दिसंबर 2018, अंक 30 में प्रकाशित

बढ़ती मानसिक बीमारियाँ लाइलाज होती सामाजिक व्यवस्था का लक्षण

एक व्यक्ति फटे–पुराने चिथड़े में शहर के एक पुल पर खड़ा गालियाँ बके जा रहा था। राहगीर कुछ देर खड़े होकर उसकी गालियाँ सुनते, उत्तेजित होते लेकिन जल्दी ही ऊबकर यह कहते हुए अपनी राह लेते कि पागल है। गाली बकने वाले के मुँह से झाग निकल रहा था और उसके हाथ में एक जंग लगा चिन्दी चाकू था। वह उत्तेजना में चाकू लहराते हुए लगातार बोले जा रहा था कि हरामजादों, मार दूँगा। देखते नहीं, मेरे हाथ में बन्दूक है। टुकड़े–टुकड़े कर दूँगा। ऐसा मारूँगा कि लाश की खबर नहीं मिलेगी... ये बातें कहते हुए वह काँप रहा था। उसके निशाने पर कोई खास व्यक्ति नहीं था या  आते–जाते सभी लोग उसके निशाने पर थे। इसी तरह एक अन्य घटना में एक व्यक्ति रोज सुबह उठकर शाम तक चैराहे पर ट्रैफिक कण्ट्रोल किया करता था। उसके कपड़े फटे हुए होते थे। जाड़ा, गर्मी, बरसात कभी नागा नहीं करता था। लोग चलते हुए उसे देखते और आगे बढ़ जाते। कभी–कभी कुछ लोग उसे खाने के लिए कुछ दे दिया करते थे, जिसे खाने के बाद वह फिर से अपने काम में लग जाता था। इस तरह के और भी दृश्य आपकी आँखों के सामने से गुजरे होंगे। शायद ही कोई रुककर उनके बारे में गहराई से सोचता हो। ऐसे लोगों की एक ही खास बात होती है कि ये एक खास वर्ग शोषित–पीड़ित वर्ग से ही नहीं आते हैं।

कहते हैं कि समस्याएँ जब तक चारों और से न घेर लें तो वह समस्या ही क्या है? देश में अधिकांश परिवारों की हालत ऐसी ही हो रही है कि एक समस्या का अन्त नहीं होता, दूसरी आकर घेर लेती है। आर्थिक समस्याएँ तो थीं ही, बीमारियों ने घर को तोड़ डाला। लेकिन अब एक नयी समस्या अपना पैर पसार रही है–– वह है बड़ी संख्या में लोगों के मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट। अब शायद ही कोई परिवार इससे अछूता रह गया हो, लेकिन विचित्र बात यह कि हमारे यहाँ ज्यादातर लोग मानसिक बीमारी को कोई बीमारी मानते ही नहीं। बीमारी के इर्द–गिर्द एक रहस्य की चादर होती है और इसकी अनदेखी ने समस्या को और भयावह रूप दे दिया है।

राजनीति में शायद ही कोई हो जो अपने विरोधियों को कैंसर या टीबी का रोगी कहकर उसका मजाक उड़ाता हो लेकिन मन्दबुद्धि, विक्षिप्त, सिजोफ्रेनिक, पागल आदि विशेषणों से नवाजा जाना आम चलन में है। और अब तो भारत में मानसिक बीमारियाँ कोई हँसी–मजाक या व्यंग्य–निन्दा की बात नहीं रह गयी हैं बल्कि ये गम्भीर महामारी का रूप लेती जा रही हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण की 2015–16 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 18 साल से ऊपर के लगभग 15 करोड़ लोग (चौंकिये मत, यह आँकड़ा इससे बहुत अधिक हो सकता है) तरह–तरह की मानसिक बीमारियों से ग्रसित हैं। यानी भारत में 12.6 प्रतिशत से अधिक आबादी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित है, अभी तक इस मामले में गम्भीर शोध और अध्ययन का भारी अभाव है इसीलिए तथ्यों की भारी कमी है। लेकिन इस समस्या की गम्भीरता और भयावहता से वे लोग अच्छी तरह परिचित हैं जिन्होंने या तो ऐसी किसी बीमारी का सामना किया हो या उनका कोई परिचित इनसे पीड़ित रहा हो।

एक व्यक्ति ने जब अपने अन्दर सामान्य दिनों की अपेक्षा अधिक बेचैनी महसूस की तो वह मनोचिकित्सक से मिलने गया। उसने अपनी दिक्कतें बतायीं, “सोकर उठने का मेरा मन नहीं होता है। हाथ भी उठाने का मन नहीं करता। किसी काम में उत्साह नहीं है। सोचता हूँ कि जब सब खत्म हो जायेगा तो कुछ करने से क्या फायदा। “मनोचिकित्सक ने उसकी बीमारी को अवसाद (डिप्रेसन) के रूप में चिन्हित किया। ऐसी भावनाएँ कभी–कभी किसी व्यक्ति को अपने प्रभाव में ले लेती हैं, अगर वे पानी के बुलबुले की तरह क्षणिक हों तो समस्या नहीं है। लेकिन अगर वे बहुत हठी साबित हों, लम्बे समय तक व्यक्ति को अपने प्रभाव में जकड़े रहें तो वे अवसाद का रूप ले लेती हैं। अगर अवसाद मन में जड़ जमा ले तो वह गहरे अवसाद में बदल जाता है। दुनिया भर में 35 करोड़ लोग अवसाद से पीड़ित हैं।

एक बार मशहूर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण अवसाद से पीड़ित हुर्इं तो उन्होंने काउंसलर और मनोचिकित्सक से अपना इलाज कराया। स्वस्थ होने पर उन्होंने बताया कि उस समय मुझे बहुत रोना आता था और खालीपन महसूस होता था। सामाजिक समस्या के तौर पर इसे चिन्हित करते हुए उन्होंने बताया कि यह बीमारी अमीर–गरीब का भेद नहीं जानती। उन्होंने आगे सलाह भी दी कि इसे छिपाने की जरूरत नहीं है। रोगी को मनोचिकित्सक से सलाह लेनी चाहिए। जाहिर है कि उनकी यह नेक सलाह देश के उच्च और मध्यम वर्ग के लिए ही व्यवहार्य है, क्योंकि वे ही महँगे मनोचिकित्सक से इलाज करा सकते हैं।  ध्यान देने वाली बात है कि उच्च और मध्यम वर्ग की कुल संख्या भारत में अधिकतम 25 करोड़ है। 100 करोड़ गरीब कहाँ इलाज करायें, जिनके लिए जानलेवा बीमारियों का इलाज करवाना और रोजी–रोटी का जुगाड़ करना ही बड़े जद्दोजहद का काम होता है।

अवसाद होने पर मन उदास रहता है और किसी चीज से लगाव नहीं रह जाता है। समाज में बढ़ती अजनबीयत या अलगाव इसकी जड़ में होता है। 2004 में अमरीका में एक फिल्म बनी थी–– द एविएटर। इस फिल्म में हॉलीवुड के मशहूर अभिनेता लियोनार्डो डिकैप्रियो ने पूँजीपति हावर्ड ह्यूजेस का किरदार निभाया था। 1938 में हावर्ड ह्यूजेस ने विमान बनाने वाली कम्पनी ट्रांसकांटिनेंटल एंड वेस्टर्न एयर (टीडब्ल्यूए) के अधिकांश शेयर खरीद लिये और उस कम्पनी का मालिक बन गया। 1940 के दशक के मध्य में ह्यूजेस ने अमरीका की आर्मी एयर फोर्स के साथ दो परियोजनाओं का अनुबन्ध किया–– द्वितीय विश्व युद्ध के लिए एक जासूसी विमान और एक सेना परिवहन इकाई। यह जानते हुए कि ये विमान युद्ध में इस्तेमाल होंगे और उससे हजारों लोगों के घरों के ऊपर बम गिराकर उन्हें मार दिया जायेगा, उसने अपनी दोनों परियोजनाओं को आगे बढ़ाया। उसके लिए इनसानी जिन्दगी केवल उसका मुनाफा बढ़ाने का साधन भर थी। इनसानियत से उसका अलगाव इस कदर बढ़ा कि वह अय्यासी करने वाले तोंदियल अमीर जानवर में बदल गया और जब उसकी कम्पनी घाटे के चलते तबाह हुई तो वह अवसाद से घिर गया। खुद को कमरे में बन्द कर लिया, अपने सारे कपड़े जला दिये, दाढ़ी बढ़ गयी। घर के अन्दर ही खाता–हगता था और लगातार रोता रहता था।

19वीं सदी के अन्त और 20वीं सदी के आरम्भ में अमरीकी समाज में अलगाव/अजनबीयत की शुरुआत हो गयी थी। 1950–60 तक आते–आते वहाँ इसने गम्भीर बीमारी का रूप ले लिया। 1959 में फ्रित्ज पापेनहाइम ने एक किताब लिखी, जिसका नाम था–– द एलिएनेशन ऑफ मॉडर्न मैन। (गार्गी प्रकाशन से ‘आधुनिक मानव का अलगाव’ नाम से हिन्दी में प्रकाशित हुई है।) लेखक ने इस किताब में पश्चिमी देशों में तेजी से बढ़ रहे अलगाव, अवसाद और आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर विस्तार से चर्चा की है। इस मामले में उसने जर्मन समाजशास्त्री फर्दिनान्द टोनीज और कार्ल मार्क्स के विचारों की गम्भीर जाँच–पड़ताल की है। वे लिखते हैं, “विक्रेता और उपभोक्ता के बीच की फूट से भी गहरा अलगाव माल उत्पादक और मजदूर के बीच होता है। उनके बीच का सम्बन्ध एक ऐसी दुनिया रचता है जिसका सारगर्भित वर्णन पूँजी में किया गया है। मार्क्स लिखते हैं कि उसके प्रवेश द्वार पर लिखा हुआ है–– ‘बिना काम के प्रवेश की इजाजत नहीं...। एकमात्र शक्ति जो उन्हें साथ लाती है और एक–दूसरे के साथ सम्बन्ध जोड़े रहती है, वह है–– स्वार्थपरता, लाभ और हर एक का निजी स्वार्थ। हर व्यक्ति सिर्फ अपने आप को देखता है और कोई भी दूसरों को लेकर परेशान नहीं होता...’”

21 नवम्बर 2018 की शाम, राजस्थान के अलवर में 4 दोस्तों की सामूहिक आत्महत्या की दिल दहला देने वाली घटना घटी। चार दोस्तों ने एक साथ सामने से आ रही तेज गति की जयपुर–चंडीगढ़ ट्रेन के आगे छलांग लगा दी। पलक झपकते ही उनके चिथड़े उड़कर 500 मीटर में फैल गये। इस घटना के चश्मदीद रहे राहुल ने बताया कि उसके चार दोस्त मरने की तमन्ना लिए रेलवे पटरी की ओर जा रहे थे। हँसी–मजाक करते हुए उनमें से सत्यनारायण ने राहुल से पूछा कि अब तो मेरा जीने से मन भर गया है। हम सब तो मरेंगे, तू भी मरना चाहता है तो बता। सत्यनारायण ने आगे कहा, देख नौकरी लगेगी नहीं और खेतों में काम हमसे होगा नहीं, तो जी कर क्या करेंगे, दूसरों को तकलीफ ही देंगे। यह घटना इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि हमारी नयी पीढ़ी में अवसाद कितनी गहराई से जड़ जमाता जा रहा है। बेरोजगारी और अन्धकारमय भविष्य के चलते न तो परिवार में और न ही समाज में उनका सम्मान है। भारत में खराब लिंगानुपात के चलते जीवन साथी मिलने की उम्मीद भी क्षीण हो गयी है। इन वजहों के चलते उनके मन में दुनिया के प्रति विरक्ति का भाव पैदा हो रहा है। यह विरक्ति भयावह है जो अपराध, धार्मिक उन्माद और आत्महत्या को जन्म देने वाली है।

भारत में नाबालिग बच्चों में आत्महत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं। यह बहुत चिन्ताजनक विषय है। हर साल दुनिया भर में लगभग 8,00,000 लोग आत्महत्या करते हैं, इनमें से 1,35,000 यानी 17 प्रतिशत भारत के निवासी हैं। इनमें भी बड़ी संख्या में किशोर उम्र के नाबालिग बच्चे होते हैं। हर घण्टे एक छात्र आत्महत्या करता है। आज पूँजीवादी प्रतियोगिता ने घर में भी अपना डेरा जमा लिया है। माँ–बाप और अध्यापक के द्वारा बच्चों के ऊपर लगातार दबाव डाला जाता है कि वे अपनी कक्षा में अव्वल रहें। भविष्य में उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं का सामना करना है। कभी–कभी इसे लेकर बच्चों को पीटा भी जाता है। बच्चे का कोमल मन इन दबावों को झेल नहीं पाता। इसके चलते कम उम्र में ही बच्चे अवसादग्रस्त हो जाते हैं। धीरे–धीरे उनका तनाव अपनी चरम सीमा को पार कर जाता है और वे मौत को गले लगा लेते हैं।

अमरीका के वाशिंगटन स्थित एक विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के अनुसार, वायु प्रदूषण फेफड़े की बीमारी और डायबिटीज के अलावा डिमेंशिया जैसी मानसिक बीमारी को भी बढ़ावा देता है। डिमेंशिया (मनोभ्रंश) के रोगी की याददाश्त कमजोर पड़ जाती है जिससे सोचने में और शब्दों के चुनाव में कठिनाई होती है और वह छोटी–छोटी समस्याओं को भी सुलझा पाने में अक्षम हो जाता है। जापान में टोक्यो के वैज्ञानिकों ने पाया कि 30 साल से कम उम्र के लोगों में आत्महत्या का जोखिम नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड रसायन से जुड़ा हुआ है और चीन के गुआंगजाऊ में, इसे सल्फर डाई ऑक्साइड से भी जुड़ा पाया गया है। यानी वायु प्रदूषण बढ़ने से आत्महत्या का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के चलते सिजोफ्रेनिया (मनोविदलता) की बीमारी का भी खतरा बढ़ जाता है। इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति कल्पना और वास्तविकता में अन्तर नहीं कर पाता। वह व्यवहार में लोगों से सामंजस्य नहीं बैठा पाता। हरदम शंकालू और भयभीत रहता है। ऐसा माना जाता है कि इस बीमारी की जड़ें आनुवंशिकता, संस्कृति और पर्यावरण की समस्या में हैं। अभी तक ऐसा कोई इलाज नहीं खोजा जा सका है, जिससे इसे जड़ से मिटाया जा सके। लेकिन मनोचिकित्सक के परामर्श और इलाज से कुछ हद तक इसे काबू में किया जा सकता है।

मानसिक बीमारी की विकराल समस्या के आगे इससे निबटने की सरकार की तैयारी बिलकुल लचर है। 1980 में नेशनल मेंटल हेल्थ मिशन को शुरू किया गया था लेकिन इसे ठीक से लागू नहीं किया गया। 2015 में जारी स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में मात्र 898 मनोवैज्ञानिक क्लीनिक हैं। केवल 3800 मनोचिकित्सक, 1500 मनोबीमारी से सम्बन्धित नर्सें और 43 मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल हैं। यानी 10 लाख की आबादी के लिए एक मनोचिकित्सक है। दिल्ली के शाहदरा में ‘मानव व्यवहार और सम्बद्ध विज्ञान संस्थान’ (इहबास) है। यहाँ हालत इतनी खराब है कि सैकड़ों किलोमीटर दूर से चलकर मरीज यहाँ इलाज कराने आते हैं और रोज रात 2 बजे से लाइन में लगकर सुबह 9 बजे के बाद से अपनी बारी आने का इन्तजार करते हैं। 2011 में जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत अपने स्वास्थ्य बजट का मात्र 0.06 प्रतिशत मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है जो बांग्लादेश जैसे गरीब देश के अनुपात में 7 गुना कम है।

मानसिक बीमारी से जुड़ा जबर्दस्त सामाजिक स्टिग्मा (बदनामी का डर) है। इसके चलते लगभग 90 प्रतिशत रोगियों का समय रहते इलाज नहीं हो पाता, जबकि 99 प्रतिशत लोग इसके उपचार की जरूरत से ही इनकार करते हैं। इस मामले में धर्म और अंधविश्वास लोगों पर गहरा प्रभाव जमा लेता है। लोग मानसिक बीमारी को जादू–टोने से जोड़कर देखते हैं और रोगी को बाबा–ओझा–सोखा के हवाले कर देते हैं जो अपना उल्लू सीधा करने के अलावा कुछ नहीं करते। मिर्गी ऐसी ही बीमारी है जिसमें लोग बाबाओं के चक्कर में फँस जाते हैं। मिर्गी की बीमारी होने पर शरीर में सनसनी महसूस होती है, रोगी काँपने लगता है या फिर अचानक बेहोश हो जाता है। मस्तिष्क की चोट, स्ट्रोक, मस्तिष्क कैंसर, मानसिक कुपोषण, नशीली दवाओं और शराब के दुरुपयोग तथा अन्य कारणों के चलते मिर्गी आती है। दुनिया में 5 करोड़ और भारत के लगभग एक करोड़ लोग मिर्गी से पीड़ित हैं। इसका इलाज सम्भव है। लेकिन ओझा मरीज को बुरी तरह प्रताड़ित करते हैं। मरीज को लाल मिर्च का धुआँ सूँघने पर मजबूर करते हैं। लाठी–डंडे से पिटाई करते हैं, जिससे प्रेतात्मा मरीज के शरीर को मुक्त कर भाग जाये। दर्द और डर से मरीज ओझा की हर बात में हामी भर लेता है। कहावत है, मरता क्या न करता। कई मामलों में प्रताड़ना के चलते मरीज की मौत भी हो जाती है। अगर मरीज महिला हुई तो बाबा–ओझा उन्हें अपनी हवस का शिकार भी बनाते हैं।

29 मई 2017 को मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम पास होकर कानून का रूप ले चुका है। यह कानून मानसिक बीमारी से पीड़ित लोगों को सुरक्षा और इलाज का अधिकार देता है। इसमें पीड़ित व्यक्ति को स्वास्थ्य बीमा का लाभ दिलाने की भी बात कही गयी है, जो अब तक दुर्लभ थी। अंग्रेजों के समय से भारतीय दंड संहिता की धारा 309 चली आ रही थी जिसके तहत आत्महत्या का प्रयास अपराध माना जाता था, जिसके एवज में आरोपी के लिए एक साल तक की कैद और जुर्माने की सजा थी। नये कानून में आत्महत्या के प्रयासों को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया गया है और इसे लेकर बेहतर मानसिक उपचार मुहैया कराने का प्रावधान है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जब मानसिक बीमारी हमारी समाज व्यवस्था की देन है, तो क्या इसे महज कानून में बदलाव करके रोका जा सकता है? आत्महत्या करने वालों को दो श्रेणी में बाँटकर देखना चाहिए। पहला, आर्थिक कारणों के चलते आत्महत्या करने वाले लोग और दूसरा, वे लोग जिनकी आर्थिक जरूरतें तो पूरी हो जाती हैं लेकिन वे सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से जूझ रहे होते हैं। हमारे देश में अपने हालात से तंग आकर, जिसमें आर्थिक बरबादी मुख्य है, बहुत बड़ी संख्या में लोग आत्महत्या करते हैं। इसे मानसिक उपचार से हल नहीं किया जा सकता। ऐसी आत्महत्याओं को रोकने का सबसे कारगर उपाय लोगों की तबाह होती माली हालत में सुधारकर और उन्हें सम्मानजनक रोजगार मुहैया कराके ही किया जा सकता है।

आज मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक खुद भी उसी समस्या से ग्रस्त हैं जिसका हल निकालने की जिम्मेदारी उनके कन्धों पर है। इसलिए वे केवल बीमारी के लक्षणों का ही इलाज कर पाते हैं। बीमारी को जड़ से खत्म नहीं कर पाते। बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए उसके सही कारणों की तलाश बहुत जरूरी है। इनसान सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहकर ही अपनी आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक जरूरतें पूरी करता है। लेकिन पूँजीवाद के बढ़ते प्रभाव के चलते इनसान अपने समाज से कटता चला गया है। समाज का ताना–बाना विघटित होकर छिन्न–भिन्न हो गया है। पूँजीवाद ने स्वार्थपरता और लोभ–लालच की संस्कृति को बढ़ावा दिया है। मालिक–मजदूर से, बाप–बेटे से, पति–पत्नी से और दोस्त–दोस्त से केवल स्वार्थ के चलते जुड़ा हुआ है। पैसे ने प्रेम सम्बन्धों की जगह ले ली है। इस व्यवस्था में पैसे ने व्यक्ति से ऊपर खुद को स्थापित कर लिया है। इससे इनसान–इनसान के बीच एक बड़ी दीवार उठ गयी है, जिसे कोई भी आसानी से लाँघकर किसी दूसरे व्यक्ति के मन तक नहीं पहुँच पाता। एक तरह से हर इनसान दूसरे इनसान से बेगाना होता चला गया है। आज यह अलगाव बढ़ता हुआ अपने चरम पर पहुँच गया है। अब इनसान खुद से बेगाना हो गया है। उसे अपने अस्तित्व का भान नहीं है। वह अपनी अन्तश्चेतना से, अपनी आत्मा से दूर हो गया है। पैसे की माया ही ऐसी है।

दूषित हवा, पानी और भोजन से रोगों के खिलाफ लड़ने की शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता में गिरावट आयी है। मन, मस्तिष्क और शरीर के बीच सम्बन्धों का संचालन करने वाली चालक शक्ति न्यूरान होती है, जो हमारे स्नायु तन्त्र के जरिये काम करती है। प्रदूषण ने स्नायु तन्त्र को कमजोर बना दिया है। इनसान पूँजीवादी व्यवस्था के चलते पहले से ही अलगावग्रस्त हो गया है और तरह–तरह की मानसिक बीमारियों से पीड़ित है, तो प्रदूषण ने बीमारी से लड़ने की इनसानी क्षमता को और कम कर दिया है। हमारा समाज भी इस मामले में सचेत नहीं है। लोग इसे मानसिक बीमारी के रूप में नहीं लेते। समाज में पीड़ित व्यक्ति को ‘पागल’ घोषित करके उसका मजाक उड़ाया जाता है। इलाज के मामले में सरकारी व्यवस्था लचर है। इस दिशा में सकारात्मक शोध का भी अभाव है। नतीजतन, आज मानसिक बीमारियाँ भयावह रूप से फैल रही हैं और महामारी का रूप लेती जा रही हैं।

क्या मानसिक बीमारी को जड़ से मिटाया जा सकता है? इसका जवाब नहीं भी है और हाँ भी। हालाँकि मनोचिकित्सक की सलाह और पीड़ित व्यक्ति की अच्छी देखभाल से कुछ हद तक इन बीमारियों को काबू में किया जा सकता है। लेकिन मुनाफा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था के रहते इसे जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह व्यवस्था रात–दिन ऐसी बीमारियों को पैदा कर रही है। इसे जड़ से मिटाने के लिए पूँजीवादी व्यवस्था के स्थान पर मानव केन्द्रित व्यवस्था का निर्माण करना होगा जो मानव–मानव के बीच प्यार के परस्पर सम्बन्धों पर टिकी हो। जहाँ विघटित व्यक्तित्व वाले ‘‘मैं’’ की जगह सामूहिक चेतना सम्पन्न ‘‘हम’’ को पुन: प्रतिष्ठित किया जायेगा। ऐसी व्यवस्था जिसमें निजी स्वार्थपरता की जगह सामूहिक कल्याण की भावना को बढ़ावा दिया जाता हो और जो पर्यावरण विनाश के बजाय पर्यावरण संरक्षण पर टिकी हो। ऐसी व्यवस्था में ही न केवल इनसान–इनसान के बीच का अलगाव खत्म किया जा सकेगा, बल्कि इनसान का समाज से अलगाव और इनसान का खुद से अलगाव भी समाप्त हो पायेगा। तभी जाकर सभी तरह की मानसिक बीमारियों पर लगाम लगेगी।

Leave a Comment

लेखक के अन्य लेख

राजनीतिक अर्थशास्त्र
विचार-विमर्श
अन्तरराष्ट्रीय
समाचार-विचार
पर्यावरण
साहित्य
राजनीति
सामाजिक-सांस्कृतिक