भगवानपुर खेड़ा, मजदूरों की वह बस्ती जहाँ न रवि पहुँचता है, न कवि!
(कोरोना महामारी और लॉकडाउन की सबसे बुरी मार मजदूर वर्ग पर पड़ रही है। जमीनी हालात का पता लगाने के लिए और राहत देने के लिए विकल्प मंच, शाहदरा के सदस्य कई किराये के मकानों में गये, जहाँ बड़ी संख्या में मजदूर रहते हैं। वहाँ जिस तरह के हालात देखने को मिले, वह कल्पना से परे है। यहाँ उसकी ग्राउण्ड रिपोर्टिंग दी जा रही है। हमारी आपसे गुजारिश है कि हमें अपनी प्रतिक्रिया से जरुर अवगत कराएँ।)
गरीबी, कंगाली, जहालत भरी जिन्दगी जीते भिखारी तो देखे थे, मगर मजदूर जो दुनिया का सृजनकर्ता है, जिसके दम पर सारी फैक्ट्रियाँ, नगर निगम के काम, सार्वजनिक साफ–सफाई, हॉस्पिटल के तमाम काम चलते हैं, उसकी ऐसी बुरी दुर्दशा हो रही होगी, इसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। मजदूरों की हालत को जब नजदीक से जाकर देखा, तो हमारी साँसे हलक में ही अटक गयीं।
तीन फुट चैड़ी एक गली, जिस गली में सूरज की रोशनी भी नहीं पहुँचती। उस गली में भरी दोपहरी में अंधेरा रहता है। गली में घुसते ही अजीब सी बदबू सनसनाते हुए नाक में घुस गयी और उसने हमारे जेहन को जकड़ लिया। ज्यादातर लोग घर के बाहर बैठे मिल गये। आते–जाते लोगो को देखने के अलावा शायद अब उनके पास कोई काम नहीं है, जिससे उनका वक्त भी कटे।
जब हम एक चार मंजिला मकान में घुसे तो बाहर से लेकर अन्दर तक पूरे मकान में सीलन थी और दीवारों से पपड़ियाँ उखड़ रही थीं। शायद सीलन और पपड़ियाँ वहाँ रहने वालों का ध्यान बामुश्किल ही खींच पाती हो।
अब हम एक ऐसे जीने से पहली मंजिल पर पहुँचे, जिसकी चैड़ाई इतनी कम थी कि बामुश्किल एक आदमी जा सकता है, दूसरी तरफ के व्यक्ति को रुककर इन्तजार करना पड़ता है। पहली मंजिल पर पांच कमरे हैं, जिनमें से सभी की लम्बाई और चैड़ाई लगभग 6 गुना 6 फुट की होगी। पहले कमरे में एक औरत मिली जो तीन बच्चों और पति के साथ रहती है। पति क्या करता है? यह पूछने पर उसने जवाब दिया कि ठेला चलाते हैं। एक हफ्ते से काम पर नहीं गये। अब पता नहीं कब काम मिलेगा? हमारे घर में आज शाम के लिए ही आटा बचा हुआ है। आगे भगवान ही मालिक है। क्या होगा? यह कहते हुए उसके चेहरे पर अथाह पीड़ा थी और चिन्ता की लकीरें उसकी झुर्रियों में बदल गयीं थीं।
हमने घर के अन्दर ताक–झांक की। चार डब्बे रसोई होने की कोशिश कर रहे थे, जो खाली हो गये थे। जमीन पर चटाई भी नहीं थी। बेड की बात कौन करे? पूरा फर्श गन्दगी से काला हो गया था। घर में कोई खिड़की या रोशनदान भी नहीं था। था तो केवल एक बल्ब, जो बहुत बुझी–बुझी रोशनी फैलाने की कोशिश कर रहा था। अब आगे कुछ पूछने की हमारी हिम्मत नहीं हुई। बस हमने इतना कहा कि शाम तक हम दोबारा आते हैं आपके लिए कुछ राशन लेकर।
अगले कमरे के लिए एक ही कदम बढ़ाना पड़ा। इस कमरे में 6 लोग रहते हैं। आप लोग क्या काम करते हो? ऐसा पूछने पर उन्होंने बताया कि चैन कुप्पी का काम करते हैं। चैन कुप्पी का क्या काम होता है? यह हमारी समझ के बाहर था। उन्होंने बताया कि शाहदरा फलाईओवर के नीचे हम रोज जाते है। वहाँ से हमको 400 रुपये दिहाड़ी पर कोई भी ठेकेदार ले जाता है। दिल्ली में किसी भी फैक्ट्री में, जहाँ ट्रक में भारी सामान लोड होता है, उसे दूसरी जगह पर अनलोड किया जाता है। हम सब मिल कर भारी सामान को चैन लगाकर रॉड के सहारे चढ़ाते हैं। यानी वे हैवी लेबर का काम करते हैं और बदले में पूरे दिन की मजदूरी 400 रुपये ही मिलती है। फिर हमने पूछा कि काम रोज मिल जाता है क्या? उन्होंने कहा कि महीने में 15 से 20 दिन काम मिल जाता है। मगर अभी तो कोई काम ही नहीं है। घर पर ही पड़े रहते हैं। 2 दिन का राशन ही बामुश्किल बचा है। यहाँ हमारे मध्यम वर्ग के पाठक के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि 400 रुपये दिहाड़ी का काम 15 से 20 दिन मिल जाये, तो भी हर महीने छ: से आठ हजार बनते हैं, फिर उनकी हालत इतनी खराब क्यों है? पहला, महीने के हजार रूपये किराए के चले गये, क्योंकि शाहदरा जैसी जगह पर एक छोटे कमरे का किराया भी पांच से छ: हजार मासिक है। बाकी उनके खाने और दवा में खर्च हो जाता है, जिसमें से बचाकर उन्हें अपने परिवार को भी गाँव में भेजना होता है, क्योंकि उन पर कुछ और लोग निर्भर होते हैं।
कमरे के आकार की तरफ हमारा ध्यान जाना लाजिमी था। इतने छोटे से कमरे में छ: लोग एक साथ कैसे सोते होंगे? खाना बनाने से लेकर दिनचर्या के बाकी के काम उसी छोटे कमरे में कैसे करते होंगे? उनके जिस्म की खाल हड्डियों से चिपकी हुई थी। जो उनके द्वारा किये गये लम्बे अथक परिश्रम की गवाह हैं जो ढकेलते हैं दुनिया के पहिये को और नहीं खाते कोई विटामिन और प्रोटीन!
इस बिल्डिंगनुमा मकान में पुताईवाले, घरों में पीओपी करनेवाले, लकड़ी पर पोलिश करनेवाले, ठेला चलानेवाले और दूसरे कई पेशों से जुड़े लोग रहते हैं। मगर न तो वो अपनी जिन्दगी की गाड़ी को ठेल पा रहे थे, न ही उनके कमरो में कोई पीओपी की महक थी, न ही फर्नीचर नुमा कोई चीज, न दीवारों पर कोई रंग। मौजूद थी दीवारों पर पपडियाँ, सीलन, दमघोंटू हवा, बेचैन करने वाली उमस।
बेचैनी के साथ अगले कमरे की तरफ मुड़ा तो दरवाजा बन्द। खटखटाने पर आधा दरवाजा खुला,। कमरे के अन्दर रोशनी नहीं है। जब मैंने उससे पूछा कि आपके पति कहाँ है? तो वह बोली कन्नौज गये थे, काम के लिए अब तक नहीं लौटे हंै। शायद वह भी लॉकडाउन में वहीं फँस गये हैं। पूछने पर पता चला कि दो छोटे बच्चे भी उस कमरे में रहते हैं। और एक उसकी कोख में, जो बात वह नहीं बता पायी। उसके चहरे पर एक अनजाना डर था। शायद उस 15 कमरों की बिल्डिंगनुमा मकान में 125 लोगों के बीच अकेली महिला होने का डर। हमने पूछा घर पर कुछ खाने के लिए है क्या? वह बोली कुछ भी नहीं। अब मेरी हिम्मत नहीं हुई कि यह पूछ सकूँ कि कितने दिन से नहीं है। बस यह कह पाया कि हम कुछ राशन लेकर आते है। आप चिन्ता न करो। पता नहीं यह दिलासा मैं उसे दे रहा था या अपने आप को।
जिस भी कमरे में हम गये, सभी का हाल खराब था। एक बैचैनी और तड़प लेकर हम बाहर आये। एक अजीब कशमकश के साथ हम अगले मकान की ओर चले। इस मकान की पहली मंजिल पर कुछ कमरे थे, जिन्हें तीन कमरे कहूँ या 4 कमरे, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। फिर भी बताने की कोशिश करता हूँ। हम जिस जीने से होकर पहली मंजिल पर पहुँचे, उस जीने की चैड़ाई एक से सवा फुट होगी। जी नहीं, लिखने में या मेरे देखने में कोई चूक नहीं हुई। उस जीने की चैड़ाई सवा फुट से ज्यादा नहीं होगी।
उसमें भी दो घुमाव थे। पहली मंजिल पर मकान मालिक की बहू रहती है। दूसरी मंजिल का जीना भी सवा फुट चैड़ा ही था। जिसमें दो घुमाव और थे और झुकने के बाद भी सिर ऊपर न टकरा जाये इसलिए ऊपर वाला हिस्सा शायद हथोड़े से तोड़ा गया था। किसी तरह हम दूसरी मंजिल पर पहुँचे। जीने के ठीक सामने एक कमरा था जिसमें झाकने की मेरी इच्छा हुई। झाँकने के साथ ही कमरा खत्म हो गया। शायद उसे जबरदस्ती कमरा बनाया गया था उसकी लम्बाई और चैड़ाई 6 गुना 3 फुट ही होगी। उसमें दो लड़के रहते थे। एक छोटा गैस सिलेण्डर और दो बर्तन थे। उनके लिए आज दिन का खाना मकान मालकिन ने ही दिया था और 200 रुपये भी। वे दोनों लड़के 20–20 साल के होंगे जो बेलदारी करते हैं।
उसी से लगा हुआ एक और कमरा था, जिसमें चार लड़के रहते हैं। जिनकी उम्र 15–18 साल के बीच होगी। चारों ही ठेकेदार के नीचे पीओपी का काम करते हैं। उनको 250 रुपये प्रति दिन मिलता है। यह काम वे पिछले 2 साल से कर रहे हैं। कमरे में न कोई चटाई है, न कोई बिस्तर और न ही कोई सामान। बस दो चार बिखरे हुए कपड़ों के अलावा कुछ नजर नहीं आया।
उसी मकान में दो कमरे के अलावा लगभग चार फुट की जगह और बच गयी थी। उसे लकड़ी के फट्टे लगा कर कवर किया हुआ था। उसमें एक ताला भी लगा था। मन में जिज्ञासा पैदा हुई तो पूछ लिया कि यह क्या है? लड़का बोला कि जो इसमें रहता है, वह बाहर गया है। अभी यहाँ नहीं है। मैंने कहा कि यह जगह किसी आदमी के रहने के लिए नहीं हो सकती किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने फट्टों के बीच की खाली जगह से झांककर देखा तो उसमें कुछ कपड़े दिखायी दिये।
मुझे लगा कि कोरोना से शायद बच गये तो गरीबी और भूख इनको निगल जायेगी। सरकार हवाई घोषणाएँ करती रहेगी। प्रशासन निष्ठुर बना रहेगा। घरांे में दो महीने का समान भरनेवाले सज्जन सोचते हैं कि अब कोई भूखा नहीं सो रहा होगा। लेकिन जमीन पर हालात कैसे हैं, यह लोगों के बीच जाकर ही पता चलता है।
तीसरे मकान की तीसरी मंजिल पर एक रसोई में भी एक आदमी रहता है, जिसका किराया 1500 रुपये महीना है। शायद अब रसोई को भी कमरा कहना होगा। जीने के नीचे बची जगह को भी क्या एक अदद कमरा कह सकते हैं? जी हाँ, उसमें भी दो नौजवान लड़के रहते हैं, जो कॉपर फैक्ट्री में तार खिंचाई का काम करते थे, लेकिन अब नहीं।
ये सब हकीकत है। हमने इसे अपनी आँखों से देखा है। जिसे विश्वास नहीं उसे मैं खुला निमंत्रण दे रहा हूँ कि आओ, देश की राजधानी दिल्ली के शहादरा इलाके में, मैं आपको ये नजारे नंगी आँखों से दिखाउँगा। आप आयें और जरुर आयें। आप दिल्ली में चमचमाती मेट्रो, शॉपिंग मॉल, लग्जरी गाड़ियाँ, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दिल्ली के मुख्यमंत्री आदि के शानदार निवास स्थान जरूर देखें। लेकिन मेरे दोस्त एक अदद निगाह उधर भी डाल लें, जिधर न केवल धन की देवी लक्ष्मी देखने से परहेज करती हैं, बल्कि जहाँ हर तरह की संस्कृति या मानव विकास की तमाम उपलब्धियाँ कहीं दिखायी नहीं देतीं। यहाँ जो हमने देखा, उसके बाद ऐसा लगता है कि तमाम नैतिकता और आदर्शों की बातें पाखण्ड हैं। लेकिन जिन्दगी कभी हार नहीं मानती। आँखों में एक ख्वाब लिए आगे बढ़ती जाती है। अगर उनके ख्वाबों के साथ हम आपने ख्वाब जोड़ लें तो हमें एक नयी दिशा मिलती है। इन ख्वाबों को एक न एक दिन जमीन पर जरूर उतारा जायेगा।