नवम्बर 2023, अंक 44 में प्रकाशित

पश्चिमी देशों में दक्षिणपंथी और फासीवादी पार्टियों का उभार

पिछले चार दशकों के दौरान पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी विचारधारा और फासीवादी राजनीति का जबरदस्त उभार हुआ है। अगर हम पश्चिमी देशों पर नजर डालें तो पिछले एक दशक से इन देशों में इस विचारधारा का प्रसार काफी बढ़ गया है। कई देशों में शासक वर्ग ने खुद दक्षिणपंथी समूहों के निर्माण को बढ़ावा दिया है। दक्षिणपंथी समूहों ने फासीवादी संगठन, विचारधारा और राजनीति को प्रचारित–प्रसारित करने का काम किया जिसके चलते आज कई देशों में फासीवादी पार्टियाँ शासन–सत्ता की बागडोर सम्हालने की स्थिति में आ गयी हैं। हमने देखा कि पिछले साल इटली के चुनाव में दक्षिणपंथी नेता ‘जियोर्जिया मेलोनी’ ने जीत हासिल की जो फासीवाद को खुलेआम गले लगाती है। उसकी पार्टी ‘फ्रेटेली डी’ इटालिया’ एक फासीवादी पार्टी है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की ‘रिपब्लिकन पार्टी’ दक्षिणपंथी नीतियों पर चलती है और फासीवादी रुझान रखती है।

आइये, हम देखें कि दक्षिणपंथी विचारधारा की क्या विशेषताएँ हैं? इसकी सबसे पहली और सबसे बड़ी विशेषता है–– नफरत का बेरोक–टोक प्रचार–प्रसार, चाहे वह किसी दूसरी नस्ल और धर्म से हो या दूसरे देश से हो। अगर किसी दक्षिणपंथी विचारधारा में यह ताकत हो कि वह किसी देश या समाज के बहुसंख्यक हिस्से को अपने प्रभाव में ले ले और उसे वहाँ के शासक वर्ग का समर्थन भी मिल जाये, तो वह फासीवादी विचारधारा अपना लेती है। फासीवादी विचारधारा पूँजीपतियों के चन्दे और बहुसंख्यक जनता के समर्थन पर आश्रित होकर अल्पसंख्यक समुदाय के खात्मे का समर्थन करती है। इसलिए फासीवादी विचारों पर चलनेवाली फासीवादी पार्टियाँ जब सत्ता में आती हैं तो अल्पसंख्यक समुदाय के खात्मे का खतरा बहुत बढ़ जाता है और समाज के ढेरों अन्तर्विरोध बहुत तीखे हो जाते हैं। दक्षिणपंथी विचारधारा की दूसरी विशेषता है–– मेहनतकश वर्ग के निर्मम शोषण और उत्पीड़न को बढ़ावा देना और पूँजीपति वर्ग की हर तरह से मदद करना।

दक्षिणपंथी विचारधारा की तीसरी विशेषता है–– “षड्यंत्र सिद्धान्त”। आधुनिक इतिहास में, “षड्यंत्र सिद्धान्त” दक्षिणपंथी विचारधारा और फासीवादी राजनीति की एक प्रमुख विशेषता रहा है जो झूठी घटनाओं, मिथ्या तथ्यों या चतुराई से चुने गये समाचारों पर आधारित हो सकता है। जैसे इस्लामोफोबिया का प्रचार करने के लिए किसी मुस्लिम अपराधी को ऐसे पेश किया जाता है जैसे वह सिर्फ खुद ही गुनहगार न हो, बल्कि इसके लिए उसका धर्म गुनहगार है। पूरी दुनिया में इस्लाम को बदनाम करने के लिए अमरीका के साम्राज्यवादी मीडिया ने 9/11 की घटना को एक षड्यंत्र की तरह इस्तेमाल किया। मार्क्सवादी भी हमेशा दक्षिणपंथियों के निशाने पर रहे हैं। हर देश में दक्षिणपंथियों ने मार्क्सवादियों को बदनाम करने के लिए तरह–तरह की अफवाहों, मनगढंन्त किस्सों और छल–नियोजनों का सहारा लिया है। संक्षेप में कहें तो झूठ, फरेब और षड्यंत्र की चरम अभिव्यक्ति है दक्षिणपंथ। हम जर्मनी की राइखस्टाग की आगजनी की घटना के बारे में जानते ही हैं। हिटलर के गुर्गों ने उसका इस्तेमाल एक षड्यंत्र के रूप में ही किया था। हालाँकि अपने उस षड्यंत्र में बुल्गारिया के क्रान्तिकारी ग्यार्गी दिमीत्रोव को फँसाने की नाजीवादियों की चाल कामयाब न हो सकी। दिमीत्रोव ने अपने बचाव में नाजीवादी अदालत के कटघरे में जो शानदार दलीलें पेश की, वे विश्व विख्यात हो गयीं और उसने मार्क्सवाद और कम्युनिज्म की साख को काफी ऊँचा उठा दिया था।

अगर हम संयुक्त राज्य अमरीका में हो रहे मौजूदा दक्षिणपंथी उभार की बात करें तो हमें षड्यंत्र की ऐसी ही पटकथाएँ पढ़ने को मिलती हैं। वहाँ के गोरे दक्षिणपंथी नस्लवादियों ने “सांस्कृतिक मार्क्सवाद षड्यंत्र सिद्धान्त” नाम का एक विचार गढ़ा है। इस सिद्धान्त के अनुसार “सांस्कृतिक मार्क्सवाद” ने उनके समाज को अशुद्ध कर दिया है। यह “षड्यंत्र सिद्धान्त” नाजी दुष्प्रचार “सांस्कृतिक बोल्शेविज्म” की याद ताजा कर देता है। हिटलर और उसके अनुयायी समाजवादी रूस के खिलाफ नफरत का प्रचार करने के लिए “सांस्कृतिक बोल्शेविज्म” शब्द का इस्तेमाल करते थे। वे सभी तरह के धर्म–निरपेक्ष, आधुनिक और प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन को बोलेशेविक षड्यंत्र कहा करते थे। वे अपने देश की जनता को गुमराह करने के लिए कहते थे कि रूस की सरकार समाजवाद की आड़ में यहूदी बोल्शेविकवाद को बढ़ावा दे रही है जो हमारे सांस्कृतिक मूल्यों और मान्यताओं को नष्ट कर रहा है। इसी की तर्ज पर गोरे दक्षिणपंथियों ने “षड्यंत्र सिद्धान्त” को गढ़ा है।

इस “षड्यंत्र सिद्धान्त” की उत्पत्ति 1990 के दशक के दौरान संयुक्त राज्य अमरीका में हुई थी। उस समय इसका इस्तेमाल राजनीतिक गलियारों में बहुत कम होता था, लेकिन 2010 के दशक में यह मुख्यधारा की चर्चा में शामिल होना शुरू हुआ और अब यह विश्व स्तर पर पाया जाता है। माइकल मिन्निसिनो के 1992 के लेख ‘न्यू डार्क एज : द फ्रैंकफर्ट स्कूल एण्ड ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’’ को संयुक्त राज्य अमरीका में समकालीन “षड्यंत्र सिद्धान्त” का शुरुआती बिन्दु माना जा सकता है। दक्षिणपंथी राजनेताओं, कट्टरपंथी धार्मिक नेताओं, मुख्यधारा के प्रिंट और टेलीविजन मीडिया के राजनीतिक टिप्पणीकारों और श्वेत वर्चस्ववादी आतंकवादियों ने इस सिद्धान्त को खूब प्रचारित–प्रसारित किया है।

इस “षड्यंत्र सिद्धान्त” के दक्षिणपंथी अनुयायी मानते हैं कि एक योजनाबद्ध संस्कृति युद्ध के जरिये पश्चिमी समाज के ईसाई मूल्यों को नष्ट–भ्रष्ट किया जा रहा है। “सांस्कृतिक मार्क्सवादी” ईसाई मूल्यों को खत्म कर रहे हैं और उसकी जगह सांस्कृतिक रूप से उदार मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। उनका आरोप है कि इसमें फ्रैंकफर्ट स्कूल के आलोचनात्मक सिद्धान्तकारों के साथ ही पश्चिम के अन्य मार्क्सवादी विद्वान शामिल हैं, जो अकादमिक और बौद्धिक जगत में अपनी पहुँच के कारण लोगों के दिमाग को दूषित कर रहे हैं। दक्षिणपंथ के अनुयायी अमरीका के लिए कई खतरों को चिन्हित करते हैं, जिनमें अमरीकी कैथोलिक, गैर–श्वेत लोग, महिला, समलैंगिक, धर्मनिरपेक्ष मानवतावादी, यहूदी, मुस्लिम, हिन्दू, बौद्ध, अमरीकी कम्युनिस्ट, फ्रीमेसन और बैंकर शामिल हैं। अमरीकी दक्षिणपंथी रात–दिन इन समुदायों के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं।

उदारपंथी पूँजीवाद सुधारवाद और संशोधनवाद के पक्षधर मार्क्सवादियों को अपने साथ लेकर चलता रहा है, लेकिन फासीवाद इन्हें भी अपना दुश्मन मानता है। हम जानते हैं कि आज यूरोपीय देशों और अमरीका में फ्रैंकफर्ट स्कूल के सुधारवादी और व्यवस्थापोषक मार्क्सवादियों का बोलबाला है। पूँजीवादी घेरे में ऐसे विचारकों को काफी बढ़ावा मिला क्योंकि ये पूँजीवाद की आलोचना तो करते हैं, लेकिन उसे समाजवाद से बेहतर विकल्प मानते हैं। इनका मत है कि साफ–सुथरा और अहिंसक पूँजीवाद एक अच्छा विकल्प है जबकि ये रूस और चीन के समाजवाद को सही नहीं मानते। इसके चलते इन विकसित पूँजीवादी देशों में इनके विचारों का काफी फैलाव हुआ है और पूँजीपति वर्ग ने भी इन तथाकथित मार्क्सवादियों पर काफी भरोसा जताया है जबकि रूस और चीन के समाजवाद के पक्षधर क्रान्तिकारी मार्क्सवादी हमेशा पूँजीपति वर्ग के निशाने पर रहे हैं।

लेकिन जैसा कि हमने देखा है कि दुनिया भर के नाना प्रकार के दक्षिणपंथी, चाहे वे किसी भी विचारधारा के अनुयायी हों, प्रगतिशीलता, तार्किकता और वैज्ञानिक विचारों को रत्तीभर भी बर्दाश्त नहीं कर सकते, वे यूरोपीय देशों और अमरीका के न केवल सच्चे मार्क्सवादियों, बल्कि फ्रैंकफर्ट स्कूल के विचारकों, मानवतावादियों और सभी प्रगतिशील शक्तियों के खिलाफ हैं। मार्क्सवादी विचारक और इनके सिद्धान्त आज दक्षिणपंथियों के निशाने पर हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान फ्रैंकफर्ट स्कूल के अनुयायी हिटलर के निशाने पर थे। हालाँकि बाद के दौर में, फ्रैंकफर्ट स्कूल के विचारकों ने झूठी चेतना पैदा करने की मास मीडिया की क्षमता के बारे में चेतावनी भी दी और हिटलर जैसे उस सर्व–सत्तावादी व्यक्तित्व की अवधारणा की आलोचना की, जिससे आकर्षित होकर जनता उदार लोकतंत्र में भी फासीवादी आन्दोलन की ओर चली जाती है। उन्होंने उस समय के “पश्चिमी पूँजीवादी समाज” को विकल्प के रूप में पेश किया जो उनकी नजर में आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता पर टिके थे। आज पश्चिम में जिस मार्क्सवाद के पराजय की बात हो रही है, वह इन्हीं का नकली मार्क्सवाद है जो दक्षिणपंथियों के खिलाफ लड़ने में नख–दन्त विहीन साबित हो चुका है।

वास्तव में, दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देशों में मार्क्सवाद के फैलाव और क्रान्ति का खतरा बना हुआ था, तब इन देशों के शासक वर्ग ने सुधारवादी राजनीति और छद्म मार्क्सवादी विचारधारा की जरूरत महसूस की। इन देशों ने कल्याणकारी नीतियों को लागू किया जिससे मजदूर वर्ग के एक हिस्से को इसका फायदा भी पहुँचा, वह मध्यम वर्ग में शामिल हो गया और पूँजीवादी व्यवस्था का समर्थक बन गया। वह क्रान्ति से दूर हो गया और केवल सुधारों के लिए ही संघर्ष करता रहा, हालाँकि उसका यह संघर्ष भी समय के साथ कमजोर पड़ता गया। दूसरी ओर, शोषक–उत्पीड़क शासक वर्ग ने क्रान्तिकारी मार्क्सवाद पर हमले जारी रखे और किस्म–किस्म के छद्म मार्क्सवादी विचारों को खुलकर बढ़ावा दिया।

1990 के दशक के बाद, शासक वर्ग ने धीरे–धीरे कल्याणकारी नीतियों से पीछा छुड़ाया। जनता का शोषण–उत्पीड़न जरूरत से ज्यादा बढ़ा दिया गया। अब शासक वर्ग को ऐसी विचारधारा की जरूरत महसूस होने लगी जो जनता को इतना गुमराह कर दे जिससे वह सुधारों के लिए भी न लड़ सके। इसके लिए दक्षिणपंथी विचारधारा सबसे मुफीद होती है। अब ऐसा लगता है कि पश्चिमी देशों का पूँजीवादी शासक वर्ग दो गुटों में बँट गया है, पहला, उदारवादी राजनीति को लेकर आगे बढ़ रहा है, अमरीका में जो बाईडेन इसके प्रतिनिधि बनकर सामने आते हैं और दूसरा, धुर दक्षिणपंथी राजनीति को आगे बढ़ा रहा है, अमरीका के ही डोनाल्ड ट्रम्प इसके प्रतिनिधि नजर आते हैं। हालाँकि दोनों गुट ही पूँजीवाद–साम्राज्यवाद की तहे दिल से सेवा करते हैं। दोनों ही फिलिस्तीनी बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों के कत्लेआम की इजराइली कार्रवाई को भरपूर समर्थन देते रहे हैं। जो बाईडेन को किसी भी तरह प्रगतिशील मानना भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं है। लेकिन इतना अन्तर तो है ही कि डोनाल्ड ट्रम्प की पूरी राजनीति नस्लवादी दक्षिणपंथी विचारधारा पर आधारित है जबकि इस विचारधारा के फैलाव के कारण जो बाईडेन को चुनाव में नुकसान उठाना पड़ता है।

अनुकूल परिस्थिति पाकर पश्चिम के देशों में फासीवाद का नया वर्जन सामने आया है जिसे नव–फासीवाद नाम दिया जा रहा है। काफी समानता के बावजूूद यह हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद से कुछ मायनों में भिन्न है। नव–फासीवादी विचारधारा में कई प्रवृत्तियाँ शामिल हैं जैस––अतिराष्ट्रवाद और अन्धराष्ट्रवाद, नस्लीय वर्चस्व, लोक–लुभावनवाद, अधिनायकवाद, मूलनिवासीवाद, विदेशियों से नफरत और अप्रवास–विरोधी भावना। नव–फासीवादी उदार लोकतंत्र, सामाजिक लोकतंत्र, संसदवाद, उदारवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद और समाजवाद का विरोध करते हैं और वे तानाशाही शासन को किसी भी लोकतांत्रिक शासन से बेहतर बताते हैं।

अमरीका में दक्षिणपंथियों की गतिविधियों पर नजर डालें तो हमें पता चलता है कि वे तमाम तरह के अतिवादी विचारों से प्रेरित होते हैं जिसके चलते वे नारीवादियों, एलजीबीटी सामाजिक आन्दोलनों, धर्मनिरपेक्ष मानवतावादियों, बहुसंस्कृतिवादियों, यौन शिक्षकों, पर्यावरणविदों, अप्रवासियों और काले राष्ट्रवादियों तथा दूसरे सुधारवादी आन्दोलनों से नफरत करते हैं। ये नफरत करने तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि अपने विरोधियों पर कातिलाना हमले भी करते हैं। भारत में हम इसे अच्छी तरह जानते हैं जहाँ किसी व्यक्ति की दक्षिणपंथी समूह द्वारा इसलिए पीट–पीटकर हत्या कर दी गयी क्योंकि वह मुसलमान था। अमरीका और यूरोप में भी ऐसी घटनाएँ अपवाद नहीं हैं और पिछले दशक से ऐसी घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। हालाँकि यहाँ मुसलमान के साथ–साथ दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय–– हिन्दू, बौद्ध, यहूदी, अफ्रीकी भी निशाने पर होते हैं।

1870 के दशक से शुरू होकर 19वीं सदी के अन्त तक, दक्षिण अमरीका में कई श्वेत वर्चस्ववादी अर्धसैनिक समूहों ने रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों को संगठित करने और विरोधियों को डराने–धमकाने का काम किया। ऐसे समूहों के उदाहरणों में लिली–व्हाइट आन्दोलन, कू क्लक्स क्लान, रेड शर्ट्स और व्हाइट लीग आदि शामिल हैं। लिली–व्हाइट आन्दोलनकारियों ने नागरिक अधिकारों और रिपब्लिकन पार्टी में अफ्रीकी–अमरीकियों को शामिल करने का विरोध किया था, ये 19वीं सदी के अन्त और 20वीं सदी की शुरुआत में सक्रिय थे। 1915 में गठित दूसरा कू क्लक्स क्लान ने कैथोलिक और यहूदी लोगों के खिलाफ हिंसक गतिविधियों को अंजाम दिया। उसने अपने श्वेत वर्चस्व को स्थापित करने के लिए दक्षिणपंथी उग्रवाद, प्रोटेस्टेण्ट नैतिकता और कट्टरतावाद का सहारा लिया।

1990 के दशक से ऐसे समूहों की गतिविधियों में फिर से तेज उभार आया है। इसी दौरान थ्री पेर्सेण्टर, अमरीकन फ्रीडम पार्टी, ओथ कीपर, ट्रेडिशनल वर्कर पार्टी, वैनगार्ड अमरीका, आइडेंटिटी एवरोपा, प्राउड बॉयज, पैट्रिओट प्रेयर, पैट्रियट फ्रण्ट और ग्रॉइपर्स आदि दक्षिणपंथी संगठन बने और बहुत सक्रिय रहे। 2001 में 11 सितम्बर के हमलों के बाद, “अमरीका के इस्लामीकरण को रोकें” जैसे समूहों ने अमरीकी दक्षिणपंथियों के बीच लोकप्रियता हासिल की। वे अमरीका में रहने वाले मुसलमानों को एक बड़ा खतरा मानते हैं। वे इस्लाम धर्म से नफरत करते (इस्लामोफोबिक) हैं। ग्रॉइपर्स या ग्रॉइपर आर्मी भी श्वेत नस्लवादी, उग्र–राष्ट्रवादी और अति–दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं का एक ऐसा ही समूह है, जो संयुक्त राज्य अमरीका में अति–दक्षिणपंथी राजनीति को मुख्यधारा में लाने का जीतोड़ प्रयास कर रहा है।

राजनीतिक वैज्ञानिक गैरी जैकबसन का अनुमान है कि रिपब्लिकन मतदाताओं के 20 से 25 प्रतिशत को अतिवादी–दक्षिणपंथी माना जा सकता है। इससे साफ पता चलता है कि अमरीका तक में जनता का कितना अधिक फासीवादीकरण हो चुका है।

कमोबेश यही हालत यूरोप के अलग–अलग देशों की हो रही है। क्रोएशिया में मिरोस्लाव स्कोरो के धुर दक्षिणपंथी ‘होमलैण्ड मूवमेण्ट’ के नेतृत्व वाला गठबन्धन 2020 के संसदीय चुनाव में 10–9 प्रतिशत वोट और 16 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रहा। 2012 में स्थापित एस्तोनिया की धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टी ‘कंजर्वेटिव पीपुल्स पार्टी’ ने 2019 के एस्तोनियाई संसदीय चुनाव के दौरान 12 से बढ़कर 19 सीटें हासिल कीं। 2013 में स्थापित स्पेन की धुर–दक्षिणपंथी पार्टी ‘वॉक्स स्पेन’ ने अप्रैल 2019 के चुनाव में आश्चर्यजनक रूप से 24 सीटें प्राप्त कीं। हंगरी में 3 अप्रैल 2022 को हुए चुनाव में दक्षिणपंथी फिडेज–क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पीपुल्स पार्टी को 135 सीटें मिलीं। स्वीडन में 11 सितम्बर 2022 को हुए चुनाव में धुर–दक्षिणपंथी ‘स्वीडन डेमोक्रेट्स’ पार्टी ने 73 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गयी। इटली में 25 सितम्बर 2022 को हुए आम चुनाव में सबसे बड़ी धुर दक्षिणपंथी पार्टी ‘लेगा नॉर्ड’ ने चैम्बर ऑफ डेप्युटीज (निचले सदन) में 125 सीटें और सीनेट (उच्च सदन) में 58 सीटें हासिल कीं। इसी तरह फिनलैण्ड में ‘फिन्स पार्टी’ और हेल्लेनिक में ‘स्पार्टन’ पार्टी दक्षिणपंथी नीतियों पर चल रही हैं। यहाँ चुनाव लड़ने वाली कुछ दक्षिणपंथी पार्टियों का जिक्र भर किया गया है, इनसे अलग यूरोप के ज्यादातर देशों में दक्षिणपंथी संगठनों और राष्ट्रवादी पार्टियों में जबरदस्त उभार आया है जो काफी चिन्ता की बात है।

इन तथ्यों से साफ है कि आज फासीवाद एक वैश्विक परिघटना बन चुका है। न केवल भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश, बल्कि यूरोप और अमरीका के देश दक्षिणपंथी विचारधारा और फासीवादी पार्टियों की गिरफ्त में फँसते जा रहे हैं। फासीवाद साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी के असा/य संकट की उपज है जिसकी अन्तिम परिणति अराजकता और विनाश हो सकती है, या क्रान्तिकारी बदलाव। फासीवादी और /ाुर दक्षिणपंथी समूह क्रान्तिकारी बदलाव से भयभीत पूँजीपति वर्ग का आखिरी सहारा है। अगर इनसानियत के इन दुश्मनों को रोका नहीं गया तो वे एक बार फिर दुनियाभर की जनता को युद्ध और तबाही की ओर धकेल देंगे।

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