रोशनी में
अब तक सामने आये तथ्यों से यह साफ हो चुका है कि फरवरी के अन्तिम सप्ताह में हुई हिंसा सत्ता द्वारा मुख्य रूप से केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित हिंसा थी।
दिल्ली विधानसभा चुनावा के समय से ही भाजपा नेताओं द्वारा भडकाऊ भाषण दिये गये और लगातार दंगों का माहौल तैयार किया गया। गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि ‘बटन इतनी जोर से दबाओ कि कंरट शाहीनबाग में लगे’। सांसद प्रवेश वर्मा का यह भड़काऊ बयान कि ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’ माहौल बिगाड़ने के लिए काफी था। दिल्ली पुलिस के डीसीपी के सामने भाजपा नेता कपिल मिश्रा का सार्वजनिक सभा में यह कहना कि “हम ट्रम्प के जाने का इन्तजार कर रहें हैं, अगर शाहीनबाग आन्दोलन करने वाले लोग सड़कों से नहीं हटे तो फिर हम पुलिस की भी नहीं सुनेगें।” इन्हीं तीन बयानों से स्पष्ट था कि भाजपा हिंसा भडकाने का षडयंत्र रच चुकी थी। लेकिन प्रशासन शुरू से ही मूक र्दशन बना रहा।
शाहीनबाग आन्दोलन केवल मुसलमानों का आन्दोलन नहीं था बल्कि यह संविधान की रक्षा के लिए लोकतंत्र समर्थकों द्वारा किया गया आन्दोलन था जिसमें देश के सभी जाति–धर्म के लोग शामिल थे। आन्दोलन में शामिल हिन्दुओं द्वारा हवन करना, सिखों द्वारा गुरुवाणी पढा जाना इसका सबूत था। हाँ, यह जरूर है कि सरकार द्वारा किये गये संशोधन में मुस्लिमों को निशाना बनाया गया था इसलिए वे आन्दोलन में बढ़–चढ़कर शामिल थे। इस आन्दोलन में छात्र–छात्राएँ, देश के कोने–कोने से आनेवाले बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्त्ता भी हमेशा शामिल रहे।
इस आन्दोलन को तोड़ने में मोदी सरकार को नाकों चने चबाने पडे़ और यह उस के लिए सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती साबित हुआ। सरकार घबरायी हुई थी। चुनाव हो चुका था, षडयंत्र की योजना पहले से तैयार थी बस अमल करना था। तथ्यों से दिन के उजाले की तरह एकदम साफ हो गया है कि उत्तरी–पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा केन्द्र सरकार ने षडयंत्र पूर्वक शाहीनबाग आन्दोलनकारियों को सबक सिखाने के लिए करवायी थी।
आखिर क्यों बिना रोक–टोक के हिंसा होती रही और इसमें प्रशासन ने क्या भूमिका निभायी?
स्थानीय पुलिस द्वारा पुलिस मुख्यालय को भेजी गयी रपटें बताती हैं कि दिल्ली पुलिस 23 फरवरी को दोपहर 1–00 बजे के बाद से ही जफराबाद मेट्रों स्टेशन पर बिगड़ रहे हालात से वाकिफ थी। उस दिन सुबह 9 बजे भी दो समूहों में झड़प हुई थी और शाम 4:30 बजे कपिल मिश्रा ने डीसीपी के सामने भड़काऊ भाषण दिया था। उसके बाद हालात के बिगड़ने की सम्भावना से जुडी तमाम जानकारी पुलिस मुख्यालय भेजी गयी थी। 23 फरवरी को दिल्ली पुलिस की स्पेशल ब्रांच और इण्टेलीजेंस विंग ने बिगड़ रहे हालातों के बारे में कम से कम छ: बार पुलिस मुख्यालय को अलर्ट करनेवाले संदेश भेजे थे। इसके अलावा इलाके के जागरुक लोगों ने 700 से ज्यादा पुलिस कॉल की। पुलिस–प्रशासन ऐसी कौन–सी कुम्भकर्णी नींद सो रहा था जो इतना सब होने के बाद भी हिंसा की रोकथाम का काम नहीं कर पाया? लगता है कि सर्वोच्य सत्ता द्वारा उन्हें चुप बने रहने के आदेश दिये गये थे।
5 मार्च 2020 के हिन्दुस्तान टाइम के मुताबिक सिर्फ 24 और 25 फरवरी को दंगों के समय पुलिस मदद की गुहार लगाने वाले 13 हजार से ज्यादा फोन किय गये। एनडीटीवी न्यूज चैनल ने बताया कि दंगा प्रभावित इलाकों के दो पुलिस थानों के रिकार्ड से पता चलता है कि हिंसा से जुडे़ अधिकतर फोन कॉल पर पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की थी। पुलिस द्वारा कार्रवाई नहीं करने की वजह से हिंसा आगजनी और लूटपाट ने विकराल रूप ले लिया। सभी जानते हैं कि दिल्ली की पुलिस सीधे केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय के मातहत है। अगर पुलिस अपनी भूमिका निभाने में नाकाम रहती है तो यह नाकामी गृह मंत्री अमित शाह के हिस्से में आती है। हम दो–तीन उदाहरणों से पुलिस और केन्द्रीय गृह मंत्रालय की नीयत को समझ सकते हैं।
पहली घटना शिव विहार के दो स्कूलों में लूटपाट और आगजनी की है। इनमें एक स्कूल का मालिक हिन्दू है और दूसरे का मालिक मुस्लिम। डीआरपी कॉन्वेन्ट पाब्लिक स्कूल के संचालक धर्मेश शर्मा ने एनडीटीवी को बताया कि उन्होंने आगजनी के डर से पुलिस को कई बार फोन किया। 24 फरवरी को स्कूल पर तीन बार हमला हुआ। हर बार पुलिस को सूचना दी गयी, लेकिन पुलिस नहीं आयी। जब 24 घण्टे बाद, अगले दिन 25 फरवरी को पुलिस स्कूल में पहुँची, तब तक पूरा स्कूल जल चुका था। सरकारी जाँच एजेंसी सीएफजे रिपोर्ट से भी इस घटना की पुष्टि होती है। राजधानी कॉन्वेण्ट पब्लिक सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के मालिक फैजल फारूख ने बताया कि हमारे स्कूल पर 24 फरवरी को शाम 4 से 5 बजे के बीच हमला हुआ। हम पुलिस को फोन करते रहे, वहाँ से बस एक ही जवाब मिलता रहा कि हम आ रहे हैं, लेकिन वे कभी नहीं आये और स्कूल जला दिया गया।
तीसरी घटना बृजपुरी के अरुण मार्डन सीनियर सेकेण्डरी स्कूल की है। इसकी संचालक नीतू चैधरी ने एनडीटीवी को दिये एक इन्टरव्यू में बताया कि 25 फरवरी को कई बार पुलिस को फोन किया, लेकिन पुलिस नहीं आयी। उसी दिन शाम 4 बजे उत्पातियों ने स्कूल में आग लगा दी। फायर ब्रिगेड भी 4 घण्टे बाद पहुँची। तब तक स्कूल का ज्यादतर हिस्सा जल चुका था। केन्द्र सरकार द्वारा बनायी गयी जाँच एजेंसी कमिटी फॉर जस्टिस (सीएफजे) के अनुसार इसी स्कूल के मालिक अभिषेक शर्मा ने बताया कि जब भीड़ ने स्कूल घेर लिया और स्कूल जलाने लगेे, तब स्थानीय लोगों ने पुलिस से मदद माँगी, लेकिन पुलिस ने कह दिया कि हमारे पास ऊपर से आदेश नहीं है। हम कुछ नहीं कर सकते।
कॉरवाँ पत्रिका के एक रिपोर्टर के मुताबिक प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा दायर की गयी शिकायतों में हिंसा के दौरान दिल्ली पुलिस के कम से कम एक डिप्टी कमिश्नर, दो एडिशनल कमिश्नर और दो थाना अध्यक्ष बिना किसी धमकी या उकसावे के गोली चलाते हुए और प्रदर्शनकारियों की हत्या करते हुए देखे गये। इसके अलावा पीड़ितों ने भी दो पुलिस अधिकारियों पर आरोप लगाये हैं–– एक डीसीपी और एक एसीपी। लेकिन दिल्ली पुलिस ने अभी तक इन पर कोई कार्रवाई नहीं की।
सरकार और भाजपा समर्थक बेवसाइट ऑप–इंडिया ने भी यह स्वीकार किया कि “दंगों के दौरान पुलिस को हजारों कॉल किये गये, लेकिन पुलिस ने दंगों को रोकने के लिए तुरन्त कोई कार्रवाई नहीं की जिस वजह से हिंसा, आगजनी और झड़पें हुर्इं।”
सरकार समर्थक बेवसाइट के अनुसार 23 फरवरी के ‘हिन्दू’ पीड़ितों के 4000 कॉल आये थे और कथित तौर पर उन्हें ‘इस्लामिक’ गिरोहों द्वारा निशाना बनाया जा रहा था। तब भी हिन्दुत्ववादी केन्द्र सरकार ने दिल्ली पुलिस को कार्रवाई करने की इजाजत नहीं दी। मकसद साफ था कि हिंसा की आग ज्यादा से ज्यादा भड़के।
दिल्ली पुलिस ने भड़काऊ भाषण देने वाले भाजपा के तीन नेताओं के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं की जिसके लिए दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति एस मुरलीधर ने नाराजगी जतायी और प्रशासन को फटकार लगायी। इसके बाद उन्हें रातों रात दिल्ली से रुखसत कर दिया गया।
अधिकारिक खबरों में बताया गया कि हिस्सा के दौरान 53 लोग मारे गये। इनकी शिनाख्त हुई–– उसमें 39 यानी 75 फीसदी मुस्लिम थे और 13 हिन्दू। 14 मस्जिदें और दरगाह जलायी गयीं, लेकिन किसी मन्दिर को एक खरोंच तक नहीं आयी। इसके बाद भी हिन्दुत्ववादी पत्र–पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर प्रचारित किया गया कि यह दंगा हिन्दुओं के खिलाफ था। कमाल की बात यह है कि पुलिस ने भी लगभग एक तरफा ढंग से मुस्लिमों को ही गिरफ्तार किया है। पुलिस के इस चैकाने वाले रवैये पर पटियाला हाउस जिला न्यायालय ने नाराजगी भी जाहिर की है।
हिंसा के गुजरात मॉडल को दुहराने की कोशिश
2002 में गुजरात में तत्कालीन मोदी सरकार की सरपरस्ती में मुस्लिम समुदाय का नरसंहार किया गया था। इस हत्याकाण्ड में गुजरात राज्य सरकार की और वहाँ की पुलिस भी कटघरे में थी। गुजरात में हत्यारों का नारा था, “यह अन्दर की बात है, पुलिस हमारे साथ हैं।” दिल्ली में गुजरात मॉडल से भी दो कदम आगे जाकर सत्ता पोषित हत्यारों ने मुसलमानों के साथ–साथ हिन्दुओं को भी मारा। इन्होंने हिन्दू–मुसलमान दोनों के घरों और दुकानों को लूटा तथा स्कूलों को जलाया। दिल्ली नरसंहार में हत्यारों को यह कहने की जरूरत ही नहीं पडी कि ‘यह अन्दर की बात है पुलिस हमारे साथ है’, बल्कि खुल्लम–खुल्ला पुलिस न केवल हत्यारों को पूरी छूट दे रही थी बल्कि इससे कहीं आगे बढ़कर खुद हिंसा को अंजाम भी दे रही थी। कई वीडियों में देखा गया कि पुलिस ही मुसलमानों को मार रही थी, उनसे जबरदस्ती ‘भारत माता की जय’, ‘वन्देमातरम’ और ‘जन गण मन’ कहला रही थी। इसके वाबजूद केन्द्र सरकार की जाँच एजेन्सियाँ कहती हैं कि ये हिन्दू विरोधी दंगा था जिसे मुसलमानों ने अंजाम दिया। सच्चाई यह है कि दिल्ली हिंसा गुजरात मॉडल का ही आगे बढ़ा हुआ रूप है।
गुजरात नरसंहार में कई पुलिस अधिकारीयों ने इस षडयंत्र में सरकार की संलिप्तता का पर्दाफाश किया था। ऐसे ही एक आईपीएस संजीव भट्ट को झूठे आरोपों में फँसा कर जेल भेज दिया गया। लेकिन दिल्ली में ऐसा एक भी पुलिस अधिकारी सामने नहीं आया जो सरकार के षडयंत्र के बारे में मुँह खोले।
दिल्ली में हिन्दू और मुसलमान दोनों को मारा गया। उनके घरों और दुकानों को लूटा गया। यहाँ हिन्दू भी पुलिस से मदद की गुहार लगाते रहे, लेकिन इस हिन्दुत्ववादी केन्द्र सरकार ने किसी की आवाज नहीं सुनी। यह गुजरात मॉडल से अलग बात थी क्योंकि वहाँ कम से कम सरकारी तंत्र हिन्दुओं के पक्ष में तो खड़ा था। गुजरात में सरकारी वकील (प्रासीक्यूटर) उन्हीं को बनाया गया जो हिन्दुत्ववादी सोच के थे और आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद या बजरंग दल आदि हिन्दू संगठनों से जुडे़ थे। दिल्ली में भी केन्द्र सरकार ने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करके न्यायालयों में इसी तरह से विशेष लोक अभियोजकों (स्पेशल पब्लिक प्रासीक्यूटर) को दिल्ली हिंसा से जुडे़ मामलों में नियुक्त किया है।
गुजरात में सरकारी वकीलों की मदद से सरकार ने दंगाइयों को बचाया था। उसी तर्ज पर दिल्ली में भी सरकारी वकीलों की नियुक्ति केन्द्र सरकार ने अपनी पसन्द से की।
गुजरात में मुस्लिम नरसंहार में लगभग 3000 हिन्दुवादी हत्यारे जेल गये थे। इसके अलावा कई सरकारी अधिकारियों, हिन्दुवादी संगठनों के नेताओं और मंत्रियों तक को जेल की हवा खानी पड़ी थी। हालाँकि बाद में ज्यादातर को छुड़ा लिया गया। लेकिन दिल्ली हिंसा गुजरात मॉडल से एक कदम आगे बढ़ गया। पीड़ितों, लुटने वालों और मरने वालों, जिनके घर, दुकानें और स्कूल जलाये गये। उन्हीं को दंगाई बताकर उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज कर जेलों में डाल दिया गया है। हिंसा में लिप्त किसी सरकारी अधिकारी, हिन्दुत्ववादी नेता, या मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
दिल्ली में हिंसा फैलाने वालों के बजाय निर्दोष आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारियाँ
दिल्ली मे हिंसा फैलाने के जुर्म में अधिकतर उन्हीं लोगों को गिरफ्तार किया गया है, जो ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ (सीएए) और ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ (एनआरसी) के विरोध में आन्दोलन कर रहे थे, यानी बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और छात्र–छात्राएँ। गुजरात में दिखावे के लिए ही सही लगभग 3000 दंगाइयों की गिरफ्तारियाँ की गयी थी। लेकिन दिल्ली में हिंसा फैलाने वाले खुलेआम बैखोफ घूम रहे हैं।
सफूरा जरगर की गिरफ्तारी का मामला काफी चर्चित रहा है। वे जामिया मिलिया इस्लामिया की छात्रा है। सफूरा जरगर को 6 मार्च 2020 को एक झूठे मामले में गिरफ्तार किया गया था। जब उनकी इस मामले में जमानत हो गयी तो उन्हें तुरन्त दंगों से जुडे़ एक दूसरे फर्जी मामले में 13 अपै्रल को गिरफ्तार कर लिया गया। इन पर आतंकवाद विरोधी काले कानून यूएपीए के तहत आरोप लगाया गया है।
दूसरा मामला मनीष सिरोही का है, जिसके बारे में पुलिस का दावा है कि वह पिछले दो सालों से हथियारों की सप्लाई कर रहा था। हथियारों के इस डीलर को 27 फरवरी 2020 को दिल्ली में चल रही हिंसा के दौरान गिरफ्तार किया गया था। पुलिस के अनुसार उसके पास से पाँच पिस्तौल और बीस कारतूस बरामद किये गये, गौरतलब है कि हिंसा में मारे गये लोगों में से कई की मौत गोली लगने से हुई थी।
सफूरा और मनीष दोनों को स्पेशल सेल द्वारा गिरफ्तार किया गया। सफूरा एक शोध–छात्रा है और मनीष एक हथियार डीलर मनीष सिरोही पर सिर्फ आर्म्स एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया है, जबकि उसे हिंसा के दौरान गिरफ्तार किया गया और उसके पास से अवैध हथियार बरामद हुए थे। सफूरा के खिलाफ आतंकवाद निरोधी कानून के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। 6 मई को दिल्ली की एक अदालत ने उसे कोविड–19 से संक्रमित होने के खतरे का हवाला देते हुए आसानी से जमानत दे दी, जबकि सफूरा को गर्भवती होने के बावजूद जमानत के लिए हाई कोर्ट जाना पड़ा, क्या–क्या पापड़ बेलने पड़े। यह सभी जानते हैं।
सफूरा का मामला इकलौता नहीं है। दर्जनों छात्र–छात्राएँ, बुद्धिजीवी, समाजसेवी यूएपीए जैसे दमनकारी कानूनों के तहत गिरफ्तार किये गये हैं। यहाँ तक कि जानी–मानी अर्थशास्त्री जेएनयू की प्रोफेसर जयति घोष, सामाजिक चिन्तक और राजनीतिक कार्यकर्ता योगेन्द्र यादव, प्रोफेसर अपूर्वानन्द और सीपीएम नेता सीताराम एच्चुरी को भी एक अलग आरोप पत्र के तहत दिल्ली हिंसा का अभियुक्त बनाया गया। क्या मनमाने आरोप और गिरफ्तारियों को अंजाम देना इस बात को साफ तौर पर नहीं दर्शाता है कि दिल्ली पुलिस दिल्ली हिंसा को लेकर एक राजनीतिक षडयंत्र कर रही है। दिल्ली में, खुद हिंसा फैलाने और उससे निपटने में असफल रही सरकार की नीतियों का विरोध करनेवालों को ही निशाना बनाने का जो नया मॉडल दिल्ली हिंसा में अपनाया गया, वह गुजरात मॉडल का एक विकसित रूप नहीं तो और क्या है?
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